सोमवार, 23 सितंबर 2013

रणभेरी में राष्ट्रद्रोह की बारूद!


इसे रेवाड़ी से उठी मोदी की रणभेरी बताया जा रहा है। लेकिन बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने के दो दिन बाद ही नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सेना को सरकार के खिलाफ भड़काया है, वैसी बातें कोई और कहता तो उसे राष्ट्रद्रोह मान लिया जाता। यह सच है कि मोदी पूर्व सैनिकों की रैली में बोल रहे थे। इसलिए सैनिकों के पक्ष में बोलना सहज और स्वाभाविक माना जा सकता है। लेकिन उन्होंने अपने भाषण में कई जगह वो लक्ष्मण रेखा पार की है, जहां सरकार की आलोचना सत्ताद्रोह नहीं, राष्ट्रद्रोह में तब्दील हो जाती है। 

अपने यहां सेना आज़ादी के छासठ साल बाद भी पूरी तरह अराजनीतिक रही है। यही वजह है कि भारत का हश्र कभी पाकिस्तान जैसा नहीं हो सकता। लेकिन मोदी ने रविवार को अपने भाषण में सेना के राजनीतिकरण की जघन्य कोशिश की है। इसके भीतर एक तानाशाह का एजेंडा छिपा हो सकता है जो प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी और कार्यकर्ताओं की बदौलत नहीं, सेना की ताकत के बल पर ताकतवर होना चाहता है, राज करना चाहता है। अभी तक भारतीय सेना देश के आंतरिक मामलों में दखल करने से बचती रही है। लेकिन मोदी ने जिस तरह माओवादियों और आतंकवादियों को एक तराजू पर ला खड़ा किया है, उसमें कल को वे माओवाद प्रभावित इलाकों में सीआरपीएफ की टुकड़ियों के साथ सेना को भी उतार सकते हैं। ऐसा हुआ तो इससे देश में सेना के राजनीतिकरण की घातक शुरुआत हो जाएगी। मोदी अगर ईमानदार होते तो स्वीकार करते कि माओवाद सुशासन के अभाव का नतीजा है। आप आदिवासी इलाकों में प्रशासन को जवाबदेह बना दो, माओवाद अपने-आप खत्म हो जाएगा। लेकिन मोदी को तो माओवाद और आतंकवाद के नाम पर भावनाएं भड़कानी हैं, न कि सार्थक समाधान खोजना।

इतिहास गवाह है कि भावनाओं के आवेग में देश कभी मजबूत नहीं होता। बल्कि इसे देशवासियों को तोड़ने का ही काम किया गया है। एक तबके को दूसरों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए किया जाता है। और, यह सब होता है कि राष्ट्रवाद के नाम पर। नरेंद्र मोदी की दो खतरनाक आदतें हैं जो उनके खून में रच-बस गई हैं। एक तो लोकतंत्र की परवाह न करना। दो, बड़े से बड़ा झूठ बड़ी सफाई से बोल जाना।

मोदी भले ही मुंह से लोकतंत्र की बात करें। लेकिन उनकी हरकतें इस बात का साक्ष्य पेश करती हैं कि वे अपने सामने किसी भी कद्दावर नेता को बरदाश्त नहीं कर सकते। आज वे खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने को बीजेपी का आंतरिक लोकतंत्र बता रहे हैं। लेकिन जिस तरह उन्होंने गुजरात में अपने बराबर के नेता संजय जोशी को फर्जी सीडी फैलवा कर किनारे लगवाया और अपने ही गृह मंत्री हरेन पंड्या की हत्या करवाई, उससे उनकी लोकतंत्र-विरोधी फितरत की पोल खुल जाती है। उन्होंने बीजेपी में राजनाथ से लेकर अरुण जेटली तक को बौना बनाकर रख दिया है। अपने ही गुरु लालकृष्ण आडवाणी को धता बता दी है। सत्ता-लोलुप शख्स इसी तरह गुरु ही नहीं, अपने तमाम सगे लोगों से द्रोह करता है। और, यह सब लोकप्रियता के नाम पर।
यह महज संयोग नहीं है कि हाल ही मिंट अखबार के एक लेख में नरेंद्र मोदी और औरंगज़ेब का अद्भुत साम्य दिखाया गया। लेख का कुछ पंक्तियां, “गुजरात के इस राजकुमार को बड़े कठिन दिन देखने पड़े। उसकी उपलब्धियां काफी बड़ी थीं। उसका प्रशासनिक रिकॉर्ड अच्छा था। राज्य के प्रति उसकी भक्ति अद्वितीय थी। वहीं, भारत के सत्ता प्रतिष्ठान में ऐसा कुछ नहीं था। वह बाहर खड़ा देखता रहा। उसकी ‘धर्मनिरपेक्षता’संदिग्ध थी या उसमें थी ही नहीं। धार्मिक लोग सत्ता के इस उत्तराधिकारी को लेकर गंभीर चेतावनी देते थे कि गुजरात के इस शख्स को गद्दी के नज़दीक न आने दिया जाए।” लेख की अगली पंक्तियां हैं, “आप इतना पढ़कर निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी के बारे में सोच रहे होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है। वो शख्स था औरंगजेब जो गुजरात के दाहोद में जन्मा था।”

मोदी हर कमज़ोर नब्ज को टटोलकर निशाना साध रहे हैं। सरकार ही नहीं, अवाम की भी। इस बार करीब डेढ़ करोड़ मतदाता पहली बार वोट देंगे। मोदी ने उनसे अपना नाम वोटर लिस्ट में दर्ज कराने की अपील इसलिए नहीं की कि वे चाहते हैं कि 2014 के लोकतंत्र के महायज्ञ वे भी शिरकत करें, बल्कि इसलिए यह तबका बड़ा कच्चा होता है। भावनाओं में बह जाता है। प्रचार की आंधी उसे उड़ा ले जाती है। मोदी इस भावुक जोश को अपने पक्ष में इस्तेमाल करना चाहते हैं।

मोदी के झूठ के जखीरे को बेनकाब करने के लिए बड़ी गहन छानबीन की जरूरत है। यूपीए सरकार चाहे तो ऐसा कर सकती है। लेकिन वोट बैंक की राजनीति में लगी इस सरकार की अग्रणी पार्टी कांग्रेस खुद झूठ से सराबोर है। वो ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकती जिसमें वो भी फंस जाए। कांग्रेस में दूसरे तरह का अलोकतंत्र है। मोदी में दूसरे तरह का। इसलिए कांग्रेस न तो मोदी के अलोकतांत्रिक तौरतरीकों पर सवाल उठाती है और न ही मोदी के सफेद झूठ को बेनकाब करती है। हो सकता है कि चुनावों के अंतिम दौर में नरेंद्र मोदी यह भी कह दें कि वे 2002 के गुजरात दंगों के लिए देश से माफी मांगते हैं। लेकिन यह एक सत्तालोलुप व्यक्ति की अवसरवादिता होगी, न कि ईमानदारी। इसलिए सावधान! वंदे मातरम्!!

बतंगड़ BATANGAD: हर रोग का प्राकृतिक निदान

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कठिन चुनौतियों भरा समय | Hastakshep.com

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निश्चय ही 2014 एक भाजपा-मुक्त भारत का प्रस्थानबिन्दु बनेगा | Hastakshep.com

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गप्प मारने के दिन खत्म हो गये, बम मारने के दिन आ गये- बापट | Hastakshep.com

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अपने पूर्वजों का भक्षण

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मिस्त्र और सीरिया : अमेरिकी साम्राज्यवाद की दोगली नीतियों के दो शिकार | Hastakshep.com

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चाचा नेहरु आकर देखो अपने स्वीजरलैंड को आजकल मामा शिवराज इसे लंदन बनाने की बात कह रहे हैं | Hastakshep.com

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सरकार खुद पर भरोसा करो !

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Mujaffarnagar riot and vote bank politics

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बतंगड़ BATANGAD: ब्लॉगर, स्वतंत्र वेबसाइट संचालक की पत्रकारिता को म...: मेरे बाएं प्रो. हेमंत जोशी, प्रो. बी के कुठियाला भारत सरकार और राज्य सरकारें पत्रकारों को मान्यता देती हैं जिससे कि उन्हें खबरों ...

प्याज पत्रकारिता !

