गुरुवार, 11 सितंबर 2014

देश के भीतर युद्ध भूमि का ग्राउंड जीरो

पुलिस के शव में बम रखने की जिस घटना ने पूरे देश को अंदर से हिला दिया,अगर उसी घटना वाले इलाके लातेहार के हर दिन के सच को देश जान जाये तो उसे समझ में आ सकता है देश के भीतर कैसी युद्द भूमि तैयार है। और कैसे युद्द भूमि में हर दिन बारुद के बंकर बनाये जाते हैं। कैसे आईईडी घमाके होते हैं । कैसे डायनामायट से सरकारी इमारतों को नेस्तानाबूद किया जाता है। कैसे हर सरकारी योजना नक्सल लूट में बदल दी जाती है। कैसे खाद्यान्न से लेकर मनरेगा के रोजगार का पैसा विकास के नाम पर खपा भी दिया जाता है और हर हाथ खाली होकर पेट की खातिर बंदूक थामने से कतराता भी नहीं है। कैसे पक्की सड़क पर दौड़ती पुलिसिया जीप ही सरकार के होने का ऐलान करती है और कैसे पक्की सड़क से नीचे उतरती हर कच्ची सडक सरकार के सामानातंर माओवाद की व्यवस्था को चलाती है।

यह ऐसा सच है जो लातेहार के हर गांव में हर बच्चा और बुजुर्ग हर दिन देखता है। जीता है और फिर कभी इनकाउंटर में मारे जाने के बाद पक्की सड़क पर माओवादी और कच्ची सड़क पर मारे गये ग्रामीण आदिवासी
के तौर पर अपनी पहचान पाता है। दिन के उजाले में पक्की सड़क पर सुरक्षाकर्मियों के लिये हर इनकाउंटर तमगे का काम करता है और कच्ची पगडंडियो पर इनकाउंटर में मारे गये ग्रामीण का परिवार आक्रोश की आग में खुद को झोकने के लिये तैयार हो जाता है। यानी वर्तमान का सच भविष्य के लिये ना रुकने वाली ऐसी उर्वर युद्द भूमि तैयार करता जा रहा है, जहां सभ्य देश के लिये आने वाले वक्त में कौन कौन सी त्रासदी किस किस रुप में देश का सिर शर्म से झुकायेगी, इसका सिर्फ इंतजार किया जा सकता है। क्योंकि वहां युद्द ही जीने का आक्सीजन है। जरा सिलसिलेवार तरीके से पुलिस शवों में लगाये गये बम के इलाकों को परखें। 6-7 जनवरी को माओवादियों का हमला लातेहार के कोमांडी, हेहेगढा और अमवाटीकर गांव के इलाके में हुआ। 10 सुरक्षाकर्मी मारे गये। तीन गांववाले तब मारे गये, जब पुलिस के शव में रखा बम फटा। जाहिर है शव के भीतर बम रखने की यह अपने तरह की पहली घटना थी जो इतनी वीभत्स है कि देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे तक परेशान हो गये।

