आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल सीटों पर कामयाबी नहीं मिल पाई। इस दिशा में हालांकि उसने उम्मीदवारों की ज्यादा से ज्यादा आर्थिक सहायता समेत काफी प्रयास किए थे। इस्लामी तंजीमों व इदारों के कई प्रमुखों से मुसलमानों के वोट पाने के लिए मुलाकात करते हुए ‘आप’ सुप्रीमो बरेली के मौलवी तौकीर रजा खान तक पहुंचे थे। ‘आप’ को मुस्लिम उम्मीदवार, जो कि भाजपा को भी मिल जाते हैं, आसानी से मिल गए, लेकिन मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने में उसे कामयाबी नहीं मिली। इससे पता चलता है कि मुस्लिम समाज की राजनीति को लेकर सोच देश के मुख्यधारा नागरिक समाज से काफी अलग है। भले ही नई राजनीति के दावेदार और पैदा होते ही ऊंची उड़ान भरने को बेताब ‘आप’ के नेता, इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) टीम के अपने एक हमजोली चेतन भगत की तरह, उस सोच को दकियानूसी और ठहरी हुई मानते हों।
पिछले करीब तीन दशकों में देश की ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियां जहां नवउदारवाद की एजेंट की भूमिका में उतर चुकी हैं, ‘आप’ सीधे नवउदारवाद का उत्पाद है। अस्सी के दशक से भारतीय संविधान की अवहेलना करते हुए नवउदारवाद और संप्रदायवाद का गठजोड़ बनने लगा था। 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू किए जाने और 1992 के अंतिम महीने में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के साथ यह गठजोड़ मजबूत हो गया। तब से वह उत्तरोत्तर मजबूत होता जा रहा है। इस गठजोड़ के नए अवतार ‘आप’ ने जो हल्ला दिल्ली में बोला, उसे अकेले दिल्ली की ज्यादातर मुस्लिम आबादी ने चुनौती दी है। लिहाजा, ‘आप’ के लिए यह चिंता का सबसे बड़ा सबब है और उसने लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए अलग से ‘स्पेशल टास्क फोर्स’ का गठन किया है।
‘आप’ नेतृत्व भी अन्य ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों की तरह मुसलमानों को नागरिक से पहले वोट बैंक मानते हैं, यह तभी स्पष्ट हो गया था जब दिल्ली विधानसभा चुनाव के पूर्व उसने ‘खास’ मुसलमानों को ‘आप’ में शामिल करने की खास मुहिम चलाई थी। स्पेशल टास्क फोर्स का गठन ‘आप’ नेतृत्व द्वारा मुसलमानों को अलग से वोट बैंक मानने की धारणा की एक बार फिर पुष्टि करता है। जो लोग ‘आप’ की सफलता में नई राजनीति की सफलता मान रहे हैं, वे यह छिपा लेते हैं कि यह ‘नई’ राजनीति भी देश की आबादी को धर्मों और जातियों में बांट कर देखती है। दिल्ली विधानसभा में उसने 12 में से 9 सुरक्षित सीटें जीत लीं, लेकिन एक भी दलित उम्मीदवार सामान्य सीट से खड़ा नहीं किया। उसका अगला घोषित लक्ष्य हरियाणा है, जहां उसने जाति समीकरण की राजनीति तेजी से शुरू कर दी है। हरियाणा की जाट डोमीनेटेड राजनीति में यादव मुख्यमंत्री बनाने के लिए सबसे पहले और सबसे ज्यादा जोर जाटों की भर्ती पर दिया गया। ‘स्वच्छ राजनीति’ करके राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने के इच्छुक कतिपय जाटों में ‘आप’ में शामिल होने की होड़ भी मच गई थी। शायद इस आशा में कि विधानसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए आगे चल कर हो सकता है किसी जाट का नाम ही मुख्यमंत्री के लिए तय किया जाए! हालांकि हरियाणा में ‘आप’ का धंधा जिस तेजी से जमा था, उसी तरह मंदा भी पड़ गया है।
बहरहाल, सेकुलर कही जाने वाली अन्य राजनीतिक पार्टियों की तरह ‘आप’ भी हिंदुओं को साथ रखते हुए मुसलमानों को मोदी का भय दिखा कर अपने साथ करना चाहती है। यह मुस्लिम अवाम पर निर्भर है कि वह ‘आप’ के साथ भी वैसा ही रिश्ता बनाती है क्या, जैसा उसने अन्य सेकुलर पार्टियों के साथ बनाया हुआ है। इस रिश्ते के तहत मुसलमान भाजपा को हराने में सक्षम अन्य किसी भी पार्टी के उम्मीदवार को वोट देते हैं। जिंदगी की सुरक्षा और जीविका के मद्देनजर उनका वह फैसला गलत नहीं होता। ‘आप’ चूंकि संघर्ष से नहीं, स्ट्रेटेजी से चलने वाली पार्टी है, इसलिए उसका नेतृत्व न नवउदारवाद पर कोई साफ पक्ष रखता है, न सांप्रदायिकता के सवाल पर। गफलत बनाए रख कर जल्दी से जल्दी चुनावी सफलताएं हासिल करना उसका एकमात्र ध्येय है। सभी समुदायों/तबकों का वोट पाने की नीयत से परिचालित इस पार्टी के स्वाभाविक तौर पर कई मुंह देखने में आते हैं। लोकसभा चुनावों में सफलता पाने की बेचैनी के चलते उसकी अनेकमुखता आरएसएस को भी मात करती नजर आती है!
आरएसएस के इंतजाम में होने वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय से ही ‘आप’ में बड़ी संख्या में नवउदारवादी और सांप्रदायिक तत्व मौजूद हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा-कांग्रेस और सपा-बसपा के कई नेता उसमें शामिल हुए। दिल्ली चुनाव में सफलता और सरकार गठन के बाद ‘आप’ में तरह-तरह के सत्ता-लोलुप तत्वों की भरमार हो गई। पार्टी सदस्यता का जैसा बाजार ‘आप’ ने खोला है, पूरी दुनिया में उसका उदाहरण नहीं मिलता। ऐसे मंजर में मुसलमानों के लिए यह तसल्ली झूठी है कि वहां कई सेकुलर चेहरे मौजूद हैं। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि नवउदारवादी कभी भी सच्चा धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। मुसलमान यह सच्चाई भी सामने रखें के ‘आप’ से कहीं ज्यादा धर्मनिरपेक्ष नेता पहले से अलग-अलग पार्टियों में मौजूद हैं, जो मुसलमानों का वोट लेकर भाजपा के साथ सरकारें बनाने में नहीं हिचकते। ‘आप’ भी मुसलमानों का वोट लेकर भाजपा के साथ सरकार बना सकती है। ‘आप’ के एक धर्मनिरपेक्ष नेता प्रशांत भूषण दिल्ली में कांग्रेस के बजाय भाजपा के सहयोग से सरकार बनाने की वकालत कर चुके हैं। साथ ही, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) को भ्रष्ट बताने का ‘उच्च विचार’ भी उन्होंने व्यक्त किया है। एक अन्य धर्मनिरपेक्ष नेता योगेंद्र यादव ने सीपीएम को अवसरवादी बताते बताते हुए उसके साथ किसी तरह के गठबंधन से इंकार किया है। जब सीपीएम के प्रति ऐसा कड़ा रुख है तो अपने को सामाजिक न्यायवादी और धर्मनिरपेक्ष कहने वाली कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के साथ ‘आप’ का तालमेल बैठने का सवाल नहीं उठता। कांग्रेस ‘आप’ की पहले नंबर की शत्रु है ही। ऐसे में भाजपा ही ‘आप’ की स्वाभाविक सहयोगी पार्टी हो सकती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ज्यादातर मार्क्सवादियों समेत धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवी, राजनीतिक कार्यकर्ता, जनांदोलनकारी और सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट मुसलमानों को ‘आप’ के पाले में धकेलने की कोशिश कर रहे हैं। जाहिर है, ये सभी मुसलमानों को वोट बैंक मानते हैं। उन्हें कामयाबी भी मिल रही है। उनकी मुहिम से मुस्लिम संगठनों के कुछ प्रमुख प्रभावित होते नजर आते हैं। वे ‘आप’ को भी सेकुलर खेमे की पार्टी बता कर उसके उम्मीदवारों को जिताने की बात करते नजर आते हैं। हमारा कहना है कि धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य पर गंभीर संकट के इस दौर में देश की सबसे बड़ी अकलियत को सोच-समझ कर अपना फैसला करना चाहिए। मुसलमानों, और बाकी अल्पसंख्यंकों के लिए भी, यह केवल बहस का नहीं, जीवन-मरण का सवाल है। क्योंकि सांप्रदायिक राजनीति का कहर सबसे ज्यादा अल्पसंख्यकों पर ही टूटता है। सांप्रदायिक ताकतें इस कदर मजबूत हो गई हैं कि उत्तर प्रदेश में धर्मानिरपेक्ष समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार के शासन काल में एक के बाद एक सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं।
नवउदारवाद के साथ सांप्रदायिकता बेतहाशा बढ़ी है। सभी धर्मों में उदारता का नहीं, कट्टरता का जोर बढ़ता जा रहा है। ‘आप’ का विचारधारा निरपेक्ष रुख – ‘न लेफ्ट न राइट’ – कट्टरतावादी ताकतों को ही मजबूत करेगा; चाहे वे बाजार की हो या धर्म की। इसका ताजा प्रमाण है जब दिल्ली में ‘चमत्कार, ईश्वरीय कृपा, जश्न, हवन और वंदे मातरम’ हो रहा था, 100 किलोमीटर की दूरी पर मुजफ्फर नगर-शामली जिलों के 185 गांवों में सांप्रदायिक हिंसा में 60 से ज्यादा लोग मारे और 60 हजार से ज्यादा उजाड़े जा चुके थे। महीनों बाद उनमें से हजारों अभी भी अपने घरों को लौटने के लिए तैयार नहीं हैं। सैफई महोत्सव का जश्न मनाने के धत्कर्म के लिए सपा सरकार की सही भर्त्सना की गई। लेकिन भर्त्सना करने वालों को दिल्ली के जश्न पर जरा भी ग्लानि नहीं हुई। दिल्ली की नई सरकार का जो शपथ-ग्रहण समारोह कुछ हजार रुपये के खर्च में उपराज्यपाल भवन में सादगी से हो सकता था, वह करोड़ों रुपये खर्च करके गाजे-बाजे के साथ रामलीला मैदान में किया गया। ‘आप’ की चुनावी सफलता से हुए ‘फील गुड’ में नए साल का जश्न कुछ ज्यादा ही जोरशोर से दिल्ली और देश के अमीरों ने मनाया। मोदी को रोकने के दावेदार दंगा-प्रभावित इलाके में झांकने तक नहीं गए। अलबत्ता वहां सदस्यता अभियान चला कर राजनीतिक रोटियां सेंकने में जरूर आगे हैं।
मुसलमानों को ‘आप’ के पक्ष में दिए जाने वाले धर्मनिरपेक्षतावादियों के तर्कों को गंभीरता से परखने की जरूरत है। मोदी और उनकी विचारधारा के खिलाफ कभी एक शब्द नहीं बोलने वाले शख्स को धर्मनिरपेक्षतावादी मोदी की काट बताते हैं। यह तर्क कि अरविंद केजरीवाल ने मोदी की चमक फीकी कर दी है, धर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए आड़ हो सकता है; देश की सबसे बड़ी अकलियत अगर इस तर्क को स्वीकार करेगी तो उसका भला नहीं होगा। इस तर्क के सहारे ‘आप’ से भी कुछ मुसलमान जीत कर संसद व विधानसभाओं में पहुंच सकते हैं। लेकिन उससे धर्मनिरपेक्षता नहीं, सांप्रदायिक फासीवाद मजबूत होगा। अभी देख सकते हैं कि मोदी की चमक फीकी नहीं पड़ कर और तेज हुई है। केजरीवाल की खुद की चमक मोदी पर निर्भर है।
हम मुसलमानों से कहना चाहते हैं कि मोदी एक नाम भर नहीं है, जिसे रोकने की ताल ठोंकी जा रही है। मोदी इस बार हार भी जाए तो सांप्रदायिक फासीवाद का बढ़ना नहीं रुकेगा। आरएसएस की कट्टर धारा किसी न किसी नेता में मूर्तिमान होती है। इस बार मोदी उसके सबसे बड़े प्रतिनिधि बन कर उभरे हैं। अडवाणी की कट्टरता से मोदी की कट्टरता इस मायने में अलग और मजबूत है कि मोदी कारपोरेट घरानों का भी कट्टर सेवक है। यह पाठ उसने मनमोहन सिंह से पढ़ा है। इस कट्टर धारा के सार पर ध्यान देने की जरूरत है। वह वही है जो अभी छोटे पैमाने पर केजरीवाल में मिलती है। केजरीवाल नरेंद्र मोदी का ही एक छोटा उपग्रह है। तभी जिस कारपोरेट जगत और मीडिया ने मोदी को ‘अगला प्रधानमंत्री’ बनाया है, वही केजरीवाल को भी सिर पर उठाए हुए है।
मोदी और केजरीवाल में छोट-बड़ाई का ही फर्क है, इसके कुछ ठोस प्रमाण देखे जा सकते हैं। गुजरात का तीसरा विधासभा चुनाव मोदी ने आसानी से जीत लिया। वहां 2002 में हुए राज्य-प्रायोजित नरसंहार के समय से ही बहुत-से लोग और संगठन पीड़ितों को न्याय दिलाने की जद्दोजहद में लगे हैं। देश बचाने का दिन-रात ढोल पीटने वाले केजरीवाल और उनके कारिंदे वहां एक शब्द नहीं बोले। आज भी केजरीवाल मोदी के विकास के दावों पर सवाल उठाते हैं, जो अन्य कई कोनों से उठाए जा चुके हैं। गुजरात दंगों में बतौर मुख्यमंत्री मोदी की संलिप्तता और उसे छिपाने के षडयंत्रों पर जबान नहीं खोलते। उनके गुरु अण्णा हजारे और उनकी खुद की बाबरी मस्जिद ध्वंस के संविधान और सभ्यता विरोधी कृत्य पर कोई टिप्पणी कम से कम हमें नहीं मिलती।
जिन अण्णा हजारे को केजरीवाल रालेगण सिद्धि से उठा कर दिल्ली लाए थे उन्होंने जंतर मंतर से पहली प्रशंसा मोदी की की थी। मोदी ने तुरंत पत्र लिख कर उनका आभार जताया था। साथ ही अण्णा को आगाह किया था कि उनके विरोधी उनको उनसे विमुख करने की कोशिश करेंगे। कुछ धर्मनिरपेक्षतावादियों ने बात को संभालने की कोशिश की, लेकिन केजरीवाल ने जरा भी मुंह नहीं खोला।
इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आईएसी) के एक महत्वपूर्ण सदस्य चेतन भगत आरएसएस के मोदी के पक्ष में किए गए फैसले से काफी पहले से देश-विदेश में उनके प्रचार में जुटे थे और आज भी वहीं काम कर रहे हैं। इधर वे मुस्लिम युवाओं को मोदी का पाठ पढ़ाने की कोशिशें कर रहे हैं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एक प्रमुख नेता और केजरीवाल के हमजोली रामदेव का ‘साहित्य’ और ‘वाणी’ किसी से छिपे नहीं हैं। रामदेव ने मोदी को अपने आश्रम में बुला कर हिंदुओं का नेता घोषित किया। केजरीवाल ने उस पर भी जबान नहीं खोली। 2006 में आई जस्टिस सच्चर कमेटी की रपट और सिफारिशों का विरोध अकेले आरएसएस-भाजपा ने किया है। यह रपट राजनीति का एक केंद्रीय मुद्दा बनी हुई है। सभी राजनीतिक पार्टियां रपट की सिफारिशों को किसी न किसी रूप में लागू करने की वकालत करती हैं। लेकिन केजरीवाल ने उस रपट पर भी आज तक मुह नहीं खोला है। कह सकते हैं कि 2006 से भारत की राजनीति में मुद्दा बनी इस रपट पर ‘आप’ भाजपा के साथ खड़ी है। केजरीवाल समेत फोर्ड फाउंडेशन पालित ‘आप’ का नेतृत्व अमेरिका-इजरायल की धुरी से संचालित नवसाम्राज्यवाद के खिलाफ कभी एक शब्द नहीं बोलता।
केजरीवाल का वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला रणनीतिगत है। ‘आप’ का मेकअप बहुत हद तक उतर जाने के बाद बिना मुस्लिम मतदाताओं के ‘आप’ उम्मीदवारों का चुनाव जीतना नामुमकिन है। खास कर दिल्ली में। लोकसभा चुनाव में ‘आप’ को सफलता नहीं मिलती है तो पार्टी बिखर जाएगी। सभी अपने-अपने पुराने ठीयों पर चले जाएंगे। बिना सरोकार और विचारधारा की पार्टी चुनावी जीत के सहारे ही टिकी रह सकती है। ऐसी पार्टी की चुनावी सफलता नित नई स्ट्रेटेजी पर निर्भर होती है। इसीलिए वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की स्ट्रेटेजी बनाई गई है। ताकि मोदी भी जीत जाए और ‘आप’ उम्मीदवारों को मुसलमानों का वोट भी मिल जाए।
हमने यह बताया था कि दिल्ली में ‘आप’ और भाजपा की जीत साझा थी। दिल्ली में केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने पर एक युवक ने ‘दिल्ली को केजरीवाल दिया देश को मोदी देंगे’ संदेश का पोस्टर लगवाया था। लोकसभा चुनाव में येन-केन-प्रकारेण जीत हासिल करने के लिए बेचैन ‘आप’ के नेता मुसलमानों को इस साझा अभियान में खींचना चाहते हैं। इतिहास में यह ऐसा मौका आया है जब बहुसंख्यक नहीं, अल्पसंख्यक समाज को देश का तकदीर तय करनी है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि वास्तविक समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को पीछे धकेल कर नवउदारवादी और सांप्रदायिक ताकतों का रास्ता प्रशस्त करने वाली ‘आप’ के बारे में मुस्लिम अवाम क्या फैसला करती है?
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