नई सरकार के लिए राष्ट्रपति के पहले अभिभाषण की उन बातों ने देश का ध्यान खींचा है, जो आर्थिक और तकनीकी विकास से जुड़ी हैं. तमाम बातों की सफलता या विफलता उनके कार्यान्वयन पर निर्भर करती है, इसलिए उनके बारे में कहने से कोई लाभ नहीं है. बेहतर होगा कि हम अगले महीने आने वाले बजट का इंतज़ार करें, जिसमें कुछ ठोस कार्यक्रम होंगे. जनता का मसला है महंगाई. इस बार बारिश कम होने का अंदेशा सबसे बड़ा खतरा है. कैबिनेट सचिव अजित सेठ पिछले कुछ दिनों से केवल इसी विषय पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं कि अनाज और अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों को बढ़ने से किस तरह रोका जाए. प्याज, आलू, गैर-बासमती चावल, दालों और दूध की कीमतों पर सरकार की निगाहें हैं. अगले छह महीनों की अशंकाओं को सामने रखकर सरकार काम कर रही है. पर सरकार उस खतरे से निपटने की कोशिश करे उसके पहले ही दिल्ली और उत्तर भारत के कुछ शहरों में पड़ रही गरमी ने उसके सामने संकट खड़ा कर दिया है. यह संकट बिजली की कटौती का है. बिजली और पानी के संकट ने जीना हराम कर दिया है. संकट की गहराई से ज्यादा सरकार मीडिया में इसकी चर्चा से घबराती है. सही या गलत इस चुनाव के बाद से मीडिया और शहरी नागरिक राजनीति के केंद्र में हैं. उनके सभी मसले सार्थक नहीं होते. पर इनके तेज स्वर इनकी महत्ता स्थापित करने में सफल हुए हैं.
पिछले साल दिसम्बर में जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में आश्चर्यजनक सफलता हासिल की थी, तब उम्मीद बँधी थी कि एक नए किस्म की राजनीति का देश में प्रवेश हो रहा है. दिसम्बर 2012 में दिल्ली के निर्भया कांड के बाद शहरी युवा और स्त्रियाँ ताकतवर आवाज़ बनकर उभरे थे. आम आदमी पार्टी उस आवाज़ की अनुगूँज जैसी लगती थी. उम्मीद थी कि दिल्ली में यह आवाज़ उठी है तो पूरे देश तक गूँजेगी. आम आदमी पार्टी राजनीतिक रूप से सफल नहीं हुई, पर शहरी युवा की यह ताकत अपनी जगह कायम है और आने वाले समय की राजनीति को प्रभावित करेगी. आज बिजली और पानी की किल्लत का शोर है तो कल प्याज और आलू की कीमतों का शोर शहरों से ही सुनाई पड़ेगा.
देश के लगभग दो सौ शहर राष्ट्रीय आमराय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. ऐसे में मोदी सरकार की यह घोषणा ध्यान खींचती है कि अगले आठ साल में हर परिवार के पास पक्का मकान होगा, जिसमें पानी का कनेक्शन, शौचालय सुविधाएं और चौबीसों घंटे (24×7) विद्युत आपूर्ति और आवागमन की सुविधाएं होंगी. गाँव-गाँव ब्रॉडबैंड और देश में हाई स्पीड ट्रेनों का हीरक चतुर्भुज होगा. जल्द ही जनसंख्या का 50प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रह रहा होगा. सरकार का दावा है कि वह विश्व स्तरीय सुविधाओं से लैस 100 शहर विकसित करेगी. बहरहाल चौबीस घंटे बिजली-पानी दिल्ली जैसे शहर को नसीब नहीं है. तब नए 100 शहरों में कैसे होगी?
शहरों की उम्मीदों का बढ़ना और उनकी शिकायतों का दर्ज होना एक शुभ लक्षण है. इसका मतलब यह नहीं कि गाँवों के लोग और उनके मसले महत्वहीन हैं. उनके बारे में सोचा ही न जाए. या हमारी व्यवस्था में उनकी कोई भूमिका ही न रहे. ऐसा सम्भव नहीं. देश की सबसे बड़ी आबादी गाँवों में रहती है. पर यह सच है कि उसकी बातें मीडिया के मार्फत उस शिद्दत के साथ सामने नहीं आतीं, जितनी मजबूती से शहरों की बातें सामने आती हैं. सबसे बड़ा कारण व्यावहारिक परिस्थितियों का है. दिल्ली के मोहल्लों का हाहाकार दिखाना आसान है बेगूसराय का मुश्किल. पर शहरों के लोग कौन हैं? वे भी गाँवों से वास्ता रखते हैं. कोई इस पीढ़ी में घर छोड़कर आया है, किसी की पिछली पीढ़ी ने गाँव छोड़ा था. छोड़ा इसलिए कि वहाँ जीवन-यापन मुश्किल हो रहा है. गाँव माने असुविधा. बिजली, पानी, सड़क, अस्पताल, सफाई, रोशनी, स्कूल-कॉलेज, रोजगार जहाँ नहीं हैं, वह गाँव है. जिसके पास अपनी बात कहने का मौका भी नहीं है, वह गाँव है. उसकी बात फिलहाल तो उन शहरों को उठानी होगी, जिनके पहलू में गाँवों का दिल धड़कता है.
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अपने स्वराज कार्यक्रम को लागू करने की योजना तैयार की थी. इसका मोटा सा मतलब यह है कि स्थानीय निकाय के काम-काज जिस इलाके में हों, उस इलाके के लोग तय करें कि काम क्या हो और किस तरह हो. यानी ज्यादा लोकतंत्र. दिल्ली सरकार इसके पहले भागीदारी योजना चला रही थी, जिसका सिद्धांत जनता की भागीदारी था. ‘आप’ का स्वराज लागू किस तरह होता यह देखने का मौका नहीं मिला. ‘आप’ की वरीयता बदल गई, उसने ज्यादा बड़े मसलों में हस्तक्षेप करना बेहतर समझा. पर लोकसभा चुनाव परिणामों ने जन-भावनाओं को रेखांकित किया है. उसने यह भी बताया है कि जनता की भागीदारी केवल वोट देने से ज्यादा होनी चाहिए. कैसे, कब और कहाँ यह तय होना बाकी है. अलबत्ता यह शहरों में सम्भव है, क्योंकि वहाँ कुछ व्यवस्थाएं, संस्थाएं और सुविधाएं उपलब्ध हैं.
सरकार जैसी कि घोषणा कर रही है कि 100 आधुनिक सुविधा युक्त शहरों का विकास होगा, तो वह आंशिक रूप से गलत नहीं है. देश में अगले डेढ़-दो दशक में 100 नए शहरों को उभर कर आना ही है. कुछ छोटे गाँव कल को कस्बे बनकर उभरेंगे और कुछ कस्बे शहर बनेंगे. ये नई बस्तियाँ आधुनिक सुविधाओं से लैस भी तभी होंगी जब हम उनके बारे में विचार करेंगे. इसलिए जरूरी है कि नगर नियोजन को हम अपने लोकतांत्रिक विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाएं. नगर नियोजन माने शहर का नक्शा, कुछ इमारतों की योजना, सड़कें-पार्क, स्टेशन, स्कूल, शादीघर, अस्पताल, कारखानों-दफ्तरों के ठिकाने ही नहीं होने चाहिए. आपने हाल के वर्षों में जितने नगर विस्तार देखे हैं क्या उनमें पुस्तकालयों की योजना देखी है? रंगमंच, संगीत, कला के ठिकानों की योजना देखी है? उस इलाके के लोकतांत्रिक विमर्श (एक हद तक पब्लिक स्फीयर) के लिए टाउनहॉल जैसी व्यवस्था देखी है? शहरों को केवल आर्थिक गतिविधियों और कर-संग्रहण के केंद्र के रूप में देखना बंद करके जीवंत बस्तियों के रूप में देखना शुरू करना चाहिए.
राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में कहा, ‘जनता एक ऐसा उदीयमान भारत देखना चाहती है, जिसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सराहना और सम्मान फिर से हासिल हो. भारत की ये अभिलाषाएं पूरी होना तय है. चूंकि हमारे पास लोकतंत्र, आबादी और मांग तीनों मौजूद हैं. हमें इन बड़ी अभिलाषाओं को पूरा करने पर खरा उतरना होगा. अब से साठ महीनों बाद हम विश्वास और गर्व से यह कह सकने की स्थिति में हों, कि हमने यह कर दिखाया है.’ राष्ट्रपति ने और तमाम बातें कहीं हैं, जिनके सच होने का हमें इंतज़ार है. पर हम अपने शहरों को और बड़े नगरों के उप-नगरों को ज्ञानजीवी, संतुलित जन-विमर्श के केंद्र बना सके तो वह सार्थक होगा. इन शहरों के विकास में सीमेंट और गारे के साथ जीवित लोकतंत्र का मसाला भी मिला होना चाहिए.
प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित
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