शनिवार, 6 सितंबर 2014

प्रधानमंत्री जी, बच्चों की सुनते तो ज्यादा मुफीद होता

जावेद अनीस
डॉ. राधाकृष्णन के जन्मदिवस (5 सितम्बर ) को पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन इस बार देश के प्रधानमंत्री ने यह फैसला किया है कि 5 सितंबर को देश के सभी स्कूलों के बच्चे उनका भाषण सुनेंगे। इसको लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से सभी शिक्षा बोर्डों को सर्कुलर भी जारी किया गया है, जिसके मुताबिक स्कूलों में प्रधानमंत्री का भाषण दोपहर तीन बजे शुरू होकर 4.45 बजे खत्म होगा और इसे दिखाने के लिए सभी स्कूलों को ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि बच्चे प्रधानमंत्री के भाषण का सीधा प्रसारण देख सकें। इसके लिए उन्हें सैटेलाइट चैनल, रेडियो, इंटरनेट और डीटीएच में से किसी भी संचार माध्यम का इस्तेमाल करने का निर्देश दिया गया है। निर्देश में यह भी कहा गया है कि इसमें की गयी किसी तरह की भी लापरवाही को गंभीरता से लिया जाएगा, निगरानी के लिए सभी डीडीई शिक्षा अधिकारी, उप शिक्षा अधिकारी दौरे पर रहेंगे। हालांकि इसको लेकर हंगामा खड़ा होने के बाद केंद्र सरकार ने इस कार्यक्रम को ऐच्छिक कर दिया है ।
देश में बच्चों की मौजूदा हालात को देखते हुए केंद्र सरकार का यह फरमान कुछ अटपटा सा लगता है। इस मुल्क में 5 से 14 साल के बच्चों की कुल 25.96 करोड़ आबादी है, लेकिन इन बच्चों की स्थिति गंभीर है। आज भी बड़े पैमाने पर बच्चे शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। जरूरत इस बात की थी कि बच्चों को इन स्थितियों से बाहर निकलने के लिए कोई फरमान जारी किया जाता, एक निश्चित समय सीमा तय की जाती और हमेशा से चले आ रहे संसाधनों की कमी को दूर किया जाता। लेकिन शायद हमारे हुकुमतदानों को यह सब करना मुफीद नहीं लगा।
अगर देश में बच्चों के शिक्षा की ही बात करें तो इसकी सेहत खासी खराब है, देश में अब भी करीब 14 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। कभी देश में प्राथमिक शिक्षा के प्रमुख केन्द्र रहे सरकारी स्कूल अपनी अंतिम सांसें गिनते दिखाई दे रहे है और उनकी जगह पर गावों-गावों तक में अपनी पाँव पसार रहे प्राइवेट स्कूल ले रहे हैं। एक सुनोयोजित तरीके से सरकारी स्कूलों को इतना पस्त कर दिया गया है कि वे अब मजबूरी की शालायें बन चुकी हैं, अब यहाँ उन्हीं परिवारों के बच्चे जाते हैं जिनके पास विकल्प नहीं होता है। आज सरकारी स्कूल हमारे समाज में दिनों- दिन बढती जा रही असमानता के जीते जागते आईना बन गये हैं। शिक्षा और व्यक्ति निर्माण के मसले को बाजार के हवाले किया जा चूका है। कहने को तो देश में सभी बच्चों को चार साल पहले से ही शिक्षा अधिकार कानून (आर. टी. ई.) के तहत शिक्षा का अधिकार मिला हुआ है, लेकिन इससे हालात में कोई ख़ास सुधार नहीं आया है। सरकारी स्कूल के हालात बिगड़ने की दर उसी मात्रा में जारी है, हालांकि यह शिक्षा का अधिकार भी आधा अधूरा ही है क्योंकि यह सभी बच्चों के सामान शिक्षा की बात को नजरंदाज करता है और इसके दायरे में केवल 6 से 14 साल के ही बच्चे आते हैं। दूसरी तरफ यह कानून शिक्षा के बाजारीकरण को लेकर भी खामोश है। इस कानून के लागू होने के लगभग साढ़े चार साल बीत जाने के बाद हम पाते हैं कि अभी भी हालात में ज्यादा सुधार देखने को नहीं मिलता है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जनवरी 2014 में शिक्षा के अधिकार कानून के क्रियान्वयन को लेकर जारी रिपोर्ट के अनुसार, भौतिक मानकों जैसे शालाओं की