मंगलवार, 26 अगस्त 2014

आखिर इस दर्द की दवा क्या है........

शादाब जफर ‘‘शादाब’’

मिर्जा असदउल्ला खॉ बेग उर्फ मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसम्बर 1797 ई0 को अकबराबाद, आगरा उत्तर प्रदेश में हुआ था। मिर्जा असद जब पॉच बरस के हुए तो सर से बाप का साया उठ गया यतीम मिर्जा की परवरिश की जिम्मेदारी इन के ताया ने अपने कंधो पर ले ली मगर वो भी इस जिम्मेदारी को ज्यादा दिन नही उठा पाये। मिर्जा अभी नौ बरस के हुए ही थे की ताया मियॅा का भी इंतेकाल हो गया। मिर्जा की लडखडाती जिन्दगी सिर्फ तेरह साल की उम्र में उमराव बेगम के हाथो में दे दी गई यानी सिर्फ तेरह साल की कच्ची उम्रं में मिर्जा की शादी कर दी गई। कच्ची उम्र में शादी एक के बाद मिर्जा के घर सात बच्चो की विलादत इुई मगर जिया एक भी नही। षुरू से जिन्दगी के हाथो मात खा रहे मिर्जा ने कब षराब और जुए से दोस्ती कर ली खुद मिर्जा को भी नही पता चला। मिर्जा और जिन्दगी के बीच शह और मात का खेल चलता रहा पर ना तो कभी मिर्जा खुदा की खुदाई ही से मायूस हुए और ना ही जिन्दगी से। मिर्जा ने एक बच्चे जैनुलआबेद्दीन को गोद लिया मगर वो भी मिर्जा को ज्यादा दिन औलाद का सुख नही दे पाया और एक दिन अल्लाह को प्यारा हो गया। 
अल्लाह को शायद कुछ और ही मंजूर था इस लिये मिर्जा गालिब की ज़बान से सिर्फ बारह साल की उम्र में पहला शेर निकला। कुदरत ने मिर्जा को एक ऐसे फन से नवाज दिया जिसे दुनिया वाले शायरी कहते है भले ही मिर्जा को कुदरत ने कोई इन्सानी वारिस नही दिया मगर आज मिर्जा गालिब की पैदायष के दो सौ साल से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी मिर्जा का हर एक षेर हर एक गजल मिर्जा की वारिस है और रहती दुनिया तक इन षेरो और इन गजलो से मिर्जा गालिब का नाम कायम रहेगा। यू तो आज मिर्जा गालिब आज ऊर्द्व षायरी के उस्तादो के उस्ताद है आज मिर्जा की शायरी का कोई सानी नही हिन्दुस्तानी शायरी में अलग सब से अलग। अपने अंदाज-ए-बया से और भी नायाब। गालिब वो शख्सीयत थे जिन्हे ना तो ज़बान की कैद में रखा जा सकता ह औा ना ही मजहब या जात पात से बंधा जा सकता है। मिर्जा गालिब ऊर्द्व, फारसी, अरबी ,ज़बान के अच्छे आलिम थे। उन की जिन्दगी यू तो कई उतार चढाव के बीच गुजरी मगर गालिब एक कदम भी नही डगमगाये वो हा हस्सास किस्म के इन्सान जसर थे जिन्दगी की जद्दोजहद और अच्छे बुरे दिनो में जो गालिब ने महसूस किया उसे शायरी में पूरा पूरा ईमानदारी से उतार कर रख दिया। षराब खोर होने के साथ साथ गालिब का खुदा पर पक्का यकीन था और वो खुदा से डरते भी बहुत थे। ‘‘ काबा किस मुंह से जाओगे गालिब, शर्म तुम को मगर नही आती’’ दरअसल गालिब का एक उसूल था ‘‘ इन्सान से मौहब्बत करना’’ जो कुछ भी उनके पास होता वो बिना सोचे बल्कि बेइख्तियार जरूरत मंदो को देने को तैयार हो जाते थे। मिर्जा के दिल में खैर ख्वाही कूट कूट कर भरी थी उन की शरी उन के खतूत इन्सान के दुख दर्द से भरे होते थे । हकीकत में गालिब को लफ्जो में समझना मुष्किल ही नही एक नामुमकिन सा है। हकीकत में गालिब को दिल और दिमाग के अन्दर महसूस कर के ही समझा जा सकता है।

