बुधवार, 30 अप्रैल 2014

क्षमा मित्रों… मैंने “नोटा” दबाया

अभिरंजन कुमार
सस्ती, फूहड़, सतही, घटिया, घिनौनी, वंशवादी, जातिवादी, सांप्रदायिक, ध्रुवीकरण वाली, समाज को बांटने वाली, गुमराह करने वाली, मुद्दों से भटकाने वाली, धनबल और बाहुबल के असर वाली, दोगली, भ्रष्ट, प्रतिगामी राजनीति के विरोध में मैंने “नोटा” दबाया।
इस चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल और उम्मीदवार ने मुझे प्रभावित नहीं किया। मुझे बेहद दुख और अफ़सोस के साथ दर्ज कराना पड़ रहा है कि इस चुनाव में राजनीति मुझे बीमार, कुंठित, अवसादग्रस्त और अब तक के निम्नतम स्तर पर दिखी। ज़्यादातर नेताओं के बारे में मेरी राय यह बनी कि उन्हें संसद में नहीं, बल्कि जनता के ख़र्च पर किसी अच्छे सर्वसुविधा-संपन्न उच्च टेक्नोलॉजी-युक्त अस्पताल में भेजा जाना चाहिए।
मैंने “नोटा” दबाया… देश के तमाम राजनीतिक दलोंनेताओं और उम्मीदवारों की उपरोक्त किस्म की राजनीति के ख़िलाफ़ अपना विरोध जताने के लिए।
मैंने “नोटा” दबाया… भारत के सुप्रीम कोर्ट के प्रति अपना सम्मान जताने के लिए, जिसने पिछले कुछ समय में अपनी छोटी-छोटी कोशिशों के ज़रिए ही सही, राजनीति को साफ़ करने की देश की जनता की बेचैनी को प्रतीकात्मक शक्ल देने की कोशिश की है।
मैंने “नोटा” दबाया… उन छोटे-छोटे आंदोलनों को अपनी “श्रद्धांजलि” देने के लिएजो चंद महत्वाकांक्षीस्वार्थलोलुपधोखेबाज़नौटंकीबाज़ लोगों की वजह से रास्ता भटककर अकाल-मृत्यु को शिकार हो गए।
और सबसे बड़ी बात यह कि मैंने “नोटा” दबाया… यह दर्ज कराने के लिए कि मुझे अपने बेगूसराय में, अपने बिहार में, अपने देश में… बेहतर राजनीति, बेहतर उम्मीदवार और बेहतर माहौल चाहिए। किसी ग़लत को चुनने और ग़लत किस्म की राजनीति को आगे बढ़ाने में कम से कम मैं भागीदार नहीं बन सकता, इसलिए मैंने “नोटा” दबाया।
जय बेगूसराय। जय बिहार। जय भारत।
जय हिन्दू। जय मुसलमान। जय सिख। जय ईसाई।
जय बहन। जय भाई।
जय बच्चे। जय बूढ़े। जय नौजवान।
जय अगड़े। जय पिछड़े। जय दलित। जय आदिवासी। जय मज़दूर। जय किसान।
जब सभी की जय होगी
तभी विजयी होगा हमारा हिन्दुस्तान।
About The Authorअभिरंजन कुमारलेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं, आर्यन टीवी में कार्यकारी संपादक रहे हैं।

बनारस में मोदी के लिये संघ परिवार उतरा मैदान में


मोदी के लिये विहिप के 30 हजार कार्यकर्ता बनारस की खांक छान रहे हैं

नरेन्द्र मोदी के लिये विश्व हिन्दू परिषद के प्रवीण तोगडिया को चाहे आरएसएस ने खामोश कर दिया हो लेकिन बनारस का सच यही है कि नरेन्द्र मोदी के लिये बनारस शहर ही नहीं बल्कि जिले की हर गली में विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता ही घूम रहे हैं। और खास बात यह है कि अय़ोध्या आंदोलन के दौर में विहिप के जिस नेता ने 6 दिसंबर 1992 को लेकर समूची रणनीति बनायी थी, विहिप के वही नेता बनारस में मोदी के जीत का मंत्र भी फूंक रहे हैं। मोदी की जीत के लिये व्यूह रचना बनाते विहिप के अंतराष्ट्रीय महामंत्री चंपत राय लगातार विहिप के सैकड़ों कार्यकर्ताओं को अयोध्या आंदोलन के दौर से इतर जाति और मजहब से इतर कैसे चुनावी जीत साधी जा सकती है, इसकी बिसात बिछा रहे है । जिस तरह की बिसात विहिप बनारस में बना रहा है, उसने पहली बार इसके संकेत दे दिये हैं कि किसी भी राजनीतिक दल से कई कदम आगे चलते हुये किसी भी सामाजिक संगठन का राजनीतिक प्रयोग कैसे किया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि विहिप के लिये 2014 गोल्डन जुबली का साल है और जन्माष्टमी के दिन अपनी स्वर्णजंयती मनाने से पहले विहिप ने राजनीतिक तौर पर जिस तरह की व्यूह रचना समूचे बनारस में बिछा दी है, उसके बाद मोदी हर-हर या घर-घर पहुंचे या ना पहुंचे लेकिन हर वोटर के घर विहिप राजनीतिक दस्तक देकर यह एहसास करा रहा है कि पहली बार जातीय समीकरण भी टूट रहे हैं और मजहब के नाम पर सियासत भी खत्म हो रही है क्योंकि संघ परिवार का सामाजिक बराबरी का चिंतन लेकर मोदी बनारस से चुनाव जीत कर पीएम बनने जा रहे हैं।

बनारस के लिये विहिप की चुनावी व्यूह रचना प्रखंड से पूर्वा तक की है। यानी करीब 30 हजार से ज्यादा विहिप से जुड़े लोग बनारस के सबसे छोटे गांव यानी पूर्वा तक पहुंचेंगे, जहां ना बिजली पहुंची है और ना ही सड़क यानी विकास की कोई धारा जगा नहीं पहुंची है, वहां मोदी के लिये विहिप वोट के लिये दस्तक दे रहा है। दरअसल बनारस लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की पांच सीटे हैं। हर विधानसभा क्षेत्र में विहिप के दस प्रखंड काम कर रहे हैं। यानी कुल 50 प्रखंड । हर प्रखंड के अंदर दस खंड काम करते हैं। यानी पांच सौ खंड और हर खंड में दस न्याय पंचायत है यानी पांच हजार पंचायत और हर न्याय पंचायत में दो से पांच ग्राम सभा है। यानी औसत करीब पन्द्रह हजार ग्राम सभा और हर ग्राम सभा में 2 से 10 छोटे गांव यानी पूर्वा हैं। यानी पचास हजार से ज्यादा छोटे बड़े गांव तक में विहिप की दस्तक 5 से 10 मई के दौरान हो जायेगी।

दरअसल संघ का यह अपने का नायाब राजनीतिक प्रयोग है जिसे विहिप के कार्यकर्ता मोदी के पीएम पद के उम्मीदवार बनते ही अमली जामा पहनाने में लगा गये। बनारस में बीजेपी को सिर्फ यही काम सौपा गया है कि वह एक बूथ,दस यूथ के तहत काम करे। यानी हर बूथ पर दस युवा कैसे मौजूद रहेंगे, उसके लिये अपनी राजनीतिक इकाई को संघ ने लगा दिया है। आरएसएस के स्वयंसेवक एक पन्ना,एक स्वयंसेवक के तहत काम कर रहे है। यानी वोटर लिस्ट के हर एक पन्ने को हर एक स्वयंसेवक ने संभाला है। जिसमें हर वोटर को लेकर समूची जानकारी हासिल करने में स्वयंसेवक लगे हुये हैं। वही विहिप का काम बनारस में सबसे विस्तृत और सबसे जटिल है। दिल्ली से बनारस के लिये विशेष रुप से भेजे गये राजीव गुप्ता के मुताबिक 20 अप्रैल तक विहिप ने पहला लक्ष्य पा लिया। यानी 50 प्रखंड और 500 खंड में काम पूरा हो चुका है। पांच हजार न्याय पंचायतों में से तीन हजार पंचायत भी कवर हो चुकी हैं, जो पांच अप्रैल तक पूरी हो जायेगी। आखिरी चरण में 5 मई से 10 मई तक विहिप का कार्यकर्ता हर गांव के हर दरवाजे पर दस्तक दे चुका होगा।

दरअसल, बनारस को संघ परिवार ने अगर विहिप के जरीय चुनावी प्रयोगशाला बनाया है तो विहिप के पचास वर्ष के उत्सव की तैयारी के लिये भी संघ इसी प्रयोगशाला के दायरे में उन्हीं मुद्दो को राजनीतिक तौर पर मथ रहा है, जिसे वाजपेयी सरकार के दौर में हाशिये पर रख दिया गया था। बेहद महीन तरीके से मोदी की चुनावी जीत की बिछती बिसात पर राजनीतिक तौर पर सक्रिय वोटरो के सामने संघ परिवार अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और धारा 370 के साथ कश्मीरी पंडितों का सवाल भी उछालने में लगे हैं। विहिप के चंपत राय अगर मोदी की जीत के साथ हिन्दूस्तान की उस परिकल्पना को विहिप कार्यकर्ताओं के सामने परोस रहे है जिसके आसरे आरएसएस के सामाजिक शुद्दीकरण राजनीतिक शुद्दीकरण में बदल जाये तो काशी प्रांत के संगठन मंत्री मनोज श्रीवास्तव का मंत्र अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और धारा 370 को खत्म कर कश्मीरी से भगाये गये पंडितों की वापसी के मौके के तौर पर मोदी के जीत को अंजाम देने में लग गये हैं। यानी पहली बार संघ परिवार चुनाव के मौके को अपने एजेंडे में राजनीतिक तौर पर ढालने की तैयारी भी कर रही है और उसे लगने भी लगा है कि नरेन्द्र मोदी के नाम पर सक्रिय हुई राजनीति का लाभ संघ को मिलेगा। इसलिये बनारस के पन्नालाल मार्ग पर बने केसर भवन में मोदी की चुनावी जीत की बिसात पर यह नारे लगने लगे है कि "अयोध्या में राम मंदिर सुनिश्चित है । धारा 370 का खात्मा होगा । आतंकवाद और नक्सलवाद अपने चरम पर है। देश की सीमाएँ असुरक्षित है । सीमा पर हमारे जांबाज़ जवानों के सिर काट दिया जाता है। आए दिन चीन द्वारा भारत के अन्दर कई किलोमीटर तक घुसपैठ करता है। करोडों बांग्लादेशी हमारे देश में घुसपैठ करते हैं। परंतु हमारी केन्द्र की लचर सरकार चुपचाप इस प्रकार के सभी अपमान सहती रहती है इसलिए भारत के नौजवानों ने देश में परिवर्तन लाने के लिए मन बना लिया है । इसलिए जातिवादी और मजहब की राजनीति करने वालों की दुकानें इस लोकसभा चुनाव में बन्द हो चुकी हैं। "

तो पहली बार आरएसएस की विचारधारा संघ परिवार की राजनीतिक बिसात पर प्यादा है । और संघ का चुनावी प्रयोग सफल हुआ तो प्यादा बने विचार को वजीर के तौर पर उभरना है। और संघ के लिये यह प्रयोगशाला इसलिये उसकी अपनी है क्योकि विकास पुरष नरेन्द्र मोदी काशी में उमडे जमसैलाब से ही लबालब है। जहां विकास की कोई धारा पहुंची नहीं उन गलियों में मोदी या बीजेपी नहीं बल्कि विहिप के नौजवान धूल फांक रहे हैं और आरएसएस की ताकत यही है जिसके आगे मोदी भी नतमस्तक हैं।

पुण्य प्रसून बाजपेयी


सोमवार, 7 अप्रैल 2014

भटकते राहुल गांधी क्या खोज रहे हैं

Posted: 12 Mar 2014 08:36 AM PDT
देश के हर रंग को साथ जोड़कर ही कांग्रेस बनी थी और आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को कांग्रेस को गढ़ने के लिये देश के हर रंग के पास जाना पड़ रहा है। दिल्ली में कुलियों के बीच। झारखंड में आदिवासियों के बीच,बनारस में रिक्शा, खोमचे वालों के साथ तो गुजरात में नमक बनाने वालों के बीच। और संयोग देखिये कि 1930 में जिस नमक सत्याग्रह को महात्मा गांधी ने शुरु किया उसके 84 बरस बाद जब राहुल गांधी ने नमक से आजादी का सवाल टटोला तो नमक की गुलामी की त्रासदी ही गुजरात के सुरेन्द्रनगर में हर मजदूर ने जतला दी। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी के दौर में नमक बनाने वालों का दर्द वहीं है जो महात्मा गांधी के दौर में था। अंतर सिर्फ इतना है कि महात्मा गांधी के वक्त संघर्ष अंग्रेजों की सत्ता से थी और राहुल गांधी के वक्त में हक की गुहार केन्द्र और राज्य सरकार से की जा रही है। तो हर किसी के जहन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या देश के सामाजिक आर्थिक हालातों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। तो जरा हालात को परखें और नरेन्द्र मोदी के राज्य में राहुल गांधी की राजनीतिक बिसात पर प्यादे बनते वोटरों के दर्द को समझें कि कैसे संसदीय राजनीति के लोकतंत्र तले नागरिकों को वोटर से आगे देखा नहीं जाता और आर्थिक नीतियां हर दौर में सिर्फ और सिर्फ देश के दो फीसदी के लिये बनती रही। 

इतना ही नहीं पहले एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी अब कंपनियों की भरमार है और नागरिकों के पेट पीठ से सटे जा रहे हैं। तो पहले बात नमक के मजदूरो की ही। जहां नमक का दारोगा बनकर राहुल गांधी गुजरात पहुंचे थे। गुजरात में एक किलोग्राम नमक बनाने पर मजदूरों को दस पैसा मिलता है। सीधे समझे तो बाजार में 15 से 20 रुपये प्रति किलो नमक हो तो मजदूरों को 10 पैसे मिलते हैं। इतना ही नहीं जब से आयोडिन नमक बाजार में आना शुरु हुआ है और नमक का धंधा निजी कंपनियों के हवाले कर दिया गया है उसके बाद से नमक बनाने का समूचा काम ही ठेके पर होता है। चूंकि चंद कंपनियों का वरहस्त नमक बनाने पर है तो ठेके के नीचे सब-ठेके भी बन चुके है लेकिन बीते दस बरस में मजदूरो को कंपनियो के जरिए दिये जाने वाली रकम में दो पैसे की ही बढोतरी हुई है। यानी 8 पैसे प्रति किलो से 10 पैसे प्रति किलो। लेकिन काम ठेके और सब ठेके पर हो रहा है तो मजदूरो तक यह रकम 4 से 6 पैसे प्रति किलोग्राम नमक बनाने की ही मिल रही है। 

वैसे महात्मा गांधी ने जब नमक सत्याग्रह शुरु किया था तो साबरमती से दांडी तक की यात्रा के दौरान गांधी ने अक्सर नमक बनाने के दौरान मजदरो के शरीर पर पडते बुरे असर की तरफ सभी का ध्यान खींचा था। खासकर हाथ और पैर गलाने वाले हालात। इसके साथ ही नमक बनाने के काम से बच्चे ना जुडे इस पर महात्मा गांधी ने खासतौर से जोर दिया था। लेकिन किसे पता था कि महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के ठीक 84 बरस बाद जब राहुल गांधी नमक बनाने वालो के बीच पहुंचेंगे तो वहां बच्चे ही जानकारी देंगे कि उनकी पढ़ाई सीजन में होती है। यानी जिस वक्त बरसात होती है उसी दौर में नमक बनाने वालों के बच्चे स्कूल जाते हैं। यानी नमक बनाने में जिन्दगी बच्चे भी गला रहे हैं और राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी दोनों को यह सच अंदर से हिलाता नहीं है।

दरअसल, संकट मोदी या राहुल गांधी भर का नहीं है। या फिर कांग्रेस या बीजेपी भर का भी नहीं है। संकट तो उन नीतियों का है, जिसे कांग्रेस ट्रैक वन मानती है सत्ता में आने के बाद बीजेपी ट्रैक-टू कहकर अपना लेती है। फिर भी डा मनमोहन सिंह के दौर की आर्थिक नीतियों तले राहुल गांधी की जन से जुड़ने की यात्रा को समझे तो देश की त्रासदी कही ज्यादा वीभत्स होकर उभरती है। जिन आर्थिक नीतियों के आसरे देश चल रहा है, असर उसी का कि बीते दशक में 40 लाख से ज्यादा आदिवासी परिवारों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी। 2 करोड़ ग्रामीण परिवारों का पलायन मजदूरी के लिये किसानी छोड़कर शहर में हो गया। ऐसे में झरखंड के आदिवासी हो या बनारस के रिक्शा-खोमचे वाले। इनके बीच राहुल गांधी क्या समझने जाते हैं। इनका दर्द इनकी त्रासदी तो फिर मौजूदा वक्त में देश के शहरो में तीन करोड से ज्यादा रिक्शावाले और खोमचे वाले हैं। जिनकी जिन्दगी 1991 से पहले गांव से जुड़ी थी। खेती जीने का बड़ा आधार था। लेकिन बीते दो दशक में देश की नौ फीसदी खेती की जमीन को निर्माण या परियोजनाओं के हवाले कर दिया गया। जिसकी वजह से दो करोड़ से ज्यादा ग्रामीण झटके में शहरी मजदूर बन गये। ध्यान दें तो राहुल गांधी गुजरात जाकर या झारखंड जाकर किसान या आदिवासियों को रोजगार का विकल्प देने की बीत जिस तरह करते हैं, उसके सामानांतर मोदी भी गुजरात का विकास मॉडल खेती खत्म कर जमीन खोने वाले लोगों को रोजगार का लॉलीपाप थमा कर बता रहे हैं। कोई भी कह सकता है कि अगर रोजगार मिल रहा है तो फिर किसानी छोड़ने में घाटा क्या है। तो देश के आंकडों को समझें। जिन दो करोड़ किसानों को बीते दस बरस में किसानी छोड़कर रोजगार पाये हुये थे, मौजूदा वक्त में उनकी कमाई में डेढ सौ फीसदी तक की गिरावट आयी। रोजगार दिहाड़ी पर टिका। मुआवजे की रकम खत्म हो गयी। 

कमोवेश 80 फीसदी किसान, जिन्होंने किसानी छोड शहरों में रोजगार शुरु किया उनकी औसत आय 2004 में 22 हजार रुपये सालाना थी। वह 2014 में घटकर 18 हजार सालाना हो गयी। यानी प्रति दिन 50 रुपये। जबकि उसी दौर में मनरेगा के तहत बांटा जाने वाला काम सौ से 120 रुपये प्रतिदिन का हो गया। और इन्ही परिस्थितियों का दर्द जानने के लिये राहुल गांधी शहर दर शहर भटक रहे हैं। और देश के हर रंग को समझने के सियासी रंग में वही त्रासदी दरकिनार हो गयी है, जिसने देश के करीब बीस करोड लोगों को दिहाड़ी पर जिन्दगी चलाने को मजबूर कर दिया है। और दिहाडी की त्रासदी यही है कि ईस्ट इडिया कंपनी के तर्ज पर देसी कंपनियां काम करने लगी हैं। और नमक के टीलों के बीच नमक बनाने वाले मजदूर भी हाथ गला कर सिर्फ पेट भरने भर ही कमा पाते हैं। तो 12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी साबरमती के आश्रम से नमक सत्याग्रह के लिये थे तो अंग्रेजों का कानून टूटा और 11 मार्च 2014 में जब राहुल गांधी गुजरात के सुरेन्द्रनगर पहुंचे तो कांग्रेस के चुनावी मैनिफेस्टो में एक पैरा नमक के दारोगा के नाम पर जुड़ गया। तो सियासत के इस सच को जानना त्रासदी है या इस त्रासदी को विस्तार देना सियासत हो चला है। और संयोग यही है कि 2014 का चुनाव इसी दर्द और त्रासदी को समेटे हुये हैं। जिसमें हम आप दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का तमगा बरकरार रखने के लिये महज वोटर हैं।

‘कॉरपोरेट’ खेल था ‘महादेव’ की जगह ‘मोदी’

अयोध्या को तो भाजपा ने लावारिस छोड़ दिया और अब काशी तरफ कूच कर दिया

मोदी खुद बनारस से ठीक से जीत जाएं तो वही बड़ी बात होगी

अंबरीश कुमार
वाराणसी। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार महादेव की नगरी में हर हर महादेव के उद्घोष से मुकाबला करने चले थे पर पहले ही धराशाई हो गए। कॉरपोरेट प्रचार के तौर तरीकों में कपड़े से लेकर हाव-भाव और नारे तक विज्ञापन एजेंसियां गढ़ती है, यह सबको पता है। हर हर मोदी के नारे पर संघ और भाजपा अब भले सफाई दे कि यह भक्तों का गढ़ा है, यह कोई कम से कम यहाँ पर मानने को तैयार नहीं है।
गुजरात में जो दो बड़े प्रमुख तीर्थ स्थान हैं उनमें एक द्वारिका है जहाँ का आम संबोधन है ‘जय द्वारिकाधीश‘ और ‘जय सोमनाथ‘ से सभी परिचित है। आज तक मोदी के इस राज्य में यह संबोधन और नारा नहीं बदला तो बनारस में मोदी को महादेव के मुकाबले कैसे खड़ा कर दिया गया। जानकार इसे कॉरपोरेट घराने की एक विज्ञापन एजेंसी का खेल बता रहे हैं।
हर हर मोदी घर घर घर मोदी भी इसी तर्ज पर गढ़ा गया। इस पर साधू संत नाराज हुए तो संघ परिवार सक्रिय हुआ। ‘हर हर महादेव’ की तर्ज पर नए नारे ‘हर हर मोदी’ पर द्वारिका और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने खासा ऐतराज जताया है। उन्होंने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत से बात की। उन्होंने इसे भगवान् का अपमान बताया। उन्होंने कहा कि यह नारा हर-हर महादेव और हर-हर गंगे के लिए लगाया जाता है। किसी व्यक्ति विशेष से नारा जोड़ने पर लोगों की धार्मिक आस्था आहत हो रही हैं। वाराणसी एक प्राचीन धार्मिक नगरी है और लोगों की आस्था को भुनाने के लिए विज्ञापन एजेंसियां कुछ भी कर सकती है यह ‘हर हर मोदी’ के नारे से साफ़ है।
बनारस में एक नहीं कई मदिर और मठ के महंत इस नारे से आहत हैं। उनका यह भी कहना है कि भाजपा और संघ इसे लेकर गुमराह कर रहे हैं। कोई भी आस्तिक हिंदू महादेव कि जगह किसी भी नेता को नहीं बैठा सकता और ना ही ऐसा नारा गढ़ सकता है। यह सब मोदी के प्रबंधको का प्रपंच है
जब से मोदी के प्रबंधक बनारस में जमे हैं तभी से यह सब हो रहा है। पहली बार यह नारा मोदी की जनसभा में लगवाया गया था। गौरतलब है कि मंदिर आन्दोलन के दौर में भी जब आडवाणी शिखर पर थे तब भी उन्हें श्रीराम के बराबर किसी ने नहीं बैठाया। अयोध्या में कभी भाजपा के किसी नेता के लिए इस तरह का कोई नारा नही गढ़ा गया। एक नारा तब चला था ‘अयोध्या तो झांकी है – मथुरा काशी बाकी है।’ अयोध्या को तो भाजपा ने लावारिस छोड़ दिया है और अब काशी तरफ कूच कर दिया गया है। शुरुआत हर हर महादेव की जगह हर हर मोदी से कर उनके प्रबंधकों ने आगाज कर दिया था। इसी से आगे की राजनीति का भी संकेत मिल रहा था।
वैसे भी अयोध्या से जो खबरें आ रही हैं उसके मुताबिक भाजपा वहां मोदी लहर में पिछड़ गई है और फिलहाल मुकाबले से भी बाहर नजर आ रही है। पत्रकार त्रियुग नारायण तिवारी के मुताबिक भाजपा तीसर नंबर पर थी और इसमें बदलाव की कोई गुंजाइश फिलहाल दिख नहीं रही है। अब काशी की बात हो जाए। यहाँ बाहर से माहौल भाजपा के पक्ष में दिख रहा है क्योंकि अभी किसी और दल ने ढंग से मोर्चा भी नहीं खोला है। दूसरे प्रचार और दुष्प्रचार दोनों में संघ माहिर है। इसी प्रचार के चलते प्रबंधकों ने महादेव का नारा चुरा लिया गया था जो अब भारी पड़ रहा है। अब भगवान् से मुक्त हुए तो ठोस जमीनी राजनीति पर मोदी को मुकाबला करना है जो बहुत आसान नहीं है। जोशी काफी कुछ राजनैतिक उधार विरासत में छोड़ गए है। दूसरे पंद्रह दिन में ही मोदी ने भाजपा को जिस हालत में पहुंचा दिया है उससे जो शुरुआती लहर बनी थी वह ढहती जा रही है। पूर्वांचल की कई सीटों पर फिर जाति का समीकरण देखा जा रहा है। ऐसे मेंमोदी खुद बनारस से ठीक से जीत जाएं तो वही बड़ी बात होगी। आसपास की सीटों पर कोई ज्यादा असर पड़ता नजर नहीं आ रहा है।
जनादेश न्यूज़ नेटवर्क

