सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति हत्याकांड में अमित शाह बरी हो गए। तो? जब बरी नहीं हुए थे, अभियुक्त थे, तब भी कौन सी कीमत उन्होंने चुकायी थी? वे तो उलटे सियासी सीढि़यां चढ़ते गए, साहेब के साथ-साथ। यही दोनों क्यों, कुल 186 लोकसभा सांसदों के खिलाफ क्रिमिनल मुकदमे चल रहे हैं। अमित शाह भले जनप्रतिनिधि न हों, साहेब के मैनेजर हों, लेकिन बीजेपी के कुल सांसदों में से एक-तिहाई के खिलाफ़ तो आपराधिक मुकदमा दर्ज ही है। तो क्या हुआ? जनता ने उन्हें चुनकर भेजा है, अब चाहे जै फीसदी जनता हो। मतलब कि हत्या, लूट, सेंधमारी, बलात्कार, छिनैती, डकैती, दंगा, नरसंहार, धोखाधड़ी आदि से लोग अपने उम्मीदवार को नहीं तौलते।
ठीक है। अपना काम-वाम करवाने के मामले में पार्षद-विधायक को चुनने तक तो बात समझ में आती है, लेकिन आम चुनाव में लोग वोट क्यों देते हैं? एक अपराधी को सांसद बनने से रोककर लोग अपराधबोध से आसानी से बच सकते थे, खासकर इसलिए भी कि सांसद लोगों का काम सीधे नहीं करवाता। जिसकी कोई उपयोगिता ही नहीं, तिस पर वो अपराधी भी है, उसे वोट देकर अपने हाथ गंदे क्यों करना। लोकसभा चुनाव में लोगों ने मोदी को चुना, तभी तो बिना चुना हुआ शाह नाम का आदमी नत्थी होकर यहां तक आ गया और बरी हो गया!
मेरा सवाल है: आम चुनाव में लोग वोट क्यों देते हैं? क्या जनता का काम करने/करवाने के लिए वास्तव में किसी राष्ट्रीय सरकार की ज़रूरत है? इस पर कम से कम दो बार सोचिएगा।
O- अभिषेक श्रीवास्तव
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