आजीवन भारत के मित्र रहे द न्यू स्टेट्समैन के मशहूर संपादक किंग्सले मार्टिन गांधी जी की हत्या के कुछ दिन पहले जब उनसे मिले तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के साथ भारत के युद्ध का गांधी जी पूरे मन से समर्थन कर रहे हैं. गांधी जी ने पहले विश्वयुद्ध के दौरान लोगों से ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होने की अपील भी की थी, क्योंकि वे ऐसा विश्वास करते थे कि ब्रिट्रिश साम्राज्य युद्ध में अपनी तरफ से न्याय के रास्ते पर है.
हम बहुत खुशनसीब नहीं हैं. कुछ युद्ध बहुत ही साफगोई से ल़डे गए हैं. सीरिया में दो साल से बाहरी प्रतिनिधियों की भागीदारी से नागरिक युद्ध जारी है. इस युद्ध में एक लाख से अधिक लोगों की जान चली गई है और 70 लाख से अधिक लोग पलायन कर गए हैं. बशर अल-असद, जो कि केवल सीरियाई राजतंत्र का शासक होने का दावा करते हैं, लोकतांत्रिक नहीं हैं और हिजबुल्ला की मदद से सत्ता पर कब्जा किए बैठे हैं. दूसरी तरफ कुछ उदारवादी सुन्नी ताकतें और अलकायदा जैसे इस्लामिक आतंकवादी समूह हैं. पश्चिमी देशों ने युद्ध की निंदा की है और असद विरोधियों का समर्थन किया है, लेकिन एक दूरी बनाए रखी है. सउदी अरब और कतर ने विद्रोहियों को धन और हथियारों की आपूर्ति की.
यदि ऐसा कोई युद्ध होता है तो उससे बचने का कोई पूर्वानुमान नहीं हो सकता. 1940 के दशक में संयुक्त राष्ट्र के साथ जो विश्व-व्यवस्था बनाई गई थी, उसकी अपनी समस्याएं हैं. सुरक्षा परिषद में कभी-कभार ही कॉमन योजना पर सहमति बन पाई है. शीतयुद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र शायद ही अपनी भूमिका निभा सका. 1991 के बाद पश्चिमी देशों ने पूरी दुनिया में मानवाधिकारों को लागू कराने के लिए उदार हस्तक्षेप की नीति के तहत दखल देना शुरू किया. यूगोस्लाविया में जब भयावह मानवाधिकारों का हनन हुआ, इस नीति ने काम किया, लेकिन इराक में यह असफल हो गई.
अब जब सीरिया में सत्ता द्बारा रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है, (जो कि ज्यादा विश्वसनीय लगने वाला कारण प्रतीत हो रहा है) विश्व-व्यवस्था के झंडाबरदारों को सामने बहुत ही मुश्किल विकल्पों का सामना करना है. रासायनिक हथियारों के विरुद्ध सहमति बननी चाहिए. हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इसपर सहमति नहीं बनेगी, वीटो सिस्टम को धन्यवाद कहना चाहिए. ब्रिटेन की संसद ने पहले ही दखलंदाजी के विकल्प को नकार दिया है. बराक ओबामा संसद में कांग्रेस की अनुमति के लिए जोर लगा रहे हैं, जिसकी तकनीकी तौर पर उन्हें जरूरत नहीं है. यह पहले से साफ है कि कांग्रेस सैनिक हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देगी.
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस निर्णय पर बहुत से लोग खुश होंगे. यह स्पष्ट है कि पुरानी शक्तियां-अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के पास न तो इच्छाशक्ति है, न ही ताकत है कि जो व्यवस्था उन्होंने बनाई है, उसे अमल में ला सकें. बहुत से लोग भारत में और वास्तव में गैर-पश्चिमी देश दॄढता से विश्वास करते हैं कि एक प्रभुसत्ता-संपन्न के पास अपनी ही जनता के खिलाफ बमबारी, प्रता़डना और हत्या का आत्यांतिक अधिकार है. लगता नहीं कि किसी भी तरह का अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप पसंद किया जाएगा. लेकिन फिर, जब हमारे कोई भी सार्वभौमिक नियमों को लागू कराने वाला नहीं होगा, विश्व-व्यवस्था कैसी दिखेगी?
एक सवाल है कि क्या सभी देश एक तरह के सामान्य-सार्वभौमिक मूल्यों में विश्वास करते हैं, जिसका वे खुद पालन करते हों और अपने प़डोसी से भी ऐसा करने की अपील करते हों? यह अक्सर कहा जाता है कि मानवाधिकार केवल पश्चिमी जगत का फैशन है, यह सार्वभौमिक नहीं है. ठीक है. फिर क्या हम सद्दाम हुसैन का अपने नागरिकों पर हमले को स्वीकृति देंगे? या ईरान-इराक युद्ध के समय ईरानियों पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को स्वीकृति देंगे? क्या हमारे पास एक अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय नहीं होना चाहिए जो कि रैदवन कैरेडजिक जैसे निरंकुश लोगों पर नकेल कसे? शायद ऐसा नहीं हो सकता. पुरानी विश्व-व्यवस्था मृतप्राय हो चुकी है. यह द्बितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी थी और शायद मध्यपूर्व में आगामी युद्ध नई व्यवस्था को जन्म देगा. लेकिन तब तक कितनी मौतें हो चुकी होंगी?
हम बहुत खुशनसीब नहीं हैं. कुछ युद्ध बहुत ही साफगोई से ल़डे गए हैं. सीरिया में दो साल से बाहरी प्रतिनिधियों की भागीदारी से नागरिक युद्ध जारी है. इस युद्ध में एक लाख से अधिक लोगों की जान चली गई है और 70 लाख से अधिक लोग पलायन कर गए हैं. बशर अल-असद, जो कि केवल सीरियाई राजतंत्र का शासक होने का दावा करते हैं, लोकतांत्रिक नहीं हैं और हिजबुल्ला की मदद से सत्ता पर कब्जा किए बैठे हैं. दूसरी तरफ कुछ उदारवादी सुन्नी ताकतें और अलकायदा जैसे इस्लामिक आतंकवादी समूह हैं. पश्चिमी देशों ने युद्ध की निंदा की है और असद विरोधियों का समर्थन किया है, लेकिन एक दूरी बनाए रखी है. सउदी अरब और कतर ने विद्रोहियों को धन और हथियारों की आपूर्ति की.
सवाल है कि क्या सभी देश एक तरह के सामान्य-सार्वभौमिक मूल्यों में विश्वास करते हैं, जिसका वे खुद पालन करते हों और अपने प़डोसी से भी ऐसा करने की अपील करते हों? यह अक्सर कहा जाता है कि मानवाधिकार केवल पश्चिमी जगत का फैशन है, यह सार्वभौमिक नहीं है. ठीक है. फिर क्या हम सद्दाम हुसैन का अपने नागरिकों पर हमले को स्वीकृति देंगे? या ईरान-इराक युद्ध के समय ईरानियों पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को स्वीकृति देंगे?सीरिया में जो रहा है वह नागरिक युद्ध है, लेकिन यह शिया-सुन्नी युद्ध भी है. यह लेबनान तक फैल रहा है. हिजबुल्ला को धन्यवाद कहना चाहिए कि लाखों शरणार्थी तुर्की और जॉर्डन चले गए हैं और शिया बहुल देश ईरान सीरिया का समर्थन कर रहा है. यूं तो तुलनाएं कभी भी बिल्कुल सटीक नहीं होतीं, लेकिन सीरिया का नागरिक युद्ध स्पेन के नागरिक युद्ध जैसा है, जो द्बितीय विश्वयुद्ध की पूर्वपीठिका साबित हुआ. हम जल्द ही एक पूरे मध्यपूर्व में एक युद्ध के गवाह बनेंगे, जिसमें हिजबुल्ला के साथ ईरान, इराक और सीरिया एक तरफ होंगे और सभी सुन्नी देश व अन्य इस्लामिक राष्ट्र दूसरी तरफ होंगे.