प्रजातंत्र को कुचलने में यकीन रखता है फासीवाद

क्रूर है फासीवादफासीवाद के लक्षण
-राम पुनियानी
फासीवाद, जो यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जन्मा, के द्वारा मानवता को दिए गए त्रास को हमारी दुनिया आज तक नहीं भुला सकी है। फासीवाद क्रूर थावह प्रजातंत्र को कुचलने में यकीन रखता था, वह अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता था, वह राष्ट्र की शक्ति को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता था, वह अति-राष्ट्रवादी था, वह अपने नेता को ‘मजबूत’ नेता के रूप में प्रचारित करता था और उसके आसपास एक आभामंडल का निर्माण करता था। उस दौर में जो कुछ घटा, उसे हम आज तक भुला नहीं पाए हैं और हम नहीं चाहते कि हमारी दुनिया को उस दौर से फिर कभी गुजरना पड़े। तभी से ये दो शब्द-फासिज्म और हिटलर-हमारी दैनिक शब्दावली का हिस्सा बन गए। ये हमें उस तानाशाहीपूर्ण शासन और उस क्रूर तानाशाह की याद दिलाते हैं। कई बार इन शब्दों को किसी भी तानाशाहीपूर्ण शासन या अपनी मनमानी करने वाले किसी भी व्यक्ति या नेता के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इस राजनैतिक परिघटना के लक्षण बहुत विशिष्ट हैं और किसी व्यक्ति या शासन व्यवस्था पर हिटलर या फासीवादी का लेबल चस्पा करने से पहले हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।
इस मुद्दे पर बहस एक बार फिर इसलिए शुरू हुई है क्योंकि राहुल गांधी ने इशारों में यह कहा कि नरेन्द्र मोदी, हिटलर की तरह हैं। पलटवार करते हुए भाजपा के अरूण जेटली ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद के भारत के सिर्फ एक नेता की तुलना हिटलर से की जा सकती है और वे हैं इंदिरा गांधी, जिन्होंने देश में आपातकाल लगाया, अपने राजनैतिक विरोधियों को जेलों में ठूस दिया और प्रजातांत्रिक स्वतंत्रताओं को समाप्त कर दिया। यह सही है कि इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था। यह एक निंदनीय कदम था। यह भी सही है कि उनके आसपास के कुछ लोगों का व्यवहार तानाशाहीपूर्ण था। परंतु क्या वह फासिस्ट शासन था? क्या इंदिरा गांधी की तुलना हिटलर से की जा सकती है? कतई नहीं। हमें यह समझना होगा कि तानाशाही और एकाधिकारवादी शासन व्यवस्था के कई स्वरूप होते हैं। कई देशों में आज भी फौजी शासन है और कई में राजा-महाराजा सत्ता में हैं। परंतु फासिज्म इन सबसे बिलकुल अलग है।
यूरोप के लगभग सभी फासीवादी, प्रजातांत्रिक रास्ते से सत्ता में आए। उसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे प्रजातंत्र का अंत कर दिया और तानाशाह बन बैठे। उन्होंने स्वयं को देश के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत किया और अपने देश की सीमाओं का विस्तार करने की कोशिश इस बहाने से की कि उनके पड़ोसी देश, कभी न कभी उनके देश का हिस्सा थे। फासीवाद के दो अन्य मुख्य पारिभाषिक लक्षण यह हैं कि फासीवादी शासकों को उद्योगपतियों का पूर्ण समर्थन हासिल रहता है और इसके बदले उन्हें राज्य हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराता है। दूसरे, फासीवादी शासक दुष्प्रचार और अन्य माध्यमों से अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हैं। उन्हें राष्ट्रविरोधी और देश के लिए खतरा बताया जाता है। देश की सारी समस्याओं के लिए अल्पसंख्यकों को दोषी ठहराया जाता है। इसके बाद शुरू होता है अल्पसंख्यकों का कत्लेआम, जिसे समाज के बड़े वर्ग का मूक और कब जब मुखर समर्थन प्राप्त रहता है। यह फासीवाद साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद पर आधारित होता है, जिसे नस्ल या धर्म के आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया जाता है (हिटलर ने इसके लिए नस्ल का उपयोग किया था)।
विदेशी शासन से मुक्त हुए देशों में समाज के सामंती वर्गों की विचारधारा को मध्यम वर्ग व उच्च जातियों द्वारा अपना लिए जाने से फासीवाद से मिलती-जुलती ताकतें उभरती हैं। यही लक्षण राजनैतिक कट्टरवाद के भी हैं, जहां पूरे समाज पर धर्म की संकीर्ण व्याख्या लाद दी जाती है और जो लोग उससे सहमत नहीं होते, उनके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया जाता है। कई इस्लामिक देशों में इस तरह का कट्टरवाद है। भारत में भी इस्लाम के नाम पर कुछ कट्टरवादी-फासीवादी ताकतों का उदय हुआ है और वे धर्म के नाम पर राजनीति कर रही हैं। भारत में धर्म के नाम पर राजनीति के फासीवाद में बदल जाने का खतरा है। नेहरू इस आशंका से अच्छी तरह वाकिफ थे। उनके द्वारा दी गई चेतावनी आज भी एकदम उपयुक्त जान पड़ती है। उनके अनुसार, मुस्लिम साम्प्रदायिकता उतनी ही खराब है जितनी कि हिन्दू साम्प्रदायिकता। यह भी हो सकता है कि मुसलमानों में साम्प्रदायिकता की भावना हिन्दुओं की तुलना में कहीं अधिक हो। ‘‘…परंतु मुस्लिम साम्प्रदायिकता, भारतीय पर प्रभुत्व जमाकर यहां फासीवाद नहीं ला सकती। यह केवल हिन्दू साम्प्रदायिकता कर सकती है’’ (फ्रंट लाईन १ जनवरी १९९३ में उद्धृत)।
भारत में फासीवाद-कट्टरतावाद का बीज पड़ा सन् १८८० के दशक में हिंदू और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के साथ। मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति ने अलग राह पकड़ ली और उसने पाकिस्तान की जनता को असंख्य दुःख दिए। भारत पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति भी साथ में ही उभरी परंतु उसने फासीवादी रंग अख्तियार कर लिया। इस फासीवाद की रूपरेखा आरएसएस के प्रमुख विचारक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘व्ही ऑर अवर नेशनहुड’ में प्रस्तुत की। इस पुस्तक में जर्मनी के नाजी फासीवाद से बहुत कुछ लिया गया है और नाजीवाद के सिद्धांतों की जमकर प्रशंसा की गई है। यह पुस्तक नस्लीय गर्व को उचित ठहराती है और ‘दूसरे’ (इस मामले में गैर-हिन्दू) से निपटने में क्रूर तरीकों के इस्तेमाल की वकालत करती है। पुस्तक, हिन्दू संस्कृति को राष्ट्रीय संस्कृति के रूप में स्वीकार करने की वकालत करती है और आमजनों का आह्वान करती है कि वे हिन्दू नस्ल और हिन्दू राष्ट्र का महिमामंडन करें, ‘अन्यों’ को हिन्दुओं के अधीन मानें और ‘अन्यों’ के नागरिक अधिकारों को सीमित करें, जैसा कि जर्मन फासीवादियों ने हिटलर के नेतृत्व में यहूदियों के साथ किया था। इसकी प्रशंसा करते हुए गोलवलकर लिखते हैं, ‘‘…अपने राष्ट्र और संस्कृति की शुचिता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने अपने देश को यहूदी नस्ल से मुक्त कर दिया। यह राष्ट्रीय गौरव का शानदार प्रकटिकरण था। जर्मनी ने यह भी दिखाया कि किस तरह ऐसी नस्लों या संस्कृतियों, जिनमें गहरे तक अंतर हैं, को कभी एक नहीं किया जा सकता। इससे हिंदुस्तान को सीखना और लाभ उठाना चाहिए’’ (व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाईन्ड, पृष्ठ २७, नागपुर १९३८)।
फासिज्म के मूल में है एक ऐसी सामूहिक-सामाजिक सोच का निर्माण, जिसके निशाने पर ‘दूसरा’ समुदाय हो। यही १९८४ की भयावह सिक्ख-विरोधी हिंसा को मुस्लिम-विरोधी व ईसाई-विरोधी हिंसा से अलग करता है। मुसलमानों और ईसाईयों का जानते-बूझते दानवीकरण कर दिया गया है और उन्हें सामान्यजनों की सोच में ‘दूसरा’ बना दिया गया है। यही कारण है कि उनके खिलाफ नियमित तौर पर होने वाली हिंसा को समाज की मौन स्वीकृति प्राप्त रहती है।
आरएसएस की विचारधारा, फासीवाद का भारतीय संस्करण है। इसकी नींव में हैं अतिराष्ट्रवाद, ‘दूसरे’ (मुसलमान व ईसाई) व अखण्ड भारत की परिकल्पना और भारतीय राष्ट्रवाद की जगह हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रति वफादारी। महात्मा गांधी ने आरएसएस के इन लक्षणों को बहुत पहले ताड़ लिया था। उन्होंने संघ को ‘‘एकाधिकारवादी दृष्टिकोण वाला साम्प्रदायिक संगठन’’ बताया था। मोदी के उदय के पहले तक हम सब को यह लगता था कि आरएसएस का आंदोलन फासीवादी इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि उसके पास कोई चमत्कारिक नेता नहीं है। फासीवाद एक चमत्कारिक नेता के बिना नहीं पनप सकता। सन् २००२ के बाद से मोदी एक ऐसे चमत्कारिक नेता के रूप में उभरे हैं और उन्हें चमत्कारिक नेता का स्वरूप देने के लिए हर संभव प्रयास किया गया है। मोदी की फासीवादी सोच, गंभीर अध्येताओं और समाज विज्ञानियों से तब भी नहीं छुपी थी जब वे बड़े नेता नहीं थे। गुजरात कत्लेआम के बहुत पहले, आशीष नंदी ने लिखा था, ‘‘एक दशक से भी ज्यादा पहले, जब मोदी आरएसएस के छोटे-मोटे प्रचारक थे व बीजेपी में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयासरत थे, उस समय मुझे उनका साक्षात्कार लेने का मौका मिला…उनसे मुलाकात के बाद मेरे मन में कोई संदेह नहीं रह गया कि वे एक विषुद्ध फासीवादी हैं। मैं ‘फासीवाद’ शब्द को गाली की तरह प्रयुक्त नहीं करता। मेरी दृष्टि में वह एक बीमारी है, जिसमें संबंधित व्यक्ति की विचारधारा के अलावा उसके व्यक्तित्व और उसके प्रेरणास्त्रोतों की भी भूमिका होती है। वे (मोदी) अति शुद्धतावादी हैं, उनके मन में भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है और वे हिंसा में विश्वास करते हैं-वे जुनूनी और अर्द्धविक्षिप्त हैं। मुझे अभी भी याद है कि उन्होंने किस तरह बड़ी नपीतुली भाषा में यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि भारत के विरूद्ध सारी दुनिया षडयंत्र कर रही है और किस तरह हर मुसलमान देशद्रोही और संभावित आतंकवादी है। इस साक्षात्कार ने मुझे अंदर तक हिला दिया और इसके बाद मैंने याज्ञनिक से कहा कि अपने जीवन में पहली बार मैं ऐसे व्यक्ति से मिला हूं जो पुस्तकों में दी गई फासीवादी की परिभाषा पर एकदम फिट बैठता है। ये संभावित हत्यारा है। बल्कि ये भविष्य में कत्लेआम भी कर सकता है।’’
इसी तरह, जब अप्रैल २०१० में जर्मनी का एक प्रतिनिधिमण्डल गुजरात की यात्रा पर आया तो उसके एक सदस्य ने कहा कि उसे यह देखकर बहुत धक्का लगा कि हिटलर के अधीन जर्मनी और गुजरात के अधीन मोदी में कितनी समानताएं हैं। यहां यह बताना समीचीन होगा कि गुजरात की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में हिटलर को एक महान राष्ट्रवादी बताया गया है। गुजरात, हिंदू राष्ट्र की प्रयोगशाला रहा है। मोदी की प्रचार मशीनरी चाहे कुछ भी कहे, सब यह जानते हैं कि २००२ के कत्लेआम के बाद से, राज्य में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हाल बेहाल हैं।
क्या हम कह सकते हैं कि फासीवाद केवल यूरोप तक सीमित है और वह भारत में नहीं आ सकता? मूलतः फासीवाद एक ऐसी विचारधारा है, जिसका जन्म समाज के उन तबको में होता है जो प्रजातंत्र के खिलाफ हैं और जो काल्पनिक भयों का निर्माण कर प्रजातांत्रिक संस्थाओं को खत्म कर देना चाहते हैं और जो यह मानते हैं कि चीजों को ठीक करने के लिए एक मजबूत नेता की आवश्यकता है। फासीवाद, अतिराष्ट्रवाद पर जोर देता है और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता है। पड़ोसी देशों के प्रति उसका रवैया आक्रामक होता है। इस अर्थ में फासीवाद किसी भी देश पर छा सकता है-किसी भी ऐसे देश पर, जहां सामाजिक आंदोलन या तो कमजोर हैं या बंटे हुए हैं या फासीवाद के खतरे के प्रति जागरूक नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भारत में इतनी विविधताएं हैं कि यहां फासीवाद के लिए कोई जगह नहीं है। यह एक अच्छा विचार है और शायद इसी कारण अब तक भारत में फासीवादी ताकतें नियंत्रण में रही हैं। परंतु समय के साथ कई बार विविधताएं समाप्त हो जाती हैं और सब ओर एक सी प्रवृतियां उभरने लगती हैं। इसलिए यह मानना अनुचित होगा कि भारत में फासीवाद कभी आ ही नहीं सकता, विशेषकर इस तथ्य के प्रकाश में कि इस तरह की प्रवृत्तियों को भारत में भारी समर्थन मिल रहा है। फासीवादी ताकतों की ठीक-ठीक पहचान और प्रजातांत्रिक सिद्धांतों व बहुवाद के मूल्यों की रक्षा के लिए सम्मलित प्रयास ही हमारे प्रजातंत्र को बचा सकते हैं।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)  About The Author
Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and