गालिब दुख दर्द करवटे बदल बदल कर राते गुजारने के अपने गम को अपनी शायरी में इतनी खूबसूरती से उतारते थे की ऑखे नम हो जाये। वही फाकेमस्त होकर कही कही अपनी षायरी में बडी ही साफगौई से वो अपनी खिल्ली उडाते खुद नजर आते है। ये ही वजह है की आज दो शताब्दी गुजर जाने के बाद भी गालिब की शायरी लोगो के सिर चढी है गालिब ने दिल्ली को कितनी बार उजडते और बसते देखा ये ही वजह है कि गालिब की गज़लो में समाज, ज़ाति जिन्दगी और इन्सानी दुख दर्द की पीडा कुछ ज्यादा ही नजर आती है एक बार की बात है गालिब के एक दोस्त नवाब हिसामउददौला जो मीर के भी अच्छे दोस्तो में थे उन्होने गालिब के कुछ षेर उस्ताद मीर को सुना दिये षेरो को सुनने के बाद उस्ताद मीर बोले ‘‘अफसोस इस सरफिरे लडके को कोई अच्छा उस्ताद नही मिला वरना यह लडका भी एक महान षायर बन जाता ’’ इस से साफ जाहिर होता है कि गालिब के शेर सुनने के बाद उस्ताद मीर को यह अंदाजा हो गया था कि गालिब महान षायर बनेगे। उस्ताद मीर को अपनी तारीफ सुनने की आदत थी इस लिये वो दूरो की तारीफ कंजूसी से करते थे।

मसनवी और कसीदागौई गालिब ने उस्ताद वली मौहम्मद से सीखी। गालिब से पहले जाने माने मसनवी और कसीदागोई काने वालो में बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद शेख मौहम्मद इब्राहीम जौक का नाम मशहूर था। मगर गालिब के आ जाने के बाद बहादुर षाह ज़फ़र के दरबार में फीके पडने लगे और ये बात उन्हे इतनी चुभी की वो बादशाह की उस्तादी छोड कर हैदराबाद चले गये। गालिब तो इस ताक में थे ही के उन्हे कब मौका मिले और वो बादषाह की नजर में चढे। इस के लिये उस्ताद जौक के जाने के बाद उन्हे ज्यादा इन्तेजार नही करना पडा। बादषाह के कहने पर तैमूर खानदान का शजरा ‘‘दास्तानबो’’ लिखने के बाद वो बहादुर शाह जफर की ऑखो का तारा बन गये। मिर्जा गालिब ने बादषाह के बेटो की षादी के सेहरे भी पूरी आन बान से कहे ‘‘ खुश हो ऐ बख्त के है आज तेरे सर सेहरा,बंधा शहजाद-ए-जवां बख्त के सर पर सेहरा, एक और सेहरे में मिर्जा गालिब कुछ यू कहते है ‘‘ हम सुख्न-फहम है गालिब के तरफदार नही, देखे कह दे कोई इस सेहरे से बढ कर सेहरा’’।

बादषाह बहादुर षाह ज़फ़र ने गालिब को जिन खिताबो से नवाजा वो भी कुछ कम नही थे। ‘‘ नज्म उददौला’’, दबीर-उल-मुल्क,और निजाम-ए-जंग। गालिब ने बादषाह के छोटे बेटे खि़ज्र सुल्तान को ऊर्द्व फारसी व षायरी की तालीम दी। मिर्जा गालिब ने ख्वाजा अल्ताफ हुसैन ‘‘हाली’’ को अपना षागिर्द बनाया। गालिब को पतंगबाजी, कबूतरबाजी का बडा षौक था। गालिब को बहुत अच्छी अच्छी पतंग बनाी आती थी वो अपने हाथ से ही पतंग बना कर उडाते थे। मिर्जा गालिब को करेला, बिरयानी, कवाब, बहुत पसन्द थे। लेकिन इन सब में उन्हे चने की दाल बेहद पसन्द थी वो अपने हर खाने में चने की दाल जरूर डलवाते थे। ओल्डट्राम उन पसंदीदा षराबो में से एक थी।

गालिब के कुल 11802 षेर जमा किये जा सके है उनके खतो की तादाद तकरीबन 800 के करीब थी। मिर्जा गाालिब अमीर खुसरो से काफी मुतासिर थे वो उन्हे फारसी का महान षायर बताते थे। मिर्जा गाालिब पर कुछ षाया किताबो के नाम ‘‘दीवान-ए-गालिब’’, ’’मैखाना-ए-आरजू’’, पंच अहग, मेहरे नीमरोज, कादिरनामा, दस्तंबो, काते बुरहान, कुल्लियात-ए-नजर फारसी व षमषीर तेजतर है। असद मिर्जा गालिब और फिर सिर्फ गालिब कैसे बना अगर हम लोग गालिब को दिल से पढेगे तो ये समझना कोई मुष्किल नही।

लेखक-
शादाब जफर ‘‘शादाब’’
नजीबाबाद (बिजनौर)
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