गुरुवार, 12 जून 2014

नक्सलवाद से भी खतरनाक है औद्योगिक आतंकवाद ?

जयराम शुक्ल

प्रदेश के लाखें-लाख किसान औद्योगिकरण के नाम पर इसी तरह छले और ठगे जा रहे  हैं। अफसरशाही - नेता - उद्योगपतियों का गठजोड़ उत्तरोत्तर मजबूत होता जा रहा है। नक्सलवाद को समाज का नासूर करार देने वालों के कानों में क्या कभी औद्योगिक आतंकवाद की दस्तक सुनाई देगी। 


ऊॅचे लोगों की बड़ी महफिलें कैसे सजती हैं उसके ब्यौरे सुनकर आँखें चुंधिया जाती हैं। पिछले पखवाड़े भोपाल में दो वरिष्ठ आईएएस की स्वागत व विदाई पार्टियां एक साथ हुर्इं। इन हाईप्रोफाइल पार्टियों में शामिल रहे मेरे एक मित्र ने बताया कि एक नाइट पार्टी में छ:हजार प्रति पैग वाली शराब का दौर चला। इस हिसाब से गणित लगाएं तो औसतन एक मेहमान 24से 25 हजार की सिर्फ शराब ही गटक गए होंगे। आश्चर्य में डाल देने वाले इस ब्यौरे में मित्र को कुछ भी असहज नहीं लगा। उसने बताया कि जहां अरविंद-टीनू जोशी, डॉ. एएन मित्तल और डीएफओ पलाश जैसे लोगों की फेहरिश्त हो,जिन की कमाई का टर्नओवर एक अच्छी खासी इंडस्ट्री के भी टर्न ओवर से ज्यादा हो,वहां तो आप जैसे अखबारियों की महीने भर की पगार एक वेटर की टिप में दी जा सकती है। पिछले हफ्ते इस घटना के ‘हैंग ओवर’से सहज हो नहीं पाया कि खबर आ गई, रायसेन बरेली में किसानों पर पुलिस ने गोलियां चलाई, एक की मौत हो गई, कई घायल हो गए। ये किसान मण्डी में अपना गेहूं बेचने के लिए गए थे। हफ्ते भर से चिलचिलाती धूप और मच्छर-खटमल भरी रात काट रहे किसानों के सब्र का बांध टूटने लगा तो उन्होंने प्रदर्शन-धरना देकर यह जानने की कोशिश की थी कि उनका अनाज खरीदा भी जायेगा या नहीं?बस बात इतने से ही बिगड़ी और पुलिस ने पहले लाठियां भांजी फिर धांय-धांय गोलियां चला दी। जो किसान मारा गया वह घर का इकलौता चिराग था।

किसानों के गेहूं का मूल्य कितना? प्रति क्विंटल सरकार का समर्थन मूल्य है 1385 रुपये । व्यापारी किसानों के खलिहान से 11 सौ से 12 सौ रुपये में खरीद लेते हैं। 185 रुपये प्रति क्विंटल अतिरिक्त का लोभ किसानों को मण्डी तक खींच लाता है। इसी लोभ के चलते हजारों-हजार किसान पूरे प्रदेश भर की मंडियों और खरीद केन्द्रों में लाखों क्विंटल अन्न के साथ हफ्तों-हफ्तों से जमा हंै। सरकार के पास वारदाने नहीं हैं। पर एक खेतिहर कमिश्नर के फार्महाउस में हजारों की संख्या में सरकारी वारदाने यूं ही पहुंच जाते हैं,वहीं अन्न तुलता है ,उन्हीं के गोदाम में स्टोर हो जाता है और वहीं नगद भुगतान भी। कमिश्नर साहब अरविंद-टीनू जोशी,मित्तल या पलाश की प्रजाति के नहीं हैं पर फिर भी व्यवस्था तंत्र एक ओर किसानों पर गोलियां दागता है तो दूसरी ओर उनके चरणों पर पड़ा है। एक ओर शराब के एक पैग का मूल्य छ:हजार दूसरी ओर 185रुपये के अतिरिक्त लाभ को लेकर जीवन की बाजी लगा देने वाला अन्नदाता। ऐसे मंजर आप अपने देश में ही देख सकते हैं,अपने इर्द-गिर्द,अपनी राजधानी में।