मूल्य विहीन राजनीति अपने पापों को धोने के लिए भगत सिंह की शरण ले रही है

मोदी ने भगत सिंह को अंडमान भेजकर यह साबित कर दिया है कि उनका और भाजपा का भगत सिंह के बारे में ज्ञान शून्य मात्र है।

भारतीय प्रवासियों ने कनाडा में मनाया भगत सिंह का 83 वां शहादत दिवस
टोरंटो से शमशाद इलाही शम्स
टोरंटो(कनाडा)। ब्रेम्पटन (कनाडा) स्थित पियर्सन थिएटर में प्रवासी भारतीयों ने अपने वतन से सात समुन्दर पार भारत की जंगे आज़ादी के महानायकों भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की 83 वीं शहादत बहुत संजीदगी और अकीदत के साथ मनाई।
इस कार्यक्रम का आयोजन इंडो कनेडियन वर्कस एसोसियेशन ने किया था। उपस्थित जनसमुह को पंजाबी साहित्य के जाने माने लेखक, पंजाब साहित्य आकादमी पुरूस्कार विजेता डाक्टर वारियाम सिंह संघु ने भगत सिंह की शहादत, उसके विचार और निजी ज़िंदगी के बारे में तफ्सील से बाते की। वारियाम सिंह संघु ने कहा कि हमें आज पत्थर का भगत सिंह नहीं चाहिए; हमें आज पगड़ी धारी या टोप धारी भगत सिंह नहीं चाहिए, भारत के नौजवानों को भगत सिंह का दिमाग चाहिए, उसके विचार चाहिए, उसका समर्पण चाहिए, उसके जैसी प्रतिबद्धताएं चाहिए जिसकी गैर मौजूदगी में वर्तमान भारत को भगत सिंह के सपनों वाला भारत बनाया जाना नामुमकिन है। उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद भारत के शासक दल लगातार भगत सिंह के बुत बनाने तस्वीरे लगाने में व्यस्त है लेकिन भगत सिंह के नक़्शे कदम पर चलने वालो को पुलिस की लाठियां, गोलियां और जेलें मिल रही है। इन दलों ने भारत की संसद में भगत सिंह का बुत भी लगाया है जिसके एक तिहाई सदस्य आपराधिक मामलों में मुलव्विस है। इसी संसद में भगत सिंह ने अपनी आवाज़ सत्ता तक पहुँचाने के लिए बम फेंके थे।
वारियाम सिंह संघु ने कहा कि आज भारत के हर शासक दल में भगत सिंह पर कब्ज़ा करने होड़ लगी है। आज किसी राजनैतिक दल के पास न कोई चरित्र है न नीति। मूल्य विहीन राजनीति अपने पापों को धोने के लिए भगत सिंह की शरण ले रही है। उन्होंने भाजपा नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि मोदी ने भगत सिंह को अंडमान भेजकर यह साबित कर दिया है कि उनका और भाजपा का भगत सिंह के बारे में ज्ञान शून्य मात्र है। उन्होंने कहा कि जिस तरह 2002 में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार हुआ, 1984 में सिखों को दिल्ली में जिस तरह जिंदा जलाया गया, जिस तरह पंजाब में दहशतगर्दी के दौरान बसों से उतार-उतार कर हिन्दुओं की हत्याएं की गयी, जिस तरह पूरे देश में सरकार आम जनता के प्रति अधिकाधिक हिंसक हो रही है, निश्चय ही यह वह भारत नहीं है जिसकी स्वतंत्रता के लिए भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। उन्होंने अकाली दल नेता प्रकाश सिंह बादल के दोहरे चरित्र पर चोट करते हुए कहा कि बादल एक तरफ भगत सिंह के नाम पर जलसे जलूस करते नहीं थकते लेकिन दूसरी तरफ प्रदर्शनकारी किसानों पर लाठी चार्ज करा कर उनकी पगड़ियाँ पुलिस के पैरों तले रौंदते हैं। कौन नहीं जानता कि भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने 20वीं सदी के आरंभ में किसान आन्दोलन खड़ा कर ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ जैसे स्वाभिमानी नारे से उन्हें लैस किया था। आज किसानों की पगड़ियाँ अकाली सरकार द्वारा पैरों से रौंदी जा रही है।
वारियाम सिंह संघु ने अपने भाषण के अंत में जनता का आह्वान किया कि मौजूदा शोषण और काले अंग्रेजों के चुंगल से भारत को आज़ाद कराने के लिए जनता को भी अपने दोहरेपन से निजात लेनी होगी। भगत सिंह के पैदा होने की कमाना पडौस में नहीं अब उन्हें अपने घरो में भगत सिंह को पैदा करना होगा तभी भारत में एक समता मूलक, न्यायपरक, जाति विहीन गैर फिर्केवाराना समाज पैदा होगा तभी समाजवादी क्रांति होगी।
उपस्थित जनसमूह को संबोधित करते हुए भगत सिंह के भाई मरहूम कुलतार सिंह की बेटी इन्द्रजीत कौर के शौहरकामरेड अमृत सिंह ढिल्लों ने भगत सिंह की निजी बातों को विस्तार से बताया जिसे हाल में बैठे समस्त लोगों ने बड़ी उत्सुकता से सुना। 5 फुट 10 इंच के भगत सिंह मिठाई के शौक़ीन थे और मिठाई में रसगुल्ला उन्हें सबसे अधिक पसंद था। फलों में उन्हें संतरा प्रिय था। सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत जीवन के दौरान हुई एक घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि भगत सिंह राजगुरु और चंद्रशेखर आगरा में मंडी के पीछे किसी गुमनाम जगह रह रहे थे। राजगुरु ने उस कमरे की दीवार पर एक बिकनी पहने किसी लड़की का चित्र लगाया था। चंद्रशेखर ने उस तस्वीर का फाड़ दिया, वह गुस्से वाले थे और राजगुरु द्वारा वजह पूछे जाने पर जवाब दिया, हम क्रांतिकारी है हमें ऐसी तस्वीरो से कोई लगाव नहीं होना चाहिए। राजगुरु ने बहस करते हुए कहा कि हम संपन्न, सुखी समाज की कल्पना करते हैं। इस बहस के दौरान भगत सिंह चुप रहे लेकिन एक संपन्न समाज कैसा होगा? यह सवाल उन्हें सालता रहा और इस विषय पर अध्ययन करने जुट गए। फिरोजशाह कोटला मैदान में जब संगठन बनाने की निर्णायक बैठक हुई तब हिन्दुस्तान रिपब्लिक ऐसोसियशन में सोशलिस्ट लफ्ज़ भगत सिंह के कहने पर ही जोड़ा गया था। इस तरह सुखी और संपन्न समाज की परिकल्पना आगरा के उस गुमनाम कमरे में राजगुरु और चंद्रशेखर के बीच हुई बहस का सूत्रीकरण भगत सिंह ने समाजवाद के रूप में किया।
अमृत ढिल्लो ने भगत सिंह के सिर्फ चार असली फोटो के बारे में भी तफ्सील से बताया और उनसे जुडी घटनाओं को भी बहुत निराले अंदाज़ में ब्यान किया।
लाहौर में जन्मे ‘कमेटी आफ़ प्रोग्रेसिव पाकिस्तानी कनैडियन’ की तरफ से आये फहीम खान ने जलसे को खिताब करते हुए कहा कि मानव जाति ने तीन बड़े शहीद पैदा किये। हजरत अली, गुरु तेग बहादुर और भगत सिंह। पहले दो शहीद अपने-अपने मज़हबी अकीदो के लिए शहीद हुए जबकि भगत सिंह का कद इस लिए बड़ा है कि वह किसी धार्मिक समुदाय का प्रतिनिधित्व करे बिना पूरी कौम और दुनिया भर के मजदूर, किसानों, साम्राज्यवाद का ज़ुल्म सहने वालों के हको के लिए शहीद हुए। इस लिए मानव इतिहास में उनका मुकाम सबसे अव्वल है। उन्होंने बताया कि कि लाहौर में एक चौराहे का नाम भगत सिंह चौक रखने पर मुल्लाहों ने सख्त सियासी ऐताराज़ किया और मामला कोर्ट में भी ले गए। उन्होंने यकीन दिलाया कि पकिस्तान के हुक्मरानों को यह बात जल्द समझ में आ जायेगी कि भगत सिंह का हक़ पाकिस्तान पर भी है उतना ही है जितना हिंदुस्तान पर है।
सभागार में उपस्थित भगत सिंह की बहन बीबी प्रकाश कौर (जो बहुत वृद्ध है और कनाडा में ही रहती हैं) के बेटे रूपेंद्र सिंह मल्ली उनकी पत्नी कर्मजीत सिंह मल्ली, अमृत सिंह ढिल्लों, इन्द्रजीत कौर ने खड़े होकर जनता का अभिवादन स्वीकार किया।
कार्यक्रम में कवियत्री सुरजीत कौर, सुखचरण प्रीत और परमजीत कौर ने अपने कलाम सुनाये। बुजुर्ग कवि लक्ष्मण सिंह गाखिल ने भगत सिंह पर लिखा कलाम सुनाया और युवा कवि जीतेन्द्र पाल मान ने बहुत जोशीली कविता सुनायी। मक्खन बरार साहब ने अपनी नुकीली धारदार कविता से जलसे में नया रंग भरा वही सुखदेव- नवतेज भाईयों ने संगीत के साथ अपना कलाम पेश कर माहौल को सुर मय बनाया।
तीन घंटे से अधिक चले इस कार्यक्रम में प्रमुख आकर्षण भारत के प्रसिद्द नकाटकार गुरशरण सिंह द्वारा लिखा नाटक, ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का मंचन किया गया जिसे शहनाज़ ने निर्देशित किया था और व्यवस्था कुलदीप रंधावा ने की थी। नाटक की प्रस्तुति इतनी सशक्त थी कि हाल में अनूठा पिन ड्राप साएलेंस रहा, ऐसा मंज़र किसी पब्लिक कार्यक्रम में शायद ही देखने को मिलता है।
हरेन्द्र हुंदल ने इंडो कनेडियन वर्कर्स एसोसिएशन के क्रिया कलापों की जानकारी देते हुए निजी कम्पनियों के बजाये पब्लिक कार इन्सुरेंस सेवा मुहैय्या कराने, मिनिमम वेज १४ डालर प्रति घंटा करने, ऐम्प्लोयेमेंट एजेंसीज पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाने के अपने एजेंडे को प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का बेहद सफल और बड़े रोचक अंदाज़ में संचालन प्रोफ़ेसर जागीर सिंह कहलो ने किया। आई सी डब्लू ए के सदर सुरिन्दर सिधु ने सभी आगंतुको, सहयोगियों का धन्यवाद दिया। संगठन सचिव सुरजीत सहोटा ने समस्त नाट्य कर्मियों को भगत सिंह की तस्वीर छपी टी शर्ट्स भेंट की।ध्यातव्य है यह संगठन पिछले दो दशको ने कनाडा में शहीद दिवस का लागातार आयोजन कर रहा है। इस संगठन की बुनियाद कामरेड सूच के कर कमलो द्वारा हुई थी जो इस वक्त बेहद बीमार चल रहे है।   

