सोमवार, 16 जून 2014

साहित्य के नायकों के प्रति उदासीन समाज

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जादुई यथार्थवाद के जनक गाब्रिएल गार्सिया मार्केज को श्रद्धांजलि देने के लिए मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में जो भीड़ उमड़ी, वह सचमुच जादुई लग रही थी. आधुनिक युग में लेखकों को श्रद्धांजलि देने के लिए लोग घंटों कतार में खड़े रहें, तो सचमुच आश्‍चर्य होता है. गाब्रिएल गार्सिया मार्केज के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए कोलंबिया के राष्ट्रपति जुआन मैन्युल सैंटोस भी मैक्सिको पहुंचे. मार्केज का अंतिम संस्कार बगोटा कैथेड्रल में बेहद निजी समारोह में रिश्तेदारों की मौजूदगी में हुआ. जब बगोटा कैथेड्रल में मार्केज का अंतिम संस्कार हो रहा था, उसी वक्त प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार कोलंबिया के उनके पैतृक शहर में भी किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में उनके प्रशंसक और स्थानीय सरकार के नुमाइंदे शामिल हुए. गाब्रिएल गार्सिया मार्केज को यह सम्मान तब प्राप्त हो रहा था, जब 1981 में उन्होंने कोलंबियाई सेना द्वारा पूछताछ की आशंका के बाद देश छोड़ दिया था.

अपने देश से तीन दशक से बाहर रहने के बावजूद गाब्रिएल गार्सिया मार्केज का वहां इतना सम्मान हो रहा था, जो यह साबित करता है कि वह किसी भी नेशनल हीरो से कम लोकप्रिय नहीं थे. बगोटा कैथेड्रेल में अंतिम संस्कार के बाद उनका अस्थिकलश मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में रखा गया था. जब गाब्रिएल गार्सिया मार्केज के परिवार के सदस्य अस्थिकलश के साथ वहां खड़े हुए, तो पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स के बाहर तक मार्केज के चाहने वालों की लंबी कतार लगी थी. बड़ी संख्या में उनके प्रशंसक हाथों में पीला गुलाब लिए अपने प्रिय लेखक को अंतिम विदाई देने पहुंचे थे. पीले फूल मार्केज को बेहद पसंद थे. इस अंतिम विदाई में कोलंबिया के राष्ट्रपति के साथ-साथ मैक्सिको के राष्ट्रपति भी शामिल हुए. दो राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी और लैटिन अमेरिकी देशों में उसी वक्त अलग- अलग शहरों में अपने प्रिय लेखक को श्रद्धांजलि, उस समाज की सोच, अपने प्रिय लेखक के प्रति प्यार और सम्मान को दर्शाती है. गाब्रिएल गार्सिया मार्केज को यह सम्मान उनके लेखन की बदौलत ही हासिल हुआ. गाहे-बगाहे वह कोलंबिया में शांति के प्रयास भी करते रहे थे.
क्यूबा के महान नेता फिडेल कास्ट्रो से गाब्रिएल गार्सिया मार्केज की दोस्ती भी उनके लेखन को लेकर ही थी. हवाना में मार्केज का अपना घर भी था. लेखन की बदौलत मार्केज ने सरहदों की सीमा लांघकर कई देशों में अपने लिए सम्मान अर्जित किया. इसके पहले मार्केज के घर पर उनके अंतिम दर्शन करने के लिए काफी लोग एकत्र हुए थे. उन तस्वीरों के बाद जब मैं मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में मार्केज को अंतिम विदाई की तस्वीरें देख रहा था, तो बहुत शिद्दत से पिछले साल ही राजेंद्र यादव के निधन पर दिल्ली स्थित उनके घर का मंजर याद आ रहा था. देर रात राजेंद्र यादव का निधन हुआ था और जब उनके निधन की ख़बर सुनकर मैं तड़के उनके घर पहुंचा था, तो वहां चंद लोगों की मौजूदगी से हैरान रह गया. उनके जीवित रहते इससे ज़्यादा लोग तो हमेशा हंस के दफ्तर में रहा करते थे. यह तब हो रहा था, जबकि सुबह से देश के सभी टेलीविजन चैनलों पर यादव जी के निधन का समाचार चलने लगा था. आम लोगों की बात तो दूर, हिंदी के साथी साहित्यकार भी उन्हें श्रद्धांजलि देने उनके घर पर नहीं पहुंच पाए थे. महानगरीय व्यस्तता या महानगरीय उपेक्षा!  राजेंद्र यादव दिल्ली के मयूर विहार इलाके में रहते थे, उसी मयूर विहार में हिंदी के दर्जनों स्वनामधन्य साहित्यकार रहते हैं, जिनमें से कई तो उनके घर पहुंचे भी नहीं, सीधे अंतिम संस्कार के मौ़के पर पहुंचे. उनमें से कई साहित्यकार तो यादव जी के साथ नियमित रसरंजन में भी शरीक होते रहे थे. यह भारतीय आधुनिक समाज का सच है. राजेंद्र जी हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थे और हर उम्र के लोग उनके प्रशंसक थे. यादव जी के अंतिम संस्कार में देश के शीर्ष राजनेताओं का न पहुंचना भी अखर गया था. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ने पत्र लिखकर उनके निधन पर शोक जताया था, लेकिन सवाल यही है कि साहित्य के नायक की इतनी उपेक्षा क्यों? किसी छुटभैय्या नेता के अंतिम संस्कार में भी सैकड़ों लोग जुटते हैं. हम समाज का वह कोना हैं, जिसकी ओर हिंदी समाज ने कभी झांकने की कोशिश नहीं की.
ऐसा नहीं है कि स़िर्फ राजेंद्र यादव के अंतिम संस्कार में इस तरह की उदासीनता देखने को मिली हो. भारत के महानतम लेखकों में से एक प्रेमचंद का जब निधन हुआ था, तो उनकी शवयात्रा में भी चंद लोग ही शामिल हुए थे. उनकी शवयात्रा देखकर किसी ने पूछा था, किसका निधन हुआ है, तो बताया गया कि कोई मास्टर साहब थे, गुजर गए. इससे इतर आचार्य रामचंद्र शुक्ल और निराला जी को अंतिम विदाई देने के लिए पूरा शहर ज़रूर उमड़ा था. सवाल यही है कि हिंदी समाज अपने लेखकों को नायक क्यों नहीं बना पाता है अथवा क्यों नहीं, वे समाज के हीरो के तौर पर उभरते हैं? क्यों नहीं हमारे देश में सड़कों और इमारतों के नाम लेखकों का नाम पर रखे जाते हैं? आप क्यूबा जाइए, तो वहां का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा जोश मार्टिन के नाम पर है. जब आप शहर में प्रवेश करते हैं, तो आपको अंदाजा होगा कि लोग चे-ग्वारा की कितनी इज्जत करते हैं. हर सार्वजनिक जगह से लेकर घरों तक में चे-ग्वारा की बड़ी-बड़ी तस्वीरें आपको दिखाई देंगी. दूसरी तरफ़ दिल्ली से लेकर भारत के हर महानगर में गांधी, गांधी और स़िर्फ गांधी के नाम की धूम है.
दिल्ली में हिंदी के साहित्यकारों के नाम पर कोई सड़क या इमारत हो, ऐसा याद नहीं आता. सुब्रह्मण्यम भारती और दिनेश नंदिनी डालमिया के नाम पर सड़क ज़रूर है. साहित्य अकादमी भवन का नाम रवींद्र नाथ ठाकुर के नाम पर है. प्रेमचंद के नाम पर कोई हवाई अड्डा या निराला के नाम पर कोई इमारत नहीं है. लेखकों के प्रति इस उदासीनता का जब हम जवाब ढूंढने निकलते हैं, तो लगता है कि इसके लिए हिंदी समाज की तटस्थता बहुत हद तक ज़िम्मेदार है. ज़िम्मेदार हमारा शासक वर्ग भी है, जो साहित्य से दूर होता जा रहा है. हमें अपने साहित्यकारों का मान करना सीखना होगा. नेहरू जैसा स्वप्नदर्शी प्रधानमंत्री या फिर लेखकों का सम्मान करने वाला नेता भारत में दूसरा नहीं हुआ. इंदिरा गांधी भी बहुत हद तक कलाकारों का सम्मान करती थीं, लेकिन बाद के प्रधानमंत्रियों की प्राथमिकता में साहित्य, कला, संस्कृति रही ही नहीं, लिहाजा इनके प्रति उपेक्षा और उदासीनता बढ़ती चली गई. रही-सही कसर साहित्य की राजनीति ने पूरी कर दी. आज हमारे बीच नामवर सिंह जैसे प्रतिष्ठित लेखक हैं. ऐसे में क्या सरकार का यह दायित्व नहीं बनता कि वह उन्हें राज्यसभा में मनोनीत करे. लेखकों के नाम पर पार्टी के चापलूसों को संसद में भेजने की परंपरा बंद होनी चाहिए. भारत के साहित्य समाज को भी सरकार पर यह दबाव बनाना होगा कि वह हमारे शीर्ष लेखकों का फिर से सम्मान करना शुरू करे.प

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