मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
देशभर में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना दोनों की यही छवि है कि यह दोनों राजनैतिक पार्टियां वैचारिक रूप से एक-दूसरे के बेहद करीब हैं। अभी तक के दोनों के आचरण से भी यही लगता रहा है कि भले ही राजनीतिक दृष्टि से दोनों पार्टियों के अपने हित-अहित हों लेकिन देश में समान आचार संहिता होनी चाहिए, कश्मीर से धारा 370 समाप्त होना जरूरी है, देश के आर्थिकमामले तथा सच्चर कमेटी की रपट जैसे कई विषय हैं जिन पर भाजपा-शिवसेना परस्पर एक जैसा ही सोचते हैं। दोनों ही पार्टियों की खास पहचान हिन्दुत्ववादी होना है, फिर भी इन दिनों जिस प्रकार की परिस्थितियां बन रही हैं, उन्हें देखकर यही कहना होगा कि कहीं न कहीं यह दोनों ही दल अपना अहम नहीं छोड़ पा रहे हैं।
भाजपा के शिवसेना को उसके एक क्षेत्रीय दल होने की वज़ह से अपने तर्क हो सकते हैं किंतु इसे कैसे नकारा जा सकता है कि शिवसेना ही वह राजनीतिक पार्टी है जो भाजपा के साथ संकट के वक्त भी सदैव उसके सहयोग के लिए खड़ी रही है। शिवसेना को भी आज यह समझना जरूरी है कि वह भाजपा जैसी देशभर में मान्यता और जन-जन में स्वीकार्य राजनैतिक पार्टी नहीं है। सपा और बसपा की तरह उसका भी एक राज्य में ही व्यापक जन समर्थन है। आखिर वह क्यों उतने अधिक की मांग भाजपा से कर रही है जिसकी वह हकदार ही नहीं । यह सर्वविदित है कि शिवसेना केंद्रीय कैबिनेट में अपने सांसदों को मनचाहा मंत्रिपद न दिए जाने और महाराष्ट्र में अपना डिप्टी सीएम नहीं बनने दिए जाने के कारण से भाजपा से नाराज चल है। इसीलिए ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रीपरिषद विस्तार के शपथ ग्रहण समारोह में शिवसेना की ओर से कोई नेता शामिल नहीं हुआ और उसने अपनी दूरियां बनाए रखी। लेकिन जिस प्रकार आनन-फानन में उद्धव ठाकरे ने शिवसेना की अहम बैठक बुलाई, उससे देशभर में क्या संदेश गया होगा ? यही कि पार्टी अभी तक अपने दिए गए भाजपा को समर्थन का सूद सहित वसूल कर लेना चाहती है। भाजपा की तरफ से जब शिवसेना को उनके दो सांसदों को मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री का पद ऑफर किया था, तो उसे अपनी वर्तमान स्थिति को देखते हुए स्वीकार कर लेना चाहिए था।
आज दन दोनों सहयोगियों के बीच दूरियां बढऩे के बाद भी बहुत कुछ ऐसा मौजूद है जो इन्हें जोडक़र रखने की क्षमता रखता है, तभी तो उद्धव ठाकरे ने भाजपा-शिवसेना में आई खटास का ठीकरा राकांपा के सिर फोड़ा है। वे अपनी बात साफगोई से रखते हुए कह गए कि आज देश में हिंदुत्ववादी शक्तियों को एक साथ होने की जरूरत है। अब यहां शिवसेना को नहीं भाजपा को सोचना होगा कि वह उन शरद पवार का साथ नहीं ले , जिन्होंने सबसे पहले हिंदू आतंकवाद एवं भगवा आतंकवाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया एवं जिनकी पार्टी आतंकियों का साथ देनेवाली इशरत जहां के परिवार के साथ खड़ी रही है। इतना ही नहीं तो 13 दिनी अटल सरकार गिराने में सबसे आगे भी यही पार्टी रही है।
