आजकल जहाँ (लखनऊ) अपना ठिकाना है वहाँ से ऐतिहासिक-पौराणिक रामनगरी अयोध्या कोई 134 किलोमीटर है। लखनऊ-गोरखपुर के रपटीले हाई-वे पर यह नगर भी पड़ता है। इस रास्ते अयोध्या जाने का पहला अनुभव था। गाड़ी चलाते समय मन में यह बात रह-रह कर उठ रही थी कि विकास की नई-नवेली पहचान (हाई-वे) में अयोध्या की पुरानी पहचान तो बरक़रार रखी होगी लेकिन ऐसा था नहीं। आम गांवों-कस्बों-शहरों की तरह ही अयोध्या के नाम का एक डायवर्जन था। हाँ, औरों से कुछ बड़ा। शायद फैज़ाबाद से भी। खैर, डायवर्जन लांघकर पुराने सरयू पुल के पहले जब पहुँचे तभी रामनगरी का अहसास हुआ। वही पुराना नगर। प्रसाद से सजी दुकानें। पूजा-सामग्री से आते दुकानों के काउंटर। जगह-जगह मंदिर। मंदिरों में गूँजते मंत्र। हनुमान गढ़ी में आज कुछ ज्यादा ही भीड़ थी। शायद मंगलवार की वजह से। सडकों पर टेम्पो, ऑटो रिक्शा और रिक्शा वालों की कतारें।
मंदिरों के इस शहर में कभी आपका भी जाना हुआ ही होगा। और जरूर प्रमुख मंदिरों ( राम जन्म भूमि, हनुमानगढ़ी, कनक भवन आदि-आदि) के आस-पास या सड़कों-गलियों में यहाँ के हनुमानों यानी बंदरों से भी जाने-अनजाने पाला भी पड़ा ही होगा। पलक झपकते बन्दर कैसे प्रसाद (चढ़े या अनचढ़े) या खाने-पीने के सामान को झपट्टा मारकर अपना बना लेते हैं। अपनी ही गलती से इन झपट्टामार का शिकार अयोध्या की मुख्य सड़क पर मैं भी बना। एक डिब्बा किसी तरह बन्दर से बचाया। सामने चाय-पान की दुकान करने वाले एक सज्जन बताने लगे कि बन्दर भी झपट्टे के नए-नए नुस्खे सीख गये हैं। बस के नीचे छिपकर झपट्टा मारते हैं और फिर बस के नीचे छिप जाते हैं। इन बंदरों को आजकल कोट (हनुमान गढ़ी) के पीछे बाकायदे ट्रेनिंग दी जाती है। यह सुनकर आश्चर्य भी हुआ कि बंदरों को ट्रेनिंग! फिर सोचा जीव हैं और आदमी से मिलते-जुलते भी। पुरानी खोजों पर विश्वास करें तो आदमी की उत्पत्ति के कारक भी। यह सही है कि अजुध्या जी के सभी बंदर उत्पाती भी नहीं हैं। इनमें कुछ शरीफ भी हैं। जो झपट्टा मारने में यकींन नहीं करते। जो मिल जाये उसी में संतोष। हो सकता है कि झपट्टा मारने की नीति पर विश्वास न हो या कूवत ही ना बची हो। अयोध्या क्या हर उस तीर्थ ( जहाँ बंदरों के झुण्ड रहते हैं ) के इस सीन को लोकतंत्र के मंदिर से तुलना करके देखिये। खासकर चुनाव के समय। कितनी समानता है इस झपट्टे में।
अभी-अभी खबर आई कि कांग्रेस ने डुमरियागंज में भाजपा के विधायक जयप्रताप सिंह कि पत्नी वसुंधरा सिंह को लोकसभा प्रत्याशी बना दिया। यहाँ पहले तरुण पटेल प्रत्याशी घोषित थे। भाजपा ने कांग्रेस के सांसद जगदम्बिका पाल पर कुछ दिनों पहले ही तो झपट्टा मारा था। केजरीवाल दिल्ली में शीला दीक्षित पर झपट्टा मारने के बाद मोदी पर झपट्टा मारने की कोशिश नहीं कर रहे क्या? यह अलग बात है कि कभी दूसरे के प्रसाद पर झपट्टा मारने पर डंडा ( स्याही-अंडा ) भी मिल जाता है। खुद मोदी ने जोशी ( मुरली मनोहर जोशी जो खुद उनकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं ) की सीट पर भी झपट्टा ही तो मारा है ? लखनऊ में राजनाथ ने क्या किया टंडन ( लालजी टंडन-लखनऊ के निवर्त्तमान सांसद और अटल बिहारी वाजपेयी के उत्तराधिकारी ) के साथ। बाड़मेर को भी इसी नजरिये से देखिये तो क्या आपको नहीं लगता कि कर्नल सोनाराम के लिए जसवंत सिंह के साथ क्या किया गया। अमृतसर में नवजोत सिंह सिद्धू क्या अरुण जेटली के लिये कुर्बान नहीं हुये। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद वोटों के लिये कितने झपट्टे कितनी तरफ से मारे गये यह बताने की जरुरत है क्या?
भारतीय राजनीति ऐसे अनगिनत झपट्टों से भरी पड़ी है। केवल इस चुनाव ही नहीं। लोकतंत्र का मंदिर बनने से पहले और बाद से अब तक। झपट्टामार हर युग-काल में हुये है। कुछ प्रसाद में सफल रहे और कुछ असफल भी। नेहरू युग, इंदिरा युग, राजीव युग हो या चौधरी चरण सिंह युग। चौधरी साहब की विरासत रूपी प्रसाद चौधरी अजित सिंह के हाथ से कौन छीन ले गया, इसे बताने की जरूरत तो शायद नहीं है।
अपने समाज में किसी भी सूरत में किसी को भी झपट्टे स्वीकार्य नहीं हैं। यह तीर्थों के मंदिरों पर हो या लोकतंत्र में। भारतीय समाज यह झपट्टामार नीति पसंद नहीं करता। भले उसे यह समझने में थोड़ा समय लग जाये। ना यकीन हो तो कुछ नेताओ का हश्र देख लीजिये। झपट्टामारों को समय ने अपनी मार और धार से मारा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें