सोमवार, 7 अप्रैल 2014

जनता की कमाई को इस तरह चूना लगा रहे बैंक

भारत में विकास परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिये बैंकों द्वारा अपनाई गयी कर्ज़ प्रथाओं एवं सामाजिक और पर्यावरणीय उल्लंघन का एक विश्लेषण करती शोध पुस्तक 

डाउन द रैबिट होल – वॉट द बैंकर्स आर नोट टेलिंग यू  :  पुस्तक समीक्षा 

( Down the Rabbit Hole – What the Bankers Aren’t Telling You! )

संतोष कुमार 
द रिसर्च कलेक्टिव ( प्रोग्राम फॉर सोशल एक्शन ) द्वारा इंग्लिश में प्रकाशित यह शोध पुस्तक भारत में विकास परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिये बैंकों द्वारा अपनाई गयी कर्ज़ देने की प्रथाओं का विश्लेषण करता है तो साथ ही साथ निजी कम्पनियों एवं कॉर्पोरेट घरानों द्वारा सामाजिक और पर्यावरणीय उल्लंघन के ऊपर भी गहराई से प्रकाश डालती है। 
इस शोध में कर्ज़ देने की प्रथा की कार्य प्रणाली, कॉर्पोरेट परियोजनाओं को दिये गये कर्ज़, परियोजना पूँजी, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के प्रचलन, उधार अधिनियम, आर. बी. आई. की जवाबदेही और पारदर्शी कर्ज़ के लिये वैश्विक प्रक्रियाएं, परियोजनाओं को कर्ज़ देने के लिये सामाजिक-पर्यावरणीय मापदंड और परियोजना के लिये कर्ज़ पर सामाजिक पर्यावरणीय उल्लंघन का असर, पर विश्लेषण करते हुये चौकाने वाले आंकड़े उभर के आये हैं, जो भारत की वित्तीय संस्थानों की कर्ज़ देने के तरीके पर सवाल उठाती है| इस रिपोर्ट में भारत के छ: परियोजनाओं की केस स्टडी का उल्लेख किया गया है- जी. एम. आर. कमालंग एनर्जी, अथेना डेम्वे लोअर हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर, सासन यू. एम. पी. पी. , लवासा हिल सिटी, लाफार्ज सूरमा और कृष्णपटनम यू. एम. पी. पी.। पूर्ण जांच पड़ताल के ज़रिये से सामाजिक, पर्यावरणीय, कानूनी और वित्तीय मसलों पर प्रकाश डाला गया है।
इस अध्ययन से यह साफ होता है कि जिन परियोजनाओं के कर्ज़ की मंज़ूरी बैंकों द्वारा दी गयी है, उनके सामाजिक-पर्यावरणीय उल्लंघन के क्या-क्या दुष्प्रभाव हैं।
अधिकतम परियोजनाओं के लिये, औसतन पूरी परियोजना का 75% खर्चा कंपनी द्वारा कर्ज़ के रूप में लिया जाता है, जो कि वित्तीय संस्थानों पर असंगत बोझ डालता है। परियोजना पूँजी प्रणाली में कर्ज़ और ब्याज को परियोजना के द्वारा उत्पादित किये गये राजस्व से ही चुकाया जाता है इसलिये परियोजना में निरंतर देरी से उस कर्ज़ पर खतरा बढ़ जाता है। वह परियोजनाएं जो कि अवैधताएं, उल्लंघन और कानूनी मुकद्दमों या संसाधनों की कमी झेल रहे हैं या फिर जिनके खिलाफ प्रभावित समुदाय उनके प्रतिकूल प्रभाव के चलते विरोध कर रहे हैं, उन परियोजनाओं में बहुत ही धीमी या कोई प्रगति नहीं हो रही है। इस स्टडी में जिन छ : परियोजनाओं का ज़िक्र हुआ है, उसमें से पांच सिविल याचिका या मध्यस्थता मुकद्दमों या जनहित याचिका और सरकार में मुकदमे को अदालत में झेल रहे हैं। इसमें से पांच परियोजनाएं धीमी गति से बढ़ रही हैं और दो हैं जिन में निर्माण कार्य छ सालों में शुरू भी नहीं हुआ है। अथेना डेम्वे लोअर हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर, लवासा हिल सिटी, लाफार्ज़ सूरमा और कृष्णपट्टनम यू. एम्. पी. पी., इन चार परियोजनाओं के ऋण गुणवत्ता में गिरावट का वर्णन किया गया है। सासन पॉवर के मामले में ऋण गुणवत्ता अस्पष्ट है, पर ऋण के दो बार किये गये नवीनीकरण और परियोजना के लगातार बढ़ते खर्चे उसकी वित्तीय दुर्दशा के संकेतक हैं|लवासा कारपोरेशन और लाफार्ज सूरमा ने सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य पर्यावरणीय कानूनों के उल्लंघन में मुक्कद्दमों के दौरान नुकसान दर्शाया है।
अथेना डेम्वे लोअर हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर ने 2010 के आखरी तिमाही तक सारे कर्ज़ निश्चित कर लिये थे, पर अभी तक उसका निर्माण कार्य शुरू नहीं हुआ है। इस परियोजना के ज़रिये से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा खतरों का मूल्यांकन करने में गंभीर चूक को दर्शाया गया है, जिसके चलते विशाल कर्ज़ की मंज़ूरी और हस्तांतरण ऐसी परियोजना के लिये किया गया है, जिसको सरकार द्वारा मूलभूत अनुमति भी नहीं मिली है। जब 2010 में रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कारपोरेशन ने कर्ज़ की मंज़ूरी दी थी, तब उस परियोजना का न ही कोई पर्यावरणीय न फारेस्ट (जंगल) अनुमति थी। अथेना डेम्वे परियोजना तर्क के पराजय का बयान करती है। इसके बजाय की कर्ज़ की मंज़ूरी, सम्बंधित मंत्रालयों द्वारा बाकी के अध्ययन के पुरे होने के पश्चात ही दी जाए, परियोजनाओं द्वारा अनुमति की मांग की जा रही है ताकि मंज़ूर किये गये कर्ज़ की बद्दतर होती गुणवत्ता को अविवेकपूर्ण जल्दबाजी में बचाया जा सके।
सासन पॉवर, लवासा हिल सिटी, अथेना डेम्वे लोअर और लाफार्ज़ सूरमा के मामलों में अनुमति की मांग को धकेलने के लिये वित्तीय संस्थानों द्वारा मंज़ूर किये गये कर्जों की बद्दतर होती गुणवत्ता को दलील के रूप में इस्तेमाल किया गया है। यह पर्यावरण मंत्रालय के हित या जनहित में नहीं है कि वह एक परियोजना को सिर्फ इसलिये मंज़ूरी दे दे क्योंकि बैंकों के किसी संघ ने किसी प्रोजेक्ट के लिये बिना पूर्ण आंकलन के, करोड़ों रुपयों की मंज़ूरी दी है। यह अध्ययन दर्शाता है कि भारतीय बैंक सिर्फ उन परियोजनाओं को कर्ज़ नहीं दे रहे हैं, जो लोगों के मौलिक अधिकार और देश के निर्णायक कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं, पर ऐसी परियोजनाओं को भी अपनी लगातार सहायता दे रहे हैं, जिनके उल्लंघन और प्रतिकूल प्रभावों का खुलासा हो चुका है।
