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आप’ को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस याराना पूंजीवाद के खिलाफ वे खड़े होने का दावा कर रहे हैं, उसके विरु द्ध वामपंथी दल और अति वामपंथी दल भी लंबे समय से अभियान चलाते ही रहे हैं। इसलिए अपने को सबसे नैतिक और पवित्र बताने के फायदे तो हैं लेकिन जब वह साबित नहीं हो पाता तो उसके नुकसान भी हैं। आम आदमी के लिए सबसे हितकर और जरूरी रास्ता है, उसके लोगों का सत्ता में बने रहना। उसके हितों के लिए बदलाव के कार्य क्रम को कभी तेजी से तो कभी धीमे से लागू करते रहना
कहते हैं कि मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे, ऐसा चलता नहीं। दो में से एक ही काम संभव होता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (‘आप’) की सरकार के साथ ऐसा ही हुआ। यही वजह है कि ‘आप’ के नेता अरविंद केजरीवाल अपने नैतिक आसमान को जितना विस्तृत बता रहे हैं, लोगों की उम्मीदों की जमीन उतनी सिकुड़ रही है। लोग उन्हें विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह मीडिया सनसनी के रूप में भी देख रहे हैं, जिन्होंने मंडल जैसा बदलाव करने से पहले तमाम प्रतीकात्मक कदम ही उठाए। यह जानना दिलचस्प है कि 49 दिन बाद जब जनलोकपाल बिल को विधानसभा में पेश किए जाने की अनुमति लिए जाने के सवाल पर कांग्रेस और भाजपा ने मिल कर उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया और उन्होंने इस्तीफा दे दिया तो दिल्ली में उसे सही या गलत बताने वालों का जनमत लगभग उतना ही विभाजित था। लगभग 49 प्रतिशत लोग इसे सही मान रहे थे। उतने ही लोग इसे गलत मान रहे थे। बाकी लोग कोई राय बनाने की स्थिति में नहीं थे। हालांकि कुछ सर्वेक्षणों के अनुसार अगर तत्काल चुनाव हुआ तो ‘आप’ को भारी समर्थन मिलने की संभावना है। फिर भी इस पार्टी के जो आलोचक थे, उनकी आवाज बहुत मुखर हो चली थी। भाजपा और कांग्रेस के समर्थक ही नहीं, बीच में खड़े तटस्थ लोग भी इतनी जल्दी इस्तीफा दिए जाने को सही नहीं मान रहे थे। अहंकार और बड़बोलापन इसके पीछे एक वजह तो यह थी कि ‘आप’ राजनीति के जिस व्याकरण पर चल रही है, वह अभी तक लोगों तक पहुंच नहीं पाया है। उल्टे उसके तमाम प्रवक्ताओं का अहंकार और बड़बोलापन उसी तरह प्रकट हुआ है, जिस तरह कभी कांग्रेसी प्रवक्ताओं का दिखाई पड़ता था और अब भाजपा के लोगों का। ‘आप’ का यह दावा सही है कि देश में याराना पूंजीवाद है और उसने देश के राजनीतिक और प्रशासन तंत्र के साथ मिल कर इसे लूट तंत्र में बदल दिया। उसका यह दावा भी ठीक है कि इस लूट में कांग्रेस और भाजपा के साथ तमाम क्षेत्रीय दल शामिल हैं। उसकी कम्युनिस्ट पार्टयिों की आलोचना भी एक हद तक ठीक है लेकिन क्या कम्युनिस्ट पार्टयिों को भी तमाम परंपरागत दलों के पाले में रख देना उचित है? ‘आप’ को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस याराना पूंजीवाद के खिलाफ वे खड़े होने का दावा कर रहे हैं, उसके विरु द्ध वामपंथी दल और अति वामपंथी दल भी लंबे समय से अभियान चलाते ही रहे हैं। इसलिए अपने को सबसे नैतिक और पवित्र बताने के फायदे तो हैं लेकिन जब वह साबित नहीं हो पाता तो उसके नुकसान भी हैं। ‘हम सबसे ईमानदार हैं। हमने 49 दिनों में जो कर दिया वह बाकी दल 65 वर्षो में नहीं कर पाए-’ यह ऐसा दावा है, जो इस देश के इतिहास को जानने वालों के गले नहीं उतरता। यह दावा कई बार पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के ‘चार महीने बनाम चालीस साल’ वाले दावे जैसी ध्वनि देता है (हालांकि उनकी सरकार भ्रष्ट थी)। इस देश में कम से कम सत्तर और अस्सी के दशक तक तो ऐसे तमाम लोग थे, जो चुनावों से लेकर प्रशासनिक कामकाज में शुचिता बरतते थे। जिनकी ईमानदारी की कसमें अब भी खाई जाती हैं। आचार्य जेबी कृपलानी ने जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद रेडियो प्रसारण में तत्काल कहा था, ‘हमने सरकार तो बना दी है लेकिन अब इन लोगों पर निगरानी रखना भी हमारा काम है।’
ऐसे लोग कांग्रेस में भी थे, कम्युनिस्टों में भी रहे, समाजवादियों में भी थे और संघ परिवार में भी। नैतिकता और ईमानदारी को इस आधार पर नहीं मापा जा सकता कि पिछले पचास सालों में लोकपाल नहीं बना तो हमारी पूरी राजनीतिक विरासत गड़बड़ ही रही है। इसे इस तरह भी देखा जाना चाहिए कि इस गड़बड़ विरासत के विरु द्ध हमारी राजनीति में समय-समय पर विद्रोह होते रहे हैं। ऐसे ही नहीं इस देश को वीएस नॉयपाल मिलियन म्युटिनीज कहते हैं और न ही लोहिया, जेपी, विनोबा और वीपी सिंह अचानक बगावत करने निकल पड़े थे। यह नई राजनीति तो नहीं आज 21 वीं सदी में भारत बनाम भ्रष्टाचार और उसके गर्भ से निकली ‘आप’ के माध्यम से जो कुछ हो रहा है, उसे हम 1967, 1974, 1989 के विद्रोह और नई राजनीति खड़ी करने की कोशिश से काट कर नहीं देख सकते। यह गैर कांग्रेसवाद, नक्सलवाद और संपूर्ण क्रांति के आंदोलनों की एक कड़ी ही है। उन विद्रोहों में विचारधारा भी थी और उसके दायरे को तोड़ कर नई राजनीति खड़ी करने की कोशिश भी। उन कोशिशों का असर भी रहा लेकिन जैसा असर होना चाहिए था, वैसा नहीं पड़ा। इसीलिए विद्रोह की उस भावना की पूर्ति कुछ युवाओं ने बंदूकें उठा कर की। किसी भी नैतिक और परिवर्तनकारी आंदोलन की दो परिणतियां होती हैं। एक तो उसमें जुटे सत्ता लोलुप लोग परिवर्तन के नाम पर सत्ता पर कब्जा कर लेते हैं, सत्ता का निजी हित में इस्तेमाल करते हैं और जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देते हैं। दूसरी परिणति, उससे ऊबे सच्चे और ईमानदार लोगों के पलायन की होती है। वे या तो सर्वोदयी लोगों की तरह आश्रम बना कर चरखा कातने में लग जाते हैं, या फिर उग्रवाद की राह पर निकल जाते हैं। ये दोनों रास्ते भी आम आदमी के लिए आसान नहीं होते लेकिन वे उसकी बदलाव की आकांक्षाओं पर पानी फेर देते हैं। आम आदमी के लिए सबसे हितकर और जरूरी रास्ता है, उसके लोगों का सत्ता में बने रहना। उसके हितों के लिए बदलाव के कार्यक्रम को कभी तेजी से तो कभी धीमे से लागू करते रहना। निश्चित तौर पर दिल्ली में पेश होने वाला ‘आप’ का जनलोकपाल संसद से पारित लोकपाल से बेहतर और मजबूत है। लेकिन उसी के साथ यह भी सोचना चाहिए कि क्या हम संविधान और संसदीय व्यवस्था को अपनी जिद के लिए ध्वस्त करने को तैयार हैं? ‘आप’ के नेता वैसा कहते नहीं लेकिन दिल्ली को पूर्ण राज्य के लिए उनका संघर्ष या जनलोकपाल के लिए उनका आंदोलन कई बार ऐसे आभास देता है। उनका यह आभास आंदोलन करने के लिए चलेगा लेकिन एक ऐसे जिम्मेदार राजनीतिक दल के तौर पर नहीं चलेगा जो गठबंधन की राजनीति से चल रहे बहुदलीय लोकतंत्र को साथ लेकर चलना चाहता है। आगमन अच्छी बात कांग्रेस पार्टी का समर्थन लेते हुए ‘आप’ ने जिस धर्म संकट का दावा किया था, उसका सामना उसे कदम-कदम पर करना होगा। उससे वह न तो अगले लोक सभा चुनाव के बाद मुक्त हो पाएगी और न ही विधानसभा चुनाव बाद। यह अच्छी बात है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने अपने को एक पार्टी के रूप में विकसित किया। मेधा पाटकर, आलोक अग्रवाल और सोनी सोरी जैसे जुझारू और आंदोलनकारी लोगों को टिकट देकर मुख्यधारा की राजनीति को परिवर्तनकारी बनाने की कोशिश की है, लेकिन यह परिवर्तन महज बड़बोलेपन और प्रतीकात्मकता से नहीं होगा। जनता को नए किस्म का प्रशासन और अर्थव्यवस्था चाहिए। उसे व्यवस्था का विरोध करने वाले भी चाहिए लेकिन आखिरकार उसे एक व्यवस्था चाहिए। डॉ. राममनोहर लोहिया की यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारतीय जनता को बड़े लंबे समय के बाद अपना राज्य मिला है। वह इसे खोना नहीं चाहती। शायद यही वजह थी कि विभाजन के वक्त कांग्रेस के बड़े नेताओं ने देश बचाने के लिए अमेरिका की तरह गृह युद्ध का रास्ता अपनाने के बजाय लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से एक देश खड़ा करने का काम किया। वह एक समझौता था। उसकी आलोचना भी हुई पर उस प्रयोग को पूरी तरह विफल नहीं कहा जा सकता। आज जब नवउदारवाद के ढाई दशक के प्रयोग के बाद राजनीति पूंजीपतियों की मुट्ठी से फिसल रही है। देश में एक बार फिर जनता, उसकी राजनीति, नैतिकता और गांधीवाद की वापसी हो रही है, तो उसकी गति को समझने और उसे सही ढर्रे पर ढालने की जरूरत है। यह राजनीति मंडल, कमंडल और भूमंडल के बाद की है, और उसे उन तमाम अनुभवों से सबक भी लेना होगा। उसे अंबेडकर की वह बात भी याद रखनी होगी कि हम संविधान या कानून कितना भी अच्छा बना देंगे लेकिन अगर उसे लागू करने वाले ठीक नहीं होंगे, तो उसकी दशा बहुत बुरी होगी। इसलिए जनलोकपाल चाहे जितना मजबूत हो हमें उसे चलाने वाले अच्छे लोग तलाशने और तैयार करने होंगे वरना वह पहले की संस्थाओं की तरह नाकारा बन कर रह जाएगा। अच्छे लोगों को तैयार करने और तलाशने का काम न तो टोपी की प्रतीकात्मकता से होगा न ही इस्तीफा देकर भागने से होगा। उसके लिए अपने भीतर के लोकपाल को भी जगाए रखना होगा। लोकतंत्र की गति, संयम, मर्यादा और बहुलता का खयाल रखना होगा।
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