शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

शराब की दुकान में घुस कर गुड़ माँग रहा डिब्बा

चंचल

यह डिब्बा न देसी है न देश का है। यह लूट की संस्कृति पर उतारी गयी जहर की पुड़िया है। और यह सब इसकी मजबूरी है। ठीक उसी तरह जैसे शराब की दूकान में जाकर आप पाव भर गुड़ माँगें। वह कहाँ से देगा? यह उसकी मजबूरी है। कमोबेश अब यह मजबूरी समूची मीडिया की बन चुकी है। गुस्साइये मत… ज़रा गौर से इनके करतब देखिये।

देश की आबादी है एक सौ सत्ताईस करोड़। इस सवा सौ करोड़ की आबादी का वर्गीय चरित्र देखिये। अस्सी फीसद आबादी रिहाईश के आधार पर रोजगार के आधार पर खेत और खलिहान से जुड़ी है। बाद बाकी चौदह फीसद श्रम से जुड़ा है और बेकार हैं। सात फीसद कलम तोड़ रहे हैं। मुठी भर सियासत में हैं उतने ही जरायाम पेशे से जुड़ कर ऐश कर रहे हैं। उँगलियों पर गिने जा सकते लोग उद्योग पर काबिज हैं। अब हम आप से ही पूछते हैं यह डिब्बा किसके साथ है ? साथ हो या न हो इसके यहाँ किसकी खबर प्राथमिकता पर बैठने की हकदार बनती है ? देश का प्रतिनिधित्व तो वही करेगा। लेकिन डिब्बा उलटा चलता है। यह अस्सी फीसद को या तो परे ढकेल देता है या फिर उसे लूटता है। इसके पीछे का एक वाकया सुन लीजिए। (हम भी मीडिया से रहे हैं और आज भी हूँ ) 1982 में दिल्ली में एक सेमिनार में हमने मीडिया (उस समय डिब्बे का खौफ नहीं था ) से पूछा था- किस अखबार के पास खेत और खलिहान का ‘ब्यूरो’ है ? किस अखबार के पास इस अस्सी फीसद ज़िन्दगी का ब्योरा रखने वाला विभाग है ? फिर कितने अखबार हैं जो श्रम की दिक्कतों पर नजर रखते हैं ? जवाब नहीं था क्यों कि यह सच है। हर अखबार के पास ‘क्राइम’, नृत्य, संगीत, साहित्य के संवाददाता हैं। राजनीतिक दलों को देखने वालों का कार्य क्षेत्र बँटा है। यहाँ तक कि सिनेमा और शराब व जवानी के बीट हैं जिन्हेंपेज नंबर तीन कहते हैं। लेकिन इनके पास खलिहान नहीं है। इनके पास किसान के आत्महत्या की चटख खबर जरूर है क्यों कि वह सियासत का हिस्सा मानी जा चुकी है। तो जनाबे आली ! यह डिब्बा किसका है ? यह डिब्बा उनका है जो उँगलियों पर गिने जाने वाले धन पशु हैं।


अभी इस वक्त को देखिये। जब देश में चुनाव होने जा रहा है दैविक आपदा ने किसान को पीट कर रख दिया। बारिश ने ओले ने किसान की फसल को बर्बाद कर दिया। यह डिब्बे की खबर नहीं है। डिब्बे की खबर बनती है- “भागो रे ! महँगाई आयी” और महँगाई पर समूचा मीडिया लामबंद हो गया। दिखाया जाने लगा महँगाई। सबूत में उतारा गया- आलू, प्याज, बैगन, मिर्चा। यानी खलिहान का उत्पाद महँगा है। इनसे भी आगे गए प्रिंट मीडिया ‘बॉक्स’ में रंग डाल कर सब्जियों की तस्वीर के साथ उनकी बढ़ी कीमतों का खुलासा। आलू आठ रूपये किलो जो बाजार में आया उसकी कितनी कीमत किसान को मिली होगी ? उसे छोड़ दीजिए। आलू का चिप्स तीन सौ रूपये किलो में बिके, उस पर ऐतराज नहीं है। सड़े चावल से बने कुरकुरे की कीमत चार सौ रूपये के ऊपर क्यों कि उसे रानी मुखर्जी खाती है और डिब्बा दिखाता है। छप्पन किलो लोहे की कीमत अस्सी हजार रूपये। बाजार में बाइक है। मीडिया का पहला पेज बाइक के साथ उघार टाँग दिखा रहा है।

मीडिया ने कभी महँगाई पर गंभीर चर्चा की ? खेत और कारखाने के बीच क्या रिश्ता बने, इस पर किसी राजनीतिक दल से पूछा गया ?

दोस्त हम जम्हूरी निजाम में हैं, हम कसी से नफ़रत नहीं करते। लेकिन इतना शऊर तो होना ही चाहिए कि शराब की दूकान में घुस कर गुड की माँग तो न करें। यह उनकी मजबूरी है। लेकिन हम मजबूर नहीं हैं। हमें ऐतराज है कि डिब्बा अस्सी फीसद के खिलाफ ही नहीं रहता उसे लूटता भी है। जब ऐश्वर्या राय बोलती हैं कि हमारी ख़ूबसूरती का राज ‘फलाने’ साबुन है ‘ तो गाँव की लाछ्मीना भी लकड़ी बेच कर खूबसूरत होने लगती है।

About The Authorचंचल। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, चित्रकार व समाजवादी आंदोलन के कर्णधार हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे चंचल जी रेल मंत्रालय के सलाहकार भी रहे हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें