उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह!
वामपंथ के अवसान के बाद अब संघ के अवसान का यह स्वर्णकाल है
पलाश विश्वास
उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह।
पंतजलि के विज्ञापनी बहारमध्ये योग गुरु बाबा रामदेव प्रकट होकर अभयदान दे रहे हैं टीवी न्यूज में, इलेक्शन से पहले जनता ने सिलेक्शन कर लिया है। बाबा सच कह रहे होंगे। लेकिन योगगुरु के अनेक रंग बिरंगे अवतार मीडिया में सोशल मीडिया में फर्जी मोदी सुनामी रचने के खेल में रमे हुये हैं। बंगाल में वाम शासन के दरम्यान हर चुनाव से पहले परिवर्तन सुनामी का हश्र हमने देखा है। लेकिन जब परिवर्तन आया दरअसल, तब मीडिया ने उसे तूल नहीं दिया। फिर परिवर्तन के बाद मां माटी मानुष की सरकार बनने के बाद लाल रंग को मिटा देने पर आमादा मीडिया ने तो नंदीग्राम सिंगुर भूमि आंदोलन के दौरान सरकारी भोंपू की भूमिका निभाते हुये वामदलों को आत्मघत के लिये मजबूर कर दिया। अमर्त्यसेन की अगुवाई में तमाम अर्थशास्त्री और बांग्ला सांस्कृतिक बाजारु आइकन सिविल सोसाइटी का पालाबदल भी तदनुसार हुआ और सितारों का जमावड़ा भी। मायावती, अखिलेश, जयललिता के असंख्य उदाहरण तो हैं ही, जिन्हें चुनावी बहसों से कुछ खास फर्क नहीं पड़ा जब उन्होंने सत्ता शिखर को स्पर्श किया। और तो और पिछले लोकसभा चुनाव में भी हालात कांग्रेस के एकदम खिलाफ थे और मजा देखिये कठपुतली प्रधानमंत्री ने नेहरु गांधी वंश की वैशाखी के सहारे पूरे दस साल भारत पर राज कर लिया।
ध्यान देने योग्य बाते हैं कि शेयर सूचकांक सांढ़ों के जबर्दस्त हमले से छलांग मारकर ऊपर चढ़ तो रहा है, विदेशी निवेशकों की आस्था तो अटूट है, पर रुपये की गिरावट थमी नहीं है। मुनाफा वसूली के खेल में अक्सर ही बाजार डांवाडोल है। वैश्विक इशारों का हवाला देकर दलाली का धंधा जोरों पर है। लेकिन अर्थव्यवस्था डगमगा रही है। अमेरिकी हित दांव पर हैं। रूस में भी पुनरूत्थान होने लगा है और एक ध्रुवीय कॉरपोरेट विश्व व्यवस्था मध्यपूर्व के तेल संसाधनों को फतह करने के बाद समूचे एशिया पर विजयध्वज फहराने के लिए मोदी वंदना में लगी है। ध्यान से सुने जो रामधुन है, उसमें संघी स्वर कम है, यांकी सुर ज्यादा मुखर है और जायनी तड़का तो लाजवाब है। फास्टफूड जंक है, दुनिया जानती है, जहरीला यह रसायन जायके में बुसंद है जरूर, लेकिन जुलाब बनकर कहर कब बरपायेगा ठिकाना नहीं है।
बाजार के दिग्गज बढ़-चढ़कर सांढ़ भाषा बोल रहे हैं कि सेनसेक्स में लंबी छलांग कि आस लगाइये। लगाइये बाजी और हो जाइये मालामाल क्योंकि मोदी तो आ ही गये हैं। दीपक पारेख जैसे बैंकिंग सुपर आइकन ऐलान कर रहे हैं कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व में सुधारों के ज्वार से अर्थव्यवस्था बम-बम होगी।
हर-हर महादेव अब हर हर मोदी है। हिंदुत्व तो गया तेल लेने। महादेव किनारे कर दिया गये, मटिया दिये गये तो अटल आडवाणी जोशी जसवंत हरिन की औकात क्या। भागवत जी भागवत पुराण की तरह मोदी पुराण रचने लगे हैं।चित्रकथा में नये ईश्वर अवतरित है और प्राचीन देवदेवी मंडल खारिज है। देव देवी भी अब विज्ञापनी माडल है।
2007 में हमने अपने ब्लाग में लिखा था जो आज उसका चरमोत्कर्ष है।
Monday, September 24, 2007 11:44 PM
Create Icons to Escalate Killingfields!Space is the Next Battlefield।Man made Calamities Play Havoc and Consumer Carnival Continueshttp://breakingnewsstream।blogspot।in/2014/03/create-icons-to-escalate।htmlविज्ञापनी सितारे सीधे अब आपके संसदीय प्रतिनिधि होंगे। इस चुनाव का कुल जमा नतीजा यह है। पार्टीबद्ध सितारों के जलवे को देखते रहिए, चकाचौंध होते रहिये, गला रेंते जाते वक्त जोर का झटका धीरे से लगेगा।मंडल बनाम कमंडल महायुद्ध कुरुक्षेत्र का अंतिम विलाप है। इस शोकगाथा में आत्मधवंसी महाविनाश के बाद विधवाओं और संतानहारी माताओं की यंत्रणा के अथाह सागर के सिवाय कुछ हात नहीं लगेगा। महारथी के रथ के पहिये जमीन में धंस गये हैं। महाभारत और रामायण नये सिरे से रचे जा रहे हैं।प्रक्षेपण प्रक्षेपित समय का सबसे बड़ा सच है।इसके विपरीत, चुनाव सर्वेक्षणों में भाजपा की अनिवार्य जनादेश भविष्यवाणी के विपरीत, रोज-रोज के चूहादौड़ के परिदृश्य में आज रविवारी इकानामिक टाइम्स में साफ-साफ लिख दिया गया है कि भाजपा को बमुश्किल दो सौ सीटें मिल सकती हैं। बाकी बहत्तर कॉरपोरेट इंडिया के सरदर्द का सबब है। वे क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे। पूरे देश में गुजरात माडल के विकास की परिकल्पना को साकार करने में कितना सहयोग करेंगे और कितना अड़ंगा डालेंगे, उनकी चिंता यही है।जिस तरह से संघी और भाजपाई मौलिक पात्रों को दरकिनार करके चित्र विचित्र किस्म के गैरसंघी सांसद भाजपाई टिकट पर चुनकर आयेंगे, हालांकि व्हिप भरोसे उनकी ईमानदारी पर कोई चिंता नहीं जतायी गयी है। मोदी के प्रधानमंत्रित्व पर अभी दो महीने का वक्त बाकी है, अंतिम फैसला आने को। ख्याली पुलाव और गाजर के हलवा का सही वक्त है यह। दिल्ली में तो फलों के साथ साथ सब्जियों का रस भी खूब मिलता है। धूप बस आगे बहुत कड़ी होनी है। लू भी होगी भयानक। एसी गाड़ी से घना-घना चढ़ने उतरने वाले अपनी अपनी सेहत का ख्यल करें। मौसम की मार किस पर कितनी भारी होगी, ऐसी कुंडला बांचने वाला विशेषज्ञों का बाजार भी शायद गर्म हो जाये। हमारे क्रांति दर्शी मित्रों का इस क्षेत्र में भयानक भविष्य है।
कल देर रात हमें अपने भावुक मित्र एचएल दुसाध का फेसबुकिया लेख पढ़कर खूब संतोष हुआ। वे अब तक भाजपा के एजंडा में डायवर्सिटी पंच करने की लड़ाई घनघोर लड़ रहे थे। अब उन्होंने लिखा है कि पारो हो या चंद्रमुखी, कोई फर्क नहीं है यारो। उन्होंने बहुजनों को चेतावनी दी है कि कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है। वैसे वे अकेले बहुजन होंगे शायद, जो ऐसा लिख पा रहे हैं।
अब वामपंथी हाशिये का एक गजब नतीजा निकल रहा है। देश भर में पढ़े लिखे मुसलमान और धर्मस्थलों से राजनीति करने वाले मुसलमान भी भयमुक्त होने के लिहाज से केसरिया बन रहे हैं। दरअसल भय की इतनी बेनजीर अभिव्यक्ति आजाद भारत में कभी देखी नहीं गयी है। धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील मोर्चे का नाकाम होने का यह ज्वलंत प्रमाण है। अस्पृश्यता मुक्त होने की कोशिश में अस्पृश्यता के सबसे बड़े कारोबारी शायद मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए राजा युधिष्ठिर की तरह सियासी शतरंज की बाजी पर अपनी द्रोपदी को दांव पर लगा बैठे हैं। अब इस द्रोपदी का कृष्ण कौन होगा, ओबामा, नेतान्याहु, अंबानी या कोई और, इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा।
