उत्पीड़कों और हत्यारों का गिरोह बनती पुलिस मशीनरी, आखिर देश की राजनीति इस पर कब संजीदा होगी?
हरे राम मिश्र
वर्ष 2006 में उत्तर प्रदेश की कचहरियों में हुए सीरियल बम विस्फोट के आरोप में लखनऊ जिला जेल में बंद जौनपुर केमौलाना खालिद की 18 मई 2013 को पुलिस हिरासत में की गई हत्या के विरोध तथा उनके हत्यारों को तत्काल गिरफ्तार करने की मांग को लेकर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सामने मैं स्वयं तथा मेरे कई पत्रकार साथी जाने-माने राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ धरने पर बैठै। मृतक को इंसाफ देने के सवाल पर दिए जा रहे इस अनिश्चितकालीन धरने के दौरान एक दिन हमारे साथियों को रजिस्टर्ड पोस्ट से एक पत्र मिला जो कि इलाहाबाद की नैनी सेन्ट्रल जेल की अंडा बैरक से भेजा गया था। यह पत्र सहारनपुर निवासी एक युवक था जिसे उत्तर प्रदेश की एसटीएफ द्वारा सन् 2005 में अयोध्या में हुए एक कथित नाकाम आतंकी हमले की साजिश रचने में मदद के आरोप में हिरासत में लिया गया था। पेशे से यूनानीपैथी का डाक्टर रह चुके इस युवक को सन् 2005 से ही सहारनपुर से उठाकर नैनी सेन्ट्रल जेल लाया गया था। पत्र के प्राप्त होने तक न तो उस युवक को अदालत से जमानत ही मिल सकी थी और न ही उसका जुडीशियल ट्रायल ही शुरू हो सका था। पत्र के मुताबिक उसे जेल में बंद हुए आठवां साल शुरू हो चुका था। अगर अदालत द्वारा उसे दोषी भी ठहरा दिया जाता तो उसे इतनी सजा नही हो सकती थी। उस पत्र में भारतीय न्याय व्यवस्था पर भी गंभीर टिप्पणियां की गई थीं।
यहां यह ध्यान देने लायक है कि यह वह समय था जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार को बने लगभग एक साल से ज्यादा हो चुक थे। समाजवादी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में यह वादा किया था कि अगर वह प्रदेश में सत्ता में आयी तो आतंकवाद के आरोपों में बंद बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों पर से मुकदमें वापस ले लिए जाएंगे और अगर तत्काल ऐसा संभव न हो सका तो उन्हें जमानत पर तो तुरंत छोड़ दिया जाएगा। इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब किसी राजनैतिक दल ने सार्वजनिक तौर पर यह माना था कि इस देश के मुसलमानों को बेगुनाह होते हुए भी जानबूझ कर आतंकवाद के आरोपों में फंसाया जाता है। पुलिस हिरासत में अमानवीय उत्पीड़न भी होता है तथा पुलिस द्वारा जानबूझ कर उनके पूरे जीवन को तबाह कर दिया जाता है।
यह पत्र युवक द्वारा जब भेजा गया था तब भी उत्तर प्रदेश में बेगुनाहों की रिहाई की मांग को लेकर जबरदस्त आंदोलन चल रहा था। ’एक आतंकवादी का खुला खत सदर-ए-जम्हूरिया के नाम’ शीर्षक से आए इस पत्र में युवक ने आतंकवाद के आरोप में पुलिस और एसटीएस तथा एसटीएफ द्वारा किस अमानवीय तरीके से कार्रवाई की जाती है, का दिल दहला देने वाला वर्णन किया है। उसने अपने पत्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों को संबोधित करते हुए लिखा है कि विस्फोटों के कुछ दिन बाद, एक दिन जब मैं अपनी दिल्ली स्थित क्लीनिक पर मरीज देख रहा था तभी सहारनपुर पुलिस अधीक्षक का संदेश लेकर कुछ सिपाही आए और तत्काल एसपी साहब के पास चलने को कहा। यह कहने पर कल मैं स्वयं आकर मिल लूंगा- वे नहीं माने। थोड़ी देर बाद पता चला कि मेरे छोटे भाई को पुलिस ने घर से उठा लिया है। तत्काल मैं अपनी क्लीनिक बंद कर शाम को पुलिस अधीक्षक कार्यालय पहुंचा। उसके बाद गाड़ी से मुझे एक सूनसान जगह पर बने मकान पर ले जाया गया जहां पर मेरा भाई भी था। इसके बाद मेरे भाई को छोड़ दिया गया और मुझसे लगातार पांच दिन पूछताछ की गई। इसके बाद मुझे बम विस्फोटों में साजिश रचने वालों की मदद का आरोपी बताते हुए लगातार जुर्म स्वीकार करने के लिए दबाव बनाया जाने लगा। मेरे इनकार करने पर रात में एक बंद गाड़ी में भरकर एक सूनसान जगह पर बने मकान में ले जाया गया। जगह मेरे लिए अनजान थी। वह कमरा काफी बड़ा था और उसके बीच में बने एक खंबे से मुझे जबरिया नंगा करके बांध दिया गया।
उसके थोड़ी देर बाद कुछ सिपाही वहां आए। मेरे कमरे में एक सिपाही ने प्रवेश किया जिसे उसके अन्य साथी ’त्यागी’ नाम से बुला रहे थे। उसने सबसे पहले मेरी दाड़ी जोर-जोर से खींचनी शुरू की। इसके बाद मेरे चीखने पर वह बाहर चला गया। लगभग दस मिनट बाद वह वापस आया और फिर मेरे मुंह पर थूकना शुरू कर दिया। कुछ देर बाद दो लोग जो काफी डरे हुए लग रहे थे, कमरे में आए। ’त्यागी’ नाम के सिपाही ने उनसे मेरी पहचान करने को कहा। वे रोने लगे और पहचान करने से इनकार कर दिया। इस पर त्यागी सिपाही ने उन दोनों कों लात-जूते और तमाचों से काफी देर तक पीटा। इसके बाद भी जब वे पहचान को तैयार नही हुए तो त्यागी ने उन्हें गाली देते हुए भगा दिया। इसके बाद मुझे भी उसने कई थप्पड़ मारे तथा रात में कमरे से बाहर चला गया। कमरे में मैं अकेला रात भर बंधा खड़ा रहा और रोता रहा।
युवक ने अपने पत्र में आगे लिखा है कि अगले दिन सुबह ’त्यागी’ फिर आया और आते ही उसने सबसे पहले मेरे नीचे के सारे बाल उखाड़ डाले। सीने और चूचक के बालों को भी नोच डाला। फिर कई सिपाहियों ने मेरे साथ उसी कमरे में दुष्कर्म किया। नीचे के रास्ते डंडा डाल दिया। लिंग पर बिजली के झटके दिए गए। लगातार नौ दिन तक नंगा रख कर अमानवीय उत्पीड़न पुलिस द्वारा लगातार जारी रहा। फिर कुछ अफसर आए और नौवें दिन मुझे जेल भेज दिया गया। मैं आज भी बिना ट्रायल के ही जेल में सड़ रहा हूं।
गौरतलब है कि आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए युवकों के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार पहली बार नहीं हुआ है। ज्यादातर की कहानी ऐसी ही मार्मिक है। पुलिस गिरोह द्वारा किया गया उत्पीड़न अगर जानना हो तो खालिद का रिट्रैक्शन देखने लायक है। खालिद ने बताया है कि हिरासत के दौरान उसे नंगाकर के एसटीएफ के सिपाही उसकी टांगों पर चढ़ जाते थे और उसी से उसका लिंग चुसवाते थे। यही नहीं पुलिस हिरासत के दौरान पेशाब करने के लिए कई पुलिस अधिकारी मूत्रालय की जगह उसके मुंह का इस्तेमाल करते थे। अक्षरधाम हमले के आरोपी और अब बरी हो चुके आदम अजमेरी, मुफ्ती कयूम, चांद खान से लेकर उन सबकी आप-बीती दिल दहला देने वाली है। यहीं नहीं, सामान्य केसों में भी पुलिस द्वारा उत्पीड़न की खबरें लगातार आती रहती हैं। थाने में बलात्कार, हत्या हिरासत में गैर कानूनी रूप से रखना बेहद सामान्य बाते हैं। वास्तव में देश के समूची पुलिस मशीनरी आज हत्यारों के सममूह में बदल चुकी है।
अब सवाल यह है कि आखिर हमारी सरकारें पुलिस को इतनी निरंकुश बना कर आखिर आम जनता को क्या संदेश देना चाहती हैं? आखिर समूचा पुलिस तंत्र इस लोकतंत्र और आम जनता को निगलने को बेताब खड़ा है और फिर भी इतनी खतरनाक चुप्पी? आखिर राजनीति द्वारा इन बेगुनाहों के उत्पीड़न पर चुप्पी क्यों है? क्या पुलिस को उत्पीड़कों के गिरोह में बदले बिना लोकतंत्र और इस व्यवस्था को बचाना मुश्किल दिख रहा है। आखिर क्या इसी तरह के लोकतंत्र की कल्पना की गई थी जहां पुलिस ही अदालत की भूमिका में आ रही है। हर उत्पीड़न अक्षम्य अपराध है। आखिर देश की राजनीति इस पर कब संजीदा होगी?
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