अधोसंरचना, छात्र- शिक्षक अनुपात आदि को लेकर तो सुधार देखने को मिलता है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता, नामांकन के दर आदि मानकों को लेकर स्थिति में ज्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है,जैसे प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन अभी भी 2009-10 के स्तर 48% पर ही बना हुआ है, इसी रिपोर्ट के मुताबिक देश 6.69 लाख शिक्षकों की खतरनाक कमी से जूझ रहा है, देश के 31% प्रतिशत शालाओं में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं है जो कि लड़कियों के बीच में ही पढ़ाई छोड़ने का एक प्रमुख है।
एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की नौवीं रिपोर्ट 2013 शिक्षा की और चिंताजनक तस्वीर पेश करती है, रिपोर्ट हमें बताती है कि कैसे शिक्षा का अधिकार कानून मात्र बुनियादी सुविधाओं का कानून साबित हो रहा है। स्कूलों में अधोसंरचना सम्बन्धी सुविधाओं में तो लगातार सुधार हो रहा है लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता सुधरने के बजाये बिगड़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009 में कक्षा 3 के 43.8% बच्चे कक्षा 1 के स्तर का पाठ पढ़ सकते थे वही 2013 में यह अनुपात कम होकर 32.6 प्रतिशत हो गया है। इसी तरह से 2009 में कक्षा 5 के 50.3 % बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ पढ़ सकते थे वही 2013 में यह भी अनुपात घट कर 41.1 प्रतिशत हो गया है। इसके बरअक्स शिक्षा के बाजारीकरण की दर तेजी से बढ़ रही है। 2013 में भारत के ग्रामीण इलाकों में 29 प्रतिशत बच्चों के दाखिले प्राइवेट स्कूलों में हुए हैं और पिछले साल के मुकाबले इसमें 7 से 11 प्रतिशत वृद्धि हुई है । विश्व बैंक ने हाल ही में दक्षिण एशियाई देशों के छात्रों में ज्ञान के बारे में एक रिपोर्ट जारी की थी, इस रिपोर्ट के अनुसार इन देशों में शिक्षण की गुणवत्ता का स्तर यह है कि कक्षा पांच के विद्यार्थी को सामान्य जोड़-घटाव और सही वाक्य लिखना तक नहीं आता है।
उधर हयूमन राइटस वॉच की रिपोर्ट दे से वी आर डर्टी : डिनाईंग एजुकेशन टू इंडियाज मार्जिनलाइज्ड, हमारे शालाओं में दलित, आदिवासी और मुस्लिम बच्चों के साथ भेदभाव की दास्तान बयान करती है, जिसकी वजह से इन समुदाय के बच्चों में ड्रापआउट होता है।
अगर देश में बाल सुरक्षा की स्थिति को देखें तो यहाँ भी मामला गंभीर स्थिति तक पहुँच गया है, बीते कुछ वर्षों से बच्चों के लापता होने के लगातार बृद्धि हुई है। अदालतों द्वारा इससे निपटने के लिए बार–बार निर्देश दिए जाने के बावजूद सरकारों की तरफ से इस मसले पर गंभीरता नहीं देखने को मिली है। सरकार द्वारा संसद में दी गयी जानकारी के अनुसार 2011 से 2014(जून तक) देश में तीन लाख 25 हजार बच्चे गायब हुए। इस हिसाब से हर साल करीब एक लाख बच्चे गायब हो रहे हैं, जिनमें आधी से ज्यादा लड़कियां होती हैं। इन आकड़ों को देख कर तो यही लगता है कि हमारी सरकारों को इन बच्चों की कोई फिक्र ही नहीं है।
इसी तरह से भारत में लगातार घटता लिंग अनुपात एक चिंताजनक तस्वीर पेश करता है। 2001 की जनगणना के अनुसार मुल्क में छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिंगानुपात में सबसे ज्यादा गिरावट देखने में आयी है और यह गिर कर 914 तक पहुँच गया है। ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की सारी जनगणनाओं में बच्चों के लिंगानुपात का यह निम्नतम स्तर है। क्या घटते लिंग अनुपात की यह तस्वीर सरकार और समाज के लिए शर्मनाक नहीं है ?
बाल मजदूरी की बात करें तो 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 से 14 आयु समूह के  1.01करोड़ बच्चे बाल मजदूरी में संलग्न है, इनमें से 25.33 लाख बच्चे तो 5 से 9 आयु वर्ग के हैं। बाल मजदूरी की वजह से ये बच्चे अपने बचपन से महरूम हैं, जहाँ उन्हें अपनी क्षमताओं को बढाने का मौका भी नहीं मिलेगा।
बाल विवाह को लेकर भी तस्वीर अच्छी नहीं है,पूरे विश्व में हर वर्ष होने वाले तकरीबन छह करोड़ बाल विवाहों के 40 फीसदी हमारे देश में ही होते है।
अभाव और भुखमरी की मार सबसे ज्यादा बच्चों पर पड़ती है। गर्भवती महिलाओं को जरूरी पोषण नही मिल पाने के कारण उनके बच्चे तय मानक से कम वजन के पैदा होते हैं। जन्म के बाद अभाव और गरीबी उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नही होने देती है। पर्याप्त पोषण ना मिलने का असर बच्चों के शरीर को और कमजोर बना डालता है, जिसकी मार या तो दुखद रूप से बच्चे की जान ही ले लेती है या इसका असर ताजिंदगी दिखता है। ऐसे में हम पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति देखें तो हमारा मुल्क बाल पोषण के मामले में पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश से भी नीचे की सूची में हैं। यही नहीं भारत में लगभग हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। विकास के तमाम दावों के बावजूद अभी तक हम केवल 40 प्रतिशत बच्चों का सम्पूर्ण टीकाकरण कर पाए हैं जिसकी वजह से बड़ी संख्या में बच्चे पांच साल से पहले ही दम तोड़ देते हैं।
किसी भी देश में बच्चों की स्थिति से उस देश की प्रगति और सामाजिक, सांस्कृतिक विकास का पता चलता है। बचपन एक ऐसी स्थिति है जब बच्चे को सबसे अधिक सहायता, प्रेम, देखभाल और सुरक्षा की जरुरत होती है वे वोट तो नहीं दे सकते हैं फिर भी हमें उन्हें देश के नागरिक के रूप में अधिकार देना ही होगा। इसलिए जब देश के बच्चों की हालात इतनी नाजुक हो तो उन्हें भाषण पिलाने से ज्यादा उनके समस्याओं को लेकर कुछ ठोस और टिकाऊ उपाय करने की जरूरत है, होना तो यह चाहिए था कि बच्चों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए उनके मुद्दों और समस्याओं को प्राथमिकता से केन्द्र में लाया जाता। अगर नयी सरकार को कुछ नयापन ही दिखाना था तो वह बच्चों को भी नागरिक के रुप में मान्यता देते हुए उनकी समस्याओं को पूरी प्राथमिकता और संवेदनशीलता के साथ अपने कार्यक्रमों में शामिल करती और उन्हें दृढ़ता एवं ईमानदारी के साथ लागू करने का संकल्प प्रस्तुत करती।

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