सतीश पेडणोकर वरिष्ठ पत्रकार |
केजरीवाल दिल्ली की सफाई कर नहीं पाए और निकल पड़े हैं देश की सफाई करने। वह यह भूल गए कि लोगों का परंपरागत राजनीति पर से विास उठ गया था, तभी उन्होंने ‘आप’ जैसी नई पार्टी की झोली वोटों से भर दी जो वैकल्पिक राजनीति करने का दावा करती थी। लेकिन ‘आप’ की सत्ता से पलायन करने की नीति से यही लोग सबसे ज्यादा निराश होंगे कि जिस पार्टी ने जनता की राय लेकर सरकार बनाई, उसे सत्ता छोड़ते वक्त एक बार भी जनमत संग्रह कराने की जरूरत महसूस नहीं हुई
पिछले दिनों से ‘आप’ को लेकर मजाक चल रहा था कि कोई भी झाडू छह महीने से ज्यादा नहीं चलता लेकिन ‘आप’ का झाडू 49 दिन में ही टें बोल गया। लेकिन आप इस फ्लाप शो के लिए ‘आप’ को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। अरविंद केजरीवाल ने पहले ही कह दिया था, ‘हम राजनीति करने नहीं आए। राजनीति की सफाई करने आए हैं।’ रोना यह है कि जब उन्हें मौका मिला तो न राजनीति हुई, न राजनीति की सफाई और केजरीवाल उस टूटी झाडू को लेकर लोक सभा चुनाव लड़ने निकल पड़े। हमारे यहां एक कहावत है, ‘बिच्छू का मंतर नहीं जाने, सांप के बिल में हाथ डाले।’ केजरीवाल यह भूल गए कि लोगों का परंपरागत राजनीति पर से विास उठ गया था, तभी उन्होंने ‘आप’ जैसी नई पार्टी की झोली वोटों से भर दी जो वैकल्पिक राजनीति करने का दावा करती थी। लेकिन ‘आप’ की सत्ता से पलायन करने की नीति से यही लोग सबसे ज्यादा निराश होंगे, जिन्हें लगता था कि वैकल्पिक राजनीति अब भी हो सकती है, सब कुछ खत्म नहीं हो गया है। लेकिन जब वैकल्पिक राजनीति करने वाले समस्याओं को सुलझाने के बजाय बहानेबाजी कर सत्ता से मुंह मोड़ जाएं तो लोगों का वैकल्पिक राजनीति पर से विास ही उठ जाएगा। सबसे बड़ी आपत्ति ‘आप’ की मौजूदा लोकतंत्र को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति थी कि यह लोकतंत्र नहीं लोक प्रतिनिधि तंत्र बनकर रह गया है। केवल चुनाव के समय ही लोकतंत्र रहता है। फिर प्रतिनिधि लोगों को भूल जाते हैं। वे लोगों के सलाह-मशविरे के बगैर राज करते हैं। इसलिए जनमत संग्रह, मोहल्ला सभा और लोक प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान होना चाहिए। लेकिन सत्ता में आने के बाद इस मुद्दे को केजरीवाल भूल गए। सोमनाथ भारती पर इतने सारे आरोप लगे, उनके इस्तीफे की मांग उठी पर ‘आप’ ने कभी उनसे इस्तीफा नहीं लिया। न ही कोई जनमत संग्रह कराया। इस बार जन लोकपाल बिल को न जनता के लिए जारी किया, न ही लोगों से उसके बारे में राय मांगी गई। उसे सीधे विधानसभा में पेश कर दिया गया। जिस पार्टी ने जनमत संग्रह के जरिए लोगों की राय लेकर सरकार बनाई, उसे सत्ता छोड़ते वक्त एक बार भी जनमत संग्रह कराने की जरूरत महसूस नहीं हुई। इससे एक बात तो स्पष्ट होती है कि वास्तविक लोकतंत्र के प्रति केजरीवाल एंड कंपनी की निष्ठा एक दिखावा ही है। केजरीवाल का जनता दरबार केजरीवाल का सुपर फ्लॉप कार्यक्रम था-जनता दरबार। ऐसा दरबार जो जनता के कारण उजड़ गया। जनता से बचने के लिए केजरीवाल को दिल्ली सचिवालय के दरवाजे बंद कराने पड़े। फिर जनता का मसीहा जनता से ऐसे डरा कि जनता दरबार का इरादा ही छोड़ दिया। जनता दरबार कोई केजरीवाल के ऊपजाऊ दिमाग की उपज नहीं थी। कई राज्यों में ऐसे दरबार बहुत सुव्यवस्थित तरीके से लग रहे हैं। इनमें बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और गुजरात आदि शामिल हैं। बिहार में मुख्यमंत्री सचिवालय ने जनता दरबार के लिए जो प्रबंध-कौशल और अनुशासन का तरीका ईजाद किया, या गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने स्वागत ऑनलाइन के जरिए जो जनता दरबार का तरीका ईजाद किया उससे केजरीवाल और उनके अधिकारी बहुत कुछ सीख सकते थे और अपने जनता दरबार को जारी रख सकते थे। लेकिन केजरीवाल किसी परंपरागत राजनीतिक दल से भला क्यों सीखने लगे? भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए इस धरती पर अवतार लेने वाली ‘आप’ को सबसे बड़ी नाकामी भ्रष्टाचार के मोर्चे पर मिली। केजरीवाल के सत्ता में आने के बाद लोगों को लगा था कि वह भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ कुछ करेंगे। सरकार ने किया यह कि एक हेल्पलाइन शुरू कर दी। यह स्टिंग ऑपरेशन करना सीखाती थी। इस तरह सरकार ने अपनी जिम्मेदारी लोगों पर डाल दी यानी लोग पहले स्टिंग करें। फिर पुलिस के सामने अपनी क्लिप की प्रामाणिकता साबित करें। तब सरकार तहकीकात करेगी। फिर मामला कोर्ट में जाएगा। कोर्ट में पहले से ही मुकदमों की लाइन लगी है, तो वहां बरसों लग जाएंगे फैसला होते होते। आर्थिक नीतियां बड़ी कमजोरी ‘आप’ की सबसे बड़ी कमजोरी रहीं उसकी आर्थिक नीतियां। पार्टी को बने एक साल भी नहीं हुआ मगर उसे दिल्ली चुनाव में उतरना पड़ा। इसलिए एक ऐसा घोषणा पत्र बनाया गया जिसे पढ़ कर लगता था कि इसे केजरीवाल के हसीन सपने नाम भी दिया जा सकता है। चूंकि पार्टी ने बिजली-पानी को लेकर आंदोलन किया था, इसलिए इन मुद्दों पर तो दिल्ली का खजाना लुटाने का मन बना लिया। लेकिन वे भूल गए कि महानगर की और भी बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके लिए पैसा कहां से आएगा। केजरीवाल ने हाल ही में घोषणा की कि उनकी पार्टी पूंजीवाद के नहीं क्रोनी पूंजीवाद के खिलाफ है। लेकिन उनकी सरकार का ट्रैक रिकार्ड इसकी गवाही नहीं देता। सरकार रेग्यूलेटर द्वारा तय की गई कीमतों को मानने को तैयार नहीं थी और डिस्कॉम कंपनियों का ऑडिट कराना चाहती थी। वह प्राइवेट स्कूलों का डोनेशन खत्म करना चाहती थी। फीस कम करना चाहती थी। बिना इस बात की परवाह किए कि अगर आप प्राइवेट स्कूलों को मुनाफा नहीं कमाने देंगे तो प्राइवेट स्कूल बनना बंद हो जाएंगे। स्कूलों की कमी हो जाएगी तो उससे आम लोगों के लिए समस्या पैदा होगी क्योंकि लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना नहीं चाहते। पानी के मामले में एक अर्थशास्त्री ने कहा था कि केजरीवाल उल्टी खोपड़ी के रॉबिनहुड हैं। रॉबिनहुड अमीरों को लूट कर उनका पैसा गरीबों में बांटता था लेकिन केजरीवाल गरीबों का पैसा अमीरों में बांटते हैं। मुफ्त पानी उन लोगों को दिया गया है, जिनके पास कनेक्शन हैं लेकिन 30- 40 प्रतिशत लोगों के पास कनेक्शन नहीं हैं। उनके यहां कनेक्शन लगाने के लिए जो पैसा खर्च होना चाहिए था, वह कनेक्शन वालों को मुफ्त पानी देकर बांट दिया गया। राजनीतिकों को सिखायी राजनीतिैेहां, इतना जरूर हुआ है कि आप की देखादेखी सारे दल जनता से जुड़ने और उसकी इच्छाओं के अनकूल अपने को ढालने की कोशिश करने लगे हैं। जैसे वसुंधरा राजे अपने सामंती चरित्र के बावजूद जनता के बीच ज्यादा घुलने-मिलने की कोशिश कर रही हैं। कुछ पार्टयिों ने तय किया है कि कार्यकर्ताओं से मशविरा करने के बाद ही उम्मीदवार तय करेंगी। अपराधियों को टिकट नहीं दिया जाएगा। भाजपा ने ‘आप’ के नक्शे कदम पर चल कर जनता के पैसे से चुनाव लड़ने का फैसला किया। मोदी के लिए वोट के साथ नोट देने की भी मांग कर रही है। दिक्कत यह है कि दूसरी तरफ ‘आप’ अपने मुद्दों से हटती जा रही है। पहली खेप में जो बीस उम्मीदवार घोषित किए गए हैं, उन्हें जनता ने नहीं, ‘आप’
नेताओं ने पहले ही तय किया हुआ था। अब ‘आप’ में हाई कमान कल्चर आने लगा है। नए हाई कमान हैं अरविंद केजरीवाल। ‘एक आदमी, एक पद’ का सिद्धांत उन पर कभी लागू नहीं हुआ।
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