फिलहाल आम आदमी पार्टी को बने रहना है। दिल्ली एक लम्बी कहानी का एक अध्याय भर था और राजनीतिक पटकथा पार्टी को अभी लिखनी है। हां, पार्टी के समक्ष यह बुनियादी दुविधा बनी रहनी है कि व्यवस्था-विरोधी जन मानस की अच्छे शासन के साथ किस प्रकार से तालमेल बिठाए रखे
आप सरकार का संक्षिप्त कार्यकाल इस जग-जाहिर सच्चाई को ही बयां करती है कि जब व्यवस्था को गरियाने वाले सत्ता में आ जाते हैं, तो सरकार चला पाने में दिक्कत का सामना करते हैं। असंतोषी किस्म के लोग दुर्दान्त शासक हो सकते हैं। राजनीतिक विज्ञानी जियोवन्नी सरतोरी ने शब्द दिए हैं-व्यवस्था विरोधी पार्टियां। ये व्यवस्था चलाने के बजाय व्यवस्था को बेहतर तरीके से कमतर ठहराने में कहीं ज्यादा मुफीद हैं। बेशक, ‘आप’ उस तरह से व्यवस्था-विरोधी नहीं है, जिस प्रकार दूसरे विश्व युद्ध के दिनों में यूरोप में एक-दलीय या कम्युनिस्ट पार्टियां थीं। यह न तो हिंसा की हामी है और न संविधान की ही अनदेखी करने पक्ष में है। लेकिन यह राजनीति में जो ढर्रा पसरा हुआ है, उसे हर हाल में पलट देना चाहती है। कायदा यह कहता है कि एक निर्वाचित सरकार को नियम-कानूनों की मौजूदा परिधि के भीतर रहकर की कार्य करना होता है। यदि ये नियम-कानून-कायदे स्वीकार्य नहीं हैं, तो सरकार उनमें भी बदलाव ला सकती है। लेकिन थोड़े-बहुत बदलाव तो किए जा सकते हैं, लेकिन बुनियादी बदलाव को लेकर कोई जल्दबाजी नहीं दिखलाई जा सकती है। न ही किसी आदेश वगैरह का ही सहारा लिया जा सकता है। इसके लिए धैर्यपूर्ण संवाद, सतर्क बातचीत और सुघढ़ता से सहयोगियों को जुटाया जाना अनिवार्य है। वे तीन भूलें ‘आप’ की उन तीन भूलों पर विचार करिए जिनसे अति-आदर्शवाद झलकता है। पहली, क्या किसी कानून मंत्री, भले ही वह पुलिस पर कितना ही संदेह करता हो, को इस प्रकार की निगरानी भरा आचरण दिखाना चाहिए। गैर-कानूनी ढंग से आधी रात को छापेमारी करने से पुलिस में सुधार नहीं आ सकता। पुलिस सुधार एक धीमी और शुष्क प्रक्रिया है, न कि नाटकीय तौर-तरीका। इसी प्रकार, नस्लीय फब्तियां-आज के कानून, जो सामूहिक के बजाय व्यक्तिगत दोष पर बल देता है-से मेल नहीं खातीं। यह कहने से बात नहीं बनेगी कि निगरानी या नस्लीयता को बयां करने वाली घटनाएं इरादतन नहीं हुई। हमारी नीयत तो साफ थी, लोगों को गुस्सा आ गया-यह बेहद आम और अस्वीकार्य और अपनी जिम्मेदारी से बचने का खतरनाक रवैया है। हल्ला बोलने के अंदाज वाले मंत्रियों के आसपास इकट्ठी हुई भीड़, पुलिस पर हावी होते लोग और कुछ नहीं भद्दा, धमकाने वाला और गुस्से भरा नजारा ही पेश करते हैं। उन्हें आसानी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यहां तक कि महात्मा गांधी, जो बीती सदी में सबसे बड़े और कहीं ज्यादा समय तक भीड़ जुटाने वाले शक्स थे, भी जन समूह को नियंत्रित करने में मुश्किल का सामना करते थे। असंतोष से सरकार उभरना एक विरोधाभास भरी स्थिति है; लोगों को साथ राजनीति किए बिना कोई आंदोलन नहीं खड़ा किया जा सकता लेकिन जनाक्रोश बना रहे तो कोई सरकार चल भी नहीं सकती। दूसरी, क्या किसी सरकार को बिना किसी ऑडिट किए बिजली के शुल्कों को एकदम से कम कर देना चाहिए? बिजली कम्पनियों को इस प्रकार क्या बढ़ती लागतों के बोझ तले दबा देना चाहिए? निजी कम्पनियां धन की लालची हो सकती हैं लेकिन उत्पादन लागत की गणना किस प्रकार से की जाए, यह एक जटिल प्रश्न है। पहले ऑडिट करवाया जाना चाहिए। फिर कीमत कम की जानी चाहिए। यदि लागत वास्तव में ज्यादा हैं, तो फिर कीमत या शुल्क बढ़ाने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता। तीसरी, क्या किसी कारोबारी विवाद में सरकार को भ्रष्टाचार को लेकर एफआईआर दर्ज करवानी चाहिए? वह भी उस सूरत में जबकि वह विवाद पहले से ही अदालत के समक्ष विचाराधीन हो। इस प्रकार का कार्य अच्छे शासन के सिद्धांत के खिलाफ है। इसलिए कि यह न्यायिक प्रक्रिया के प्रति असम्मान दिखाता है। यह तरीका नाटकीयता का पुट लिए तो होता है लेकिन अच्छे शासन के गरिमापूर्ण हुनर और चिंता-सरोकार को मुखर नहीं करता। तार्किकता उभारना बेहतर होता ‘आप’ के घोषणा पत्र में ‘उद्योग अनुकूल नीतियां’ की जरूरत की बात कही गई थी। लेकिन 49 दिन के शासन के दौरान कारोबारी जगत के प्रति एक प्रकार का पूर्वाग्रह देखने को मिला। कारोबारोन्मुख निवेश को आकर्षित करने वाली आर्थिक घोषणाएं नदारद रहीं। अच्छे शासन को भ्रष्टाचार पर वैिक कसने की दरकार तो रहती ही है लेकिन इसे आर्थिक वृद्धि के प्रति संवेदनशील भी रहना होता है। ‘आप’ ने पहले पक्ष के प्रति तो अति उत्साह दिखाया लेकिन दूसरे पक्ष उसकी तवज्जो से वंचित रहा। भारतीय लोकतंत्र चुनाव के समय अच्छे से कार्य करता है लेकिन चुनाव बाद सरकारें लोगों के प्रति संवेदनहीन हो जाती हैं। ‘आप’ ने इस कमी को पूरा करने का वादा किया। वह सरकार को लोगों के करीब लाने को तत्पर दिखी। लेकिन क्या यहां यह लोकलुभावन और जनेच्छा के बीच एक प्रकार का अंतर पैदा नहीं कर रही? लेकिन लोकतांत्रिक फैसले करने की प्रक्रिया को लोगों के समूहों, जो पाकरे, मैदानों और स्टेडियमों में ताबड़तोड़ तरीके से एकत्रित किए गए हों, को नहीं सौंपी जा सकती। ध्यान रखना होगा कि भावनाओं और पूर्वाग्रहों से तार्किकता नहीं उभरती। वापसी की परिस्थितियां क्या ‘आप’ वापसी कर पाएगी? हां, यह वापसी कर सकती है। आंदोलनात्मक तेवरों के चलते शहरी मध्य वर्ग का एक हिस्सा भले ही ‘आप’ से छिटक जाए लेकिन सरकार चलाने की जो नाटकीयता ‘आप’ अपनाती है, उससे शहरी गरीबों और निम्न मध्य वर्ग में पार्टी की अपील में इजाफा होना है। इन वगरे में मौजूदा व्यवस्था को लेकर असंतोष पहले से ही व्यापा हुआ है। इतना ही नहीं, अब टेलीविजन अस्सी करोड़ लोगों के घरों तक पहुंच बना चुका है, सो शहरी-ग्रामीण मतदाताओं के बीच की विभाजन रेखा अब ज्यादा समय नहीं रह पाएगी। ‘आप’ की थियेटरनुमा कार्यशैली, जो इसके पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा आसमान तले पटरी पर खुले में सोना और इसके पूर्व कानून मंत्री द्वारा पुलिस को चुनौती देना, पक्की बात है कि दिल्ली के आसपास के ग्रामीण इलाकों के लोगों को भली लगेगी। नतीजतन, आगामी लोक सभा चुनाव में ‘आप’ का प्रदर्शन हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों तथा भारत के कुछ बड़े शहरों में अच्छा रहना है। ‘आप’ को बने रहना है। दिल्ली एक लम्बी कहानी का एक अध्याय भर था और राजनीतिक पटकथा पार्टी को अभी लिखनी है। हां, पार्टी के समक्ष यह बुनियादी दुविधा बनी रहनी है कि व्यवस्था-विरोधी जन मानस की अच्छे शासन के साथ किस प्रकार से तालमेल बिठाए रखे। उसे 1937 में ब्रिटिश दौर में कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों के काम करने के तौर-तरीकों से सीखने या फिर उसे केरल और पश्चिम बंगाल में पहली दफा सत्ता में आने पर वाम पंथी सरकारों के जो तौर-तरीकों रहे, उन्हें जान लेने की दरकार हो सकती है।
प्रो. आशुतोष वाष्ण्रेय
अंतरराष्ट्रीय अध्ययन और सामाजिक विज्ञान,
ब्राउन विवि.
साभार : इंडियन एक्सप्रेस
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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
ठहराव का भी है अपना मजा
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