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शमशाद इलाही शम्स, लेखक “हस्तक्षेप” के टोरंटो (कनाडा) स्थित स्तंभकार हैं।

भगत सिंह का रास्‍ता- इलेक्‍शन नहीं, इंक़लाब का रास्‍ता!

आर.एस.एस. के धार्मिक कट्टरपन्थी फासिस्ट और केजरीवाल जैसे पाखण्‍डी भी भगत सिंह की क्रान्तिकारी छवि को भुनाने की टुच्‍ची कोशिश कर रहे हैं…

गीतिका
लखनऊ। आज देश गहरे आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संकट में धँसता जा रहा है, जनता की मेहनत और प्राकृतिक संसाधनों को देशी-विदेशी पूँजीपतियों की अन्‍धी-नंगी लूट के हवाले कर दिया गया है, समाज में भयंकर भ्रातृघाती कलह और रुग्‍ण-बर्बर अपराध फैलते जा रहे हैं और बदलाव की चाहत रखने वाले नौजवान विकल्‍प की तलाश में हैं। ऐसे में भगत सिंह के विचार आज पहले से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हो गये हैं। आने वाले आम चुनाव एक बार फिर इस सच्‍चाई की ओर इशारा कर रहे हैं कि 65 वर्ष तक तरह-तरह के चुनावी मदारियों के भ्रम में पड़े रहने के बजाय अगर हमने इंक़लाब की राह चुनी होती तो भगत सिंह के सपनों का भारत आज एक हक़ीक़त होता।
भगत सिंह की क्रान्तिकारी विरासत और आज की चुनौतियाँ” विषय पर 23 मार्च की शाम अनुराग पुस्‍तकालय,लखनऊ में नौजवान भारत सभा की ओर से आयोजित बातचीत में शामिल छात्रों-नौजवानों ने कहा कि आज हमें नये सिरे से भगत सिंह के विचारों को व्‍यापक जनता के बीच लेकर जाना होगा और एक आमूलगामी क्रान्ति की लम्‍बी तैयारी के काम में लगना होगा। हमें शहर-शहर, गाँव-गाँव में मज़दूरों, ग़रीब किसानों, छात्रों-नौजवानों के जुझारू क्रान्तिकारी संगठन खड़े करने होंगे और एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करने की ओर बढ़ना होगा जिसका खाका भगत सिंह ने ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा‘ में पेश किया था।
वक्‍ताओं ने कहा कि भगत सिंह का लक्ष्य सिर्फ साम्राज्यवाद और सामन्तवाद से मुक्ति नहीं था। राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष को वह समाजवादी क्रान्ति की दिशा में यात्रा का एक मुकाम मानते थे और इसके लिए मज़दूरों-किसानों की लामबन्दी को सर्वोपरि महत्त्व देते थे। इन सच्चाइयों से देश की व्यापक जनता को, विशेषकर उन करोड़ों जागरूक, विद्रोही, सम्भावना-सम्पन्न युवाओं को परिचित कराना ज़रूरी है जिनके कन्धों पर भविष्य-निर्माण की कठिन ऐतिहासिक ज़ि‍म्‍मेदारी है। भगत सिंह और उनके साथियों के वैचारिक पक्ष के बारे में जनता में व्‍याप्‍त नाजानकारी का लाभ उठाकर ही भाजपा और आर.एस.एस. के धार्मिक कट्टरपन्थी फासिस्ट भी उन्हें अपने नायक के रूप में प्रस्तुत करने की कुटिल कोशिशें करते रहते हैं। अब केजरीवाल जैसे पाखण्‍डी भी भगत सिंह की क्रान्तिकारी छवि को भुनाने की टुच्‍ची कोशिश कर रहे हैं।
भगत सिंह ने अपने समय के राष्ट्रीय आन्दोलन और भविष्य की सम्भावनाओं का जो आकलन किया था, कांग्रेसी नेतृत्व का उन्होंने जो वर्ग-विश्लेषण किया था, देश की मेहनतकश जनता, छात्रों-युवाओं और सहयोद्धा क्रान्तिकारियों के सामने क्रान्ति की तैयारी और मार्ग की उन्होंने जो नयी परियोजना प्रस्तुत की थी, उसका आज के संकटपूर्ण समय में बहुत अधिक महत्त्व है। आज पूरा देश देशी-विदेशी पूँजी की बेलगाम लूट और निरंकुश वर्चस्व तले रौंदा जा रहा है, श्रम और पूँजी के बीच ध्रुवीकरण ज़्यादा से ज़्यादा तीखा होता जा रहा है, सभी संसदीय पार्टियों और नकली वामपन्थियों का चेहरा और पूरी सत्ता का चरित्र एकदम नंगा हो चुका है और भगत सिंह की चेतावनी एकदम सही साबित हो चुकी है। बेशक भगत सिंह के समय के भारत से आज का भारत काफी बदल चुका है। लेकिन भगत सिंह के दिखाये रास्‍ते की दिशा आज भी सही है। एच.एस.आर.ए. ने जनता को जगाने और अपने उद्देश्यों के प्रचार के लिए ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध कुछ आतंक की कार्रवाइयों को अंजाम दिया, लेकिन क्रान्तियों और जन-संघर्षों के इतिहास के अध्‍ययन से भगत सिंह और उनके साथी इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि क्रान्ति अपनी निर्णायक मंज़िल में अनिवार्यतः सशस्त्र और हिंसात्मक होगी, लेकिन मज़दूरों-किसानों-छात्रों-युवाओं के खुले जन-संगठन बनाये बिना और व्यापक जनान्दोलनों के बिना क्रान्ति की तैयारियों को निर्णायक मंज़िल तक पहुँचाया ही नहीं जा सकता।
भगत सिंह के विचारों की रौशनी में आज की दुनिया और संघर्ष के नये तौर-तरीकों को जानने-समझने के लिए नियमित सामूहिक अध्‍ययन और चर्चा का सिलसिला चलाने और इन विचारों को लेकर लोगों के बीच जाने के निर्णय के साथ बैठक समाप्‍त हुई।