लेकिन मित्रों, जो तय हो गया है, वह यह है कि खिचड़ी भाजपा ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व के एजेंडे को अमली जामा पहनाने के लिए हिंदुत्व के एजेंडे को बनारसी के घाट पर गंगा आरती के साथ गंगा में ही विसर्जित कर दिया है। जैसे सत्ता की चाबी खोजने के चक्कर में अंबेडकर अनुयायियों ने अंबेडकर को ही मूर्ति बना दिया, उसी तरह मोदी ही गोवलकर हैं। मोदी ही हेडगेवार। मोदी ही शंकराचार्य और मोदी ही बाबा रामदेव। बीच के सारे लोग मध्यवर्ती हो गये। उन्हें क्या कहा जाये, लिख दें तो मानहानि हो जायेगी। आप ही समझ लें।
वामपंथ के अवसान के बाद अब संघ के अवसान का यह स्वर्णकाल है।
वामपंथ के अवसान पर जो बल्लियों पर लुंगी डांस कर रहे थे, वे तय करें कि अब मोदी की जीत का जश्न वे कैसे मनायेंगे। हमें तो राहत है कि अगर मोदी के प्रधानमंत्रित्व से इस देश को कमंडल से निष्कृति मिल जाये, तो अच्छा ही है। लेकिन मामला इतना आसान नहीं है।
हिंदू राष्ट्र भले ही अब नहीं बने लोकिन जो कारपोरेट अधर्म राज जनसंहारी बनने को तय है, उसका हश्र हिंदू राष्ट्र से भी भयानक होगा। जाहिर है कि उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह।
जाहिर है कि उठो, जमींदोज आम लोगों कब्रिस्तान और श्मशान में मृत आत्माओं का आवाहन करो।
जाहिर है कि उठो, मूक भारत के जनगण, इस खतरे का मुकाबलो करने के लिए गोलबंद हो जाओ तहस नहस हो जाने से पहले।
हो सकता है कि यह आखिरी कुरुक्षेत्र हो और आखिरी महाभारत भी।
शतरंज के खिलाड़ी में सत्यजीत राय ने टाम आल्टर का बखूब इस्तेमाल किया है। हिंदी फिल्मों के दर्शक इन टाम आल्टर से खूब परिचित है। लेकिन निर्देशक के तय दायरे से बाहर उनकी विशुद्ध हिंदुस्तानी जुबान में बुनियादी मसलो को संबोधित करने वाले एक मात्र टीवीशो का फैन हो गया हूं।
चांदनी चौक पर चुनावी चाय की चुस्की लेते हुये उन्हें देखकर कायल हो गया था। आज दोपहर जेएनयू में युवा छात्रों से बतियाते उनके तेवर से घायल भी हो गया हूं।
मुझे खुशी है कि विचारधाराओं के नाम इतनी धोखाधड़ी के बाद जेएनयू के छात्र जिन्हें विचारधारा जुगाली के दरम्यान रोटी की शक्ल के बारे में आकार प्रकार समेत सिलसिलेवार बताना पड़ता था, चुनावी चाय की चुस्की लेते हुये टामभी से रोटी रोजी के सवाल से ही जूझते रहे। उनका लगभग कोरस में कहना था कि रोटी का सवाल बुनियादी है। रोजगार के सवाल बुनियादी है। बेसिक जरुरतों के तमाम सवाल बुनियादी है। वे संबोधित होने ही चाहिए। वे संबोधित हों तो विचारधारा अपने आप साकार होने लगेगी।
वामपंथियों के पंरपरागत गढ़ में वे कह रहे थे जो सवाल वामपंथ को करने थे वे अरविंद केजरीवाल पूछ रहे हैं। इसके साथ ही वे कह रहे थे कि भारतीय जन गण के गुस्से को एकदम कारपोरेट तरीके से मैनेज किया है अरविंद केजरीवाल ने। वे बीस साल के सुधारों पर चर्चा कर रहे थे। चिंता जता रहे थे मुद्दों के हाशिये पर जाने का। लेकिन वे विचारधारा की अनिवार्यता की जुगाली करने से अब बाज आ रहे हैं और चाहते हैं कि मुद्दे फोकस हो और बात रोटी से शुरू हो।
क्या हमारे विद्वत जन इन लड़के लड़कियों की आवाज सुन रहे हैं?
