बहुत साल पहले जब खेलने के लिए पहली बार स्टेडियम गया तो एक ऐसा अनुभव हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ था। अनफेयर सलेक्शन का। बाद में मैं खुद इसी जमात में शामिल हो गया...
छुट्टियों के दिनों में कई नौसिखिए खिलाड़ी स्टेडियम पहुंचते थे। यह स्टेडियम एक छोटा-मोटा स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स की तरह था। मैंने एक साथ चार खेलों का चुनाव किया। पहले टीटी और बैडमिंटन खेलेंगे, इसके बाद फुटबॉल और आखिर में बास्केटबॉल। बैडमिंटन और फुटबॉल में मैं प्रियता के अनुसार पात्रता बांटे जाने का “शिकार” हुआ। टीटी और बास्केटबॉल खेलने वाले खिलाड़ी कम थे। दोनों ही खेलों में अपेक्षाकृत अधिक स्किल की जरूरत थी। छूटी हुई दोनों चीजें मुझे आसानी से मिल गई। मैं हमेशा चिढ़ता रहता था कि फुटबॉल और बैडमिंटन में जमे हुए भोमिए किसी को आसानी से अंदर नहीं आने देते। अपने चेहतों को आसान प्रवेश, बाकी लोगों के लिए कठिन परीक्षाएं। धीरे धीरे टीटी भी छूट गया, केवल बास्केटबॉल रहा।
यहां अधिक अच्छे खिलाड़ी नहीं थे। सभी शौकिया और आस-पास रहने वाले लोग थे। मैं ही सबसे अधिक दूरी से आता था। बास्केटबॉल में पुष्करणा स्टेडियम में खेलने के कुछ ही महीनों बाद मैंने डूंगर कॉलेज और रेलवे स्टेडियम में भी खेलना शुरू कर दिया था। इससे मेरा खेल तेजी से सुधरा और मेरे साथ पुष्करणा स्टेडियम में खेल रहे शौकिया खिलाडि़यों का स्तर भी तेजी से ऊपर आया। खेलते हुए करीब एक साल हो गया तब तक करीब पंद्रह खिलाड़ी हो गए थे। यह तीन टीमें बनाने के लिए पर्याप्त था। दो टीमें खेलती जो हारती वह हटती थी। मैं श्रेष्ठ खिलाडि़यों में से एक था। बाद में डूंगर कॉलेज और रेलवे स्टेडियम भी छूटते गए और मैं सुबह शाम दोनों समय करीब छह सात घंटे रोजाना प्रेक्टिस कर रहा था। इन्हीं दिनों में कई नए खिलाड़ी भी मैदान में आए। इनमें नौसिखिए भी थे और अच्छे खिलाड़ी थी। चूंकि मैं श्रेष्ठ खिलाड़ी था और उस समय तक यह कुंठा मुझ पर पूरी तरह हावी हो चुकी थी। श्रेष्ठ खिलाड़ी होने के कई फायदे होते हैं, आपको भागकर बॉल नहीं लानी होती है, जब आप प्रेक्टिस कर रहे होते हैं तो जूनियर दौड़कर आपको बॉल पकड़ाते हैं आदि आदि। नए खिलाड़ी मुझे गांठते नहीं थे। सालभर से अधिक समय तक मेहनत करने के बाद मुझे लगने लगा कि इन खिलाडि़यों द्वारा मेरी इज्जत की जानी चाहिए। इसी कुंठा में मैंने खिलाडि़यों के गुट बना दिए। पुराने खिलाड़ी शायद यही चाहते थे (मेरी तरह), सो गुट आसानी से बन गए। इसी बीच मुझे टाइफाइड हुआ।
कई दिन के अवकाश के बाद फिर से ग्राउंड पहुंचा तो पुरानी ताजगी लौट आई थी। वहां हो चुकी गुटबाजी और उससे बिगड़ते खेल और उससे भंग होते आनन्द को मैं निरपेक्ष भाव से देख पा रहा था। मन में बड़ी ग्लानि हुई। अब अगले पंद्रह दिन तक मैंने जैसे कैम्प चालू कर दिया। नए और पुराने खिलाडि़यों को एक ही छड़ी से ताड़ना शुरू किया। सभी कतार में आ गए। खेल का आनन्द फिर से शुरू हो गया, लेकिन मैं अधिक खराब हो गया। क्योंकि मेरी भूमिका खिलाड़ी से बदलकर कोच की हो गई। अब अहं पहले से भी अधिक हो गया। इसके चलते उदंड खिलाडि़यों से मेरी नियमित नोंक झोंक होने लगी। अधिकतर उदंड खिलाड़ी ऐसे थे जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि खिलाडि़यों की ही थी। ऐसे में वे भी “बाहर के” कोच को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। धीरे धीरे बास्केटबॉल के मैदान से नाता टूटता गया। एक दिन पूरी तरह जाना बंद कर दिया।
इस प्रकरण के कई साल बाद स्वामीनारायणन् जी से मुलाकात हुई। एक बार की बातचीत में मुझसे कहीं ऐसी बात निकली होगी तो उन्होंने एक रोचक कथा सुनाई कि
“रामराज्य के दिन थे, राजा राम का दरबार लगा हुआ था कि एक कुत्ता वहां आया। उसका सिर फटा हुआ था और उससे खून निकल रहा था। उन दिनों जानवर भी बोला करते थे। कुत्ते ने कहा कि एक ब्राह्मण ने अकारण ही उसका यह हाल किया है। भगवान राम ने तुरंत ब्राह्मण को दरबार में बुलाया। ब्राह्मण ने आते ही बताया कि वह गंगाजी में नहाकर बाहर निकला ही था कि इस कुत्ते ने खुद को झड़काने के उद्देश्य से कुछ छींटे उछाले। इससे मैं अपवित्र हो गया। मुझे गुस्सा आया तो मैंने ईंट से मारकर इस कुत्ते का सिर फोड़ दिया। भगवान को कथा समझ में आ गई। उन्होंने ब्राह्मण से कहा कि तुम्हें इसकी सजा मिलेगी। फिर कुत्ते से पूछा कि तुम ही बताओ कि इस ब्राह्मण को क्या सजा दी जाए। इस पर कुत्ते ने कहा कि मैं तो धोबी का कुत्ता हूं। इस कारण मुझे कभी घाट तो कभी धोबी के घर चक्कर लगाने पड़ते हैं, लेकिन मैं दोनों ही जगह का नहीं रहा। इस ब्राह्मण को कुछ ऐसी सजा मिलनी चाहिए, जिससे इसे मेरी वास्तविक स्थिति का पता चले। राम मुस्कुराए, उन्होंने ब्राह्मण को आश्रम का साधू बना दिया।”
मैंने स्वामीनारायणजी से पूछा कि ब्राह्मण को यह सजा कैसे मिली। अब वे हंसने लगे। बोले आश्रम का साधू कहीं का नहीं होता। घर-बार इसलिए छोड़ता है ताकि दुनियादारी से दूर रहे, लेकिन आश्रम की व्यवस्थाएं एक कुशल गृहिणी की तरह उसे देखनी पड़ती है। आया-गया साधू आश्रम की व्यवस्थाओं के लिए उसे कोसता है, आश्रम के अधिष्ठाताओं के सामने उसे हाजिरी लगानी पड़ती है। व्यवस्थाएं देखते देखते साधू खुद को आश्रम से पूरी तरह जोड़ लेता है और तो और उसे खुद के आध्यात्मिक उत्थान के लिए उसे समय नहीं मिल पाता है। ऐसे में वह न घर-परिवार वाला रहता है न पूरी तरह साधू बन पाता है। यह कमोबेश धोबी के कुत्ते वाली ही स्थिति है।
उन्होंने कुछ इस अंदाज में बात कही कि मुझे अपने बॉस्केटबॉल कोर्ट वाले दिन याद हो आए। मैं समझ गया कि एक बास्केटबॉल कोर्ट पर नियमित रूप से आते-जाते कैसे मैं उसे अपना समझने लगा था। वहां की अधिकार भावना भी ऐसी ही थी। वहां मेरा कुछ नहीं था, जब गया था तब कोर्ट था और जब छोड़कर आया तब भी कोर्ट ही था। आनन्द लेने के बजाय मैंने खुद को व्यवस्थाओं के हवाले कर दिया था। यही स्थिति अन्य खेलों (बैडमिंटन, फुटबॉल और टीटी) के मठाधीशों की रही होगी।
अब ऑनलाइन चल रहे खेल को देखता हूं तो दिखाई दे रहा है कि जहां सब कुछ स्वतंत्र है और सभी आनन्द लेने वाले लोग हैं (इसमें टूल्स के फ्री होने का बड़ा योगदान है), वहां धीरे धीरे लोग अपने निकाय बनाते जा रहे हैं। फेसबुक समूह और पेज तो ऐसी जगहें बन रही हैं, जहां इस भावना का जमकर दोहन किया जा रहा है। कमोबेश यही स्थिति ब्लॉगिंग की भी है। बीच के दो साल ब्लॉगिंग से दूर रहा और अब लौटकर आया हूं तो देखता हूं कि शुरूआती दिनों में मुक्तता के साथ सृजन का जो आनन्द था, उसके रस को काल ने पी लिया है। अब अधिकांश ब्लॉगर और फेसबुकिए अपने अहं का विस्तार कर रहे हैं। ब्लॉगिंग में भी ऐसे निकाय देख रहा हूं। कई ब्लॉगर तो एक-दूसरे के ब्लॉग पर जाना तक छोड़ चुके हैं।
इस वर्चुअल दुनिया में, जहां न आश्रम अपना है, न घर अपना है। फिर क्यों आश्रम के साधू बनें !!!!!
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