भाजपा यदि महाराष्ट्र में राकांपा के बाहरी समर्थन से सरकार बनाने में सफल हो गई तो शिवसेना के पास विपक्ष में बैठने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचेगा। हालांकि उद्धव ने भाजपा को सोचने के लिए दो दिन का वक्त दिया है। उद्धव ने साफ कहा है कि बीच का रास्ता अभी भी खुला हुआ है। उद्धव के अनुसार महाराष्ट्र में मान-सम्मान से समझौता करके हम केंद्र की सत्ता नहीं भोगना चाहेंगे। एक नजऱ से देखाजाए तो वह भी भाजपा से कुछ गलत नहीं कह रहे, उन्हें भी आगे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए महाराष्ट्र में संघर्ष करना है। हां, इतना अवश्य है कि उन्हें भाजपा की ओर से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनाए गए देवेंद्र फडऩवीसकी बातों पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा कि शिवसेना को नरेंद्र मोदी जी पर भरोसा रखना चाहिए । पद, विभाग और मंत्रियों की संख्या को दरकिनार कर सेना यदि अब भी भाजपा से चर्चा करना चाहे तो सदैव उसका स्वागत है।
वैसे राजनीति में कुछ भी संभव है, कब दोस्त ही दुश्मन बन जाते हैं और कब दुश्मन यहां दोस्त, कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन महाराष्ट्र में सरकार बनाने के बहुमत आंकड़े को समझना जरूरी है। भाजपा के लिए कल तक के साप और नाग नाथ यदि आज हम साथ-साथ हैं हो जाएंगे तो इसमें भला किसका है, महाराष्ट्र की जनता, भाजपा या शिवसेना का ? जवाब होगा बिल्कुल नहीं, सिर्फ लाभ होगा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को, क्यों की आज की तारीख में भष्टाचार के दल-दल में उसी के सबसे ज्यादा प्रमुख राजनेता फसें हुए हैं।
एनसीपी का अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि उसने आजतक किसी को भी बिना शर्त समर्थन नहीं दिया है। बल्कि, वह जिस पार्टी के साथ गई, उससे पूरी कीमत वसूली है। सच्चाई यही है कि एनसीपी महराष्ट्र में बीजेपी को समर्थन देकर अपने दिग्गज नेताओं अजीत पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल को बचाना चाहती है।
पूर्व उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व सिंचाई मंत्री सुनील तटकरे 70 हजार करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में फसें हैं, पूर्व पीडब्ल्यूडी मंत्री छगन भुजबल पर नई दिल्ली में महराष्ट्र सदन के जीर्णोद्धार की लागत में इजाफा कर भ्रष्टाचार करने का आरोप है। दरअसल, ऐंटि करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने राज्य सरकार से इन दोनों पूर्व मंत्रियों के खिलाफ जांच का आदेश मांगा है। ब्यूरो की फाइल मंत्रालय में है। पार्टी को डर है कि प्रफुल्ल पटेल के उड्डयन मंत्री रहते एयर इंडिया की दुर्दशा के लिए उनकी गर्दन दबोची जा सकती है। पूर्व महालेखाकार (सीएजी) विनोद राय ने भी अपनी किताब ‘नॉट जस्ट एन अकाउंटेंट: द डायरी ऑफ नेशंस कॉन्शन्स कीपर’ में भी एयर इंडिया के लिए खरीदे जानेवाले नए हवाई जहाजों की संख्या 28 से बढ़ाकर 68 किए जाने पर पटेल के इस फैसले को लेकर उन्हें कठघरे में खड़ा किया है।
महाराष्ट्र में यदि भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना के साथ मिलकर सरकार नहीं बनाई तो इतना तय है कि उसे पांच साल तो क्या दो साल भी सरकार ठीक से चलाना मुश्किल हो जाएगा। दोनों के बीच का वैचारिक गठबंधन टूटने से लेकर राज्य में ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो जाएंगी कि दोनों ही दलों के नेता और समर्थक चौराहों पर अपने-अपने मुद्दों को लेकर रोज़ जूतमपैज़ार करते नजऱ आएंगे। वहीं मोदी के देश में विकास का मॉडल यहां लागू करने को लेकर तमाम अवरोध खड़े हो जाएंगे। ऐसे में देश के अन्य राज्य तो विकास करते नजर आएंगे लेकिन महाराष्ट्र फिर भी पिछड़ा हुआ दिखाई देगा। अब भाजपा सोचे कि देश और राज्य हित में क्या उचित होगा शिवसेना का साथ या सरकार बनाने के लिए अप्रत्यक्ष राकांपा का सहयोग, जिसका कि उसके वैचारिक प्रतिष्ठान से दूर तक कोई लेना-देना नहीं है।
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