उठो, जमीन से निकलने का वक्त है यह!
साथी सत्यनारायण जी ने इस पोस्टर के साथ लिखा है
हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि ‘देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!’
हम सहमत तो हैं साथी सत्यनारायण जी, लेकिन इंक्लाब के लिए अस्मिताओं में खंडित विखंडित भारतीयबहुसंख्य जनगण को गोलबंद करने की रणनीति भी आपकी ओर से चाहते हैं।
कवि नीलाभ अरसे बाद हमारे टाइम लाइन में दाखिल हुये और लिखा गौरतलब। आज धूमिल की पंक्तियों से बात शुरु करने के बाद उनका लिखा शेयर कर रहा हूं कि जिस लोकगणराज्य की बात हम कर रहे हैं वहां गणतंत्र की मृत्युशय्या का जश्न हम लोग कैसे मनाने लगे हैं।
आज सुबह-सुबह अख़बार उठाया तो बेसाख़्ता ग़ालिब का एक मिसरा याद हो आया –हुये तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों होसुर्ख़ियों में सबसे बड़ी ख़बर यह थी कि नेता लोग धड़ा-धड़ भाजपा में शामिल हो रहे हैं। यानी मोदी की बहार हो-न हो दल-बदलुओं की बहार है। भाजपा सोचती है कि इस तरह वह जनता के सामने अपनी मक़बूलियत साबित कर सकेगी। नेता सोचते हैं कि इस तरह वे अपनी गोटी लाल कर लेंगे। यानी जनता को दोनों ही मूर्ख समझते हैं और सोचते हैं कि इस तरह उनकी चालबाज़ी रंग ले आयेगी।ऐसे में दो ख़याल आये। पहला ख़याल अपने एमए के सहपाठी और पुराने कांग्रेसी जनार्दन द्विवेदी का आया। जनार्दन बरसों पहले 1968-69 में कांग्रेस में शामिल हुआ था और चाहे कांग्रेस जिस भी हाल में रही, उसने कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ा। कांग्रेस और जनार्दन से मतभेदों की बावजूद मैं जनार्दन की इस निष्ठा का एहतराम करता हूं। वह “इश्क़े-बुतां” में उम्र काटने के बाद “आख़िरी वक़्त मुसलमां होने” में यक़ीन नहीं रखता। जनार्दन जैसे लोग कांग्रेस ही नहीं, दूसरे दलों में भी होंगे और हमें उनका भी अभिनन्दन करना चाहिये।दूसरा ख़याल यह आया कि हो-न हो अरविन्द केजरीवाल ही की बात सही होती जान पड़ती है कि जो भी तब्दीली इन चुनावों के सबब से हो, वह साल-दो साल से ज़्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगी। और ऐन मुमकिन है कि फिर चुनाव हों।तब क्या इन दल-बदलुओं की गति उस चमगादड़ जैसी नहीं होगी जो पंचतन्त्र की कथा में पक्षियों और पशुओं की लड़ाई में कभी अपने पंख दिखा कर पक्षियों में शामिल होता था और कभी स्तनपायी होने के नाते पशुओं की तरफ़। और बिल-आख़िर न पक्षियों में जगह पा सका, न पशुओं में। उसकी नियति में उलटा लटकना ही लिखा था।क्या हमारी जनता इन दल-बदलुओं का हश्र वैसा ही नहीं करेगी ?पत्रकार, कलाकार, रंगदार, सिपहसालार, सरमायेदार, इजारेदार, सलाहकार, वफादार, गद्दार, नम्बरदार, हो गए सब सेवादार, करके जय-जयकार।।।क्या महंगाई-दंगाई दोनों की सरकार इस बार?
मोहन क्षोत्रिय जी के इशारे पर गौर करें कि कैसे अंध राष्ट्रवादी सुनामी रचने का बिंब संयोजन गढ़ा जा रही है किंवदंतियों के कारखानों में।
#किंवदंतियां बन रही हैं, प्रसारित की जा रही हैं।।।… कि बड़ा मगरमच्छ बचपन में छोटे मगरमच्छों के साथ खेला करता था।खेलता रहा होगा, भाई ! अपन किस आधार पर खंडन करें? कर ही नहीं सकते ! ठीक है न?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें