प्रमोद मुतालिक भाजपा में शामिल क्यों हुए और पाँच घंटे के भीतर बाहर क्यों कर दिए गए? क्या वजह है कि पार्टी को जसवंत सिंह, आडवाणी और हरिन पाठक जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करनी पड़ती है? यह कहानी सिर्फ भाजपा की नहीं है. बूटा सिंह, सतपाल महाराज, सीके जाफर शरीफ, डी पुरंदेश्वरी और जगदम्बिका पाल जैसे नेताओं ने कांग्रेस क्यों छोड़ी? राम कृपाल यादव और राम विलास पासवान ने अपना भाजपा विरोध क्यों त्यागा? बंगाल में माकपा विधायक पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल क्यों हो रहे हैं? ये सवाल मन में तो आते हैं पर हम उन्हें पूछते नहीं. हमने मान लिया है कि राजनीति में सब जायज है.
क्षेत्रीय और नितांत स्थानीय स्तर पर जाएंगे तो इन राजनेताओं की सूची खूब लम्बी है. चुनाव के ठीक पहले लगभग सभी पार्टियों में भगदड़ मचती है. यह चलन नया नहीं है. इसके विपरीत हेमा मालिनी, नगमा, गुल पेनाग, किरण खेर, मिथुन चक्रवर्ती, मुनमुन सेन, परेश रावल, जादूगर पीसी सरकार जूनियर से लेकर भाइचुंग भूटिया और मोहम्मद कैफ जैसे लोग टिकट पा रहे हैं. ये लोग राजनीति में सक्रिय नहीं रहे. मान लिया कि हेमा मालिनी और मिथुन चक्रवर्ती का राजनीति से रिश्ता अपेक्षाकृत पुराना है. पर तमाम प्रत्य़ाशी नए क्षेत्रों से आ रहे हैं.
आम आदमी पार्टी ने ऐसे लोगों को टिकट दिए हैं, जो राजनीति के बजाय किसी अन्य क्षेत्र में नाम कमा रहे थे. यह उसकी‘नई राजनीति’ है. उसे खास आदमी की दरकार है. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में एक नई पार्टी बनी है 'खास आदमी पार्टी'. इसने भ्रष्टाचारियों और जालसाजों को अपने दल में शामिल होने का न्यौता दिया है. इसने 'आम आदमी पार्टी' को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी बताया है. खाप ने घोषित किया है कि उसकी सदस्यता केवल भ्रष्टाचारियों और जालसाजों को ही दी जाएगी और आम आदमी पार्टी को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों से गठबंधन करने को वह तैयार है, क्योंकि वह सब उसके जैसे ही हैं.यह बात राजनीतिक विद्रूप की ओर इशारा करती है. शायद ‘आप’ की राह में अड़ंगा लगाने की कोशिश भी.
आरजेडी के गुलाम गौस ने लालटेन छोड़कर जेडीयू का तीर थाम लिया. पप्पू यादव फिर राजद में आ गए. नरेंद्र मोदी के लिए वाराणसी और राजनाथ सिंह के लिए लखनऊ की सीट खाली कराने में पसीने आ गए. इस भगदड़ को एक साथ रखें तो राजनीति का खोखलापन नज़र आता है. इसमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं, राग-द्वेष और मौका-परस्ती का समावेश है. भाजपा का जसवंत सिंह और हरिन पाठक प्रकरण नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच के व्यक्तिगत टकराव की देन है. इन टकरावों की अनुगूँज ट्विटर और फेसबुक पर सुनाई भी पड़ी. पर इतना साफ है कि एक साल पहले तक असहाय नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों का आज पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण है. सवाल है कि वरिष्ठ नेताओं ने टकराव को इस हद तक क्यों बढ़ने दिया? क्या उन्हें लोकसभा चुनाव के बाद मोदी के कद में कमी आने की आशा है? क्या ये नेता भाजपा के गणित को बिगाड़ देंगे? पार्टी के भीतर कई प्रकार की ताकतें हैं. क्या वे आपस में टकराएंगी? जसवंत सिंह ने कहा है कि असली पर नकली भाजपा हावी है. आडवाणी जी ने तीसरी या चौथी बार अपनी नाराजगी व्यक्त करने के बाद कदम खींचे हैं. इस उम्र में उन्हें क्या खोने का डर है?
कलह कांग्रेस में भी है. नई टिकट वितरण-व्यवस्था के कारण टकराव बढ़ा है. राहुल गांधी प्रत्याशियों को थोपने के खिलाफ थे, पर उन्होंने यू-टर्न ले लिया. फूलपुर में मोहम्मद कैफ का नाम पैनल के बजाय ऊपर से आया. रवि किशन पैराशूट की मदद से जौनपुर में जा उतरे. मुजफ्फरनगर सीट से टिकट पाने वाले सूरज सिंह वर्मा बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए हैं. सुलतानपुर से संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह को टिकट देकर पार्टी ने परिवारवाद की पुष्टि कर दी. इस सीट से संजय सिंह सांसद थे. उनके पार्टी छोड़कर बीजेपी में जाने की बात चली तो उन्हें असम से राज्यसभा में भेजा गया. उनकी सीट पर पत्नी को टिकट दे दिया गया. राहुल की प्राइमरीज का पाइलट प्रोजेक्ट फेल हो गया. वे पार्टी में विकेंद्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना कर रहे हैं. पर उसके शिखर पर उनका बैठना इस व्यवस्था का उपहास है. कांग्रेस और भाजपा के मुकाबले वामदलों की आंतरिक संरचना ज्यादा लोकतांत्रिक है. फिर भी वे हाशिए पर है. बंगाल में उनके नेता और कार्यकर्ता भी भागकर तृणमूल में जा रहे है. यानी राजनीति की सिद्धांत-प्रियता उसे लोकप्रिय नहीं बनाती.
पुराने नेताओं का पराभव पीढ़ी के बदलाव का सूचक भी है. अनेक राजनेताओं ने चुनाव से हाथ खींच लिए हैं. पी चिदम्बरम, एके एंटनी और शरद पवार ने धनुष रख दिए है. मनमोहन सिंह विदा ले ही रहे हैं. पिछले साल राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि सन 2014 में युवा सरकार बनेगी. यह कितनी युवा होगी कहना मुश्किल है, पर पार्टियों की सूची देखें तो सत्तर से ज्यादा उम्र के नेताओं की भरमार है. पर विकल्प क्या है? नई पीढ़ी माने क्या गुल पेनाग, प्रीटी जिंटा, नगमा और भाइचुंग भूटिया है?सम्भव है ये लोग बेहतरीन राजनेता साबित हों, पर उन तमाम जमीनी युवा नेताओं का क्या होगा, जो पिछले कुछ वर्षों से राजनीति की बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने की कोशिश कर रहे थे?
हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दर्शन, विचारधारा और कार्यक्रमों का कितना महत्व है, यह नेताओं के भाषणों और पार्टियों के घोषणापत्रों में देखिए. गरीबों को सस्ता अनाज, रोजगार और बेहतर इलाज देने का वादा अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक है. पर साइकिल, मंगलसूत्र, लैपटॉप, बकरी और मुर्गी तक चुनावी वादों में शामिल हो चुकी है. राजनेताओं का उस पार्टी से जुड़ना जिसकी विचारधारा को वे अछूत बताते रहे हैं कत्तई विस्मयकारी नहीं है. विचारधारा की यह अनदेखी पूरी राजनीति पर हावी है. दूसरी ओर जातीय पंचायतों, खापों, डेरों, मठों, गुरुओं और सम्प्रदायों का महत्व देखिए. प्रमोद मुतालिक को भाजपा ने नामंजूर कर दिया, पर उन्हें लिया ही क्यों था? निश्चित रूप से उनका कोई राजनीतिक आधार है. सामाजिक सत्य राजनीति में बोलते हैं. राजनीति उन्हें सुन्दर सैद्धांतिक नाम देती है. वस्तुतः उसे अपने विचारों और कार्यक्रमों पर भरोसा नहीं है. कोई भी पार्टी केवल लोकतांत्रिक मूल्यों मर्यादाओं के आधार पर फैसले नहीं करती. फिलहाल राजनीति एक गणित है, नम्बर का गेम. चुनाव परिणाम आने दीजिए. इस भगदड़ का फाइनल राउंड तभी शुरू होगा.
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