भ्रष्टाचार, गरीबी और प्रदूषण से जूझता वाईब्रेण्ट गुजरात

जो मध्यम वर्ग मोदी को अपना उद्धारक मान रहा है,मोदी के सत्ता में आने पर इसी वर्ग को सबसे अधिक नुकसान होगा क्योंकि उसके पास गरीबों की तुलना में खोने के लिये बहुत कुछ है।
रोहिणी हेंसमेन
सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा व मोदी के प्रचार अभियान का एक मुख्य मुद्दा यह है कि संप्रग ने भारतीय अर्थव्यवस्था का सत्यानाश कर दिया है और मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार, भारत की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाईयों तक ले जायेगी। इन दावों में कितनी सच्चाई है?
पिछले 10 वर्षों में गुजरात के औसत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर, राष्ट्रीय औसत से अधिक रही है। परन्तु यह महाराष्ट्र, तमिलनाडु और दिल्ली जैसे राज्यों से अधिक नहीं है। गुजरात ने यह वृद्धि दर थोक निजीकरण की कीमत पर हासिल की है। बंदरगाह, सड़कें, रेल व ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों को पूँजीपतियों के हवाले कर दिया गया है। देश के किसी भी अन्य राज्य में कारपोरेट संस्थानों और निजी निवेशकों के हाथों में अर्थव्यवस्था का इतना बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं सौंपा गया है। कृषि क्षेत्र और व्यक्तिगत ग्राहकों की तुलना में, अधोसंरचना और पानी व बिजली तक पहुंच के मामले में उद्योगों को कहीं अधिक प्राथमिकता दी जा रही है। पिछले पांच वर्षों में निर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि की दर नकारात्मक हो गयी है। उसके पहले भी रोजगार के अवसरों में वृद्धि मुख्यतः असंगठित क्षेत्रों तक सीमित थी।
मोदी की सरकार निजी कंपनियों के प्रति कितनी उदार है, इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। पहला है टाटा को उसके नैनो कारखाने और अन्य परियोजनाओं के लिये दिया गया भारी भरकम अनुदान। टाटा को 2,900 करोड़ रूपए के निवेश के विरूद्ध 9,570 करोड़ रूपये का ऋण, 0.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की ब्याज दर पर दिया गया है। इसे बीस साल बाद, मासिक किश्तों में लौटाया जाना है। टाटा को बाजार दर से बहुत कम कीमत पर भूमि उपलब्ध करवाई गयी है और स्टाम्प ड्यूटी, पंजीकरण और बिजली का खर्च सरकार ने उठाया है। टाटा को टैक्सों में इतनी छूट दी गयी है कि गुजरात के लोगों को उनका पैसा निकट भविष्य में वापस मिलने की कोई संभावना नहीं है। अदानी समूह को 25 साल के लिये बिजली सप्लाई का ठेका दिया गया है। इससे गुजरात के सरकारी खजाने पर 23,625 करोड़ रूपयों का बोझ पड़ा है। रिलायन्स इंडस्ट्रीज, एस्सार स्टील व अन्य कंपनियों को भी इसी तरह के लाभ पहुंचाए गये हैं। आश्चर्य नहीं कि ये कंपनियां दिनरात मोदी का गुणगान कर रही हैं, उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती हैं और इन कंपनियों के कब्जे वाले मीडिया संगठन, मोदी की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं और उनकी आलोचना से सख्त परहेज कर रहे हैं। यही कारण है कि मोदी, अदानी समूह के हवाईजहाज से देशभर में घूम रहे हैं।
गुजरात में भ्रष्टाचार आसमान छू रहा है। जिन लोगों ने इस भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया, उनकी दुर्गति हुई। गुजरात में भारत की कुल आबादी का पांच प्रतिशत हिस्सा रहता है परन्तु हाल के वर्षों में सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं पर देश भर में हुए हमलों में से 20 प्रतिशत गुजरात में हुए। जिन आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुईं, उनमें से 22 प्रतिशत गुजरात के थे। सन् 2003 से लेकर 10 सालों तक लोकायुक्त का पद खाली पड़ा रहा। जब सन 2011 में राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति आर.ए. मेहता को इस पद के लिये चुना तो मोदी ने इस नियुक्ति के खिलाफ उच्चतम न्यायालय तक कानूनी लड़ाई लड़ी। बताया जाता है कि इस पर 45 करोड़ रूपए खर्च किए गये। उच्चतम न्यायालय द्वारा इस निर्णय को उचित ठहराए जाने के बाद भी राज्य सरकार ने मेहता के साथ सहयोग नहीं किया और नतीजतन उन्होंने यह पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इसके पश्चात, राज्य सरकार ने लोकायुक्त अधिनियम में संशोधन कर लोकायुक्त की शक्तियों को अत्यंत सीमित कर दिया और उसे उसी सरकार के अधीन कर दिया, जिसके भ्रष्टाचार की जांच उसे करनी थी!
गुजरात के आम लोगों ने इस आर्थिक प्रगति की भारी कीमत चुकाई है। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में गुजरात में गरीबी का स्तर सबसे अधिक है। निजी कंपनियों को बड़े पैमाने पर जमीनें आवंटित की गयीं, जिससे लाखों किसान, मछुआरे, चरवाहे, खेतिहर मजदूर, दलित व आदिवासी अपने घरों से बेघर हो गये। मोदी राज में सन 2011 तक आर्थिक बदहाली से परेशान होकर 16,000 श्रमिकों, किसानों और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या कर ली। गुजरात का मानव विकास सूचकांक, उसके समान प्रतिव्यक्ति आय वाले अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम है। बड़े राज्यों में नरेगा को लागू करने के मामले में गुजरात का रिकार्ड सबसे खराब है। गरीबी, भूख, शिक्षा और सुरक्षा के मामलों में मुसलमानों की हालत बहुत बुरी है। मोदी ने यह दावा किया है कि गुजरात में कुपोषण का स्तर इसलिये अधिक है क्योंकि वहां के अधिकांश लोग शाकाहारी हैं और दुबले-पतले व फिट बने रहना चाहते हैं। इसका खंडन करते हुए एक जानेमाने अध्येता ने कहा है कि इसका असली कारण है मजदूरी की कम दर, कुपोषण घटाने के उद्देश्य से शुरू की गयी योजनाओं को ठीक से लागू न किया जाना, पीने योग्य पानी की कमी और साफ-सफाई का अभाव। शौचालयों के इस्तेमाल के मामले में गुजरात दसवें नंबर पर है। यहां की आबादी का 65 प्रतिशत हिस्सा खुले में शौच करने को मजबूर है, जिसके कारण पीलिया, डायरिया, मलेरिया व अन्य रोगों के मरीजों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। अनियंत्रित प्रदूषण के कारण किसानों और मछुआरों ने अपना रोजगार खो दिया है और भारी संख्या में लोग दमे, टीबी व कैंसर से ग्रस्त होकर मर रहे हैं। त्वचा संबंधी रोग भी व्यापक रूप से फैल रहे हैं।
तथ्य इस मिथक का खण्डन करते हैं कि विदेशी निवेशक गुजरात की ओर लपक रहे हैं। सन् 2012-13 में देश में हुए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में गुजरात का हिस्सा 2.38 प्रतिशत था और वह राज्यों में छठवें स्थान पर था। इसके मुकाबले, महाराष्ट्र का हिस्सा 39.4 प्रतिशत था। मोदी सरकार में आर्थिक अनुशासन के लिये कोई जगह नहीं है। गुजरात की आर्थिक उन्नति के पीछे उधारी है। सन् 2002 में राज्य पर कुल ऋण 45,301 करोड़ था जोकि 2013 में बढ़कर 1,38,978 करोड़ हो गया।
गुजरात में जो आर्थिक माडल अपनाया गया उसे नवउदारवाद कहते हैं। गुजरात का नवउदारवाद, संप्रग के उदारवाद से कहीं अधिक खतरनाक है। संप्रग के संस्करण में तो फिर भी निजी क्षेत्र के नियमन और समाज कल्याण के लिये कुछ जगह है। परन्तु गुजरात में कारपोरेट घरानों को सरकार और जनता को लूटने की खुली छूट है। यही कारण है कि अधिकांश सीईओ चाहते हैं कि मोदी प्रधानमंत्री बनें। वे इस बात से दुःखी हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से उन्हें उपलब्ध हुए बड़ी राशि के ऋणों की संप्रग सरकार जांच कर रही है। वे इससे भी दुःखी हैं कि सहारा प्रमुख सुब्रत राय जैसे धनकुबेर, छोटे निवेशकों के 20,000 करोड़ रूपये निगल जाने के आरोप में जेल की हवा खा रहे हैं। वे मोदी की सरकार बनने का रास्ता देख रहे हैं ताकि वे बिना किसी बंधन के सरकारी खजाने को लूट सकें और श्रमजीवियों के हित में बनाए गये नरेगा व खाद्य सुरक्षा अधिनियम जैसे कानूनों को लागू करने पर ‘बर्बाद‘ किया जा रहा धन बचाया जा सके। श्रमिकों के हितों की रक्षा करने वाले कानूनों को रद्द करना एनडीए के एजेन्डे में काफी पहले से है। सोना व ऐशोआराम की वस्तुएं आयात करने वाले मोदी के प्रधानमंत्री बनने का बैचेनी से इंतजार कर रहे हैं ताकि भारत को उतना ही ऋणग्रस्त बनाया जा सके जितना कि गुजरात है। इन धनकुबेरों को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि अनियंत्रित लूट के चलते भारत की अर्थव्यवस्था किसी दिन पूरी तरह ठप्प हो सकती है क्योंकि तब तक वे अपने मुनाफे की रकम को विदेशी बैंकों में जमा कर चुके होंगे। मोदी की नीतियां वही हैं जिनके चलते हाल में अमेरिका की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। अमेरिका दुनिया का सबसे धनी देश है परन्तु बड़े पैमाने पर निजीकरण, नियमन की समाप्ति, संपत्ति के मामले में भारी असमानताएं और क्षमता से अधिक ऋणग्रस्तता के कारण उसकी अर्थव्यवस्था बर्बादी के कगार पर पहुंच गयी। कोई कारण नहीं कि भारत में भी इन नीतियों का यही प्रभाव नहीं पड़ेगा। अमेरिकी डालर की कीमत इसलिये बनी रही क्योंकि वह वैश्विक रिजर्व मुद्रा है और अन्य देश अपने मुद्राकोष को बनाए रखने के लिये डालर खरीदते हैं। भारतीय रूपया वैश्विक रिजर्व मुद्रा नहीं है और अगर अर्थव्यवस्था का घाटा बढ़ता गया तो रूपये को गोता लगाने से कोई नहीं रोक सकेगा। इससे मुद्रास्फीति की दर तीन अंकों में पहुंच सकती है। विडंबना यह है कि जो मध्यम वर्ग मोदी को अपना उद्धारक मान रहा हैमोदी के सत्ता में आने पर इसी वर्ग को सबसे अधिक नुकसान होगा क्योंकि उसके पास गरीबों की तुलना में खोने के लिये बहुत कुछ है।
शायद मोदी अर्थव्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी भाजपा के किसी अन्य नेता को सौंप दें। परन्तु भाजपा में किसी में यह क्षमता हो, ऐसा नजर नहीं आता। यशवंत सिन्हा पर अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। सन् 1990 में यशंवत सिन्हा, चन्द्रशेखर सरकार में वित्तमंत्री थे। उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था का बंटाधार हो गया था। इसके बाद वे भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में वित्तमंत्री बने। इस दौरान मार्च 2001 में शेयर बाजार में इतनी बड़ी गिरावट आई कि एक महीने से कम समय में शेयरधारकों के 32 अरब अमेरिकी डालर डूब गये। एनडीए के शासनकाल में औसतन 4 अरब डालर प्रतिवर्ष भारत में आया। संप्रग शासनकाल में यह आंकड़ा 25 अरब डालर था, अर्थात एनडीए के शासनकाल से लगभग छःह गुना अधिक। इंवेस्टमेंट ब्रोकर शंकर शर्मा के अनुसार, ‘‘भाजपा एकमात्र मुख्यधारा की पार्टी है जिसके उच्च नेतृत्व में कोई अर्थशास्त्री नहीं है। सन् 1999 से 2004 के भाजपा शासनकाल में जीडीपी की वृद्धि दर इतनी कम थी जितनी पिछले तीस सालों में कभी नहीं रही। भाजपा सरकार ने देश को ऋण के जाल में फंसा दिया। ऋण व जीडीपी का अनुपात 1999 में 78 प्रतिशत से बढ़कर 2004 में 91 प्रतिशत हो गया।‘‘
जिस समय पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही हो उस समय देश की अर्थव्यवस्था को एक ऐसी पार्टी के हाथ में सौंपना, जिसमें एक भी सक्षम अर्थशास्त्री नहीं है, आर्थिक आत्महत्या करने जैसा है। कुएं के मेंढक की तरह मोदी और भाजपा कभी वैश्विक आर्थिक संकट की बात नहीं करते और ना ही उसके कारणों में जाना चाहते हैं। अगर कोई भी यह कष्ट उठाएगा तो उसे यह समझ में आ जायेगा कि नवउदारवाद के धीमे जहर से रूग्ण होती जा रही अर्थव्यवस्था के लिये जिस ‘‘दवाई‘‘ की वकालत भाजपा और एनडीए कर रहे हैं, दरअसल, वह इसी धीमे जहर की जानलेवा डोज है(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(रोहिणी हेंसमेन लेखिकाअध्येता व सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मुंबई में रहती हैं।)

वोट जो सिर्फ बैंक नहीं है

Posted: 24 Mar 2014 03:58 AM PDT
भारतीय राजनीति में अनेक दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती हैं। यह फर्क उसके राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। बीसवीं सदी के शुरू में इस आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ली और तबसे लगातार इसकी शक्ल राष्ट्रीय रही। इस आंदोलन के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे। पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र। कुछ लोग कहेंगे कि भारत हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है। पर वह सांस्कृतिक अवधारणा थी। लोकतंत्र एकदम नई अवधारणा है। पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं।


हाल में आशुतोष वार्ष्णेय ने अपनी पुस्तक बैटल्स हाफ वन में लिखा है कि स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन। इन लक्ष्यों को पूरा करने का साजो-सामान हमारी राजनीति में है। भारत की कोई राजनीति इन लक्ष्यों से मुँह नहीं फेर सकती। देश की संवैधानिक व्यवस्था पर विचार करते समय इस बारे में कभी दो राय नहीं थी कि यह काम सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा और इसमें क्षेत्र, जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव नहीं होगा। इन मूल्यों को लेकर कभी दो राय नहीं रहीं। ये सर्वमान्य मूल्य हैं, भले ही इन्हें लागू करने के तौर-तरीकों को लेकर मतभेद रहे हों।

व्यावहारिक रूप से लोकतंत्र बहुत पुरानी राज-पद्धति नहीं है। यह वस्तुतः औद्योगिक क्रांति के साथ विकसित हुआ है। पश्चिमी देशों में इस पद्धति के प्रवेश के लिए जनता के एक वर्ग को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर चार कदम आगे आना पड़ा। हमारा आर्थिक आधार दो सौ साल पहले के पश्चिम से बेहतर नहीं है। पर हमारी राज-व्यवस्था कई मानों में आज के पश्चिमी लोकतंत्र से टक्कर लेती है। विकासशील देशों में निर्विवाद रूप से हमारा लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ है। दुनिया के अनेक देशों में आज भी यह माना जाता है कि लोकतंत्र उनके आर्थिक विकास में बाधा बनता है। अपने आसपास के देशों में देखें तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यामार और नेपाल में लोकतांत्रिक पर खतरा बना रहता है। इन देशों में आंशिक रूप से लोकतंत्र कायम भी है तो इसका एक बड़ा कारण भारतीय लोकतंत्र का धुरी के रूप में बने रहना है। यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है।

एक गरीब देश का इतनी मजबूती से लोकतंत्र की राह पर चलना विस्मयकारी है। लोकतंत्र की सफलता के लिए भी एक स्तर का आर्थिक विकास होना चाहिए। यह दुनिया के इतिहास की विलक्षण घटना है। हम कह सकते हैं कि भारत की सांस्कृतिक एकता और सामाजिक न्याय की आधुनिक अवधारणा का रोचक मिश्रण हम भारत में देख रहे हैं। इसमें प्राचीनता के साथ आधुनिक पश्चिमी अवधारणाएं भी हैं। पर राष्ट्र की अवधारणा यूरोपीय है। उसे हमने स्वीकार किया होता तो भारत के अनेक टुकड़े होते।

इतने बड़े देश के रूप में हमारे पास संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के उदाहरण हैं। अमेरिका को कई राष्ट्रीयताओं ने मिलकर बनाया। हमने कई राष्ट्रीयताओं को टूटकर अलग होने से बचाया। रूस का सोवियत अनुभव सफल नहीं रहा। सोवियत संघ टूटने के बाद भी विघटन अभी चल ही रहा है। पहले जॉर्जिया और अब यूक्रेन के रूप में यूरोप की स्थानीय मनोकामनाएं सामने आ रहीं है। मध्य एशिया की राष्ट्रीयताओं पर रूसी दबाव है। चीन के पश्चिमी इलाकों में राष्ट्रीय आंदोलन जोर मार रहे हैं। चूंकि वह लोकतंत्र की डोर से बँधा देश नहीं है, इसलिए वे खुलकर सामने नहीं आ पाते हैं। हान और मंडारिन संस्कृति के बीच का भेद भी चीन में है। इस प्रकार के सांस्कृतिक भेद हमारे बीच भी हैं, पर हमारे लोकतंत्र ने उसे सुंदर तरीके से जोड़कर रखा है। हाल में दिल्ली में पूर्वोत्तर के छात्रों के साथ भेद-भाव की खबरें सुनाई पड़ीं तो स्थानीय मीडिया और जागरूक नागरिकों ने पूर्वोत्तर के निवासियों के पक्ष में आवाज उठाई। यह भी सच है कि हम पूर्वोत्तर के राज्यों की राजनीति और क्रिया-कलापों को लेकर जागरूक नहीं हैं, पर शिक्षा और रोजगार ने नागरिकों को एक-दूसरे से परिचित होने का मौका दिया है।


गठबंधन की राजनीति ने इस लोकतांत्रिक एकीकरण को बेहतर शक्ल दी है। एक समय तक देश के शासन पर केवल कांग्रेस का वर्चस्व था। उस वक्त भी दक्षिण भारत से के कामराज जैसे ताकतवर नेता थे, पर हम दक्षिण के नेताओं और राजनीति पर ध्यान देने की कोशिश नहीं करते थे। पर गठबंधन की राजनीति दक्षिण के नेताओं को उत्तर से परिचित कराने में कामयाब रही। इसके कारण ही एचडी देवेगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बने या पूर्णो संगमा को लोकसभा अध्यक्ष के रूप में हमने देखा। देश के लोकतांत्रिक लक्ष्यों के कारण ही हम प्रादेशिक असंतुलन को दूर करने के बारे में सोचते हैं। इस राजनीति के कारण ही यह बात सामने आ रही है कि विकास का लाभ हर इलाके तक नहीं पहुँचाया जाएगा तो बागी लाल गलियारे तैयार हो जाएंगे। यही राजनीति उन इलाकों की बात को देश की संसद तक लेकर आएगी। हमें तेज आर्थिक विकास के साथ-साथ तेज शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की जरूरत है। इसके लिए सांविधानिक और राजनीतिक संस्थाओं में सुधार की जरूरत भी है। इन बातों पर आम राय वोट की यही राजनीति कायम करेगी। वोट ने टकराव के आधार तैयार किए हैं। पर उसने समूचे भारत की उम्मीदों को पंख भी दिए हैं। 
प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित

भ्रष्ट और ख़तरनाक है भारत

अमेरिका ने भारत में सुरसा की तरह मुंह बाए जा रहे भ्रष्टाचार पर भारत को आईना दिखाया है, दूसरी ओर आंक़डे बताते हैं कि भारत खतरनाक देश है, लेकिन भारत ने भ्रष्टाचार और बम ब्लास्ट के हालातों से बिग़डे अपने विद्रूप चेहरे को संवारने का कभी बी़डा नहीं उठाया. यही कारण है कि एक तरफ जहां दिन-प्रतिदिन भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति भयावह होती जा रही है, वहीं दूसरी तरफ आए दिन होने वाले बम विस्फोटों के कारण अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर भारत की छवि खतरनाक देश की बन गई है.

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हाल ही में एक अमेरिकी रिपोर्ट ने भारत सरकार को भ्रष्टाचार और भारत के ही नेशनल बॉम्ब डाटा सेंटर ने बम विस्फोटों को लेकर आईना दिखाया है. अमेरिकी रिपोर्ट का कहना है कि भारत में सरकार के सभी स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है. अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी द्वारा 2013 के लिए जारी वार्षिक कंट्री रिपोर्ट्स ऑन ह्यूमन राइट्स प्रैक्टिसेस में कहा गया है कि भारत में भ्रष्टाचार दूर-दूर तक फैला हुआ है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भ्रष्टाचार के लिए कानून में दंड का प्रावधान है, लेकिन भारत सरकार कानून को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर पाई है. रिपोर्ट कहती है कि भारतीय अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं और उन्हें दंड नहीं मिल पाता है. जनवरी से नवंबर के बीच सीबीआई ने भ्रष्टाचार के 583 मामले दर्ज किए. केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के पास 2012 में भ्रष्टाचार के 7,224 मामले आए. इनमें 5528 मामले वर्ष 2012 में सामने आए थे, जबकि 1696 मामले उसके पास वर्ष 2011 से ही थे. आयोग ने 5720 मामलों को लेकर कार्रवाई की अनुशंसा की. गैर सरकारी संगठनों ने पुलिस सुरक्षा, स्कूलों में दाखिले, जलापूर्ति या सरकारी सहायता को लेकर काम में तेजी लाए जाने के लिए विशिष्ट रूप से रिश्‍वत दिए जाने की ओर ध्यान दिलाया है. इसके मुताबिक नागरिक संगठनों ने साल भर प्रदर्शनों और वेबसाइट के माध्यम से भ्रष्टाचार की ओर लोगों का ध्यान खींचा. विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि गरीबी दूर करने और रोजगार प्रदान करने के लिए चलाए गए बहुत से सरकारी कार्यक्रमों का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो सका और वे भ्रष्टाचार का शिकार हो गए.

भ्रष्टाचार की निगरानी से जुड़ी प्रतिष्ठित संस्था ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल भी समय-समय पर भारत को आईना दिखाता रहता है, लेकिन इसके बावजूद भारत में भ्रष्टाचार को लेकर अब तक बहुत सुधार देखने को नहीं मिला है. ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल भ्रष्ट देशों की जो सूचि जारी करता है, हाल के वर्षों में भारत की स्थिति भ्रष्टाचार को लेकर गिरती जा रही है. वर्ष 2013 में 177 भ्रष्ट देशों पर इस संस्था ने सर्वेक्षण किया है, जिसमें भारत को 94वां स्थान दिया गया है. संस्था के इस सर्वेक्षण में सबसे ऊपर स्थान पाने वाले देश को सबसे ज्यादा भ्रष्ट माना जाता है और जो देश जितना ही नीचे होता है, उसकी छवि उतनी ही ज्यादा अच्छी होती है. इस तरह भारत में भ्रष्टता की बदतर स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है. इस संस्था में भारत को कुल 100 में मात्र 36 प्वॉइंट दिया है. देश में भ्रष्टाचार को लेकर व्याप्त माहौल के कारण के विश्‍व हलकों में जिस तरह से हाल के वर्षों में भारत की किरकिरी हुई है, वह बेहद चिंताजनक है.

26 जनवरी 1950 को गणतन्त्र की स्थापना के समय देश के संविधान निर्माताओं को भी यह कल्पना नहीं होगी कि उनके द्वारा बनाई जा रही व्यवस्था 60 वर्ष के अन्दर ही इतनी नैतिक विहीन हो जाएगी. देश को चलाने के लिए बनाई जा रही संवैधानिक व्यवस्थाओं पर भी भ्रष्ट लोगों का कब्जा हो गया है. इन घोटालों की परतें खुलने के बाद अब भारत भ्रष्टाचार में सुपर पावर बन गया है. इन घोटालों के कारण सारी दुनिया भारत की और हैरानी से देख रही है.



