- पुनरूत्थान गोडसे के महिमामंडन का
समय बदल रहा है और इस परिवर्तन की गति काफी तीव्र है। पिछले कुछ दशकों में अधिकांश हिन्दू राष्ट्रवादियों को अपने नायक नाथूराम गोडसे के प्रति अपने प्रशंसाभाव को दबा-छिपाकर रखने की आदत-सी पड़ गई थी। कभी कभार, कुछ कार्यक्रमों में उसका गुणगान किया जाता था परंतु ऐसे कार्यक्रम बहुत छोटे पैमाने पर आयोजित होते थे और उनका अधिक प्रचार नहीं किया जाता था। पिछले कुछ सालों में, प्रदीप दलवी के मराठी नाटक ‘मी नाथूराम बोलतोए‘ (मैं नाथूराम बोल रहा हूं), जिसमें गांधी पर कटु हमला और गोडसे की तारीफ की गई है, का मंचन महाराष्ट्र में कई स्थानों पर हुआ और नाटक देखने के लिए भारी भीड़ भी उमड़ी। इस नाटक का अलग-अलग लोगों द्वारा समय-समय पर विरोध भी किया जाता रहा है।
मई 2014 में दिल्ली में नई सरकार आने के बाद से साम्प्रदायिक भाषणबाजी, टिप्पणियों और कार्यकलापों में तेजी से वृद्धि हुई है। ऐसा लगता है कि सत्ताधारी वर्ग इन हरकतों का मूकदर्शक बना रहना चाहता है। यह निष्कर्ष इसलिए तार्किक प्रतीत होता है क्योंकि अब तक गोडसे प्रशंसकों को न तो किसी सत्ताधारी ने फटकार लगाई है और ना ही उनका विरोध किया है। सरकार में रहने की मजबूरी के चलते वे गोडसे प्रशंसक क्लब के सदस्य तो नहीं बन सकते परंतु वे उसकी निंदा भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे स्वयं भी हिन्दू राष्ट्रवाद की गोडसे विचारधारा में आस्था रखते हैं। इस हिन्दू राष्ट्रवाद को ‘राष्ट्रवाद‘ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। हिन्दू शब्द का उच्चारण इतने धीमे स्वर में किया जाता है कि वह सुनाई ही नहीं देता।
गोडसे प्रशंसक क्लब की सबसे ताजा गतिविधि है मेरठ में 25 दिसम्बर 2014 को हिन्दू महासभा द्वारागोडसे के मंदिर के निर्माण के लिए भूमिपूजन । अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मेरठ में देश का पहला मंदिर बनाने जा रहे हैं। हिन्दू महासभा के कई कार्यालयों में गोडसे की मूर्ति स्थापित करने की तैयारी चल रही है। हिन्दू महासभा ने केन्द्र सरकार से मांग की है कि दिल्ली में गोडसे की मूर्ति स्थापित करने के लिए उसे भूमि आवंटित की जाए। गोडसे की किताब का द्वितीय पुनर्मुद्रित संस्करण बाजार में आ चुका है।
भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कुछ समय पहले गोडसे को राष्ट्रवादी बताया था। बाद में वे अपने बयान से पीछे हट गए ताकि सत्ताधारी भाजपा परेशानी में न फंस जाए। भाजपा के पितृ संगठन आरएसएस ने आतंरिक वितरण के लिए दो नई पुस्तकें जारी की हैं। इन पुस्तकों का उद्धेश्य है संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों को उसकी विचारधारा से परिचित करवाना। इन पुस्तकों के शीर्षक हैं, ‘आरएसएस-एक परिचय‘ व ‘आरएसएस-एक सरल परिचय‘। इनमें से दूसरी पुस्तक के लेखक आरएसएस के वरिष्ठ सदस्य एम. जी. वैद्य हैं। वैद्य का कहना है कि ‘आरएसएस के चारों ओर आरोपों का घेरा बना दिया गया है‘। इस पुस्तक का उद्धेश्य, आरोपों के इस घेरे से आरएसएस को बाहर निकालना है।
जहां प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे पर मौन धारण किए हुए हैं वहीं विपक्षी नेताओं ने हिन्दू महासभा व अन्यों द्वारा गोडसे के कृत्य का महिमामंडन करने के प्रयास की कड़ी आलोचना की है।
गोडसे और आरएसएस का क्या रिश्ता था? क्या वह आरएसएस का सदस्य था और क्या उसने बाद में संघ छोड़ दिया था या फिर उसने संघ का सदस्य रहते हुए, सन् 1930 के मध्य में, हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली थी? आधिकारिक रूप से आरएसएस हमेशा यह कहता आया है कि उसका गोडसे से कोई लेनादेना नहीं है और गोडसे ने जब महात्मा गांधी की हत्या की थी, उस समय वह संघ का सदस्य नहीं था। इस बहाने, आरएसएस हमेशा से गोडसे से अपना पल्ला झाड़ता रहा है। यहां यह याद करना मुनासिब होगा कि सन् 1998 में तत्कालीन आरएसएस प्रमुख प्रो. राजेन्द्र सिंह ने कहा था कि ‘गोडसे अखंड भारत की परिकल्पना से प्रेरित था। उसका उद्धेश्य पवित्र था परंतु उसने गलत साधनों का इस्तेमाल किया‘ (‘आउटलुक‘, अप्रैल 27, 1998)।
हम इस पूरे मुद्दे को कैसे देखें? इसे समझने के लिए सबसे पहले हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को समझना आवश्यक है-उस राजनीति को, जिसके कर्ताधर्ता हिन्दू महासभा और आरएसएस थे। ये दोनों संगठन स्वाधीनता संग्राम से दूर रहे। हिन्दू महासभा की रूचि हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार बतौर राजनीति में प्रवेश करने में थी। आरएसएस, अपने कार्यकर्ताओं का जाल खड़ा करना चाहता था और अलग-अलग संगठन बनाकर शिक्षा, संस्कृति व राज्यतंत्र में घुसपैठ करने का इच्छुक था। इन दोनों संगठनों के एजेन्डा में अनेक समानताएं थीं क्योंकि दोनों, मूलतः हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए काम कर रहे थे। नाथूराम गोडसे इन दोनों संगठनों की विचारधारा के ‘अद्भुत मिलन‘ का प्रतीक था।
आरएसएस, गोडसे को स्वयं से इसलिए अलग कर सका क्योंकि संघ के सदस्यों का कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं रखा जाता था और इसलिए कानूनी दृष्टि से संघ को गोडसे से जोड़ना संभव नहीं था। गोडसे ने सन् 1930 में आरएसएस की सदस्यता ली और जल्दी ही वह उसका बौद्धिक प्रचारक बन गया। हिन्दू महासभा और आरएसएस की तरह, वह भी अखंड भारत – अर्थात वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यानमार का संयुक्त भूभाग – की परिकल्पना का जबरदस्त समर्थक था।
कट्टर हिंदुत्ववादी होने के नाते, वह गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत और उनके नेतृत्व में चलाए गए ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन का कटु आलोचक था। गोडसे, स्वाधीनता संग्राम में गांधी की भूमिका में कुछ भी अच्छा नहीं देखता था। आरएसएस और हिन्दू महासभा, गांधी की लगातार इस बात के लिए आलोचना करते थे कि उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में सभी धार्मिक समुदायों को भागीदार बनाया। गांधी की मान्यता यह थी कि धर्म एक व्यक्तिगत मसला है और उनका प्रयास था कि सभी देशवासी, धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर, भारतीय के रूप में अपनी पहचान स्थापित करें। हिन्दू महासभा और आरएसएस को यह बर्दाश्त नहीं था क्योंकि वे चाहते थे कि केवल हिन्दुओं को ही भारतीय के रूप में स्वीकार किया जाए। गांधी के राष्ट्रवाद का मूल्यांकन, गोडसे, हिन्दू राजाओं के राष्ट्रवाद की कसौटी पर करता था। गांधीजी का मूल्यांकन करने के लिए वह बहुत अजीब मानकों का इस्तेमाल करता था। ‘उनके (गांधी) समर्थक वह नहीं देख पा रहे हैं जो किसी अंधे को भी साफ-साफ दिखाई दे सकता है और वह यह कि शिवाजी, राणाप्रताप और गुरू गोविंद सिंह के सामने गांधी एकदम बौने हैं‘ (वाय आई एसेसिनेटिड गांधी, 1993, पृष्ठ 40) व ‘जहां तक स्वराज और स्वाधीनता प्राप्त करने का सवाल है, उसमें महात्मा का योगदान नगण्य था‘ (पूर्वोक्त, पृष्ठ 87)।
वह महात्मा को मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का दोषी और पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार मानता था। आरएसएस और हिन्दू महासभा से अपने जुड़ाव के बारे में वह लिखता है, ‘‘हिन्दुओं की बेहतरी के लिए काम करते हुए मुझे यह अहसास हुआ कि हिन्दुओं के न्यायपूर्ण अधिकारों की रक्षा के लिए राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना आवश्यक है। इसलिए मैंने संघ छोड़कर हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली‘‘ (पूर्वोक्त पृष्ठ 102)।
उस समय हिन्दू महासभा एकमात्र हिन्दुत्ववादी राजनैतिक दल था। गोडसे, महासभा की पुणे शाखा का महासचिव बन गया। कुछ समय बाद उसने एक अखबार का प्रकाशन शुरू किया जिसका वह संस्थापक संपादक था। अखबार का शीर्षक था ‘अग्रणी या हिन्दू राष्ट्र‘। यह साफ है कि गांधी की हत्या, उन कारणों
