-पुण्य प्रसून बाजपेयी
सोने का पिंजरा बनाने के विकास मॉडल को सलाम ..
एक ने देश को लूटा, दूसरा देश को लूटने नहीं देगा। एक ने विकास को जमीन पर पहुंचाया। दूसरा सिर्फ विकास की मार्केटिंग कर रहा है। एक ने भ्रष्टाचार की गंगोत्री बहायी। दूसरा रोक देगा। कुछ ऐसे ही दावों-प्रतिदावों या आरोप प्रत्यारोप के साथ राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के भाषण लगातार सुने जा सकते हैं। लेकिन नेताओं की तमाम चिल्ल-पों में क्या देश की जरुरत की बात कहीं भी हो रही है। क्या किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता के पास कोई ऐसा मॉडल है, जिसके आसरे देश अपने पैरों पर खड़ा हो सके। ध्यान दें तो आर्थिक सुधार की जो लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री 1991 में खींची, उसके बाद सबसे प्रभावी तबका पैसे वाला समाज बनता चला गया। मिडिल क्लास का विस्तार भी इसी दौर में हुआ और वाजपेयी सरकर ने भी आर्थिक सुधार का ट्रैक टू ही अपनाया। बीते दस बरस मनमोहन सिंह ने बतौर पीएम देश को विकास का वही माडल दिया, जिसमें खनिज संसाधनों की लूट, खादानों के जरीये विकास का खाका, पावर प्लाट से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण की बात थी। यानी विकास के इस मॉडल ने भ्रष्टाचार को इस अबाध रुप से फैलाया, जिसके दायरे में मंत्री से लेकर नौकरशाह और कारपोरेट से लेकर शासन व्यवस्था तक आये। लेकिन विकास के इस मॉडल को किसी ने नहीं नकारा और सभी ने सिर्फ इतना ही कहा कि गवर्नेंस फेल है। या फिर रिमोट से चलने वाला पीएम नहीं होना चाहिये। तो विकास का मौजूदा मॉडल हर किसी को मंजूर है। जिसमें सड़कें फैलते फैलते गांव तक पहुंचे। गांव शहर में बदल जायें। शहरों में बाजार हो। बाजार से खरीद करने वाला बीस फीसदी उपभोक्ता समाज हो। और देश के बाकी 80 फिसदी के लिये सरकारी पैकेज की व्यवस्था हो। यानी राजनीतिक दलों की सियासत पर टिके लोग जो वोट बैंक बनकर सत्ता की मलाई खाने में ही पीढ़िया गुजार दें। और हर बांच बरस बाद लोकतंत्र का नारा ही बुंलद लगने लगे। अब सवाल है 2014 के चुनाव के शोर में विकास के जिस मॉडल की गूंज है उसमें नये शहर बनाने की होड जबकि सवाल गांव को पुनर्जीवित करने की उठनी चाहिये। शहर दर शहर कारों की बढती संख्या ही विकास का प्रतीक है। जबकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर कोई चर्चा नहीं है। पेट्रोल के बोझ तले देश के जीडीपी को आंका जा रहा है। सड़क भी टोल टैक्स पर जा टिका है। यानी अब सफर भी राज्य के दायरे से बाहर हो चला है। जिसके पास पैसा है वही सफर कर सकता है। स्वच्छता गायब है। पानी,इलाज, शिक्षा बाजार के हवाले किया जा चुका है। सरकार जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। और कोई माडल यह कहने को तैयार नहीं है कि न्यूनतम जरुरतों को उत्पाद में तो नहीं बदलना चाहिये। इसीलिये देश में शहर दर शहर पांच सितारा अस्पताल खोलने पर जोर है लेकिन गांव गांव डिस्पेन्सरी का कोई जिक्र नहीं हो रहा है।