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दंगों की छांव में सियासी जश्न

आजादी के बाद यह पहला मौका है जब केन्द्र सरकार ने दंगों की आशंका जताते हुये 12 राज्यों को पहले से ही अलर्ट कर दिया कि आपके यहां दंगे हो सकते हैं। बीते नौ बरस में केन्द्र सरकार में यह पहला मौका आया जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों किसी घटना को देखने समझने पहुंचे हों। और यह भी अपनी तरह का पहला मौका है जब यूपी के सीएम अखिलेश यादव मुज्जफरनगर के दंगा पीड़ितों के घाव पर मरहम लगाने से पहले अपनी पार्टी के कद्दावर अल्पसंख्यक नेता आजमखान के सियासी घाव पर मरहम लगाने घर पहुंचे। उसके बाद आजम खान से दिशा निर्देश पाकर ही सीएम मुजफ्फरनगर गये। तो रुठे आजम खान को 14 सितंबर को उनके सरकारी आवास पर जाकर मनाया फिर 15 सितंबर को मुजफ्फरनगर गये। और एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपरेशन ने दंगे के सच के पीछे सरकार के ही खड़े होने के सच को उस वक्त दिका दिया जब इस पर सियासत तेज होनी थी उसमें तल्खी आनी थी। लेकिन दंगों को लेकर देश में आजादी के बाद से होती सियासत को पहली बार एक ऐसा सिरा मिला है, जहां राजनीतिक सत्ता लोकतंत्र को ताक पर रख संविधानिक संस्थाओं को भी कैसे अपनी सत्ता के अनुकूल करती है।

तो क्या यह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद की राजनीतिक तस्वीर से अब मुसलमान डर सकता है। क्योंकि एक बार फिर यूपी का मुसलमान राजनीतिक बिसात पर सबसे महत्वपूर्ण होकर भी प्यादे से ज्यादा हैसियत नहीं रख रहा है। यानी मुस्लिम वोट बैंक चुनावी असर तो डाल सकता है लेकिन दंगों के साये में अगर चुनाव हुये तो उन्माद के आसरे एक ऐसी लकीर यूपी में खिंच सकती है जो क्षेत्रीय दलों को हाशिये पर ढकेल सकती है और 70 के दौर से लेकर मेरठ-मलियाना और अयोध्याकांड के वक्त के बीच जिस तरह वोट का ध्रुव्रीकरण हुआ, उसी रास्ते 2014 की बिसात भी बिछ सकती है। यानी यूपी में लोकसभा की 80 सीट में से 55 सीट सीधे सीधे हिन्दुत्व की प्रयोगशाला और 25 सीटे मुसलिम बहुल वोटबैंक के साथ यादव या दलित वोट बैंक के गठजोड़ की प्रयोगशाला बन जायेगी।

ध्यान दें तो इमरजेन्सी और बोफोर्स के मुद्दे यानी 1977 और1989 के वक्त के अलावे यूपी में हमेशा से वोटों का ध्रुवीकरण सीधे कांग्रेस के पक्ष में रहा है, इसीलिये दिल्ली का रास्ता भी लखनऊ होकर आता रहा है। लेकिन मंडल के बाद से क्षत्रपों ने कांग्रेस और बीजेपी को जिस तरह हाशिए पर ला पटका है उसमें मुज्जफरनगर के दंगों के बाद पहली बार चुनावी संकट के बादल मुलायम-मायावती दोनों पर गहराने लगे हैं। क्योंकि बीते दो दशक में मुस्लिम वोट बैंक चुनावी गठजोड़ के आसरे सत्ता की मलाई खाने में जुटता। और यह मान कर चलता की सरकार चाहे दिल्ली में कांग्रेस की हो या फिर यूपी में माया या मुलायम की। सत्ताधारी कहलायेगा वही।

लेकिन अर्से बाद मुलायम की सत्ता तले जिस तरह मुजफ्फररनगर दंगो के बाद उसके घाव पर मलहम लगाने की होड़ मची है, उसने मुस्लिमों के सामने भी सियासी संकट पैदा किया है और जाट बहुल क्षेत्र में भी यह संदेश दिया है कि अब रास्ता तो दिल्ली में सत्ताधारी के साथ खड़े होने का है। लेकिन 2014 को लेकर मची होड़ में सत्ताधारी होगा कौन। क्योंकि मार्च के महीने में जब यूपी के सीएम से पूछा गया कि उत्तरप्रदेश में कितनी सांप्रदायिक हिंसा हुई तो बकायदा सीएम अखिलेश यादव ने लिखित जवाब दिया कि 15 मार्च से 31 दिसबंर 2012 यानी 9 महीने में 27 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुई। और राजनीतिक तोर इस हिंसा को समझे तो कुल 18 जिलों की 25 लोकसभा सीट प्रभावित हुईं। प्रभावित जिलो में औसतन 27 से 42 फीसदी मुस्लिम हैं। यहां मुस्लिम वोट जिसके पक्ष में, जीत उसी की मानी जाती रही है और 2009 में इनमें से किसी भी सीट पर बीजेपी का कब्जा नहीं रहा। फिर अगर मुजप्फरनगर को छोड़ दे तो बाकी सोलह जिलों में हुई सांप्रदायिक हिंसा की त्रासदी यूपी में ज्यादातर मुस्लिम और यादव के बीच संघष के तौर पर ही उभरी। और यूपी में मुलायम की सत्ता इन्हीं दोनों के गठजोड़ की सत्ता की कहानी है। तो क्या संघर्ष की बड़ी वजह सत्ताधारी होने के लाभ के टकराने की वजह रही। 

अगर ऐसा है तो सत्ता का लाभ ना मिल पाने या सत्ताधारी होकर मनचाही मुराद की कहानी ही यूपी में सांप्रदायिक संघर्ष की कहानी है। असल में मुजफ्फरनगर की हिंसा ने यूपी में पहले हुई सांप्रदायिक हिंसा को एक नयी जुबान दे दी है। और यह जुबान एक ऐसी बिसात बिछा रही है, जहां नरेन्द्र मोदी के नाम पर बीजेपी एक बड़े खिलाडी के तौर पर खुद ब खुद खड़ी हो रही है। और पहली बार इसका बड़ा कारण साप्रायिक संघर्ष की वजह बीजेपी का ना होना है। मु्स्लिम वोट बैंक को लेकर मुलायम और कांग्रेस का सीधा संघर्ष है। यादव, जाट और मुस्लिम वोट बैंक सत्ता की कुंजी बनने को तैयार हैं और सबसे बड़ी बात की सेक्यूलर लाबादा ओढे राजनीतिक दलों के दामन पर ही दाग लग रहा है। असल में यूपी में पहली बार सांप्रादायिक हिंसा ने उस सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को तोड़ दिया है जो राजनीतिक दलों के आसरे खुद को सुरक्षित मान कर चुनाव को एक बड़ा शस्त्र माने हुये थे। पश्चिमी यूपी की जाट बहुल 12 सीटों का समीकऱण अजित सिंह के लिये डगमगाया है। 25 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम बहुल 32 सीटों का समीकरण सपा के लिये डगमगाया है। 41 सीट जो यादव-मुसलिम गठजोड़ मुलायम की जीत सुनिश्चित करते वह भी डगमगाया है। यानी पहली बार यूपी का राजनीतिक मैदान खुला है। जहां कोई दावा नहीं कर सकता कि भविष्य में उसकी जीत पक्की है। और संयोग से यही हालात कांग्रेस में आस जगाये हुये हैं और मोदी की अगुवाई में बीजेपी में उत्साह भर रहे हैं। इसलिये दंगों के बाद के सियासी माहौल की नब्ज कांग्रेस कितना थामती है और बीजेपी कैसे भुनाती है इंतजार सभी को इसी का है। लेकिन मुजफ्फरनगर ने झटके में दंगों पर सियासत को खुली किताब की तरह रख दिया।

आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को यूपी सरकार ने यह कहकर सस्पेंड कर दिया कि दुर्गा शक्ति ने जो किया उससे दंगा भडक सकता था। लेकिन मुजफ्फरनगर के सोलह थानो में दंगे हो गये और यूपी सरकार ने किसी थानेदार से लेकर किसी अधिकारी तक को सस्पेंड नहीं किया। असल में देश की त्रासदी यही है कि दंगों को लेकर कभी किसी पुलिस अधिकारी या किसी अफसर को सस्पेंड करने की परंपरा नहीं रही। कहें तो सियासत ने हमेशा दंगों को कुछ इस तरह भुनाया है कि दंगा प्रभावित इलाकों के अधिकारी या तो जांच के बाद दोषी पाये गये या फिर सियासी तमगा पाकर और कद्दावर अधिकारी बनते चले गये। आजादी के बाद से देश में 2 हजार से ज्यादा साप्रादायिक हिंसा हुई है। 

लेकिन दंगों की वजह से किसी आईएएस को सस्पेंड नहीं किया गया। लेकिन जानकारी के मुताबिक हर दंगो के बाद प्रभावित इलाकों के थाने पर हर जांच के बाद अंगुली उठी और हर दंगे के बाद जांच में दोषी राजनेताओं को ही ठहराया गया। इतना ही नहीं दंगों के बाद का असर सबसे ज्यादा राजनीतिक तौर पर ही पड़ा और यह सच है कि 1969 में गुजरात में मारे गये 660 लोगों के मारे जाने के बाद भी राजनीतिक मिजाज ही सामने आया और 1980 में यूपी के मुरादाबाद में सरकारी आंकड़ों में 440 लेकिन 2500 से ज्यादा के मारे जाने के बाद भी सियासत ही उभरी और 1983 में असम के नीली में दो हजार मुस्लिमों के मारे जाने के बाद भी सियासत ने ही रंग बदला और 1984 के सिख दंगों ने तो समूचे देश को ही यह पाठ पढ़ा दिया कि हिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा कितनी खतरनाक होती है। कुछ यही 2002 में गुजरात में हुआ। संयोग से हर दंगे का पाठ या तो राजनीतिक था या फिर सामाजिक आर्थिक ताने बाने के टूटने की अनकही कहानी। लेकिन देश के मौजूदा हालात को समझे पहली बार केन्द्र सरकार ने 12 राज्यों को पहले से ही चेता दिया कि आपके यहां दंगे हो सकते हैं। यानी दंगे अब आतंक का नया चेहरा ओढ़ रहे हैं। या फिर राजनीति का नया औजार हो चला है दंगा। जहां तंत्र और लोकतंत्र दोनों फेल हैं, वहा दंगे हैं और सियासत का बदलता रंग हैं।

Posted by Punya Prasun Bajpai

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सोमवार, 9 सितंबर 2013

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सड़क की तलाश में एक सपना ! | Hastakshep.com

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भारतीय अर्थव्यवस्था और हमारी राजनीति का संकट | Hastakshep.com

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युद्ध अपराध होगी सीरिया के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही | Hastakshep.com

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पाप के दलदल में धँसे ये ढोंगी | Hastakshep.com

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क्या जरूरी है कि वो मुजरिम ही हों जिनके हक़ में फैसले नहीं होते | Hastakshep.com

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पंजाब स्क्रीन: INDIA: (मनरेगा 3)// सचिन कुमार जैन

पंजाब स्क्रीन: INDIA: (मनरेगा 3)// सचिन कुमार जैन: An Article by the Asian Human Rights Commission केन्द्रीय नियमों के आधार पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना का क्रिया...

मध्यप्रदेश के रैसलपुर दरबार की महिमा

पंडित राज: मध्यप्रदेश के रैसलपुर दरबार की महिमा: - राजकुमार सोनी (पत्रकार) पृथ्वी पर जड़ और चेतन हर पदार्थ में ज्ञान शक्ति के रूप में दैवीय शक्ति कार्य कर रही है इसका प्रत्यक्...

Vineet Kumar Singh: Why media keep silence on anti-national Christian ...

Vineet Kumar Singh: Why media keep silence on anti-national Christian ...: Opus dei इसाई समुदाय द्वारा पोषित मीडिया वाले जैसे दीपक चौरसिया और विजय विद्रोही लगातार टीवी चैनल पर "सर्व धर्म समभाव" का पाठ...

आईए गणेश चतुर्थी पर कला और मेहनत को सलाम करना सीखे...

पंजाब स्क्रीन: आईए गणेश चतुर्थी पर कला और मेहनत को सलाम करना सीखे...: Sat, Sep 7, 2013 at 3:15 PM                               इस कला और त्यौहार से सबंधित वीडियो देखने के लिए क्लिक करें  गणेश चतुर्थी को लेकर...

लोकसभा चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए सपा के संरक्षण में हो रहे दंगे | Hastakshep.com

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दर्द का एक इतिहास है मुंक की सारी कला | Hastakshep.com

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बेकार साबित होंगी मुलायम की एक तीर से दो शिकार की कोशिशें-मंच | Hastakshep.com

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