अरकू। क्या बस्तर में आदिवासी समाज का मन बदल रहा है? यह सवाल राजनैतिक हलकों में उठ रहा है। विधानसभा चुनाव में इस अंचल में भाजपा को बड़ा झटका लगा था पर मीडिया ने इसे नजरंदाज कर दिया था। विधान सभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहाँ ज्यादा ताकत झोंक दी है। यह अंचल संघ की प्राथमिकता पर आ गया है। बावजूद इसके जानकारों के मुताबिक आदिवासी समाज को लेकर संघ परिवार दुविधा में है। विधान सभा चुनाव में यहाँ न मोदी थे और ना कोई उनका नारा। पर; लोकसभा चुनाव में हर नर मोदी, घर घर मोदी का नारा भी है तो दूरदराज के गीदम में संघ से जुड़ी महिलाएं घर घर जा रही हैं। इतना जोर विधानसभा चुनाव में नहीं दिखा था।
यह चिंता आदिवासी समाज के बदले रुख की वजह से मानी जा रही है। हालाँकि लोकसभा चुनाव में दोनों प्रमुख राजनैतिक दल के एजेंडे से आदिवासी समाज के जीवन से जुड़े मुद्दे गायब हैं। राजनैतिक दल न तो आदिवासियों के जीवन से जुडी इमली, चिरौंजी और आम के दाम की बात करते हैं, न उनके स्वास्थ्य या शिक्षा की। यह बात दो दिन बस्तर में आदवासियों से बात करने के बाद सामने आई। इसकी पुष्टि फिर आज दंडकारण्य से गुजरने वाली किरंदुल पैसेंजर ट्रेन से जगह जगह लोगों से चर्चा करने पर हुई। यह ट्रेन छतीसगढ़ के इस अंचल के साथ ओडिशा और अविभाजित आंध्र के गरीब आदिवासी लोगों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है तो माओवादियों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। यह ट्रेन माओवादियों के गढ़ से निकलती है तो समुद्र तट के बंदरगाह तक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से निकली सामग्री पहुंचाती है। दो दिन पहले ही जगदलपुर से इस ट्रेन की सारी सवारी उतारकर सभी लाइट बंद कर इसे किरंदुल भेजा गया ताकि माओवादी हमला न कर दें। हाल ही में किरंदुल के पास ही माओवादियों ने पटरी उखाड़कर एक मालगाड़ी गिरा दी थी तो दूसरे पर बैनर टांग कर भेजा था। इससे इस अंचल के साथ इस गाड़ी का रिश्ता समझा जा सकता है। बहुत दिन बाद किसी ट्रेन में खुली खिड़की के सामने बैठकर लिखने का मौका मिला है वह भी तब जब शाम को किरंदुल विशाखापत्तनम पैसेंजर अरकू जंक्शन पर पहुंची। इस पैसेंजर गाड़ी में एक पुराने ज़माने का फर्स्ट क्लास भी है जिसके दो बर्थ वाले एक कूपे में हम हैं। गाड़ी जगह-जगह रूकती तो लोगों से बातचीत भी होती। गाड़ी में चढ़ने वाले ज्यादातर गरीब और बेबस लोग हैं जो जलावन की लकड़ी और सब्जी भाजी के साथ एक स्टेशन पर चढ़ते है तो दो-चार स्टेशन बाद उतर जाते हैं।
माओवादी इस अंचल कोदंडकारण्य जोन कहते है और छतीसगढ़ में जब इंडियन एक्सप्रेस की कवरेज के सिलसिले में लगातार इधर आना पड़ा तो माओवादियों की राजनीति को भी करीब से देखा। पर डेढ़ दशक के बाद भी वे वहीं खड़े नजर आ रहे हैं और आदिवासी भी उसी हाल में हैं। यह उनके भी मंथन का दौर है जो हर बार चुनाव आने पर बायकाट का नारा देने के साथ हिंसा की छोटी बड़ी घटना से चर्चा में आते हैं। यह भी बहुत रोचक है कि जबसे शोषण और जुल्म के खिलाफ बंदूक से लड़ने वालों की ताकत इस अंचल में बढ़ी है तबसे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकते बहुत कमजोर हुई हैं। कट्टरपंथी ताकतों का हौसला ज्यादा बढ़ा है। इस पर नए सिरे से बहस और मंथन की जरूरत है।
बस्तर में माओवादियों की रणनीति का फायदा पिछले कई चुनाव में भाजपा को मिला। सलवा जुडूम को लेकर माओवादियों की कांग्रेस के दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा से जिस तरह की दुश्मनी थी उससे इसे स्वाभाविक माना जाता था पर सलवा जुडूम को भाजपा की रमन सरकार ने जिस तरह इसे वैधानिक मान्यता दी उसे देखते हुए माओवादियों के नजरिए पर सवाल भी उठा। जिस अंचल में ये धुर वामपंथी दो दशक से ज्यादा काम कर रहे हों वहां के आदिवासी किसी दक्षिणपंथी पार्टी के सांसद और विधायक को चुनें, यह राजनीति अपन के समझ में कभी नहीं आई।
पर जब धुर वामपंथियों ने अपने को नहीं बदला तो खुद आदिवासी अपने को बदलने लगे हैं। विधान सभा चुनाव में बस्तर में आदिवासियों ने न सिर्फ माओवादियों के धुर विरोधी महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को जिताया बल्कि झीरम घाटी की घटना के खिलाफ जनादेश देते हुए कांग्रेस को फिर सर माथे बैठाया। यह संकेत समझना चाहिए। खासकर उन्हें जो यह मानते हैं कि आदिवासी तो दारू मुर्गा पर वोट देता है। उन्हें भी यह संकेत समझना चाहिए जो यह मानते है कि माओवादियों का आदेश आदिवासियों के लिए पत्थर की लकीर है।
बस्तर में फिलहाल लड़ाई दोनों मुख्य राजनैतिक दलों के बीच ही मानी जा रही है, पर बदलाव की राजनीति करने वालों को अभी भी उम्मीद है कि अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली सोनी सोरी को बड़ा समर्थन मिल सकता है। हालाँकि जिस तरह उनका चुनाव लड़ा जा रहा है उसे देखते हुए राजनैतिक विश्लेषकों को बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है।
जनादेश न्यूज़ नेटवर्क
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