सोमवार, 16 जून 2014

जनतंत्र में कतरब्यौंत

इस चुनाव के साथ हमारे देश ने जनतंत्र में कतरब्यौंत के रास्ते पर कई कदम आगे बढ़ा दिए हैं। मीडिया की स्वतंत्रता इस यज्ञ में डाली गयी पहली आहुति है।
राजेंद्र शर्मा
वैसे तो हमारे जैसे देशों में हरेक चुनाव ही खास होता है। हरेक चुनाव में अपना कुछ न कुछ अनोखापन जरूर होता है। फिर भी चुनाव के नतीजे से अलग, 2014 का आम चुनाव अपने आप में ही खास नहीं है, आने वाले चुनावों के रूपाकार को बहुत हद तक प्रभावित करने वाला चुनाव भी है। चालू मुहावरे में कहें तो इस चुनाव के बादकोई भी चुनाव पहले जैसा नहीं रह जाएगा। इस बार के आम चुनाव की कई खासियतें तो इतनी मुखर रही हैं कि सहज ही उन्होंने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। इनमें सबसे प्रकट खासियत तो इस चुनाव में अभूतपूर्व तथा अकल्पनीय रूप से ज्यादा पैसा खर्च किया जाना ही है। कहने की जरूरत नहीं है कि सिर्फ दो राष्ट्रीय पार्टियों और अपवादस्वरूप एकाध क्षेत्रीय पार्टियों को छोडक़र, दूसरी सभी पार्टियां इस मामले में मीलों पीछे ही छूट गयी हैं। वास्तव में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि चुनाव में खर्च करने की सामर्थ्य तथा तत्परता ने भी, हमारे देश की जैसी विभाजित राजनीति पर, सिर्फ और सिर्फ दो ताकतों के बीच मुकाबले का पश्चिमी मॉडल थोपने में काफी योगदान दिया है।

इसने मीडिया तथा खासतौर पर टेलीविजन पर दृश्यता के साथ जुडक़र, ‘अन्य सभी’ के लगभग दृश्य से बाहर ही कर दिए जाने का ही काम नहीं किया है, जनसभाओं जैसे परंपरागत माध्यमों से जनता तक अपनी बात पहुंचाने की होड़ में भी ‘छोटी जेब वालों’ को हाशिए पर धकेलने में भी योग दिया है। आखिरकार, इस बार की सभाओं के दृश्यों पर जरा भी ध्यान से नजर डालने वाला यह देखे बिना नहीं रह सकता है कि सफल बड़ी सभाओं के श्रोताओं का भी असामान्य रूप से बड़ा हिस्सा, खास पोशाक में सजा हुआ ही नहीं था, खास-खास मौकों पर नारे लगाने के लिए प्रशिक्षित भी था। सभाओं में कुर्सियों के बढ़ते अनुपात से लेकर, हजारों श्रोताओं के लिए टी-शर्ट, टोपियों आदि से लेकर बुर्कों तक के सभाओं से पहले वितरण का खर्चा, जाहिर है कि लायी गयी भीड़ के भोजन तथा दिहाड़ी के खर्चे से ऊपर से आया होगा। बेशक, इस सबके बावजूद ‘अन्य’ पार्टियां भी अपने प्रत्यक्ष प्रभाव की हद तक तो लोगों को अपनी सभाओं आदि में खींच ही पा रही थीं। फिर भी यह उनके दायरे को कुछ न कुछ घटा जरूर रहा होगा।