खतरनाक देश है भारत
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि शांति और अहिंसा का पूरी दुनिया को संदेश देनेवाला भारत अब सबसे खतरनाक देशों में शुमार होता है. हम यह बात यूं ही नहीं कह रहे हैं, बल्कि इसका अपना आधार है. एक साल में होने वाले बम धमाकों की बात करें तो इराक और अफगानिस्तान के बाद भारत में बम विस्फोट का सबसे ज्यादा खतरा है. इस तरह से भारत दुनिया का तीसरा सबसे खतरनाक देश है. ये चौंकाने वाले आंकड़े सरकार के नेशनल बॉम्ब डाटा सेंटर ने जारी किए हैं. हालांकि इन आंक़डों के जारी होने से पहले आप यही सोच रहे होंगे कि बम ब्लास्ट से मारे जाने का सबसे ज्यादा खतरा अफगानिस्तान और सीरिया जैसे देशों में होता है.
नेशनल बॉम्ब डाटा सेंटर के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2013 में भारत में 212 बम धमाके हुए. इस दौरान अफगानिस्तान में 108 बम ब्लास्ट हुए, जबकि बांग्लादेश में 75 और सीरिया में सिर्फ 36 बम धमाके हुए. भारत में 2013 में 2012 के मुकाबले कम बम धमाके हुए. 2012 में 241 बम ब्लास्ट हुए थे, लेकिन 2013 में 2012 की तुलना में कम विस्फोट हुए. 2012 में यह आंकड़ा 241 था. 2012 में कुल 113 लोग मरे और 419 घायल हुए थे, जबकि 2013 में मरने वालों की संख्या बढ़कर 130 और घायलों की संख्या 466 हो गई.
इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि दुनिया भर में होने वाले 75 फीसद बम ब्लास्ट इराक, पाकिस्तान और भारत में होते हैं. पिछले 10 साल में भारत में हुए आईईडी धमाकों के विश्‍लेषण से पता चला कि 2004 से 2013 के बीच भारत में औसतन 298 बम धमाके हुए, जिसमें 1,337 लोग मारे गए. यह अफगानिस्तान से काफी ज्यादा है. अफगानिस्तान में पिछले पांच साल में 2010 तक अधिकतम 209 बम धमाके हुए. भारत के अलावा पूरी दुनिया में 69 प्रतिशत हमले सीधे जनता को निशाना बनाकर किए गए, जबकि भारत में सिर्फ 58 प्रतिशत ही ऐसे हमलों को अंजाम दिया गया. बाकी बम विस्फोटों में सुरक्षाबलों और सरकारी संपत्तियों को निशाना बनाया गया.

 
हर तरफ लोगों मे भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश दिखाई दे रहा है. अक्सर भारत की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी कहती है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार हैं. यूपीए-1 ने जब शासन शुरू किया था, तो शुरू में भारत की जनता का भी यही मानना था, लेकिन जल्द ही लोगों का भ्रम टूट गया. आज लोगों के मुंह से यह सुना जा सकता है कि इतनी भ्रष्ट सरकार के प्रधानमंत्री स्वयं ईमानदार कैसे हो सकते हैं? कहना गलत नहीं होगा कि मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के प्रमोटर प्रधानमंत्री हैं.
भारत दक्षिण एशिया के सबसे भ्रष्ट देशों में है. वहीं यह देश विश्‍वस्तरीय भ्रष्ट देशों की सूचि में भी अग्रणी देशों में शामिल है. भारत में भ्रष्टाचार की विभत्सता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है की विश्‍व में ज्ञात कुल काले धन का 56 फिसद भारतियों का है, जो लगभग 1800 बिलियन डॉलर का है. ज्ञात-अज्ञात स्रोत पर कुल अनुमानित भारतीय काला धन लगभग 400 लाख करो़ड का अनुमानित है. स्विटजरलैंड बैंकिंग एसोसिएशन की रिपोर्ट के अनुसार, स्विस बैंकों में जमा धन में भारत का नाम सबसे ऊपर है. 65-223 अरब रुपये का काला धन इन बैंकों में जमा है. यह राशि भारत के वर्तमान विदेशी मुद्रा भंडार से पांच गुणा अधिक है. 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवैल्थ खेल घोटाला और आदर्श हाऊसिंग सोसायटी घोटाला में पैसों के घपले को जो़ड दिया जाए तो सिर्फ इन तीन घोटालों का पैसा ही 3 लाख करो़ड रुपये का बैठता है. इससे भारत में ब़डे पैमाने पर भ्रष्टाचार की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है.
भारत की भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं को एक हाथ से अधिकार देकर दूसरे हाथ से छिन लिया गया है. इन खामियों को दूर करने का कभी प्रयास नहीं किया गया है. केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए कोई स्पष्ट मानक न होने के कारण सरकार अपने स्वार्थ के लिए पी. जे. थॉमस जैसे भ्रष्ट अधिकारी को भी अध्यक्ष बना देती है, जिससे इस संस्था की स्थापना का मूल उद्देश्य ही धूमिल हो जाता है. केन्द्रीय सतर्कता आयोग को आपराधिक मामले दर्ज करने की शक्ति नहीं है और न ही छानबिन के लिए अपना कोई तन्त्र है. दूसरा सशक्त विभाग है विभागीय सतर्कता विंग्स. इस संस्था के अधिकांश सदस्य अस्थायी आधार पर विभाग के लोग ही होते है. प्रत्येक विंग विभागाध्यक्ष के सीधे नियंत्रण में होने के कारन यह बमुश्किल ही किसी वरिष्ठ अधिकारी के विरुद्ध जांच करने में सक्षम है. इसका कारण यह है कि यह बिल्कुल संभव है कि बाद के दिनों में वह कभी उसी व्यक्ति के मातहत काम करने को बाध्य हो सकता है. भ्रष्ट राजनीतिज्ञों पर इसका कोई क्षेत्राधिकार नहीं है और न ही किसी के विरुद्ध एफ.आई.आर. दर्ज करने की शक्ति है. यह सिर्फ अनुशासनात्मक कार्यवाही की प्रक्रिया प्रारंभ कर सकती है. खुफिया विभाग सीबीआई की हाल के वर्षों में छवि बद से बदतर हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल ही में कहा है कि सीबीआई पिंजरे में बंद तोते की तरह है. कुल मिलाकर देखा जाए तो सीबीआई सत्ताधीन पार्टी के नियंत्रण में काम करने को बाध्य है. परिणामतः यह अधिकांशतः राजनीति से प्रेरित मामलों में उलझी रहती है. भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक को जनता के धन का संरक्षक कहा जाता है, लेकिन जनता के धन के दुरुपयोग और लूट के विरुद्ध इसकी शक्ति बहुत ही सिमित है, जिससे भ्रष्टाचार एवं अनियमितता पर प्रभावी नियंत्रण में यह सक्षम नहीं है. ये जनता के धन के वाच डॉग कहे जाते हैं, लेकिन ये डॉग्स दंतहीन और नखहीन है तथा भ्रष्टाचार अथवा भ्रष्टाचारी के विरुद्ध कुछ भी कार्यवाही करने में सक्षम नहीं है.



घोटाले के अंबार पर भारत
जीप घोटाला (1948), साइकिल आयात घोटाला (1951), मुंध्रा मैस (1957-58), तेजा लोन (1960), पटनायक मामला (1965), नागरावाला घोटाला (1971), मारुति घोटाला (1976), कुओ ऑयल डील (1976), अंतुले ट्रस्ट (1981), एचडीडब्ल्यू सबमरीन घोटाला (1987), बिटुमेन घोटाला, तांसी भूमि घोटाला, सेंट किट्स केस (1989), अनंतनाग ट्रांसपोर्ट सब्सिडी स्कैम, चुरहट लॉटरी स्कैम, बोफोर्स घोटाला (1986), एयरबस स्कैंडल (1990), इंडियन बैंक घोटाला (1992), हर्षद मेहता घोटाला (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), जैन (हवाला) डायरी कांड (1993), चीनी आयात (1994), बैंगलोर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर (1995), जेएमएम संासद घूसकांड (1995 ), यूरिया घोटाला (1996), संचार घोटाला (1996), चारा घोटाला (1996), यूरिया (1996), लखुभाई पाठक पेपर स्कैम (1996), ताबूत घोटाला (1999) मैच फिक्सिंग (2000), यूटीआई घोटाला, केतन पारेख कांड (2001) यूटीआई घोटाला, केतन पारेख कांड (2001), बराक मिसाइल डील, तहलका स्कैंडल (2001), होम ट्रेड घोटाला (2002), तेलगी स्टाम्प स्कैंडल (2003), तेल के बदले अनाज कार्यक्रम ( 2005), कैश फॉर वोट स्कैंडल (2008), सत्यम घोटाला (2008), मधुकोड़ा मामला (2008), आदर्श सोसाइटी मामला (2010), कॉमनवेल्थ घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला(2010), नेशनल रूरल हेल्थ मिशन घोटाला (2011), एयर इंडिया एंड इंडियन एयरलाइन्स घोटाला (2011), कावेरी बेसिन डी ब्लॉक घोटाला (2011), एंट्रिक्स देवास घोटाला (2011), पावर प्रोजेक्ट घोटाला (2012), इंदिरा गांधी एअरपोर्ट घोटाला (2012), कोयला घोटाला (2012), लौह अयस्क घोटाला (2012).



भारत में भ्रष्टाचार की समस्या जहां संस्थागत खामियों से जुड़ा है, वहीं यह हमारी विकृत मानसिकता का भी परिणाम है. इन दोनों कारणों ने भारत में भ्रष्टाचार की समस्या को गहन बना दिया है. परिणामतः आज का भारत भ्रष्टाचार के ऐसे दल दल में धंसा नजर आता है, जहां से वापस निकल पाना बहुत मुश्किल है. मुख्य रूप से भ्रष्टाचार बढ़ने का कारण वैश्‍वीकरण के दौर में समाज में पैसे का सम्मान बढ़ना, नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन होना, समाज का भय कम होना, कठोर कानून की कमी व दोषी व्यक्तियों पर कार्रवाई नहीं होना है. आम आदमी चाहता है कि इस भ्रष्टाचार रूपी रावण का अंत होना चाहिए. हालांकि वर्षों से जमी हुई इस काई को हटाना आसान नहीं है.

जो रोग समाज के अन्दर महारोग बन गया हो और जिसका अहसास खत्म हो गया हो, उसका निदान भी उसी प्रकार ढूंढना पड़ेगा. जो भ्रष्टाचार बढ़ने के कारण हैं, उन्हीं में उसका समाधान भी है. कुछ उपाय अल्पकालीन होंगे व कुछ दीर्घकालीन, लेकिन दोनों उपायों पर एक साथ ही काम करना होगा. तभी जाकर भ्रष्टाचार पर लगाम लगा पाना संभव होगा. हमारी सरकार को विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करनी होगी व भविष्य में कालाधन बाहर न जाए, इसके प्रावधान करने होगें. भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले राजनेताओं व नौकरशाहों को सत्ता के तंत्र से बाहर किए बिना कोई भी पहल सार्थक नहीं होगी. व्यवस्था तंत्र में भी बदलाव लाना होगा. अन्यथा आज अमेरिकी विदेश मंत्री रिपोर्ट जारी करता है, कल किसी और देश का विभाग जारी करेगा और इस तरह से भारत ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में भी भ्रष्ट होता जाएगा. इन सबका सबसे भयावह परिणाम यह होगा कि आनेवाले दिनों में भारत में कोई देश निवेश नहीं करना चाहेगा. आखिरकार भारत की स्थिति दयनीय हो जाएगी.

चौथी दुनिया
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