तुम कितने झूठे हो, देखा/ हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
पलाश विश्वास
बजर गिरे इस अर्थव्यवस्था पर!
बर्तोल्त ब्रेष्ट की कविता है – हम राज करें, तुम राम भजो!यह कविता सबसे आखिर में।
कोलकाता पर बज्जर गिराने वाले दिवंगत कवि त्रिलोचन के शब्दों को उधार लेकर कहें, कह सकें तो बेहतर, बज्जर गिरे इस अर्थ व्यवस्था पर। कवि त्रिलोचन को हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। वे आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो सतंभ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे। इस त्रयी में से बाबा नागार्जुन और शास्त्री जी से संवाद रहा है, लेकिन शमशेर को कभी छू नहीं पाया।
बजरबट्टू का अर्थ मूर्ख और उसकी व्युत्पत्ति वज्र और वटुः से है. … शब्दकोशों में तो साफ तौर पर बजरबट्टू को नजर से बचाने वाली माला या टोटका बताया गया है। …त्रिलोचन की चंपा ने तो कलकत्ते पर बजर ही गिरा दिया था।
चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं.
चंपा सुंदर की लड़की है
सुंदर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है
चंपा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चंपा अच्छी है
चंचल है
नटखट भी है
कभी-कभी ऊधम करती है
कभी-कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूँढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ – अब काग़ज़ गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
चंपा कहती है:
तुम काग़ज़ ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चंपा चुप हो जाती है
उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि
चंपा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चंपा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूँगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढूँगी
मैंने कहा चंपा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे संदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चंपा पढ़ लेना अच्छा है!
चंपा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूँगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी
कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी
कलकत्ता पर बजर गिरे।
चंपा हमारी तरह बजरबट्टू नहीं है। बालम से विछोह का असली कारण काले अक्षर न चीन्हने वाली चंपा को खूब मालूम था।
बजर मुक्त बाजारी अर्थव्यवस्था पर गिरने के कोई आसार जाहिर है नहीं इस बजरबट्टुओं के देश में। पहले दाम बढ़ाते हैं, पहले टैक्स बढ़ाते हैं, फिर बड़े प्यार से सहलाते हुए थोड़ा बोझ कम करते हैं। थोड़ा सा बोझ जो कम हुआ तोबजरबट्टू खुश। रेल किराया बढ़ोतरी का असर आम जनता पर सबसे ज्यादा होना है। रेल माल भाड़े बजरिये उसकीअर्थव्यवस्था पर बजर तो गिर ही गया है। पर आम जनता खुद गोलबंद नहीं हो सकती। उसके नुमाइंदे सारे के सारे अब अरबपति हैं या करोड़पति, जिनकी अलग अर्थ व्यवस्था है। राजनीति पर वे ही काबिज। संगठित क्षेत्रों की ही सुनी जाती है। संगठित क्षेत्रों में दलालों और बिचौलियों का वर्चस्व है और तमाम युनियनों और संगठनों पर भी उन्हीं का कब्जा।
सामने विधानसभाओं के चुनाव हैं। वोटों की परवाह करनी पड़ी रही है। महानगरों और उपनगरों में जनाक्रोश संगठित हो गया,तो राज्यों में सत्ता मुश्किल हो सकती है। बस, इसलिए भैंस गयी पानी में। पानी से निकलते ही सींग मारने लगेगी। लोकल भाड़ा और मंथली स्थगित हुआ है, वापस लेकिन हुआ नहीं है।
यात्री किराया और मालाभाड़े पर सारा शोरशराबा है लेकिन कोई माई का लाल रेलवे में शत प्रतिशत प्रत्यक्ष निवेश पर बोल नहीं रहा है। किराया और भाड़ा बढ़ाना असली एजेंडा नहीं है, न यह कोई सुधार है। सुधार तो निर्विरोध हो गया। रेलवे का बेसरकारीकरण बिना हंगामा हो गया।
इसी तरह तेल गैस की कीमतें या उर्वरक चीनी की कीमतें असली मुद्दे नहीं हैं। असली मुद्दा है विनियंत्रण का। असली मुद्दा है सब्सिडी का। कीमते विनियंत्रित हैं। यानी बाजार तय करेंगी कीमते तो कीमतों का विरोध करके आप किसका क्या उखाड़ लेंगे। जबकि विनियंत्रण का आपने कोई विरोध किया ही नहीं है। सब्सिडी खत्म करने के लिए आप बायोमेट्रिक नागरिक हो गये हैं। सब्सिडी खत्म की जा रही है। यह इकानामिक आटोमेशन है। आटो रन है। सरकार को कुछ लोकप्रिय अलोकप्रिय करने का है ही नहीं। कीमतें बाजार तय करेंगी। पांच रुपये दस रुपये बढ़ने का मामला यह नहीं है, कीमतों के निरंकुश हो जाने का मामला है। राजनीतिक हस्तक्षेप से कीमतें स्थगित हो सकती हैं। घटायी जा सकती है लेकिन प्रक्रिया जारी रहेगी। इस डीफाल्ट प्रकिया को डीएक्टिवेट करने की बात नहीं कर रहा कोई माई का लाल।
अब आलम यह देखिये, डीजल के बाद सरकार रसोई गैस व केरोसिन के दाम भी हर माह बढ़ाना चाहती है, ताकि इनके मद की 80000 करोड़ रुपये की सब्सिडी को समाप्त किया जा सके। खुल्मखुल्ला खेल है। सरकार एलपीजी सिलिंडर के दाम हर माह पांच रुपये व केरोसिन के दाम 0.50-1.0 रुपये महीना बढ़ाना चाहती है।
हमारे बचपन में मासिक धर्म पर चर्चा निषिद्ध था और अब मुक्त बाजार के उपभोक्ता संस्कृति में सब कुछ मासिक ईसीएस है। कैंसर की तरह भीतर से खोखला कर दें और वह कैंसर आखिरकार आपकी हर कोशिका को अचल कर दें, इसकी कोई परवाह नहीं। मासिक धर्म से जैसे बेफिक्री का कारोबार अब गोरा बनाओ उपक्रम की तरह फायदेमंद कारोबार है, उसी तरह जंक माल खपाने का यह मासिक बंदोबस्त भी नायाब है। जिबह करने की विशेषज्ञता का क्या कहिये।
अब जो दीर्घकाल से लंबित है, उसकी बारी है। यानी पेंशन, पीएफ और ग्रेच्युटी से लेकर जमापूंजी बाजार में डालने का एजेंडा। हाथी तो निकल ही गया है, पूंछ बाकी है। निजी कंपनियों को बैंकिंग लाइसेंस देकर बैंकिंग को पंजी स्कीम बना दिया गया है। जमा पूंजी निजी बैंकों के मार्फत बाजार में स्वाहा होने का रास्ता तैयार हो गया है। अब बाकायदा कानून बनाकर पीएफ पेंशन और ग्रेच्युटी को बीमा की तरह बाजार में खपाने की तैयारी है और यह पुण्यकर्म बिना रोकटोक हो जायेगा।
इस देश में प्रोमोटर बिल्डर राज अब इन्फ्रास्ट्रक्चर है। जोर का झटका धीरे से लगे, इसके लिए जैसे पहली राजग सरकार ने बेसरकारीकरण को विनिवेश बताकर महिमामंडित किया है और बजरबट्टू जनता को तो क्या, बेसरकारीकरण के शिकार होकर फुटपाथ पर भिखारी बनकर खड़े होते हुए मलाईदार पढ़े लिखे लोगों को भी अभी ठीक-ठीक मालूम नहीं हुआ कि विनिवेश का खेल क्या है।
जैसे जनता विकास के नाम पर बम बम है। विकास के केदार हश्र का समीकरण जनता को नहीं मालूम। जल जंगल जमीन और आजीविका से विकास का रिश्ता भी जनता नहीं समझती। विकास दरअसल निर्बाध प्रमोटर बिल्डर राज है। टेंडर भरकर बिना काम किये बिना भुगतान किये योजनाओं की फसल जेबों में भरने का काम, जिसे अब सामाजिक योजना भी कहा जाने लगा है। आगामी बजट में वही इन्फ्रा का बोलबाला होना है। वही लंबित परियोजनाओं को हरी झंडी देने का युद्ध गृहयुद्ध का घोषणापत्र होना है बजट। विदेशी निवेशकों के लिए खुल्ला दरवज्जा है। विदेशी कंपनियों को भारत में कमाई पर टैक्स भी नहीं भरना है। टैक्स भरने के लिए बजरबट्टू जनता है।
यह अर्थ व्यवस्था कैसी होती है, निजी अनुभव से महसूस करने की कोशिश करें। मेरा कंप्यूटर इस महीने दो-दो बार खराब हुआ। ठीक कराया तो वज्रवृष्टि से बूढ़ी टीवी कोमा में है। सर्किट बदलकर प्राण फूकने की बात कर रहे हैं टेक्नीशियन। घाटे के बजट में यह मामला लंबित है। घर पखवाड़े भर से टीवीमुक्त है। तीन महीने का बिजली का बिल बकाया है और फ्रिज मरणासण्ण है। केबल का बिल दो महीने से भरा नहीं है जो अबकी दफा बढ़ने वाला है। मेडिकल बिल महीनों से बकाया है तो न्यूज पेपर का बिल भी।
गौरतलब बात यह है कि इनमें से कोई भी समस्या हमारी बुनियादी जरुरत से जुड़ी नहीं है। नागरिक जीवन की आधुनिकता की शर्तें पूरी करने में हम बेहाल हैं। जो भी कमाया, बाजार में खप गया।
सर्वग्रासी बाजार ही बजरबट्टू जनता की अर्थ व्यवस्था है, जिसकी मार से उसकी रोजमर्रे की जिंदगी लहूलुहान है। देश की अर्थव्यवस्था से उसका लेना देना नहीं है। उसकी नजर से अर्थव्यवस्था पर बात करना देशद्रोह है। देश की अर्थ व्यवस्था पर काबिज लोग असली देशभक्त हैं। असली देशभक्तों को ही देस बेच डालने का भी हक है और जो उनका विरोध करें, वे तमाम लोग देशद्रोही हैं।
साठ के दशक में यूपीवाले लोग जनसंघ को बनियों की पार्टी बताते थे। दीपक शहरों में जलता था तब, गांवों में नहीं। इसी के मध्य सन सड़सठ के आम चुनावों मे देशव्यापी मोहभंग के परिदृश्य में यूपी विधानसभा में जनसंघ को निनानब्वे सीटें मिल गयीं। इंदिरा जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर पाबंगी लगाकर आपातकाल में संघियों को मीसाबंदी बनाकर जनसंघ का कायाकल्प कर दिया। बजरिये जनता पार्टी और वाम समर्थन जनसंघ का कायाकल्प हो गया और अब देस के कोने कोने में कमल खिल रहा है। यूपीवालों के नाती पोते अब सारे के सारे बनिया पार्टी में हैं।
महात्मा गांधी की राजनीतिक भूमिका रामराज की स्थापना देने में है और धर्म का सबसे पहले कामयाब राजनीतिक इस्तेमाल उन्होंने ही किया। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा से भी पहले। इससे भी बड़ा योगदान गांधी का यह है कि कायस्थों और राजपूतों को किनारे करके सत्तावर्ग में ब्राह्मणों के साथ बनिया संप्रदाय को स्थायित्व देना। अब मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में भी बनियाराज है, संघी बाम्हणों की तरह ब्राह्मण भी हाशिये पर हैं। लेकिन ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद विरोधी राजनीति के अभ्यस्त लाल नील राजनीति इस बनियाराज के खिलाफ कुछ भी कहने करने की हालत में नहीं है। गांधी की ह्त्या के मामले में अभियुक्त संघ परिवार को कम से कम इस लिहाज से गांधी और गांधीवादियों का आभार मानना चाहिए।