सवाल उठ सकता है कि अब माओवाद वैचारिक संघर्ष को छोड़कर और खौफ पैदा कर अपने होने का अहसास करा रहा है। इसे अमानवीयता का आखिरी रुप भी माना जा सकता है। इसे मानसिक दिवालियापन से भी जोड़ा जा सकता है। लेकिन जिस लातेहार को युद्द भूमि मान कर पुलिस-सरकार काम कर रही हो। जहां रहने वाले लोगो की पहचान दुश्मन और दोस्त के तौर पर कच्ची और पक्की सड़क के साथ बदल जाती हो। वहां कौन सी व्यवस्था मानवीयता को जिन्दा रखे हुये है, यह समझना भी जरुरी है। युद्द भूमि कैसे और किसके बीच बनी हुई है, यह एनकाउंटर वाले तीन गांव ही नहीं बल्कि लातेहार के बनवीरुआ, डीहीमारी, टुबेड, नेबारी, मानगरा, लूटी, अमेझाहारण समेत दो दर्जन से ज्यादा गांव के हर दिन के हालात को देखकर समझा जा सकता है। लातेहार में सरकार का मतलब चतरा से डालटेनगंज जाने वाली सडक पर पुलिस पेट्रोलिंग है। जिसके बीच में लातेहार आता है। यह पेट्रोलिंग भी जब तक सूरज की रोशनी पक्की सड़कों पर रहती है तभी तक होती है। गांवों के बीच में पुलिस कैंप नहीं सीआरपीएफ कैंप और झारखंड जगुआर सेना के कैंप हैं, जो सरकार की इमारतों में कैद रहते हैं। किसी पुरानी सभ्यता की तरह सुरक्षाकर्मियों के कैंप नदी या पानी के सोते के किनारे ही हैं। जिससे पीने के पानी की कोई दिक्कत ना हो। हर सुबह सूरज निकलने के बाद ग्रामीण इलाकों में सेना की हलचल पानी इकठ्टा करने और नित कार्य करने को लेकर ही होती है। पक्की सड़क से होते हुये जब सीआरपीएफ या जगुआर फोर्स के जवान गांव में घुसते हैं तो ही कैंपो से सुरक्षाकर्मी सड़क के लिये निकलते हैं। सीधे कहे तो पक्की सड़क से गांव तक कोई लैंड माइन नहीं है, इसकी जांच करते हुये जब सुरक्षाकर्मियो का दस्ता गांव के सुरक्षा दस्ते के पास पहुंचता है तो ही गांव के कैंप में तैनात सुरक्षा दस्ता बाहर निकलता है। लेकिन इस पक्की और कच्ची सड़क के बीच हर सुबह आईईडी ब्लास्ट की ट्रेनिग गांव वालो को मिलती है। बंकर ब्लास्ट की जानकारी गांव वाले अपने स्तर पर पाते हैं।

डायनामाइट कैसे लगाया जाये, जिससे किसी सरकारी इमारत को एक ही धमाके में उड़ा दिया जाये। यह जानकारी होना हर गांव वाले की जरुरत है। और जिस कैंप के सुरक्षाकर्मियो के शिकार जो गांववाले उससे पहले हुये होते हैं, उस गांव की ही यह जिम्मदारी होती है कि कैंप से बाहर निकले सुरक्षाकर्मी वापस कैंप में लौट ना सके। इस युद्द के बीच खेती, मजदूरी, विकास परियोजना या औघोगिक विकास का कोई मतलब नहीं होता । क्योंकि युद्ध के नियम या जीत हार जान लेने की तादाद पर ही निर्भर करते हैं। जिसका खौफ ज्यादा होता है, उसके लिये इलाका सुरक्षित होता है। और खौफ पैदा करने के लिये हर रणनीति अपनायी जाती है। इस युद्द भूमि में सरकार की कोई भूमिका क्यों नहीं होती, इसे मौजूदा मुंडा सरकार के बनने और वर्तमान के राजनीतिक संकट से भी जोडकर समझ जा सकता है। तीन बरस पहले अक्टूबर 2009 में जब झारखंड विधानसभा के चुनाव हो रहे थे, तब लातेहार के 22 गांवों ने चुनाव का बहिष्कार किया था। उस वक्त बहिष्कार के तीन आधार थे । पहला मनरेगा की बात कहने वाली कांग्रेस के ही लोगों ने मनरेगा का पैसा खा लिया गांव के गांव में रोजगार दे दिया का दस्तावेजी पुलिंदा तैयार कर लिया। दूसरा, जो खाद्दान्न गांव में सरकार ने बांटने भेजा उसकी काला बाजारी अधिकारियो ने कर दी और दस्तावेज में बताया कि अन्न बांट दिया है। और तीसरा ट्यूब नदी पर बांध बनने का वादा कर तीन साल सरकार ने गुजार दिये । लेकिन गांव वालों को मिला कुछ नहीं। तो यहां सिर्फ चुनाव बहिष्कार ही नहीं हुआ बल्कि रांची में सरकार बनी तो लातेहार में सिलसिलेवार तरीके से न्याय शुरु हुआ। युद्द भूमि है तो न्याय भी यूद्द के तौर पर ही शुरु हुआ । बीते तीन बरस में सोलह पंचायत भवन डायनामाइट से उड़ा दिये गये। पोचरा पंचायत की इमारत की छत को उड़ाकर गांववालों के लिये न्याय घर बनाया गया। जहां नौ गांव में किसी भी मुद्दे के उलझने पर सुलझाया जाता। जिन छह माध्यामिक स्कूलों की इमारतों की स्कूलों में सीआरपीएफ जवान ने कैंप लगाये उन्हे विस्फोट से ध्वस्त कर दिया गया। नेवारी गांव के मिडिल स्कूल की इमारत को गिराकर गांववालों ने अपने युद्द का ट्रेनिंग सेंटर बनाया। फुड

एंड सप्लायी विभाग के एमओ केसर मर्मू का अपहरण कर सबक सिखाया गया। जेरुआ गांव के मनरेगा एक्टीविस्ट नियामत अंसारी की हत्या की गई। इसी तर्ज पर हर गांव वाले ने औतसन तीन बरस में छह से नौ पुलिस या सुरक्षाकर्मियों के वाहनो को नष्ट किया। सीधे समझे तो माइन ब्लास्ट से उड़ाया। इसमें पुलिस मोटरसाइकिल भी है। इस युद्दभूमि में युद्द करना ही कैसे जीने का तरीका बन चुका है, यह सुरक्षाकर्मियों की रणनीति से लेकर माओवाद के नाम पर संघर्ष करते नक्सलियों से लेकर गाम्रीण आदिवासियों के तौर तरीकों से समझा जा सकता है। राज्य पुलिस और सीआरपीएफ के अलावे जगुआर पुलिस से लेकर आधे दर्जन नाम से हंटिंग सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी इस युद्द भूमि में है। वहीं दूसरी तरफ सीपीआई माओवादी-पीपुल्सवार से लेकर झारखंड प्रस्तुति कमेटी और तृतिया प्रसूती कमेटी से लेकर स्वतंत्र इंडियन पीपुल्स कमेटी सरीखे दर्जन भर संगठन अपनी अपनी युद्दभूमि बनाकर अपने जीने के लिये संघर्ष कर रहे है। यानी कोई भी बिना सेना के नहीं है। हर सेना का एक नाम है, जो गांव और पुलिस कैप के साथ बदल जाता है। इस युद्दभूमि में यह सवाल बहुत छोटा है कि कौन सही है या कौन गलत। क्योंकि तीन बरस में मारे गये सात सौ से ज्यादा ग्रामिणों के परिजनो का जो हाल है, उससे बुरा हाल मारे गये सुरक्षाकर्मियो के परिजनो का है । इस युद्द में मारे गये सुरक्षाकर्मी दुधवा मुंडा हो या गोपाल लकडा । या मारे गये ग्रामीण अशोक टोपो हो या प्रकाश घान। इनके परिजन युद्द भूमि में ना सरकार की रियायत पा सकते हैं या युद्द से मुंह मोड़ सकते हैं। और युद्द करते रहना ही क्यों जरुरी है, इसे बताने के लिये घायलों को टटोला जा सकता है। 16 जुलाई 2010 को चाहे वह घायल सुरक्षाकर्मी सुलेमान धान हो या सुरेश टोपो या फिर चन्द्रमोहन जो माओवादियों के एनकाउंटर में घायल हो गये। या फिर इसी इनकाउंटर में घायल कुदमु गांव के मोहन माझी या नायकी। सरकार से मदद किसी को नहीं मिली। अस्पताल का इलाज किसी के पास नहीं पहुंचा। कोई राहत किसी को नहीं मिली । यानी देश की मुख्यधारा से जोड़ने की जो पहल दस्तावेजो में दिल्ली के नार्थ ब्लाक से लेकर रांची में सीएम दफ्तर तक हर दिन हो रही है, वह लातेहार के प्वाइंट जीरो पर कैसे गायब है और कैसे प्वाइंट जीरो पर युद्द ही जीने का एकमात्र रास्ता है। यह ना तो दिल्ली समझ पा रही है और ना ही इसे समझने की जरुरत सत्ता बनाने में भिडे झारखंड की सियासत को है ।

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