इसके साथ यह भी जोड़ लें कि हमारे जैसे विशाल देश में कोई नेता कितनी सभाएं कर पाता है, इसका सीधा संबंध इससे भी है कि वह किस मार्ग से यात्रा कर रहा है। आखिरकार, यात्रा के साधनों से, यात्रा में लगने वाले समय में जमीन-आसमान का अंतर आ जाता है। मिसाल के तौर पर अगर नरेंद्र मोदी के लिए प्रचार के लिए तीन लाख किलोमीटर से ज्यादा या राहुल गांधी के लिए भी डेढ़ लाख किलोमीटर से ज्यादा की दूरी तय करना संभव हुआ है (जैसा कि दोनों कैंपों की ओर से दावा किया गया है) तो यह सिर्फ और सिर्फ हवाई यात्रा के बल पर ही संभव हुआ है। बेशक, यह सिर्फ हवाई यात्रा का नहीं बल्कि निजी विमान/ हैलीकोप्टर से हवाई यात्रा से ही संभव हुआ है। अचरज नहीं कि अकेले नरेंद्र मोदी को ही इसके लिए दो हैलीकोप्टरों तथा एक जैट विमान के बेड़े की सेवाओं की जरूरत पड़ी है। हो सकता है कि राहुल गांधी का एक हैलीकोप्टर और विमान में ही काम चल गया हो। इसमें इन दोनों ही पार्टियों के अन्य और वास्तव में मंझले दर्जे तक के नेताओं की हवाई यात्राओं के खर्चों को और जोड़ लीजिए; चुनाव प्रचार के लिए करीब दो महीने की हवाई यात्राओं का ही खर्चा, सैकड़ों करोड़ रुपए में जरूर बैठेगा। अचरज नहीं कि चार्टर विमानन सेवाओं की कमाई में इस चुनाव में अभूतपूर्व बढ़ोतरी आयी है। पुन: इस मामले में चुनाव निवेश की सामर्थ्य पर आधारित वर्ग/ वर्ण विभाजन स्पष्टï रूप से देखा जा सकता था–निजी विमान से चलने वाले नेता और सडक़/ रेल मार्ग/ सार्वजनिक विमान सेवा से यात्रा करने वाले नेता। अचरज नहीं कि टेलीविजन विज्ञापनों की ही तरहनिजी विमानों से चुनावी दौरों के मामले में भी वामपंथी पार्टियां, ‘चुनाव दलितों’ की ही श्रेणी में बनी रहीं।

बेशक, चुनाव पर खर्च करने के मामले में, राजनीतिक पार्टियों के बीच और उम्मीदवारों के बीच भी, भिन्नता हमेशा से ही बनी रही है। धन-बल के जनतंत्र में जनादेश को अनुचित रूप से प्रभावित करने का मुद्दा भी कोई नया नहीं है। फिर भी, अगर ‘चुनाव दलितों’ को छोड़ भी दें तब भी, इस बार ‘चुनाव सवर्णों’ के बीच भी चुनाव खर्च में जैसी नाबराबरी देखने को मिली है, इससे पहले कभी देखने को नहीं मिली थी। जयराम रमेश को भी आखिरकार कहना ही पड़ा कि भाजपा ने इस बार कांग्रेस को पैसा जुटाने/ खर्चने के मामले में पूरी तरह पछाड़ दिया’ था। बेशक, इसका अर्थ यह कत्तई नहीं है कि पछाड़े जाने वाले ने भी, किसी तरह पिछले चुनाव के मुकाबले कम खर्च किया है। जाहिर है कि यह तो पहले किसी भी चुनाव के मुकाबले असामान्य रूप से बढ़े हुए खर्चे के जरिए भाजपा के कांग्रेस को पछाड़ देने का ही मामला है। और यह तो खैर किसी से छुपा हुआ ही नहीं है कि ‘चुनाव सवर्णों’ का चुनाव खर्च के लिए धन जुटाने का मुख्य स्रोतकार्पोरेट खिलाड़ी ही हैं।

अचरज नहीं कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी, दोनों ने ही अपने चुनाव अभियान की शुरूआत ही, व्यापार संगठनों के मंचों के माध्यम से कार्पोरेट खिलाड़ियों का भरोसा जीतने की कोशिश से ही की थी। इस स्रोत से धन जुटाने के लिए ये पार्टियां किस हद तक जा सकती हैं, इसका अंदाजा इस चुनाव के बीच आए दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले से लगाया जाता है, जिसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों को, खनन कार्पोरेट वेदांता ग्रुप से, विदेशी चंदा कानून का उल्लंघन कर, करोड़ों रुपए लेने का दोषी ठहराया गया है। इस ग्रुप की 2011-12 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 2009 के चुनाव वर्ष समेत तीन वर्षों में इस ग्रुप ने भारत में राजनीतिक पार्टियों को 28 करोड़ रु0 दिए थे। इस ग्रुप की भारतीय सब्सीडियरियों में से एक, सेसा गोवा द्वारा 2011-12 के दौरान दी गयी राशियों से, इस वितरण के अनुपात का कुछ अंदाजा लग सकता है। उस वर्ष में सेसा गोवा ने कांग्रेस को 2 करोड़ रु0 तथा भाजपा को 1 करोड़ 75 लाख रु0 का चंदा दिया था, जबकि महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी को 50 लाख, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 25 लाख और तृणमूल कांग्रेस को 15 लाख रु0 का चंदा।