दरअसल, देश में इतनी विविधता है कि मॉडल के दो चेहरे भी जनता को मान्य हैं और दोनों एक दूसरे का विरोध करते हुये भी सत्ता तक पहुंचा देते हैं। याद कीजिये सात बरस पहले बंगाल में सिंगूर से नंदीग्राम तक में किसानों की जमीन को लेकर आंदोलन हुआ। जिस ममता ने टाटा को नैनो कार के लिये सिंगूर में जगह नहीं दी, वह बंगाल में किसान मंजदूर के संघर्ष के आसरे सत्ता तक पहुंच गयी और उसी टाटा के नौनो को जिस मोदी ने गुजरात में जगह दी। उसी गुजरात के विकास मॉडल ने मोदी को पीएम पद का दावेदार बना दिया। तो कौन सा मॉडल सही है यह सवाल ममता और मोदी को लेकर या बंगाल -गुजरात को लेकर बांटा तो जा सकता है लेकिन क्या देश के सामने विकास का कौन सा मॉडल होना चाहिये इस पर सिर्फ ममता या मोदी का जिक्र कर खामोशी बरती जा सकती है। ध्यान दें तो देश में विकास की असमान नीतियो ने मौसम को ही बदल दिया है। लेकिन किसी भी माडल में बिगड़ते प्राकृतिक परिस्थितियों को संभालने या प्राकृति के साथ खिलवाड़ वाली योजनाओ पर रोक की कोई आवाज उठायी नहीं गयी है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। य़ा फिर बेमौसम बरसात और ठंड ने किसानो के सामने खेती पर टिकी जिन्दगी जीने को लेकर ही नयी चुनौती खड़ी कर दी है उस पर कोई मॉडल किसी राजनीतिक दल की चर्चा में नहीं है। खेती की जमीन कही इन्फ्रस्ट्रक्तर के नाम पर कही योजनाओं के नाम पर तो कही रिहाइश के लिये हथियायी जाने लगी। मनमोहन सिंह की सत्ता के दौरान ही 9 फीसदी खेती की जमीन किसानो से छिन ली गयी। करीब तीन करोड़ किसान निर्माण मजदूर में बदल गये। इसी दौर में लाखों किसानों ने देश भर में खुदकुशी कर ली। महाराष्ट्र में 53 हजार किसानों की विधवाएं जीवित हैं। लेकिन आज भी खुदकुशी करने वाले किसान की विधवा को मुआवजा तबतक नहीं मिलता जबतक जमीन के पट्टे पर उसका नाम ना हो। और जमीनी हकीकत है कि विधवाओं के नाम पर जमीन होती नहीं। खुदकुशी करने वाले किसान के बाप या भाई के पास जमीन चली जाती है। विधवा को वहां भी संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन किसी राजनीतिक दल के मॉडल में यह कोई प्राथमिकता नहीं कि किसानी कैसे बरकरार रहे। इसके उलट स्वामीनाथन रिपोर्ट के आधार पर किसानो के विकल्प के सवाल जरुर है। विकास के किसी मॉडल ग्रामीण-आदिवासियों के लिये कितनी जगह है, यह 1991 में बही आर्थिक सुधार की हवा ने ही दिखा दिया था। जबकि झारखंड से लेकर उडिसा और बंगाल से मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र, कर्नाटक तक के आदिवासी बहुल इलाको की खनिज संपदा तक पर देश के जिन टॉप दस उघोगपतियों के प्रोजक्ट चल रहे हैं। वह मनमोहन सिंह के दौर में बहुराष्ट्रीय उघोग का तमगा पा गये। रोजगार से निपटने के लिये मनरेगा लाया गया। भूख से निपटने के लिये फूड सिक्यूरटी बिल आ गया। अशिक्षा से निपटने के लिये 14 बरस तक मुफ्त शिक्षा का एलान हो गया।
अगर हालात को परखे तो कमोवेश ऐसे ही हालात देश के आईआईटी और आईआईएम से निकले छात्रों की संख्या और 8वी कक्षा तक भी ना पहुंच पाने से समझा जा सकता है । इतना ही नहीं देश में विकास के जो हालात है उसमें उच्च शिक्षा पाने वाले देश के सिर्फ साढे तीन फिसदी छात्रों में से भी 63 फिसदी छात्र देश के बाहर रोजगार के लिये चले जाते हैं । जबकि देश के कुल 47 फिसदी बच्चे जो कक्षा एक में दाखिला लेते है उसमें से 52 फिसदी से ज्यादा बच्चे 8वी के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं। तो फिर देश में विकास का कौन सा मॉडल देश को पटरी पर लेकर आयेगा। सवाल देश के कुल 6 लाख से ज्यादा गांव के हालात का भी है। क्योंकि शहरो की तादाद जिस तेजी से बढ़ी है, उसमें गांव के सामाजिक आर्थिक हालात को अनदेखा किया जा रहा है। जिस आर्थिक सुधार की हवा में देश का शहरीकरण हो रहा है उसमें समूचे देश में आज की तारीख में दो हजार से कम शहर हैं। जबकि 6 लाख से ज्यादा गांव हैं। और खत्म किये जा रहे गांव को लेकर कोई मॉडल किसी राजनेता के पास नहीं है। बावजूद इसके की नये पनपते शहरो के आर्थिक हालात से अभी भी गांव के हालात अच्छे हैं। बावजूद इसके शहरीकरण पर जोर है। जबकि महाराष्ट्र की पहचान सबसे ज्यादा गरीब शहरियों को लेकर है। जाहिर है ऐसे में सवाल नये मॉडल का है। जो गांव को पुनर्जीवित कर सके। देसी अर्थव्यवस्था के तहत स्वावलंबन ला सके। रोजगार के लिये गांव लौटने के लिये पलायन करने वाले लोगो को लौटा सके।
और अगर ऐसा संभव नहीं है तो फिर कितने बरस हिन्दुस्तान के पास है यह समझना जरुरी है। क्योंकि सामाजिक असमानता देश में तनाव ज्यादा और हताशा ज्यादा फैला रही है । और मौजूदा मॉडल के पास ऐसा कोई हथियार नहीं है जिससे हाशिये के पड़े देश के बहुसंख्यक तबके को आगे बढ़ाने के लिये कोई व्यवस्था किसी माडल में हो। बावजूद इसके जिस मॉडल को देश की सियासत अपनाये हुये है और आर्थिक सुधार के बाद से शहरीकरण कर जेब की ताकत बढ़ाने का जिक्र कर खुश हो रही है, जरा उसके भीतर भी झांक कर देश का भविष्य देख ले। 2023 में भारत के इतने लोग अरबपति हो चुके होंगे कि भारत का नंबर अरबपतियो के मामले में चौथे नंबर पर होगा। तो खुश हुआ जा सकता है। लेकिन इसी दौर में गरीबी की रेखा से नीचे लोगों के आंकड़े में भारत दुनिया में नंबर एक पर होगा सच यह भी है। यानी जिस मॉडल पर देश चल रहा है उसमें 9 बरस बाद भारत गर्व कर सकेगा कि उसके पास 1302 अरबपति होंगे यानी दुनिया में चौथे नंबर पर। और इन्हीं 9 बरस बाद 44 करोड 22 लाख से ज्यादा बीपीएल होंगे और भारत का नंबर गरीबी की रेखा से नीचे वालों की तादाद में नंबर एक होगा। तो कौन सा मॉडल भारत को चाहिये। जिसमें चंद अरबपतियों पर गर्व किया जाये या ज्यादा गरीबो को लेकर जनसंख्या का रोना रोया जाये। आईआईटी और आईआईएम से निकले दशमलव 2 फीसदी से कम छात्रो की पढ़ाई पर या 27 फीसदी बच्चों की पढाई की व्यवस्था ना कराने पर। किसी एक छात्र को ओबामा के दफ्तर में रखा गया। या किसी अंतरराष्ट्रीय कारपोरेट में किसी एक आईआईएम के छात्र को 100 करोड़ का पैकेज मिल गया। यह मॉडल तो देश को सोने की चिड़िया नहीं बना सकता उल्टे सोने का पिंजरा बनाकर दीन-हीन भारत को कैद जरुर रखा जा सकता है.
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