लाफार्ज़ सुरमा को भारतीय सरकार द्वारा देश के अति महत्वपूर्ण पर्यावरण क़ानून के उल्लंघन के लिये और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के कर्ज़ के भुगतान न होने के कारण जो की भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक स्टॉप-वर्क आर्डर के चलते हुआ था, न्यायालय ले जाया गया था। इस पर भी भारतीय बैंकों ने इस परियोजना को लघु अवधी का कर्ज़ दे के अप्रबंधित रूप से बचा लिया था। लवासा हिल सिटी के मामले में, जब अनगिनत उल्लंघन सामने आये, तब भी बैंक ने परियोजना के दूसरे दौर के काम के लिये 600 करोड़ की मंज़ूरी दी थी|
भारतीय बैंकों में पिछले 4 सालों में (मार्च 2009 - मार्च 2013 ) खराब कर्ज़ (गैर-निष्पादित संपत्ति) तीन गुना बढ़ गया है, जो कि 68,220 करोड़ रुपये से 1,94,000 करोड़ रुपये हो गया है ,हालाँकि यह कोई राज़ नहीं रह गया है कि खराब कर्ज़ अब बेलगाम होते जा रहे हैं। इस शोध से कुछ संकेतकों के ज़रिये से यह बताने का प्रयास किया गया है कि खराब कर्ज़ में अत्यधिक बढ़ोतरी हुयी है। खास कर के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, निजी कॉर्पोरेट के प्रति अस्पष्ट पक्षपात दर्शातें हैं , जैसे कि पांच सालों में 2006-2011 के बीच में, लाइफ इन्सुरेंस कारपोरेशन (एल. आई. सी.) ने अपने कर्ज़, निजी कंपनियों के लिये 3% से 100% तक बढ़ाया है। 2004 और 2011 के बीच आठ सालों में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया द्वारा निजी कंपनियों के लिये जो कर्ज़ मंज़ूर किये गये वह 58,467 करोड़ रुपये से पांच गुना बढ़ कर 2,96,362 करोड़ रुपये हो गये और गैर-निष्पादित संपत्ति इन पर दो गुना बढ़ कर जो 2004 में 5,620 करोड़ रुपये थी वह 2011 में 9,217 करोड़ रुपये हो गयी है। दूसरी तरफ बैंकों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों (पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग) को दिये गये कर्ज़ की गैर-निष्पादित संपत्ति  109 करोड़ रुपये से ज़बरदस्त रूप से घट कर 6 करोड़ रुपये पर आ गयी है। एस. बी. आई. की निजी कंपनियां की कुल गैर-निष्पादित संपत्ति आठ सालों के लिये (जो 2011 में पूरा होता है)  41,103 करोड़ रुपये है।
बैंक कॉर्पोरेट कर्जों का तेज़ी से नवीनीकरण होने दे रहे हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि 3 साल में, (मार्च 2009 - मार्च 2012) के बीच में, भारतीय बैंकों में, रीस्ट्रक्चर्ड कर्ज़ 75,304 करोड़ रुपये से  2,18,068 करोड़ रुपये यानी की करीबन 300% बढ़ा है। बैंक गैर-निष्पादित संपत्ति के आंकड़ों को घटा कर दिखा रहे हैं, ताकि कॉर्पोरेट को भुगतान न करने वालों की सूची से बाहर रखा जा सके। इस तरह के खराब कर्ज़ को छुपाने के चलते ही, यूनीयन बैंक की गैर-निष्पादित संपत्ति, सिर्फ आठ महीनों में (मार्च- दिसम्बर 2013188% बढ़ गयी है। यह बहुत ही चिंता का विषय है कि खराब कर्ज़ और रीस्ट्रक्चर्ड कर्ज़ का हिस्सा सरकारी बैंकों के लिये, निजी क्षेत्र के बैंकों से कहीं ज्यादा है। भारतीय बैंकों के कुल खराब कर्ज़, जो की मार्च 2013 में 1,94,000 करोड़ रुपये थे, उसमें से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का खराब कर्ज़ का हिस्सा1,64,461 करोड़ रुपये यानी 85% था !
इस स्टडी का एक और मुख्य पहलू विशिष्ट रूप से यह दर्शाता है, कि किस तरीके से बैंक, कॉर्पोरेट को दिये गये कर्ज़ से जुड़ी सारी जानकारी गोपनीय रखते हैं। ग्यारह में से दस सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जिसमें शोध के शोधकर्ता ने सूचना के अधिकार क़ानून 2005 के तहत सूचना माँगी तो उन्होंने बुनियादी जानकारी देने से भी मना कर दिया। बैंकों द्वारा परियोजनाओं से जुड़ी विशिष्ट जानकारियाँ देने से पूर्ण रूप से मना कर दिया गया। वित्तीय संस्थानों द्वारा कर्ज़ मंज़ूरी की तिथि, परियोजना से जुड़े नियम, भुगतान अवधि, इत्यादी से जुड़ी जानकारियाँ देने में उनकी दुर्भावना सबसे ज्यादा तब व्यक्त होती है, जब अलग-अलग परियोजनायों के वित्तीय दस्तावेज़ मांगे जाते हैं। अथेना डेम्वे लोअर हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर, जो कि  13,144.91 करोड़ रुपये की परियोजना है, उसमें पैसा कहाँ से आ रहा है, उससे जुड़ी कोई जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
गौर करने वाली बात यह है कि अलग-अलग बैंकों ने अलग-अलग सवालों पर जानकारी देते वक़्त सूचना अधिकार क़ानून के विभिन्न हिस्सों का इस्तेमाल किया, ताकि मांगी जानकारी नहीं दी जाये, जो दर्शाती है कि बैंकों द्वारा सूचना अधिकार क़ानून का मनमाने तरीके से उपयोग किया जाता है।
कॉर्पोरेट परियोजनाओं के कर्ज़ से जुड़ी सारी जानकारी बैंक व्यवसायिक गोपनीयता के नाम पर नहीं देते हैं। इसके चलते गैर-जवाबदेही और गैर-पारदर्शी कर्ज़ प्रथा बढ़ी है, जिसके चलते वित्तीय संस्थानों में भ्रष्टाचार और अनाचार को बढ़ावा मिला है। जहाँ एक तरफ एल.आई.सी. ने अपनी गैर-निष्पादित संपत्ति पर जानकारी देने से मना कर दिया, वहीँ दूसरी तरफ केनरा बैंक, सेन्ट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया और पंजाब नेशनल बैंक ने दावा किया कि उनके पास कंपनियों के कर्ज़ के गैर-निष्पादित संपत्ति के कोई अलग से आंकड़े नहीं हैं। उसी तरह जहाँ पंजाब नेशनल बैंक ने कंपनियों को दिये जाने वाले सालाना मंज़ूर किये गये कर्ज़ की राशि से जुड़ी जानकारी देने से मना कर दिया, वही बैंक ऑफ बडौदा ने यह दावा किया कि इस बात कि कोई केन्द्रित जानकारी उपलब्ध नहीं है कि, किस कंपनी को कितना दिया गया है। अगर यह वाकई में सच है कि कुछ बैंक सार्वजनिक और निजी क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों को दिये गये अपने कर्ज़ के वोल्यूम और नंबर से जुड़े आंकड़े की देखरेख नहीं करते हैं, तो यह बहुत ही चौंकाने वाली बात है कि बैंक किस तरह से काम कर रहे हैं और यह बिना समझे की इससे उनके कर्ज़ पर क्या खतरे हैं, कंपनियों को विशाल परियोजना पूँजी कर्ज़ दे रहे हैं। जैसा कि बैंक ऑफ़ बडौदा ने कंपनियों को दिये गये कुल कर्ज़ से जुड़ी जानकारी यह कहते हुये नहीं दी, कि ऐसा बैंक के सारे ब्रांचों के लिये होना अनिवार्य है। बैंक ऑफ़ बडौदा के पास अलग-अलग क्षेत्र और उद्योगों के गैर- निष्पादित संपत्ति के भी आंकड़े नहीं हैं। यह तथ्य इस बात को दर्शाते हैं कि बैंकों के पास कर्ज़ और गैर-निष्पादित संपत्तियों को स्टैण्डर्डइजेड और साइंटिफिक तरीकों से वर्गों में विभाजित करने की कोई प्रणाली नहीं है।
सूचना अधिकार कानून 2005 के तहत मिली न्यूनतम जानकारियों से यह खुलासा होता है कि कॉर्पोरेट परियोजना के कर्ज़ वित्तरण के लिये वित्तीय संस्थानों द्वारा बहुत ही कमज़ोर अधिनियम लागू होते हैं। इसके बावजूद की बैंकों के पास आतंरिक कर्ज़ नीतियाँ या क्रेडिट रिस्क मैनेजमेंट नीतियाँ होती हैं, पर उनके पास परियोजना पूँजी से निपटने के लिये कोई विशिष्ट नीति नहीं है और ख़ास कर के सामाजिक और पर्यावरणीय मसलों और परियोजना से जुड़े खतरों से निपटने के लिये कोई नीति नहीं है।
परियोजना पूँजी प्रणाली में परियोजना प्रस्तावक एक कानूनी रूप से स्वतंत्र पूरक कंपनी बनाते हैं, जिसे स्पेशल पर्पस वेहिकल (एस.पी.वी.) से भी जाना जाता है, जो की सिर्फ एक परियोजना को पूरा करने के लिये एक सीमित उद्देश्य रखता है। इस एस.पी.वी. के ज़रिये कंपनी के पक्ष में ऑप्टिमम रिस्क एलोकेशन होता है और किसी भी तरह के कर्ज़ के भुगतान न होने पर या दिवालिया होने पर अभिभावक कंपनी की संपत्ति की रक्षा करता है।
इस स्टडी से यह बात साफ़ है कि कॉर्पोरेट, भारतीय अधिनियम व्यवस्था में उसकी भारी कमियों का शोषण कर रहे हैं, ताकि वह उन परियोजनाओं को आगे बढ़ा सके, जिनका प्रतिकूल प्रभाव और विशाल वित्तीय खतरा है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ परियोजना प्रस्तावक और अभिभावक कंपनियों को परियोजनाओं के विनाशकारी प्रभावों के लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया है, पर उन उधार देने वालों पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं आती है, जिनके पैसे से ही यह परियोजना संभव होती हैं। वित्तीय पूँजी को नियंत्रित करने की इसी कमज़ोर कड़ी के चलते चीज़ें अटकी हुयी हैं। जब तक की उधार देने वाले निरंतर रूप से यह सुनिश्चित करते रहेंगे कि, परियोजना में पैसे आते रहें, तब तक परियोजना प्रस्तावकों को सामाजिक और पर्यावरणीय मसलों को सुलझाने के प्रति कोई ज़रुरत या दबाव नहीं लगेगा। बैंक परियोजनाओं को इसलिये लगातार कर्ज़ देते रहते हैं, क्यूंकि संभावित नुक्सान को ध्यान में रखने के लिये उनके पास कोई मार्गदर्शन नहीं है।
अगर बैंक इसी तरह सामाजिक, पर्यावरणीय और वित्तीय खतरों का आंकलन करने के लिये एक मज़बूत प्रणाली के अभाव में कर्ज़ देते रहेंगे तो, यह खराब कर्ज़ की स्थिति से भारतीय अर्थव्यवस्था को और हानि पहुंच सकती है। यह शोध पुस्तक कई ठोस सुझाव देती है, ताकि एक राष्ट्रीय क़ानून के तहत कर्जदारी के लिये कड़े अधिनियम लाये जायें, जिससे कि कर्जदारी में जवाबदेही, पारदर्शिता और सामाजिक एवम पर्यावरणीय सस्टेनेबिलिटी सुनिश्चित कि जा सके। सुरक्षा नियम और पूर्ण अध्ययन प्रणाली से परियोजना से जुड़े सामाजिक एवम पर्यावरणीय प्रभावों को चिन्हित, आंकलित, नियंत्रित और निरीक्षित किया जा सके, जो यह सुनिश्चित करेगा कि कर्ज़ देने के पहले परियोजना से जुड़े ऐसे मसलों का सही आंकलन हो सके। यह स्टडी बैंकों द्वारा कम गैर-निष्पादित संपत्ति दर्शाने की प्रक्रिया पर रोक लगाना, एक ऐसी नीती लाना जिसमें वित्तीय संस्थानों द्वारा परियोजनाओं से जुड़ी जानकारी को सार्वजनिक करना और अभिभावक कंपनी को कर्ज़ के भुगतान न होने पर ज़िम्मेदार ठहराने की प्रक्रिया जैसे बदलाव लाने के लिये मांग रखती है। यह पुस्तक जानकारी से भरपूर और पठनीय है ।
शोध पुस्तक    :  डाउन द रैबिट होल – वॉट द बैंकर्स आर नोट टेलिंग यू  :  पुस्तक समीक्षा                            ( Down the Rabbit Hole – What the Bankers Aren’t Telling You! )शोधकर्ता            :  लक्ष्मी प्रेमकुमार सहयोग राशि      :   100 रुपये मात्र पृष्ठ          :  156 प्रकाशक       :  द रिसर्च कलेक्टिव ( प्रोग्राम फॉर सोशल एक्शन ) H 17 /1 बेसमेंट , मालवीय नगर                , न्यू देल्ली – 110007  आप यहाँ से डाउनलोड भी कर सकते है : -  http://www.scribd.com/doc/209540775/Down-the-     Rabbit-Hole-What-the-Bankers-Arent-Telling-You 

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