(देश का विभाजन और पाकिस्तान को उसके 55 करोड़ रूपये चुकाने पर गांधीजी का जोर), से नहीं की गई थी, जिनका ये संगठन प्रचार करते हैं। गांधी की हत्या इसलिए की गई क्योंकि हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों और गांधी की राजनीति में बुनियादी मतभेद थे। इन दोनों कारणों को तो केवल बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया।
जब गोडसे कहता है कि उसने आरएसएस छोड़ दिया था, तब उसका क्या अर्थ है? क्या यह सच है? गोडसे के आरएसएस छोड़ने के पीछे के सच का खुलासा उसके भाई गोपाल गोडसे ने ‘द टाईम्स ऑफ इंडिया‘ (25 जून 1998) को दिए गए एक साक्षात्कार में किया। गोपाल गोडसे, जो कि गांधी हत्या में सहआरोपी था, नाथूराम गोडसे के इस बयान कि ‘उसने आरएसएस छोड़ दिया था‘ के बारे में कहता है, ‘‘उनकी (गांधी) तुष्टिकरण की नीति-जो सभी कांग्रेस सरकारों पर लाद दी गई थी-ने मुस्लिम अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया और इसका अंतिम नतीजा पाकिस्तान के निर्माण के तौर पर सामने आया…तकनीकी और सैद्धांतिक दृष्टि से वे (नाथूराम) सदस्य (आरएसएस के) थे परंतु उन्होंने बाद में उसके लिए काम करना बंद कर दिया था। उन्होंने अदालत में यह बयान कि उन्होंने आरएसएस छोड़ दिया था इसलिए दिया था ताकि हत्या के बाद गिरफ्तार किए गए आरएसएस कार्यकर्ताओं की सुरक्षा हो सके। वे यह समझते थे कि उनके आरएसएस से स्वयं को अलग कर लेने से उन्हें (आरएसएस कार्यकर्ताओं) को लाभ होगा और इसलिए उन्होंने खुशी-खुशी यह किया‘‘।
गोडसे के आरएसएस छोड़ने का दावा करने का असली कारण यह था। गोडसे की दोहरी सदस्यता (आरएसएस व हिन्दू महासभा) से दोनों ही संगठनों को कोई परेशानी नहीं थी। इस तरह, यह स्पष्ट है कि गांधी की हत्या के पीछे हिन्दुत्व की राजनीति की दोनों धाराएं-आरएसएस व हिन्दू महासभा- थीं। गोडसे के संपादन में प्रकाशित समाचारपत्र का शीर्षक ‘हिन्दू राष्ट्र‘ भी इसी तथ्य को रेखांकित करता है। गांधी की हत्या को हिन्दू महासभा व आरएसएस दोनों की ही स्वीकृति प्राप्त थी और उनके कार्यकर्ताओं ने हत्या के बाद, मिठाईयां बांटकर जश्न भी मनाया था। ‘उसके (आरएसएस) सभी नेताओं के भाषण साम्प्रदायिक जहर से भरे रहते थे। इसका अंतिम नतीजा यह हुआ कि देश में ऐसा जहरीला वातावरण बन गया जिसके चलते इतनी भयावह त्रासदी संभव हो सकी। आरएसएस के लोगों ने इस पर अपनी खुशी का इजहार किया और गांधी की मृत्यु के बाद मिठाईयां बांटी‘ (सरदार पटेल के एम. एस. गोलवलकर और एस. पी. मुकर्जी को लिखे पत्रों से उद्वत)। गोडसे सनकी नहीं था। जो कुछ उसने किया, वह हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा गांधी के खिलाफ फैलाए जा रहे जहर का तार्किक परिणाम था। और गोडसे को तो आरएसएस व हिन्दू महासभा दोनों की शिक्षाओं का ‘लाभ‘ प्राप्त था। वे गांधी की हत्या के लिए ‘वध‘ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। सामान्यतः इस शब्द का इस्तेमाल उन राक्षसों की हत्या के लिए किया जाता है जो कि समाज के शत्रु हों। एक अर्थ में, गांधी की हत्या, भारतीय राष्ट्रवाद पर हिन्दुत्व की राजनीति का पहला बड़ा हमला था। इसने उसके आगे की राह प्रशस्त की और पिछले कुछ दशकों में हिन्दुत्ववादी राजनीति कहां से कहां जा पहुंची है, हम सब इससे वाकिफ हैं।
यद्यपि आधिकारिक रूप से संघ परिवार गोडसे के हाथों गांधी की हत्या से स्वयं को अलग रखता है परंतु निजी बातचीत में उसके सदस्य न केवल इस कायराना हरकत को उचित ठहराते हैं बल्कि महात्मा गांधी के महत्व और उनकी महानता को कम करके बताते हैं। उन्हें गोडसे से पूरी सहानुभूति है। यह चालबाजी, यह दोगलापन अब तक चला आ रहा था। मोदी सरकार के आने के बाद अब इस सच को छुपाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। और इसलिए गोडसे का महिमामंडन बिना किसी लागलपेट के, पूरे जोशोखरोश से किया जा रहा है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
Writer -राम पुनियानी
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