मंगलवार, 26 अगस्त 2014

स्वराज में तो ऐसा नहीं होता

बी.पी. गौतम 

जनता का शासन जनता लिए कहने,सुनने, बोलने और पढ़ने को ही है। वास्तव में शासन राजनेता और अफसर कर रहे हैं और जनता की स्थिति गुलामों जैसी ही है,इससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि वास्तविक प्रजातंत्र स्थापित करने की दिशा में कार्य करने वाला दूर तक कोई नज़र भी नहीं आ रहा। 

संविधान में नागरिकों को दिए गये अधिकार और शक्तियां महत्वहीन हो गई हैं। वास्तव में शक्ति का दुरुपयोग कर नेताओं और अफसरों ने जनता को गुलाम बना लिया है। आज नेता और अफसर आम आदमी के साथ गुलामों जैसा ही व्यवहार करते नज़र आ रहे हैं। आज़ादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी लेखपाल और सिपाही तक आम आदमी से कुर्सी पर बैठ कर बात करते हैं। एसडीएम, सीओ, डीएम, एसपी, कमिश्नर, डीआईजी और आईजी के कार्यालय में तो आम आदमी उनकी अनुमति के बिना प्रवेश तक नहीं कर सकता,इसी तरह आम आदमी के लिए प्रमुख सचिव और डीजीपी स्तर के अधिकारियों के कार्यालय तक पहुंचना भी किसी जंग जीतने से कम नहीं है। जनप्रतिनिधियों की बात करें, तो उनका भी बस, नाम ही जनप्रतिनिधि है, वास्तव में जनप्रतिनिधियों का व्यवहार जनता से शहंशाहों जैसा ही रहता है। अफसरों से पीड़ित कोई व्यक्ति अपने जनप्रतिनिधि के पास जाता है,तो आम आदमी को दरवाजे से आगे नहीं बढ़ने दिया जाता। घंटों इंतज़ार के बाद नेता राजाओं की तरह ही बाहर आता है और प्रजा की तरह ही आम आदमी से मिलता दिखाई देता है।

उत्तर प्रदेश की बात करें, तो आम आदमी की हैसियत दीन-हीन प्रजा जैसी ही नज़र आती है। पीड़ित व्यक्ति हर छोटी-बड़ी समस्या के समाधान को लेकर मुख्यालय तक दौड़ न लगाएं,अर्थात आम आदमी की सहूलियत के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश में तहसील दिवस आयोजित किये जाते हैं,जिसमें जिले के सभी प्रमुख अधिकारियों को तहसील पर जाकर आम आदमी की समस्याओं का निराकरण करना होता है, यह व्यवस्था लागू करते समय ऐसा ही कहा गया था, लेकिन पिछले दिनों जनपद बदायूं की तहसील सहसवान में आयोजित तहसील दिवस के दृश्य को देख कर लगा कि ऐसा प्रजातंत्र में तो नहीं हो सकता।

जिलाधिकारी जीएस प्रियदर्शी के साथ जनपद स्तर के सभी अधिकारी चादरों से ढकी मेज के उस पार कुर्सियों पर विराजमान थे। मेज पर मिनरल वाटर की बोतलें जगह-जगह सजी थीं, बीच-बीच में काजू, मूंगफली और विभिन्न दालों की महंगी वाली नमकीन अपनी खुशबु बिखेर रही थी, साथ में मिठाइयों की प्लेट किसी को भी आकर्षित करने लिए काफी थीं,लेकिन यह सब आम आदमी के लिए नहीं, बल्कि उन अफसरों के लिए थीं, जो मुख्यालय से आम आदमी की समस्याओं को हल करने गये थे। अफसर शहंशाहों की तरह ही कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ काजू गटकते दिखाई दे रहे थे और मेज के इस पार देश का मालिक कहे जाने वाले आम आदमी लाईन में खड़े तमाम आदेश-निर्देशों का पालन करते हुए खड़े दिखाई दे रहे थे। कोई व्यक्ति अधिक बोल देता, तो अफसर झिड़क देता और कोई कम बोलता, तो भी अफसर झिड़क देता। आम आदमी को कितना और कब बोलना है, यह भी सामने वाला अफसर ही तय कर रहा था। यह तो एक उदाहरण मात्र है, ऐसे ही दृश्य हर दिन देखे जा सकते हैं और दृश्य सामने आते ही मन में यही सवाल बार-बार उठता है कि क्या यही है स्वराज?

असलियत में स्वराज के नाम पर भी आम आदमी को ठगा गया है,जो अब स्पष्ट समझ आ रहा है। वास्तविक स्वराज के लिए अभी आम आदमी को और संघर्ष करना पड़ेगा।


लेखक - स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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