मंगलवार, 26 अगस्त 2014

कितना जरूरी है कृषि यंत्रीकरण

केंद्रीय बजट से पूर्व कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण पर फिक्की-यस बैंक की रिपोर्ट को हालांकि अब बहुत समय हो चुका है, पर इसकी प्रासंगिता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। इस अध्ययन में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए, पहला यह कि प्राकृतिक संसाधनों में कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से उपजी चुनौतियों के कारण कृषि में मशीनों का इस्तेमाल बेहद जरूरी हो गया है। अत: मुख्य कृषि कार्यकार्यों के दौरान नए उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ाया जाना इस क्षेत्र के मौजूदा 2 प्रतिशत के स्तर को दोगुना करने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरा यह कि यंत्रीकरण से ग्रामीण रोज़गार सृजन पर जितना विपरीत असर पड़ेगा, उससे अधिक रोज़गार के नए मौके इन उपकरणों के रखरखाव के जरिए तैयार हो जाएंगे। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना कानून (मनरेगा) के कारण कृषि मजदूरों की कमी हो गई है। खासतौर से कृषि प्रधान राज्यों में बुआई और कटाई सत्र के दौरान यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है, और जमीन और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कमी के कारण भी यह जरूरी हो गया है कि संसाधनों का संरक्षण करने वाली प्रौद्योगिकी में निवेश किया जाए, जैसे जुताई रहित खेती, वैज्ञानिक कृषि और ड्रिप सिंचाई। इसके लिए विशेष किस्म की मशीनों और उपकरणों की जरूरत है। यह सारे उपकरण देश में मौजूद नहीं होने के कारण इनमें से कुछ का आयात भी करना पड़ेगा। लागत कम करने के लिए बाद में इन उपकरणों को स्थानीय स्तर पर भी तैयार करना होगा। इसका एक उदाहरण लेजर लैंड लेवलर से कृषि भूमि को समतल करने का है। इससे सिंचाई के लिए करीब 30 प्रतिशत पानी की बचत हो जाती है और पैदावार भी एक समान होती है। कुछ समय पहले तक इनका आयात किया जाता था और इसलिए यह काफी महंगे भी थे, लेकिन अब यह देश में बेहद कम कीमत पर तैयार हो रहे हैं। स्थानीय विनिर्माताओं द्वारा तैयार किए ये उपकरण इतने सस्ते नहीं हुए कि कोई भी किसान इन्हें खरीद ले। सारे उपकरण खरीदना एक बडे किसान के बूते से आज भी बाहर हैं। इसका एक बेहतर विकल्प यह निकाला गया कि कुछ कम्पनियों और राज्य सरकार द्वारा पंचायत स्तर पर उपकरणों को जरूरतमंद किसानों को किराए पर उपलब्ध करवाया जाए। इन उपकरणों से समय और मजदूरी दोनों की काफी बचत होती है, उत्पादन लागत घटती है तथा फसल तैयार होने के बाद नुकसान में कमी आती है। पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तरी राज्यों में अक्सर गर्मी जल्दी आ जाती है। ऐसे में गेहूं की बुआई में एक सप्ताह की देरी होने पर गेहूं का उत्पादन प्रति हेक्टेअर 1.5 क्विंटल तक घट जाता है। इस नुकसान की भरपाई गेहूं की जल्द बुआई करके पूरी की जा सकती है लेकिन ऐसा तभी संभव है जब धान की पिछली फसल की कटाई मशीन से की जाए और विशेष उपकरणों की मदद से गेहूं की बुआई की जाए, इसके जरिए जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की बुआई के समय में होने वाले बदलावों को नियंत्रित किया जा सकता है। जल्दी बुआई तभी संभव हो सकेगी जब उपकरणों की मदद ली जाए। इन बातों पर विचार करने के बाद लगता है कि फिक्की-यस बैंक की गई रिपोर्ट पर विचार करना चाहिए।


इंसान ने कब, कहाँ और कैसे खेती करना आरंभ किया, इसका उत्तर देना आसान नहीं है। सभी देशों के इतिहास में खेती के विषय में कुछ न कुछ दावे जरूर किए गए हैं। माना जा सकता है कि आदिम समय में जब मनुष्य जंगली जानवरों का शिकार पर ही निर्भर था तथा बाद में जब उसने कंद-मूल, फल और अपने-आप उगे अन्न का उपयोग आरंभ कर दिया होगा। ऐसे ही शायद कभी किसी समय खेती द्वारा अन्न उत्पादन करने का आविष्कार किया गया होगा। वर्तमान में सारी पृथ्वी पर जहां भी संभव है खेती की जा रही है, यहां एक यह जानकारी भी रोचक हो सकती है कि दुनिया में आज भी ऐसे देश हैं जहां कुछ भूमि ऐसी है जहाँ पर खेती नहीं हो सकती जैसे अफ्रीका और अरब के रेगिस्तान, तिब्बत एवं मंगोलिया के ऊँचे पठार तथा मध्य आस्ट्रेलिया आदि और इंसानों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो खेती नहीं करते जैसे कांगो के बौने और अंडमान के बनवासी। 

फ्रांस में मिली आदिमकालीन गुफाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वपाषाण युग में ही मनुष्य खेती से परिचित हो गया था। बैलों से हल जोतने का प्रमाण मिश्र की पुरातन सभ्यता से मिलता है। अमरीका में केवल खुरपी और मिट्टी खोदने वाली लकड़ी का पता चलता है। भारत में पाषाण युग में कृषि का विकास कितना और किस प्रकार हुआ था इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है, किंतु सिंधु नदी के पुरावशेषों के उत्खनन से इस बात के बहुत से प्रमाण मिले है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में कृषि उन्नत अवस्था में थी और लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे। ऐसा अनुमान पुरातत्वविद मुअन-जो-दड़ो में मिले बडे-बडे कोठरों के आधार पर करते हैं। हमारे देश में आधुनिक कृषि यंत्रों की अवधारणा बाकी सभी यंत्रों की तरह विदेश से ही आई है। आज देश में अस्सी प्रतिशत कार्य मशीनों की मदद से होने के बावजूद भी बहुत काम होना बाकी है। हमारे कृषि यंत्र निर्माता विदेशी यंत्रों की आंख बंद कर नकल कर रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि देश की जमीनें, फसलें और उन्हें इस्तेमाल करने वाले लोग कैसे हैं?

नकल के सहारे हमारा काम अब तक जितना चल चुका वह बहुत है, आगे हमें अपनी जरूरतों के हिसाब से न केवल यंत्र बनाने होंगे, बल्कि उन यंत्रों के लिहाज से बीज भी तैयार करने होंगे। उदाहरण लिए देश की एक प्रमुख फसल कपास को ही लें। अब तक कपास चुनने के लिए मजदूर बहुत ही सस्ती दरों पर उपलब्ध थे लेकिन मनरेगा के कारण आज कपास चुगाई के लिए किसी भी भाव पर मजदूर नहीं हैं। हालांकि कपास चुगाई कि एक देशी और एक विदेशी मशीन तैयार खड़ी है मगर उनके लिहाज से बीज तैयार नहीं हैं। मौजूदा कपास की किस्मों को इस मशीन से नहीं चुना जा सकता। अब इसके लिए या नई मशीन चाहिए या मशीन के अनुरूप बीज। ऐसे ही गेहूँ के लिए एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि यूरिया खाद उसके बीज के ठीक एक इंच नीचे होनी चाहिए लेकिन हम आज तक एक भी ऐसी मशीन तैयार नहीं कर सके। गेहूँ काटने के लिए हमने कम्बाइन की नकल तो करली पर यह बात भूल गए कि गेहूँ के दाने निकालने के बचा हुआ भाग पशु चारे के काम आता है। कम्बाइन से गेहूँ निकालने इस चारे की मात्रा आधी भी नहीं मिल पाती। क्या हम एक भी मशीन ऐसी तैयार नहीं कर सकते जो गेहूँ के बाद चारे को बचाले?

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