सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कानून में दी गयी व्यवस्था के तहत बलात्कार के मुकदमे की सुनवाई दो महीने के भीतर पूरी होनी चाहिए. न्यायालय ने निचली अदालतों को मौजूदा मानदंडों का सख्ती से पालन करने का निर्देश देते हुये कहा कि मुकदमों की सुनवाई अनावश्यक रूप से लंबी अवधि के लिए स्थगित करके ऐसे मामलों में ‘जोड़ तोड़’ की संभावनाओं को खत्म करना चाहिए.
न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार और न्यायमूर्ति फकीर मोहम्मद इब्राहिम कलीफुल्ला की खंडपीठ ने दिल्ली में चलती बस में 23 वर्षीय लड़की से सामूहिक बलात्कार की घटना से दस दिन पहले छह दिसंबर को अपने फैसले में हत्या और लूटपाट के जुर्म में उम्रकैद की सजा के खिलाफ मुजरिम अकील की अपील खारिज करते हुए फैसला सुनाया था.
अकील ने अपने दो अन्य साथियों के साथ अक्तूबर 1998 में मौजपुर इलाके में घर में घुसकर एक महिला की नकदी और आभूषण लूटने के दौरान महिला के परिचित को उस समय गोली मार दी थी जब उसने महिला से छेड़छाड़ करने के अभियुक्त के प्रयास पर आपत्ति की थी.
न्यायाधीशों ने कहा, ‘‘हम निर्देश देते हैं कि अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 231 (अभियोजन के लिए साक्ष्य) और धारा 309 (कार्यवाही स्थगित करने के अधिकार) के प्रावधानों के मद्देनजर निचली अदालतों को मुकदमों की तेजी से सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए इसमें प्रदत्त प्रक्रिया का सख्ती से पालन करना चाहिए और महज आग्रह करने पर ही लंबे समय के लिये सुनवाई स्थगित करके किसी भी प्रकार की जोड़ तोड़ की संभावना को खत्म करना चाहिए.’’
न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और धारा 376-ए से 376-डी के अंतर्गत आने वाले संबंधित अपराधों से जुड़े मुकदमों के बारे में अपराध प्रक्रिया संहिता में व्यवस्था है कि ‘‘जांच या सुनवाई यथासंभव गवाहों से पूछताछ शुरू होने की तारीख से दो महीने के भीतर पूरी की जाये.’’
शीर्ष अदालत ने इस मामले में यह टिप्पणी उस समय की जब उसने देखा कि निचली अदालत ने दो महीने के लिए सुनवाई स्थगित की और इसके बाद ही जिरह के दौरान एक गवाह मुकर गया. शीर्ष अदालत ने निचली अदालतों को मुकदमे की सुनवाई लंबे समय के लिए स्थगित करने के प्रति भी आगाह किया.
न्यायालय ने पहले सुनाये गए एक निर्णय का भी हवाला दिया जिसमें शीर्ष अदालत ने सभी उच्च न्यायालयों से अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 309 के प्रावधान पर अमल करने की आवश्यकता की ओर सभी सत्र न्यायाधीशों का ध्यान आकर्षित करने का अनुरोध किया था. न्यायालय ने कहा कि वास्तव में उच्च न्यायालयों को निर्देश दिया गया था कि इस प्रावधान का उल्लंघन करने वाले न्यायाधीश विशेष के आचरण का संज्ञान लिया जाये और कानूनी प्रावधानों के अनुसार ऐसे न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई की जाये.
न्यायालय ने कहा कि इस तरह के स्पष्ट निर्देश के बावजूद निचली अदालत समाज पर इसके गंभीर परिणामों की परवाह के बगैर ही उद्दण्डता पूर्ण रवैया अपना रही हैं.
न्यायाधीशों ने इस मामले में मुजरिम को दोषी ठहराने और उसकी सजा के निचली अदालत के निर्णय की पुष्टि करते हुये रजिस्ट्री को निर्देश दिया था कि इस निर्णय की प्रति सभी उच्च न्यायालयों को भेजी जाये.
न्यायालय ने अपने निर्णय में दिल्ली उच्च न्यायालय के 1987 के एक सर्कुलर का भी हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि जब भी किसी मामले में गिरफ्तार की तारीख और सुनवाई पूरी होने के बीच तीन महीने से अधिक समय लगे तो इस विलंब के बारे में फैसले में जिक्र होना चाहिए.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें