विश्व में खेती का इतिहास जितना पुराना है कमो-बेश कृषि यंत्रों का इतिहास भी उतना ही पुराना है। खेतों को तैयार करने, जोतने बोने, फसल काटने आदि के लिए मनुष्य को आरंभ से ही उपकरणों की जरूरत रही है। आरंभ में वे सब औजार लकड़ी, पत्थर या हड्डी के रहे होंगे लेकिन धातु के आविष्कार के बाद पत्थर और हड्डी की जगह धातु ने ले ली और लकड़ी के हल में भी लोहे के फल लगने लगे। इसी प्रकार कुदाल, फावड़ा, खुरपी, हँसिया आदि दूसरे प्रकार के उपकरण भी बनाए और मानवशक्ति के साथ-साथ पशुशक्ति का उपयोग किया जाने लगा। इसके लिए बैल, घोड़ा, खच्चर, ऊँट अधिक लाभदायक सिद्ध हुए। इन्हीं साधनों और पशुओं में थोड़े से बदलाव के साथ संसार के सभी देशों में 18वीं शताब्दी के आरंभ तक खेती होती रही। अठारहवीं शताब्दी में उद्योगों में यंत्रीकरण के बाद कृषि क्षेत्र में भी लोगों का ध्यान इस ओर गया तथा धीरे-धीरे कृषि उपकरण यंत्र बनते गए। उन्नत देशों में सन 1840 से ही लगभग लोहे के हलों का उपयोग होने लगा था। 20वीं शताब्दी में हलों में पर्याप्त सुधार किए गए, जिनके कारण हलों पर भार घट गया। कोल्टर्स के उपयोग के कारण हलों में खरपतवार भी कम फसते है तथा ये आसानी से चलते भी हैं। अब रबर के पहिए के कारण कृषि यंत्रों और ट्रैक्टरों द्वारा भार के खिंचाव में सुविधा हो गई है। अच्छे डिजाइन और बनावट तथा सुदृढ़ धातु के उपयोग के कारण घर्षण कम हो गया है। पिछड़े हुए देशों में आजतक भी अच्छे प्रकार के कृषि यंत्रों का मिलना एक समस्या है। सन 1900 के बाद विशेषत: प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात, रूस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अमरीका और अफ्रीका में कृषि के यंत्रीकरण का प्रचलन अधिक हुआ। श्रम की महत्त्व समझने वाले अनेक देशों के कृषक जुताई तथा फसल की बटाई आदि कार्यों के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने लगे, किंतु अफ्रीका और एशिया के बहुत से देशों में अभी यांत्रिक शक्ति का उपयोग अधिक मात्रा में नहीं हो रहा है। रूस के साइबीरिया क्षेत्र में सामूहिक खेतों पर तथा दक्षिण व मध्य अमरीका में मक्का उगाने के लिए, अर्जेंटाइना में कपास तथा ईख आदि के लिए यंत्रों का उपयोग विशेष रूप से होता है।
आधुनिक यंत्रों के प्रयोग से खाद्य एवं पहनने की वस्तुओं के उत्पादन में काफी प्रगति हुई है। क्षेत्र और विभिन्न प्रकार की फसलों का ध्यान रखते हुए अनेक प्रकार के यंत्रों का निर्माण होने लगा है। खेती के काम के लिए शक्ति के बढ़ते हुए उपयोग के कारण, मशीनों को चलाने वाली मोटरों तथा विद्युत का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ रहा है। संयुक्त राज्य अमरीका में, खेती की वृद्धि के साथ-साथ विद्युत शक्ति का उपयोग मुर्गी तथा सूअरों के पालने, घास सुखाने, आटा पीसने तथा डेअरी मशीनें आदि चलाने के कार्यों में भी होने लगा है। जिसकी वजह से घोड़ों और ऊँटों का प्रयोग बहुत ही कम हो गया। हाथ तथा पशुओं से चलाए जानेवाले यंत्रों में भी पर्याप्त सुधार हुआ और शक्तिचालित यंत्रों का आविष्कार एवं उपयोग बढ़ता गया। कृषि अनुसंधानकर्ताओं तथा अभियंताओं ने अब पौधे लगाने वाली, चुकंदर के बीज अलग करनेवाली एवं दाना तथा भूसा अलग करने आदि, कृषि कार्यों के लिए