इस बार खूब बंटी गंजी,टोपी,जूते। खूब बांटे गये विज्ञापन। स्टीकर पोस्टर से पट गये शहर दर शहर। नारों ने जगाये सपने। लगता है अच्छी होगी वोट की फसल। बीएचयू के लॉ फैक्लटी की दीवार पर चस्पां यह पोस्टर बनारस के चुनावी हुडदंग की अनकही कहानी बया करता है। जो नेता भी बनारस के जमीन पर पैर रखने से कतराये और उड़नखटोले से बनारस के बाबतरपर से सीधे बीएचयू के हैलीपैड पर उतरे। बीएचयू उनके लिये बदल गया। और राजनेताओं को संभाले राजनीतिक दल भी छात्रों के लिये बदल गये। जो बांटा गया। जो बंटा । और बांटने के नाम पर जो खा गये। सभी का कच्छा चिट्टा इतना पारदर्शी हो गया कि रिबॉक के जूते से लेकर नारे लिखे गंजी और टोपिया बीएचयू के हॉस्टल में खेलने और पोंछने के सामान बन गये। मोटरसाइकिल पर निकलते काफिले के नारे उतनी ही दूर तक गये जितना पेट्रोल गाड़ी में भरवाया गया। आवाज भी लंका चौक पर नेताओं के हार से छुपी पड़ी मदनमोहन मालवीय की प्रतिमा से आगे नहीं गूंजी। लेकिन शहर के भीतर घाट के सवाल। या फिर पप्पू चाय की दुकान पर चर्चा का उबाल। संकेत हर तरफ यही निकला कि गंगा को जिसने बुलाया वह गंगा के तट पर क्यों नहीं गया। जो मोदी के नाम पर बनारस आ गया, वह गंगा के तट पर बार बार गया। सवाल यह भी उठे कि बनारस के सरोकार से दूर बनारस के इतिहास के आइने में हर कोई चुनावी कहकहरा पढ़ाकर इतिहास बदलने की सोच से क्यों हंगामा कर रहा है। बनारस के सिगर में सिर्फ पांच सौ मीटर के दायरे में कमोवेश हर राजनीतिक दल के हेडक्वार्टर के भीतर बनारसी से ज्यादा बाहरी की तादाद क्यों है। बनारस की सड़कों पर हाथ में झाडू लिये प्रचारकों को संघ के प्रचारक से पॉलिटिसिशन बन चुके मोदी के भक्त पीटने से नहीं कतराते है और पिटने के बाद भी हाथ ना उठाने की कसम खा कर निकले झाडू थामे प्रचारक खामोशी से घायल होकर आगे बढ़ जाते हैं। शहर में कोई स्पंदन नहीं होता, वह देखता है। शायद दिल में कुछ ठानता है। क्योंकि वक्त खामोश रहने का है।
घर घर दरवाजा खटखटाते प्रचारक या तो कमल लिये हैं या फिर झाडू। कोई गुजरात से आया है तो कोई दिल्ली से। बनारसी हर कतार को सिर्फ गली दिखाता है। खुद गली के मुहाने पर खडा होकर सिर्फ निर्देश देता है। उनसे यह कह देना। बाकि कोई परेशानी हो तो बताना। हम यही खड़े हैं। और चाय या पान के जायके में बनारसी प्रचारक इसके आगे सोचता नहीं। जबकि अपने अपने शहर छोड बनारस की गलियों को नापते लोग सिर्फ यही गुहार लगाते हैं। बनारस इतिहास बदलने के मुहाने पर खड़ा है। फैसला लेना होगा । घर से इसबार वोट देने जरुर निकलना होगा। हाथ में स्टीकर या नारों की तर्ज पर पोस्टर बताने लगते है कि दिल्ली से आया केजरावाल बनारस के रंग में रंग रहा है। और बनारस का होकर भी बीजेपी गुजरात के रंग को छोड नहीं पा रहा है। कमल के निशान के साथ सिर्फ एक लकीर, मोदी आनेवाले हैं। या फिर इंतजार खत्म। मोदी आनेवाले है। वहीं झाडू की तस्वीर तले, मारा मुहरिया तान के झाडू के निशान पे। या फिर १२ मई के दिन हौवे, झाडू के निशान हौवे। बदले मिजाज समाजवादियों के भी हैं। पर्ची में अब नेता नहीं आपका सेवक लिखा गया है। लेकिन लड़ाई तो सीधी है। २८४९३ लैपटॉप बांटॉने का नंबर बताकर अखिलेश की तस्वीर वोट मांगती है। या पिर नेताजी की तस्वीर तले ४८२९१३६ बेरोजगारों का जिक्र कर उन्हें भत्ता देने की बात कहकर उपलब्धियों से आगे बात जाती नहीं। लेकिन इन्ही तरीकों ने पहली बार बनारस को एक ऐसे संघर्ष के मुहाने पर ला खडा किया है जहा बनारस का रस युद्द का शंख फूंकता कुरुक्षेत्र बन चुका है। चुनावी लीला है तो मोदी केजरीवाल आमने सामने खड़े हुये हैं। यूपी के क्षत्रप हार मान चुके है । जातीय समीकरम टूट रहे है। तो मुलायम हो या मायावती, दोनो ही केजरीवाल का साथ देने से नही कतरा रहे हैं। तो दोनो के उम्मीदवार अपनो को समझा रहे है इसबार लड़ाई हमारी नहीं हमारे नेताजी और बहनजी के अस्तित्व की है । कभी कभी अपनी ही बिसात पर वजीर छोड प्यादा बनना पड़ता है। पटेल समाज की अनुप्रिया पटेल भी मिर्जापुर में ब्राह्मणों के वोट अपने पक्ष में करने से हारती दिख रही हैं। तो बीजेपी को साधने से नहीं चुक रही हैं। और चेताने से भी कि ११ बजे के बाद पटेल झाडू को वोट दे देंगे अगर बीजेपी ने ब्राह्मणों के वोट मिर्जापुर में उन्हें ना दिलाये तो। लेकिन इस तो में बनारस की लीला भी बनारस को कुरुक्षेत्र मान कर यह कहने से नहीं चुक रही है कि युद्ध में एक सज्जन के खिलाफ कई दुर्जन जुटे हैं। और न्याय के युद्द में ऐसा ही होता है। लेकिन यह आवाज उन ना तो घाट की है ना ही चाय के उबाल की। यह परिवार के भीतर से आवाज गूंज रही हैं। जो समूचे बनारस में छितराये हुये है। लेकिन परिवार की दस्तक जैसे ही मोदी को चुनावी युद्द का नायक करार देती है वैसे ही राम मंदिर और दारा ३७० का सवाल बनारस की उन्हीं गलियो में गूंजने लगता है जिसे मोदी कहने से कतरा रहे हैं। बनारस बीस बरस बाद दुबारा परिवार की सक्रियता भापं रहा है। वादे बीस बरस पहले भी हुये थे और सत्ता दस बरस पहले भी मिली थी। नगरी एतिहासिक संदर्भो को गर्भ में छुपाये हुये है तो जिक्र इतिहास का चुनावी मौके पर हो सकता है, यह परिवार के लिये बारी है । क्योंकि बीजेपी के यूथ तो बूथ में बंटेंगे और परिवार की दस्तक से जो परिवार घर से बूथ तक पहुंचेंगे, वह अपनी किस्सागोई में जब अयोध्या आंदोलन के नाम पर ठहाका लगाने से नहीं चूक रहे, वैसे में परिवार पर भी मोदी का नाम ही भारी है। लेकिन मुश्किल यह है कि बीजेपी का संगठन फेल है। और अगर फेल नहीं है तो मुरली मनमोहर जोशी और राजनाथ के गुस्से या रणनीति ने फेल कर दिया है। और वहीं पर परिवार की दस्तक विहिप से लेकर किसान संघ और गुजरात यूनिट से लेकर दिल्ली समेत १८ शहरों के बीजेपी कार्यकर्ता मोहल्ले दर मोहल्ले भटक रहे हैं। सैकडों को इसका एहसास हो चुका है कि आखिर वक्त तक बनारस में रहना जरुरी है तो कार्यकर्त्ताओं और स्वयंसेवकों के घर को ही ठिकाना बना लिया गया है। कोई प्रेस कार्ड के साथ है तो कोई साधु-संत या पंडित की भूमिका में है। चुनावी संघर्ष की अजीबोगरीब मुनादी समूचे शहर में है। गांव खेड़े में है। करीब तीन सौ गांव में या तो संघ परिवार घर घर पहुंचा या फिर झाडू थामे कार्यकर्ता। जो नहीं पहुंचे उनका संकट दिल्ली या लखनउ में सिमट गया। लखनऊ ने तो घुटने टेक समर्थन देने का रास्ता निकाल लिया है। लेकिन दिल्ली में सिमटी कांग्रेस का संकट राहुल गांधी से ही शुरु हुआ और वही पर खत्म हो रहा है। राहुल के रोड शो का असर कैसे बेअसर रहे इसे चुनाव परिणाम ही बता सकते है। तो दिल्ली में कांग्रेस की सियासत को थामने के लिये बैचेन काग्रेसी नायकों की कमी नहीं है। वैसे में राहुल कांग्रेस को ही बदलना चाहते है। तो कांग्रेसियो के खेल बनारस को लेकर निराले है । काग्रेस का राहुल विरोधी गुट लग गया है कि अजय राय पिछडते चले जाये या हर कोई मोदी और केजरीवाल की लडाई में शामिल हो जाये । यानी पिंडारा के विदायक जिनका अपना वोटबैंक ही परिसीमन के खेल में बनारस से मछलीशहर चला गया और दुश्मन नंबर एक ने समर्थन देकर सामाजिक काया भी तोड दी वह दिल्ली के काग्रेसियो के खेल में सिर्फ लोटा बनकर रह गया है । जिसके आसरे अस्सी घाट पर पानी भी नहाया भी नहंी जा सकता है । तो बनारस के इस रंग में किसके लिये अच्छी होगी वोट की फसल और बनारस कैसे इतिहास रचेगा यह एहसास महादेव की नगरी में चुनावी तांडव से कम नही है । |
शुक्रवार, 23 मई 2014
मोदी-केजरीवाल के न्याय युद्द में तब्दील हो चुका है बनारस
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