शहरी माहौल में संस्कार के पांच सूत्र
किसी भी बालक को शिक्षा भले ही विद्यालय से मिलती हो; पर उसकी संस्कारशाला तो घर ही है। महान लोगों के व्यक्तित्व निर्माण में उनके परिवार, और उसमें भी विशेषकर मां की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है। छत्रपति शिवाजी का वह चित्र बहुत लोकप्रिय है, जिसमें वे जीजामाता की गोद में बैठे कोई कथा सुन रहे हैं। लव और कुश का वह चित्र भी बहुत आकर्षक है, जिसमें सीता माता उन्हें धनुष चलाना सिखा रही हैं। श्रीकृष्ण और मां यशोदा के तो सैकड़ों चित्र पुस्तकों में मिलते हैं। इन चित्रों और उनसे जुड़ी कथाओं द्वारा बच्चों के मन में देश और धर्म के प्रति अनुराग और आदर का भाव जाग्रत होता है। जैसे कुम्हार गीली मिट्टी को मनचाहा आकार देकर फिर उसे पकाता है, तब ही वह बर्तन या खिलौना बाजार में पहुंचता है। ऐसे ही मां और अन्य परिजन बच्चों के मन पर जो संस्कार डालते हैं, समय और अनुभव की भट्टी में वे ही परिपक्व होते हैं; और फिर उसी से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। गांव या छोटे कस्बों में संस्कार देने के लिए परिवार के साथ-साथ विद्यालय तथा आसपास के लोग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने पर भी बच्चे उन्हें चाचा, काका, ताऊ, बाबा या चाची, काकी, दादी आदि कहते हैं। ये लोग भी उन बच्चों को अपना समझते हैं। इसलिए बच्चे घर के बाहर कहीं भी खेल रहे हों, अभिभावक उन्हें सुरक्षित समझते हैं। इतना ही नहीं, इन बड़े लोगों के सामने कोई गलत काम करते हुए बच्चे डरते भी हैं। उन्हें लगता है कि इसकी खबर घर तक पहुंच जाएगी। मेरे विद्यालय के एक अध्यापक अपने घर आते-जाते समय हमारे घर के सामने से गुजरते थे। प्रायः बाबा जी से उनकी राम-राम भी हो जाती थी। कभी-कभी वे उनके पास बैठ भी जाते थे। इस कारण विद्यालय में यदि मुझे कोई शरारत करनी हो, तो उनसे आंख बचाकर ही करता था। कभी वे ऐसा करते देखते, तो कह भी देते थे, ‘‘तुम्हारे घर के सामने से दिन में कई बार निकलता हूं। अगर तुम्हारे बाबा जी से कह दिया, तो कान खिंचाई हो जाएगी।’’ पर अब यह वातावरण धीरे-धीरे बदल रहा है। लोगों की आर्थिक दशा सुधरने तथा यातायात के साधनों की वृद्धि से गांव के बच्चे पढ़ने के लिए कस्बे में, और कस्बे के बच्चे निकटवर्ती शहरों में जाने लगे हैं। बच्चे कहीं के हैं और अध्यापक कहीं के। अतः उनके बीच जैसा पारिवारिक संबंध पहले था, वह अब नहीं है। अब शिक्षण कार्य भी पैसा कमाने का एक माध्यम मात्र है। ऐसे में संस्कार देने के जिम्मेदारी पूरी तरह परिवार पर ही आ गयी है। पर परिवार का वातावरण भी अब बदल गया है। घरेलू आवश्यकताएं तथा पैसे का महत्व बढ़ जाने से अब महिलाएं भी काम कर रही हैं। पुरुष काम के लिए घर से काफी दूर जाने लगे हैं। उन्हें कार्यस्थल तक पहुंचने में ही डेढ़-दो घंटे लग जाते हैं। ऐेसे में परिवार और विशेषकर बच्चों की उपेक्षा हो रही है। इस कमी को दूरदर्शन, कम्प्यूटर और मोबाइल पूरा कर रहा है। इन उपकरणों ने भौतिक दूरियां तो मिटा दी हैं; पर परिवार में दूरी और कलह बढ़ रहे हैं। आज के समय में कोई इन उपकरणों का विरोध नहीं कर सकता। कोई चाहे, तो इन्हें आवश्यक बुराई मान सकता है; पर परिवार में प्रेम और संस्कार का वातावरण बना रहे, इसके लिए कुछ घरेलू उपाय सोचने होंगे। इस दिशा में बड़ों को ही पहल करनी और नयी पीढ़ी से तालमेल बनाते हुए आगे बढ़ना होगा। इसके लिए एक समाजशास्त्री ने पांच सूत्र बताये हैं। उनका दावा है कि इन ‘पंचसूत्रों’ से उन्होंने हजारों परिवारों का वातावरण सुधारा है। ये सूत्र निम्न हैं –
दैनिक भोजन – परिवार के सब सदस्य रात का भोजन एक साथ करें। घर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति को चाहे एक कप दूध पीना हो, और सबसे छोटे बच्चे को चाहे खेलते हुए सबके हाथ से एक-एक कौर लेना हो; पर सब बैठें एक साथ। इस समय सबके फोन और टी.वी. अनिवार्य रूप से बंद हो तथा केवल घरेलू गप-शप ही हो।
साप्ताहिक पूजा – सप्ताह में किसी भी दिन सुविधाजनक समय पर सब मिलकर पूजा या यज्ञ आदि करें। इसमें किसी पंडित या बाहरी व्यक्ति को बुलाने की आवश्यकता नहीं है। घर के लोग जैसा और जितना जानते हैं, उतना ही करें। आरती और प्रसाद वितरण बच्चों से करायें।
मासिक भ्रमण – महीने में एक बार सब लोग कहीं घूमने जायें। इसमें सिनेमा, पिकनिक आदि कुछ भी हो सकता है। खानपान की कुछ सामग्री घर में बना लें, बाकी बाहर से ले लें। बुजुर्ग साथ में हों, तो उनकी सुविधा के लिए कुर्सी, चटाई, तकिया आदि भी रख लें। किसी पार्क या पिकनिक स्थल पर भोजन के बाद वहां गंदगी न छूटे, इसका ध्यान रखने से बच्चों पर सफाई के संस्कार पड़ेंगे।
वार्षिक तीर्थयात्रा – वर्ष में एक बार चार-छह दिन के लिए पूरा परिवार तीर्थयात्रा पर जाए। बहुत से सम्पन्न लोग विदेश यात्रा की ढींग हांकते हैं; पर अपने देश में भ्रमण सस्ता, सुविधाजनक, कम समय लेने वाला तथा देश और समाज को जानने का सबसे अच्छा मार्ग है। इससे प्राप्त अनुभव सदा जीवन में काम आते हैं।
जन्मदिन – बच्चों के जन्मदिन पर सम्बन्धियों और मित्रों को बुलाकर घर में पूजा-यज्ञ आदि करें। यह आयोजन एक-दो दिन आगे-पीछे छुट्टी वाले दिन करने से सबको सुविधा हो जाएगी। लेने की बजाय देने का संस्कार डालने के लिए बच्चे के हाथ से दान-पुण्य कराएं। किसी गोशाला, कुष्ठ आश्रम, निर्धन बस्ती आदि में जाकर उनकी आवश्यकता की कोई वस्तु भेंट करें। फिर उस बच्चे की इच्छानुसार घर से बाहर भ्रमण, भोजन आदि करें।
इसे मासिक भ्रमण वाले कार्यक्रम से जोड़ने पर ‘एक पंथ दो काज’ हो जाएंगे। इन दिनों शहरीकरण तेजी से हो रहा है। इसे रोका भी नहीं जा सकता। अतः इसके बीच से ही कोई मार्ग निकालना होगा। परिवार पालन के लिए पैसा भी आवश्यक है और संस्कार भी। इन ‘पंचसूत्रों’ से दोनों में संतुलन बनेगा और परिवार का वातावरण खिल उठेगा।
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