यदि ऐसा कोई युद्ध होता है तो उससे बचने का कोई पूर्वानुमान नहीं हो सकता. 1940 के दशक में संयुक्त राष्ट्र के साथ जो विश्व-व्यवस्था बनाई गई थी, उसकी अपनी समस्याएं हैं. सुरक्षा परिषद में कभी-कभार ही कॉमन योजना पर सहमति बन पाई है. शीतयुद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र शायद ही अपनी भूमिका निभा सका. 1991 के बाद पश्चिमी देशों ने पूरी दुनिया में मानवाधिकारों को लागू कराने के लिए उदार हस्तक्षेप की नीति के तहत दखल देना शुरू किया. यूगोस्लाविया में जब भयावह मानवाधिकारों का हनन हुआ, इस नीति ने काम किया, लेकिन इराक में यह असफल हो गई.
अब जब सीरिया में सत्ता द्बारा रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है, (जो कि ज्यादा विश्वसनीय लगने वाला कारण प्रतीत हो रहा है) विश्व-व्यवस्था के झंडाबरदारों को सामने बहुत ही मुश्किल विकल्पों का सामना करना है. रासायनिक हथियारों के विरुद्ध सहमति बननी चाहिए. हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इसपर सहमति नहीं बनेगी, वीटो सिस्टम को धन्यवाद कहना चाहिए. ब्रिटेन की संसद ने पहले ही दखलंदाजी के विकल्प को नकार दिया है. बराक ओबामा संसद में कांग्रेस की अनुमति के लिए जोर लगा रहे हैं, जिसकी तकनीकी तौर पर उन्हें जरूरत नहीं है. यह पहले से साफ है कि कांग्रेस सैनिक हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देगी.
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस निर्णय पर बहुत से लोग खुश होंगे. यह स्पष्ट है कि पुरानी शक्तियां-अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के पास न तो इच्छाशक्ति है, न ही ताकत है कि जो व्यवस्था उन्होंने बनाई है, उसे अमल में ला सकें. बहुत से लोग भारत में और वास्तव में गैर-पश्चिमी देश दॄढता से विश्वास करते हैं कि एक प्रभुसत्ता-संपन्न के पास अपनी ही जनता के खिलाफ बमबारी, प्रता़डना और हत्या का आत्यांतिक अधिकार है. लगता नहीं कि किसी भी तरह का अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप पसंद किया जाएगा. लेकिन फिर, जब हमारे कोई भी सार्वभौमिक नियमों को लागू कराने वाला नहीं होगा, विश्व-व्यवस्था कैसी दिखेगी?
एक सवाल है कि क्या सभी देश एक तरह के सामान्य-सार्वभौमिक मूल्यों में विश्वास करते हैं, जिसका वे खुद पालन करते हों और अपने प़डोसी से भी ऐसा करने की अपील करते हों? यह अक्सर कहा जाता है कि मानवाधिकार केवल पश्चिमी जगत का फैशन है, यह सार्वभौमिक नहीं है. ठीक है. फिर क्या हम सद्दाम हुसैन का अपने नागरिकों पर हमले को स्वीकृति देंगे? या ईरान-इराक युद्ध के समय ईरानियों पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को स्वीकृति देंगे? क्या हमारे पास एक अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय नहीं होना चाहिए जो कि रैदवन कैरेडजिक जैसे निरंकुश लोगों पर नकेल कसे? शायद ऐसा नहीं हो सकता. पुरानी विश्व-व्यवस्था मृतप्राय हो चुकी है. यह द्बितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी थी और शायद मध्यपूर्व में आगामी युद्ध नई व्यवस्था को जन्म देगा. लेकिन तब तक कितनी मौतें हो चुकी होंगी?
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