सरकार गठन के महज एक महीने भीतर ही मोदी सरकार को लेकर जो चिंताएं और आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं वो इन दिनों सरकार के कार्य शैली में नज़र आ रही हैं। संसद में प्रथम प्रवेश के दौरान माथा टेकते प्रधानमंत्री ने, रेल बजट से पूर्व बिना किसी संसदीय चर्चा के रेल भाड़े में अभूतपूर्व वृद्धि का जनविरोधी और अलोकतांत्रिक फैसला लेकर संसदीय मर्यदाओं को तार-तार कर दिया। जनादेश के नशे में चूर भाजपा भूल गयी कि देश की जनता ने संसद को चुना है। सवारी गाड़ी का किराया बढ़ाया जाना और उसमें भी अनारक्षित और सामान्य श्रेणी को भी वृद्धि के दायरे में लाना घोर-जनविरोधी है। इसके साथ ही डीज़ल और घरेलू गैस के दाम में वृद्धि और जेट-ईंधन को सस्ता करना भी सरकार के नीयत पर सवाल उठाती है।
सत्ता पक्ष द्वारा संवैधानिक पदों को खाली करने की जल्दीबाज़ी में 17 राज्यपालों से और विभिन्न आयोगों के अध्यक्षों का इस्तीफा मांगा जाना जबकि 2004 में सत्ता परिवर्तन के बाद भाजपा के नेताओं ने इस तरह की कारवाई को असंवैधानिक बताया था। संसद में महिला सुरक्षा पर बोलते प्रधान-मंत्री का अपने मंत्री निहाल चंद के बलात्कार की घटना में आरोपी होने पर चुप्पी साधे रहना, ये सारी घटनायें ना सिर्फ भाजपा का दोहरा चरित्र उजागर करती हैं बल्कि उनके वरिष्ठ नेताओं का सत्ता लोलुपता भी दर्शाती हैं।
सरकार की गैर सरकारी संगठनों पर नकेल लगाने की कवायद लोकतंत्र में दबाव-समूह को खतम करने की दिशा में एक कदम है। विकास के नाम पर लोगों को बेघर करती रही सरकार अब लोगों के हक़ के लिये लड़ने वाले समूहों को विकास-विरोधी बता कुचलने की तैयारी में है।
कॉर्पोरेट फंडिंग का इल्जाम तो अब राजनैतिक दलों पर भी लग रहा है, ऐसे में ये लड़ाई कॉर्पोरेट बनाम कॉर्पोरेट तो नहीं जिसमें एक और सरकार है दूसरे और गैर सरकारी संगठन। ऐसे में हद तो तब हो गयी जब गांधीवादी संगठन और उनसे जुड़े लोग भी आइ. बी. के निगरानी सूची में शामिल हो गये।
बीते एक महीने में सरकार अपने लिये एक अलोकतांत्रिक जमीन तैयार करती दिखाई दे रही है |
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