पिछले के पिछले साल कला का शिल्पलोक कहे जाने वाले खजुराहो में इंटरनेशनल इनवेस्टर समिट का आयोजन किया गया था। अपनी समूची प्रदेश सरकार कारपोरेट घरानों के लिए रेडकारपेट बिछाए बैठी थी। मंत्री,सचिव आला अफसर उद्योगपतियों की फूलमाला गुलदस्तों के साथ स्वागत आरती में मग्न थे। पांच सितारा होटल की रंगीनियों के बीच कोई डेढ़ दो लाख करोड़ रुपये के एमओयू साइन हुए। तुर्रा था कि पिछड़ा प्रदेश विकास की रफ्तार पकड़कर गुजरात से एक पायदान ऊपर हो जायेगा। खजुराहो की रंगीनियों के बीच किसानों और वनवासियों की किस्मत का सौदा हो गया। पिन्डारियों की तरह ये औद्योगिक घरानें, प्रकृति संपदा से सम्पन्न जिलों की ओर अब छिटक रहे हैं। अकूत प्राकृतिक संपदा वहां के रहवासियों के लिए वैसे ही जानलेवा है जैसे की मृग के लिए कस्तूरी। हाल ही की अनूपपुर की घटना सामने है। मोजर-वेयर के प्रस्तावित पावरप्लांट में प्रशासन व किसानों के बीच खूनी झड़प हुई। इस बार पुलिस प्रशासन का पलड़ा कुछ कमजोर था,लिहाजा किसान भारी पड़े,पुलिसवाले पिट गए किसान जेलों में बंद हैं। अगली बार फैक्ट्री प्रबंधन और प्रशासन का गठजोड़ ज्यादा मजबूत होगा। संभव है कि दुबारा विरोध हो तो किसानों की लाशें बिछ जायें। फैक्ट्री प्रबंधन और प्रशासन दोनों इसकी चेतावनी अभी से देना शुरू कर दिया है। नतीजा किसानों की जमीन औने-पौने दाम पर छीनी जाती हैं तो छिनने दी जाये,विरोध किया गया तो पुलिस की बंदूकें तैयार हैं।

पूरे प्रदेश में जहां-जहां नए उद्योग जा रहे हैं,किसानों के समक्ष ऐसा ही संकट खड़ा हो रहा है। फैक्ट्री के गुन्डों व दलालों को उनकी कीमत के अनुसार जमीन बेंच दें या फिर मरने या गांव छोड़ने के लिए तैयार हो जायें। सिंगरौली के विस्थापितों के संताप के बारे में दुनिया भर के मानव अधिकार संगठनों ने कई किताबें रचीं। शोध अध्ययन प्रकाशित किये। पर क्या हुआ, सिंगरौली अंचल के ढाई सौ गांव उनकी सभ्यता,संस्कृति, लोक परंपरा, रीति-रिवाज सब कोयले के ओवर वर्डन के नीचे दबी हैं। खैरवार जैसी जनजाति लुप्त प्राय हो गई जो मौलिक रूप से यहीं की थी। पूरे विंध्य में सरकार की छत्रछाया और प्रशासन की लाठी के दम पर उद्योगों का ऐसा ही विस्तार होना शुरू हुआ है। कहने को केन्द्र व राज्यों की भू-अर्जन व विस्थापन नीति तय है। विस्थापितों को रोजगार व अन्य सुविधाओं के आकर्षक कारारनामें हैं लेकिन सब पुस्तिकाओं और इन्वेस्टर मीट के आकर्षक फोल्डरों व ब्राउसर्स में। प्रदेश में आज जितने भी उद्योग स्थापित होने जा रहे हैं उनके लिए यह कारारनामें रद्दी के टुकड़े हैं। रुचि सोया की सीमेंट इकाई सतना में खुल रही है। इससे पहले इसी गु्रप ने यहां कृषि अनुसंधान केन्द्र खोलने के लिए किसानों से सैकड़ों एकड़ भूमि अर्जित की थी। अब कृषि अनुसंधान केन्द्र गया चूल्हे-भाड़ में, उसी जमीन पर खड़ी हो रही है सीमेंट इकाई कोई क्या कर लेगा? इसी सीमेंट इकाई के नक्शे कदम पर हर नई औद्योगिक इकाइयां चल रही हैं। इनके एजेंट व दलाल किसानों की जमीनों का सौदा करते हैं और फिर उसे उद्योगों को पलट देते हैं। कारपोरेट सोशल रिसपांसबिल्टी की बात सिर्फ सरकार की इनवेस्टर समिट में ही सिमट जाती है। समूचे प्रदेश के लाखों-लाख औद्योगीकरण के नाम पर इसी तरह छले और ठगे जा रहे हैं। हमारा व्यवस्था तंत्र छ: हजार रुपये की एक पैग वाली शराब के साथ नाइटपार्टी में मगन हैं। अफसरशाही-नेता-उद्योगपतियों का गठजोड़ उत्तरोत्तर मजबूत होता जा रहा है। नक्सलवाद को समाज का नासूर करार देने वालों के कानों में क्या कभी औद्योगिक आतंकवाद की दस्तक सुनाई देगी।



 लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।All Right Reserved aawaz-e-hind.in.|Online News Channel

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