उपयोगी मशीनों को भी शक्तिचालित बनाने में सफलता प्राप्त करली है। संयुक्त राज्य अमरीका में कृषि कार्य में शक्ति और यंत्रों के उपयोगों के प्रारंभ का क्षेत्र बड़ा व्यापक था, वहाँ के खेत विभिन्न प्रकार की मिट्टी के होने के कारण छोटे-छोटे भागों में बँटे हुए थे। अत: वहाँ छोटे से छोटे खेतों में उपयोग करने के निमित्त मशीनें बनीं, जिसका ज्वलंत उदाहरण छोटे ट्रैक्टर हैं। ये पारिवारिक तथा छोटे खेतों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए है। यही बात प्लांटिंग मशीन और फर्टिलाइजर डिस्ट्रिब्यूटर के विषय में भी कही जा सकती है।
ग्रेट ब्रिटेन में जुताई के लिए भाप से चलने वाले ट्रैक्टर उपयोग में लाए जाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहाँ पेट्रोल से चलने वाले ट्रैक्टरों की संख्या अधिक हो गई। कृषि संबंधी श्रमिकों की कमी ने खेतों पर शक्ति तथा यंत्रों के उपयोग में दिनों दिन वृद्धि की है। वहाँ के किसानों ने घास से अधिक लाभ उठाने के हेतु मशीनों का उपयोग विशेष रूप से किया। वर्षा के कारण घास को अच्छी दशा में रखना कठिन था, अत: घास को साइलों में रखने की प्रथा का पर्याप्त विकास हुआ। परिणामस्वरूप इनसाइलेज कटर (चारा काटने की मशीन), साइलोफियर, साइलेज हारवेस्टर जैसी मशीनें प्रचलन में आई। वहाँ कुछ फसलों की कटाई रीपर के द्वारा होती है, जो फसल को बिना ग_र बनाए ही भूमि पर डाल देता है। यह कटी हुई फसल ट्रकों में भरकर मड़ाई के लिए जाती है। वहाँ की थ्रेशिंग मशीनें केवल भूसे को ही दाने से अलग नहीं करतीं, वरन छोट-छोटे खरपतवार, लकड़ी, पत्थर और मिट्टी को भी अनाज से अलग करती है। हवा में अधिक नमी होने के कारण ब्रिटेन के बहुत से चरागाहों में काई पैदा हो जाने से गर्मी में हैरो का उपयोग होने लगा है।
सोवियत रूस में सहकारी खेती, पंचवर्षीय योजना, भूमिसुधार और छोटे-छोटे खेतों को तोड़कर बड़े फार्म बनाने की योजनाओं के कार्यान्वित होने से ही यांत्रिक खेती की प्रगति हुई है। सुनिश्चित समय में योजनाओं के अंतर्गत यंत्रीकरण उन्नति की ओर विशेष तथा सस्ते ईधंन की प्राप्ति, रूस के कृषियंत्रीकरण में विशेष सहायक सिद्ध हुई। देश में ट्रैक्टर बनाने के बहुत से कारखाने खोले गए तथा आदमियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। लगभग सन 1940 तक रूस में खेती का एक बड़ा भाग सामूहिक खेती के रूप में होता रहा। अंत में इन छोटे भागों को मिलाकर बड़ी इकाई का रूप दे दिया गया, जिसके प्रबंध में पर्याप्त सुविधा हुई। मध्यम तथा छोटे सामूहिक खेत वाले आवश्यकता पडऩे पर राजकीय खेतों से मशीनें लाकर कार्य करते हैं। सन 1936 के बाद रूस में मशीनें गेहूँ, जौ, जई, राई और दूसरे अनाज उगाने के काम में आने लगीं और जो मशीनें अन्यत्र यांत्रिक खेती के लिये प्रयुक्त होती रहीं उनका उपयोग कपास, चुकंदर इत्यादि फसलों की खेती में भी किया जाने लगा। अब वहाँ लगभग सभी कृषि कार्य मशीनों के द्वारा होते हैं। दूसरे शब्दों में कृषि का 95 प्रतिशत यंत्रीकरण हो चुका है, वहाँ विभिन्न प्रकार के 1,000 कृषियंत्र बनने लगे हैं।
जर्मनी में लोगों का झुकाव डीजल तथा सेमिडीजल छोटे ट्रैक्टरो के निर्माण की ओर अधिक है। यांत्रिक शक्ति के उपयोग से फसल उगाने के लिये पुरस्कार स्वरूप जर्मनी के कृषकों को 3 से 5 एकड़ ज़मीन मिल जाती थी। स्वभावत: लोगों का झुकाव ट्रैक्टरों एवं ट्रकों से कृषि उत्पाद बाजार ले जाने की ओर हुआ। वहाँ मशीनों के डिजाइन में खाद्योत्पादन की वृद्धि की और विशेष ध्यान दिया गया, जिससे वहाँ के छोटे छोटे फार्मों से अत्यधिक लाभ उठाया जा सके। कतारों में बुनाई करनेवाली इस देश की मशीनों की सूक्ष्मता दूसरे देशों के लिये एक उदाहरण है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व भी जर्मनी के खेतों पर विद्युत शक्ति का उपयोग होता था। सिफ्ट जर्मनी का एक विख्यात ट्रैक्टर है, जिसका निर्माण सन 1947-48 में प्रारंभ हुआ। ट्रैक्टरों से चलनेवाले स्पाइक टुथ हैरो तथा पल्वराइजर इत्यादि इस देश में बहुताएत निर्मित होते हैं।
फ्रांस में छोटे छोटे खेतों की अधिकता के कारण यांत्रिक खेती का उतना विकास नहीं है जितना इंगलैंड, रूस तथा जर्मनी में है। फ्रांस के कृषक अपने शक्तिशाली घोड़ों के लिये प्रसिद्ध हैं। कृषि कार्यों के लिये इनका उपयोग बड़ी मात्रा में होता है, इसके बावजूद इस देश में छोटे ट्रैक्टरों का उपयोग बढ़ा है। इस देश में स्प्रेइंग तथा डस्टिंम मशीनों का प्रयोग एवं फलों तरकारियों की खेती में अधिक तथा कुछ सीमा तक व्यापारिक उर्वरक के लिये होता है। दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा अर्जेंटाइना में भी कृषि यंत्रों की ओर लोगों का झुकाव है किंतु जहाँ कही भी ईंधन मंहगा और पशु रखने की सुविधा है वहां के किसानों ने पशु शक्ति पर निर्वाह करना उचित समझा। इन देशों में यांत्रिक शक्ति का उपयोग केवल खेत तैयार करने तथा फसल की कटाई तक ही सीमित है। न्यूजीलैंड में डेअरी उद्योगों की उन्नति होने के फलस्वरूप वहाँ पर डेअरी से संबंधित यंत्रों का अत्यधिक मात्रा में उपयोग तथा विकास हुआ है। अफ्रीका में नील नदी की घाटी और दक्षिणी अफ्रीका के अतिरिक्त अन्य सभी जगह खेती अब भी पुराने ढंग से की जाती है और सामान्य यंत्र तथा पशु उपयोग में लाए जाते हैं। यही स्थिति एशिया के बहुत से देशों की है।
अधिक जनसंख्या होने के कारण चीन में ट्रेक्टरों तथा बड़ी मशीनों का उपयोग बहुत ही सीमित है। मानव एवं पशुचालित यंत्र ही वहाँ विशेष प्रचलित हैं। चीन में कृषि कार्यों की शक्ति का मुख्य साधन मनुष्य ही है। यहाँ तक कि हल तथा गाडिय़ाँ भी मनुष्यों द्वारा चलाई जाती हैं। साइलेज कटर, पनचक्की, राइस हलर, राइस थ्रैशर, दो पहिए वाले हल इत्यादि कुछ उन्नतिशील कृषि यंत्रों का निर्माण अब चीन में होने लगा है। यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका में विद्युतचलित यंत्रों का प्रयोग होने लगा है क्योंकि वहाँ बिजली अधिक सस्ते दर पर उपलब्ध है एवं इसको उपयोग में लाना भी सरल होता है। इसके अतिरिक्त विद्युत-चालित औजार और यंत्र भी पर्याप्त समय तक ठीक दशा में रखे जा सकते हैं, समय की बचत होती है, कार्य निपुणता बढ़ती है और व्यय कम होता है। भारत में कृषि यंत्रों का व्यवहार हालांकि हरित क्रान्ति के बाद से आरंभ हुआ है और आज उसका तेजी से विस्तार हो रहा है। हमारे यहां किसान की जरूरतों के आधार पर कृषि यंत्र नहीं बनाए जाते, यहां आज तक विदेशों की नकल पर तैयार यंत्रों का चलन है।
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