इसलिए, कांग्रेस के चुनाव में पैसा खर्चने के मामले में पिछड़ने का सीधा सा अर्थ है, कार्पोरेट स्रोत से प्राप्तियों के मामले में उसका पिछडऩा। इस चुनाव में कार्पोरेट खिलाड़ी किसी हद तक इकतरफा तरीके से भाजपा और नरेंद्र मोदी पर दांव लगा रहे थे, इसके कितने ही प्रत्यक्ष संकेत चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के महीनों पहले से मिल रहे थे। वास्तव में एक तरह से देश के सभी प्रमुख कार्पोरेट घरानों ने, भाजपा के मोदी के नाम पर मोहर लगाने से पहले से ही, उनके नाम का खुलकर अनुमोदन शुरू कर दिया था। शायद यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि भाजपा के मोदी के पक्ष में ही फैसला करने में, इस अनुमोदन का भी हाथ रहा था। बहरहाल, कार्पोरेट घरानों के अनुमोदन का अर्थ सिर्फ चुनाव पर खर्च करने की सामर्थ्य के मामले में और इसलिए विभिन्न रूपों में चुनावी विज्ञापन के मामले में, मोदी का अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस समेत सबसे बहुत आगे निकलना ही नहीं था। इस अनुमोदन का अर्थ कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया द्वारा और उसमें भी सबसे बढक़र टेलीविजन द्वारा हर प्रकार से, मालिकान द्वारा अनुमोदित प्रधानमंत्री पद के ‘उम्मीदवार’ के चुनावी हितों का आगे बढ़ाया जाना भी था। ‘दिखता है वो बिकता है’ के जमाने में, ब्रांड मोदी’ को आगे बढ़ाने में इसकी कितनी भूमिका रही होगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।

बेशक, यह कहा जा सकता है कि मीडिया की स्वतंत्रता भी तो एक चीज है। मालिकान चाहें भी तो ‘संपादकीय विवेक’ को दरकिनार कर अपनी इच्छा मीडिया संस्थान पर कैसे लाद सकते हैं? बहरहाल, कम से कम 2014 के चुनाव के दौरान मीडिया ने आमतौर पर और टीवी मीडिया ने खासतौर पर, ऐसे विवेक और स्वतंत्रता का शायद ही कोई परिचय दिया है। एक मीडिया शोध संगठन के अध्ययन के अनुसार, इस लोकसभा चुनाव के दौरान टेलीविजन पर कुल प्राइम टाइम में से एक-तिहाई से ज्यादा हिस्सा नरेंद्र मोदी तथा उनकी पार्टी को ही मिला था, जबकि बाकी सभी नेताओं तथा पार्टियों को, उनसे बहुत पीछे और शेष दो-तिहाई समय में ही समेट दिया गया था।

हिंदी के तीन तथा अंग्रेजी के दो, कुल पांच प्रमुख खबरिया चैनलों पर 1 मार्च से 30 अप्रैल तक, रात्रि 8 से 10 बजे तक के प्राइम टाइम में नरेंद्र मोदी को 33.21 फीसद समय (2,575 मिनट) दिया गया था, जबकि दूसरे नंबर पर अरविंद केजरीवाल थे, जिन्हें 10.31 फीसद समय दिया गया था। कांग्रेस के राहुल गांधी को बहुत पीछे, तीसरे स्थान पर 4.33 फीसद समय दिया गया था। (किसी विचित्र संयोग से समय दिए जाने के हिसाब से शीर्ष दस नेताओं में शामिलराहुल गांधी समेत कांग्रेस के चार नेताओं को मिलकरठीक उतना ही समय दिया गया था जितना केजरीवाल को दिया गया था।) अन्य नेताओं में मुलायम सिंह यादव को 1.8 फीसद, राज ठाकरे को 1.3 फीसद तथा ममता बैनर्जी को 1.2 फीसद समय पाकर दस शीर्ष नेताओं में जगह मिली, जबकि भाजपा की ओर से मोदी के अलावा उनके खासुलखास अमित शाह को ही 1.4 फीसद समय पाकर, पहले दस में जगह मिली।

बहरहाल, राजनीतिक पार्टियों को दिए गए समय में भाजपा 37.99 फीसद समय (1507) मिनट के साथ और बड़ा हिस्सा ले गयी, जबकि कांग्रेस 27.75 फीसद के साथ दूसरे स्थान पर आ गयी और आप पार्टी 18.70 फीसद के साथ तीसरे स्थान पर खिसक गयी। बाकी सभी राजनीतिक पार्टियों को, शेष करीब 15 फीसद समय में ही समेट दिया गया। इसी अध्ययन के अनुसार मई के पहले सप्ताह में, नरेंद्र मोदी को दिया जाने वाला समय और भी बढक़र 40 फीसद से भी ऊपर निकल गया। बेशक, दो महीने लंबे चुनाव अभियान के दौरान, टेलीविजन के इस कवरेज में कुछ और बदलाव भी आए हैं। लेकिन, ये बदलाव भी मोदी-पक्षधरता को ही दिखाते हैं। मार्च के पहले पंद्रह दिन के उन्हीं पांच चैनलों के प्राइम टाइम के साढ़े पच्चीस घंटे से कुछ ज्यादा के कवरेज में से 28 फीसद केजरीवाल के हिस्से में आया था और 23 फीसद मोदी के हिस्से में। शेष 49 फीसद में बाकी सब सिमट गए। हां! इन बाकी सब में जरूर राहुल गांधी 4.7 फीसद के साथ दूसरों काफी आगे थे। राजनीतिक पार्टियों के हिसाब से कवरेज में भी स्थिति इससे बहुत भिन्न हीं थी। हां! मोदी की भाजपा ने जरूर केजरीवाल की आप को जरा सा पीछे छोड़ दिया था। 1101 मिनट के कवरेज में भाजपा को 33.5 फीसद मिला है और आप को 31.33 फीसद, जबकि कांग्रेस काफी पीछे, तीसरे नंबर पर, 17.5 फीसद समय ही हासिल कर पायी थी। जाहिर है कि बाकी सब पार्टियां शेष 17.66 फीसद समय में सिमट कर रह गयी थीं।

बेशक, यह सब सिर्फ इस चुनाव में मीडिया के नरेंद्र मोदी का पक्षधर हो जाने भर का मामला नहीं है। यह भारत के संसदीय प्रणाली के चुनाव और चुनाव प्रचार को, अमरीकी ढंग़ की राष्ट्रपति प्रणाली के रास्ते पर धकेले जाने का मामला भी है, जिसकी ओर अनेक टिप्पणीकारों ने ध्यान खींचा है। चुनाव को दो खिलाडिय़ों की होड़ में घटा देना (बाकी पूरे राजनीतिक इंद्रधनुष को लगभग अदृश्य ही कर देना) भी इसी का हिस्सा है और चुनाव को व्यक्तियों पर केंद्रित कर देना भी, जिसके चलते ही प्राइम टाइम में जितना समय नेताओं को दिया गया है, पार्टियों को मुश्किल से उसका आधा ही समय दिया गया है। बहरहाल, यह अमरीका की नकल के चक्कर में भारतीय जनतंत्र को कम जनतांत्रिक बनाने का ही मामला नहीं है। यह मीडिया की स्वतंत्रता को सिकोड़े जाने का मामला भी है।

यह संयोग ही नहीं है कि मीडिया की स्वतंत्रता के सालाना सूचकांक के अनुसार, 2014 में भारत दुनिया के 193 देशों में नीचे खिसककर 78 वें स्थान पर चला गया है, जो पिछले एक दशक में उसका सबसे खराब प्रदर्शन है। इस तरह, इस सूचकांक पर 39 अंक के साथ भारत, ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र मीडिया’ वाले देशों की श्रेणी में आ गया है। पिछले साल इसी सूचकांक पर इससे एक अंक के बेहतर प्रदर्शन के साथ भारत बीसवें स्थान पर रहा था। यह उल्लेखनीय है कि यह गिरावट, ’2014 के चुनाव की पूर्व-संध्या में अंतर्वस्तु में मीडिया मालिकान की बढ़ी हुई दखलंदाजी को प्रतिबिंबित करती है।’ वास्तव में इस रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि मीडिया मालिकान का यह हस्तक्षेप इतना तानाशाहीपूर्ण रहा है कि एक खास अंतर्वस्तु को आगे बढ़ाने के लिए, चुनाव के शुरू होने से पहले ही, अनेक मामलों में केंद्रीय पदों पर बैठे संपादकीय स्टॉफ की बर्खास्तगियां भी की गयी हैं। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि पेशेवर स्वतंत्रता के खिलाफ मीडिया मालिकान का यह हमला इस चुनाव में किसे लाभ पहुंचाने के लिए था।

इस चुनाव के साथ हमारे देश ने जनतंत्र में कतरब्यौंत के रास्ते पर कई कदम आगे बढ़ा दिए हैं। मीडिया की स्वतंत्रता इस यज्ञ में डाली गयी पहली आहुति है।   
                                      

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राजेंद्र शर्मा, 
लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।

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