नई ट्रेनें शुरु करने से पहले सुरक्षा इंतजामात और रेलवे ट्रैक को दुरुस्त करने की परिपाटी है नहीं। इन्हीं बेपटरी पटरियों पर बुलेट ट्रेनें दौड़ाने का ख्वाब सजाये हम बजरंगी भारतीय रेलवे को दुनिया की नंबर वन रेलवे बनाने पर तुले हैं। नंबर वन बनाने के लिए एक्सप्रेस ट्रेनों में जनरल डिब्बे ही खत्म किये जा रहे हैं। आधे से ज्यादा वातानाकूलित ट्रेन में बाकी बचे डिब्बों में भेड़ बकरियों की तरह सफर करने वालों को कोई राहत लेकिन दी नहीं गयी है। महानगरों को दौड़ने वाली लोकल ट्रेनों के रोजाना पैसेंजरों को खत्म करने की कवायद हो रही है।
फिर मजा देखिये, इराक संकट के मद्देनजर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कवायद है और निवेशकों को हर छूट दी जा रही है। इतनी ज्यादा छूट कि तेलकुओं की आंच से झलसे सांढ़ों की उछल कूद फिर शुरु हो गयी है।
मजे के लिए जानकारी और भी है, तेल संकट का असलियत भी जान लीजिये। आशंकाओं के विपरीत विश्वबाजार में तेल की कीमते बढ़ने के बजाय घटी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश की कमान संभाले एक महीना बीत चुका है।लेकिन 30 दिन में सरकार ने केवल एक ही सख्त फैसला लिया है और वह है कि रेल बजट से पहले यात्री किराये में 14.2 फीसदी का इजाफा। इसी से त्राहि त्राहि है। महंगाई और रेलकिराया तो झांकी है,अभी अंबानी का उधार बाकी है। पूर्ववर्ती सरकार के फैसले को बहाल रखने के लिए रेल किराया बढ़ा दिया लेकिन मोदी सरकार पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार का नामोनिशां मिटाने पर ही आमादा लग रही है। इसके लिए वह संप्रग द्वारा नियुक्त राज्यपालों से इस्तीफे मांग चुकी है और राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण जैसे संवैधानिक संस्थानों के प्रमुखों को भी हटाने में जुटी है। पूर्ववर्ती सरकार के जमाने में पास भूमि अधिग्रहण कानून ,खनन संशोधन अधिनियम और खाद्यसुरक्षा अधिनियम भी बदलने की तैयारी है। प्रधानमंत्री कार्यालय में अन्य नियुक्तियां भी हैरान करने वाली हैं।
भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के पूर्व चेयरमैन नृपेंद्र मिश्रा को पीएमओ में प्रमुख सचिव नियुक्त करने के लिए सरकार ने एक अध्यादेश के जरिये ट्राई अधिनियम ही बदल डाला।
जोर का झटका धीरे से लगे। दाम बढ़ाकर राहत का पुराना खेल। महानगर केंद्रित जनांदोलनों के मध्य अब पेंशन, पीएफ ग्रेच्युटी भी बाजार के हवाले ताकि अर्थव्यवस्था पटरी पर रहे। ऑयल एंड गैस शेयरों में खासकर ऑयल मार्केटिंग कंपनियों में ज्यादा तेजी हो चुकी है। जिस तरह सरकार की योजना है अगर डीजल डीरेगुलेशन हुआ तो ओएनजीसी, ऑयल इंडिया में मौजूदा स्तरों से भी ज्यादा रिटर्न आने का अनुमान है। हालांकि सरकार की इंफ्रा सेक्टर को रिवाइव करने की योजना है लेकिन इस समय इंफ्रा कंपनियों के मुकाबले कंस्ट्रक्शन कंपनियों में निवेश करना ज्यादा बेहतर हो सकता है। इंफ्रा क्षेत्र में ऐसेट या हिस्सेदारी बेचने वाली कंपनियों में चुनिंदा निवेश करने की सलाह है। इसके अलावा आईटी, फार्मा कंपनियों में न्यूट्रल से ओवरवेट नजरिया रखने की सलाह है। साथ ही एफएमसीजी क्षेत्र में सस्ते वैल्यूएशन वाली कंपनियों के शेयरों में निवेश बनाए रखने की सलाह है।
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