शुक्रवार, 27 जून 2014

राज्यपालों को लेकर राजनीति न हो तो बेहतर


केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के पहले से ही इस बात की चर्चा शुरू हो गई थी कि सबसे पहले वे राज्यपाल हटाए जाएंगे, जो कांग्रेस पार्टी से सीधे जुड़े हुए हैं. इसके बाद खबर आई कि केंद्रीय गृहसचिव अनिल गोस्वामी ने छह राज्यपालों को सलाह दी है कि वे अपने इस्तीफे दे दें. उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने इस्तीफा दे भी दिया. कुछ राज्यपालों ने आना-कानी की है. इन पंक्तियों के छपने तक कुछ और राज्यपालों के इस्तीफे हो सकते हैं. नहीं तो उनकी बर्खास्तगी सम्भव है. सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ की व्यवस्था के बावजूद लगता है केंद्र सरकार ने इन राज्यपालों को हटाने का मन बना लिया है. कांग्रेस पार्टी ने इसे बदले की कार्रवाई बताया है और इस के सांविधानिक पद की गरिमा बनाए रखने का सुझाव दिया है. सच यह है कि इस पद की फजीहत में सबसे बड़ा हाथ उसका ही है. बेहतर होगा कि कांग्रेस और भाजपा इसे संग्राम की शक्ल देने के बजाय स्वस्थ राजनीतिक परम्पराओं को कायम करें.


राज्यपाल के पद का दुरुपयोग लगभग सभी ताकतों ने अलग-अलग वक्त पर किया है. कांग्रेस को खासतौर से श्रेय जाता है. पचास के दशक में केरल की सरकार को बर्खास्त करने में राज्यपाल का इस्तेमाल किया गया. यों दिल्ली में जिसकी सरकार रही उसने राज्य सरकारों को बर्खास्त करने में राज्यपालों का सहारा लिया. सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने सरकारों के साथ नौ राज्यपालों को भी हटाया. फिर इंदिरा सरकार आई तो उसने भी यही किया. अगस्त,1984 में एनटी रामाराव की सरकार को आंध्र के राज्यपाल रामलाल ने बर्ख़ास्त किया. उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी, झारखंड में सिब्ते रज़ी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज और गुजरात में कमला बेनीवाल के फैसले राजनीतिक विवाद के कारण बने. अनेक मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों की भूमिका की भर्त्सना भी की. 

पिछले तीन-चार दशक से देश राज्यपालों की भूमिका को लेकर विमर्श कर रहा है, पर रास्ता अभी तक नहीं निकला है. हाँ इतना जरूर हुआ है कि राज्यों में सरकारों की बर्खास्तगी का चलन खत्म हो गया है और सरकारों के बनने-बिगड़ने का स्वीकृत सिद्धांत बन गया है. इसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका बोम्मई मामले की है. सन 1983 में कर्नाटक में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी. जनता पार्टी की इस सरकार के मुख्यमंत्री थे रामकृष्ण हेगड़े और एसआर बोम्मई उद्योग मंत्री थे. कुछ विवादों के कारण हेगड़े ने 1988 में इस्तीफा दे दिया और बोम्मई राज्य के मुख्यमंत्री बने. इस बीच पार्टी के एक विधायक ने राज्यपाल पी वैंकटसुबैया को सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया. उन्होंने साथ में 19 और विधायकों के समर्थन वापसी वाले पत्र राज्यपाल को दिए. 

अगले रोज़ इनमें से सात विधायकों ने कहा कि राज्यपाल को दिए पत्रों में उनके फर्जी हस्ताक्षर हैं. बोम्मई ने राज्यपाल से एक हफ्ते के भीतर विधानसभा का सत्र बुलाने और बहुमत साबित करने की अनुमति मांगी. राज्यपाल ने सरकार का अनुरोध ठुकरा दिया और केंद्र की कांग्रेस सरकार से राज्य सरकार की बर्खास्तगी की सिफारिश कर दी. 21 अप्रैल, 1989 को बोम्मई सरकार बर्खास्त कर कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. बोम्मई इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गए. सन 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया जिसने काफी बातें परिभाषित कर दीं. न्यायालय ने माना कि बोम्मई सरकार की बर्खास्तगी अनुचित थी और उन्हें बहुमत साबित करने का मौका मिलना चाहिए था. न्यायालय ने राज्य सरकार की बर्खास्तगी के लिए अनुच्छेद 356 लागू करने में केंद्र सरकार की मनमानी शक्ति को सीमित करने के लिए कई शर्तें जोड़ दीं. अब राज्य सरकारों को बर्खास्त करना आसान नहीं है. 

बहरहाल आज के संकट को देखते हुए राज्यपालों की नियुक्ति और बर्खास्तगी का कोई सूत्र भी बनना चाहिए. ऐसा लगता है कि एनडीए सरकार दो कारणों से राज्यपालों को बर्खास्त करना चाहती है. पहला कारण है भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को काम देना और दूसरा कारण है सन 2004 की कार्रवाई का बदला लेना. यानी कुल मिलाकर यह सिद्धांत की नहीं राजनीतिक हितों की लड़ाई है. सन 2004 में यूपीए सरकार बनने पर राज्यपालों को बर्खास्त किया गया था. इसके खिलाफ भाजपा के पूर्व सासंद बीपी सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी, जिसपर मई 2010 में अदालत की संविधान पीठ ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे. अदालत ने कहा कि यदि बर्खास्त राज्यपाल अदालत आएंगे तो सरकार को अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करना होगा. अदालत ने कहा, राज्यपाल केंद्र सरकार का एजेंट नहीं है और न किसी राजनीतिक टीम का सदस्य है. इसके पहले सरकारिया आयोग की सलाह थी कि राज्यपाल का चयन राजनीति में सक्रिय व्यक्तियों में से नहीं होना चाहिए. कम से कम केंद्र में सत्तारूढ़ दल का व्यक्ति तो कदापि नहीं. 

आयोग की सलाह थी कि राज्यपालों का चयन केंद्र सरकार नहीं, बल्कि एक 'स्वतंत्र न्यायिक संस्था' करे. राज्यपाल के चयन का अधिकार केंद्र के पास रहेगा तो राज्यपाल कभी केंद्र सरकार के दबावों से मुक्त रहकर काम नहीं कर सकते हैं. पर क्या राजनीतिक दल इस सलाह को स्वीकार करेंगे? आज तक किसी सरकार ने सरकारिया रिपोर्ट को लागू करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. इस विषय पर सिद्धांत कौन बनाएगा? अदालत या सरकार? या देश के राजनीतिक दल?

सरकार इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाएगी तो यह मामला फिर से अदालत जा सकता है. केंद्रीय मंत्रिमंडल इन राज्यपालों की बर्खास्तगी के कारणों की सूची बना रहा है. यानी सरकार भी इसके कानूनी पहलुओं का सामना करने को तैयार है. पर परम्परा कैसी पड़ रही है? राज्यपाल पद की मर्यादा कहाँ जा रही है? जरूरी है कि उसे मर्यादा के भीतर रखा जाए और कलुषित छाया से इसे बचाया जाए. गौर करें तो ज्यादातर राज्यपाल सक्रिय राजनीति से आते हैं और वे राजभवन में रहते हुए राजनीति खेलते हैं. 

संविधान निर्माताओं ने देश की भावी राजनीति के बारे में शायद इतनी गहराई से नहीं सोचा था. पर अब इस मामले का हल अदालत के बजाय राजनीतिक सर्वानुमति से होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में विधानसभा भंग करने के फैसले को असंवैधानिक बताने के बाद भी असेंबली को पुनर्जीवित करने का फैसला नहीं सुनाया था. शायद वह व्यावहारिक नहीं था. इसी तरह गुजरात में राज्यपाल कमला बेनीवाल द्वारा लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति को अदालत ने सही ठहराया और यह भी कहा कि राज्य सरकार से परामर्श के बगैर ही इस पद पर नियुक्ति के संबंध में राज्यपाल ने ‘अपनी भूमिका का गलत आकलन’ किया. वस्तुतः यह राजनीतिक सवाल है और इसका हल राजनीति को ही देना चाहिए. 

प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित

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