भाजपा और कांग्रेस से ज्यादा सीटें तो गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की होंगी
भाजपा को 200 सीटें भी मिल गईं (!) तब तो समझो वह रिकार्ड तोड़ देगी।
अधिकांश राजनैतिक विश्लेषकों का अभिमत है कि 16 मई को जो परिणाम आयेंगे उसमें भाजपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना तय है। लेकिन यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि भाजपा अकेले ही 276 सीटें तो कतई नहीं जीत पाएगी। भाजपा को 200 सीटें भी मिल गईं तब तो समझो वह रिकार्ड तोड़ देगी। फिर भी एनडीए की सरकार बनाने के लिये उसे 72 सांसद और चाहिए। अभी तो तमाम संभावनाओं के बावजूद स्वयं मोदीजी भी आश्वस्त नहीं हैं कि उनका पथ निरापद है, तभी तो दो-दो जगहों से लड़ रहे हैं।
कांग्रेस का भी पाटिया उलाल तय है। 100 सीटों के आसपास सीमित होना तय है। ये भी अनुमान है कि बाकी 250 सीटें-सपा, बसपा, जदयू, राजद, तृणमूल, नवीन, जयललिता तथा वाम दलों की होंगी। यानी भाजपा और कांग्रेस से ज्यादा सीटें तो गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की होंगी। चूँकि जनादेश यूपीए के खिलाफ आने वाला है इसलिए भाजपा नीत एनडीए बेसब्री से सत्ता की प्रतीक्षा में हैं, उसके नेता नरेंद्र मोदी का व्यक्तिगत परफार्मेंस भी अन्य दलों ओर नेताओं से कुछ ज्यादा ही रेखांकित किया गया है। हालाँकि उन पर लगे आरोपों का जबाब भी देश और दुनिया को अब तक तो नहीं मिला है किन्तु फिर भी वे पूरी शिद्दत से पीएम इन वेटिंग तो हैं ही। अतएव बहुत सम्भव है की 72 सीटें भी वे अवश्य ही जुगाड़ लेंगे। तब केबल वाम मोर्चा ही है जिसने कभी भी कहीं भी मोदी और संघ परिवार को घास नहीं डाली। किन्तु जब वाम के बिना ही भाजपा नीत -एनडीए ने 1999 से 2004 तक सरकार बनाकर दिखा ही दिया है। ये तो हो नहीं सकता कि सारे के सारे दल तो कभी यूपीए और कभी एनडीए के साथ हो लें, सत्ता सुख भोगें तथा जब फासीवाद, पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता से लड़ने का सवाल आये तो केवल वामपंथ ही संघर्ष के मैदान में अकेला लड़ता हुआ नजर आये ! क्या सत्ता की कुर्बानी का ठेका केवल वामपंथ ने ले रखा है ? बनारस में नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा हो जाने से केजरीवाल और अमेठी में राहुल के खिलाफ कुमार विश्वाश के चुनाव लड़ने मात्र से ‘आप’ का स्टैंड कांग्रेस और भाजपा से पृथक् नहीं कहा जा सकता। ‘आप’ के नेता या कार्यकर्ता भ्रष्टाचार से लड़ने की बात तो खूब करते हैं किन्तु भ्रष्ट मुख्तार अंसारी का समर्थन पाने के लिए बड़े उतावले रहते हैं।
स्वाभाविक है कि एनडीए या मोदी को वामपंथ का सहयोग तो नहीं मिलेगा। लेकिन मोदी यदि ममता का समर्थन नहीं लेते और फिर भी सत्ता सीन हो जाते हैं तब ‘वामपंथ’ को क्या स्टेण्ड लेना चाहिए ? क्या एनडीए के साथ किसी तरह के पुनर्विचार या कामन मिनिमम प्रोग्राम की फिर भी कोई गुंजाइश नहीं है ? क्या यह सच नहीं की भाजपा के भीतर अभी तक नरेन्द्र मोदी एकमात्र नेता हैं जिन्होंने देश के तमाम उन दलों और नेताओं को धो डाला है जिन्होंने एनडीए या मोदी का बहिष्कार कर रखा है। मोदी ने केवल वामपंथ के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। उन्होंने त्रिपुरा में भी सीपीएम की सरकार के खिलाफ कुछ नहीं कहा। वे कुछ-कुछ अटल जी की तरह ही वामपंथ का लिहाज करते प्रतीत हो रहे हैं। इसके उलट वामपंथ की कतारों में ‘नमो’ हमेशा सर्वथा त्याज्य और निंदनीय रहे हैं। वैसे भी वामपंथ के द्वारा कांग्रेस और भाजपा को एक समान निशाने पर लेने की नीति के वाबजूद कांग्रेस और यूपीए को वाम की ओर से सदाशयता मिलती ही रही है। जबकि एनडीए, भाजपा और मोदी केवल ‘महाछूत’ ही रहे हैं। इन्हीं कारणों से देश में कई जगहों पर वाम कार्यकर्ता या तो निष्क्रिय हो चले हैं या ‘आप’ के साथ हो लिये हैं।
इन हालात में जबकि माया, ममता, जय ललिता जैसी स्वयंभू नेत्रियां देश की नहीं अपने अहम की चिंता में ‘दुबली’ हो रही हों, देवेगौड़ा, नीतीश, मुलायम कालातीत होने जा रहे हों, नवीन पटनायक, चन्द्र बाबू नायडू और अगप ने एनडीए का हाथ थाम लिया हो तब ‘वामपंथ ‘ को क्या स्टेण्ड लेना चाहिए ? वाम मोर्चे के द्वारा 2004 में जब यूपीए- प्रथम को बाहर से ‘मुद्दों पर आधारित’ समर्थन दिया जा सकता है और वक्त आने पर 2008 में [1, 2, 3 एटमी करार पर असहमति स्वरूप] वापिस भी लिया जा सकता है तो 2014 में एनडीए को बाहर से समर्थन क्यों नहीं दिया सकता ? यदि भाजपा 200 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आती है तो स्वाभाविक है कि अन्य क्षेत्रीय दल भी उसके साथ जुड़ेंगे ही। तब तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने का प्रयास केवल एक औपचारिक राजनैतिक रस्म अदायगी ही रह जायेगी। बेशक भारत में केवल वामपंथ ही है जो जनआकांक्षी, न्याय आधारित, शोषण मुक्त समाज व्यवस्था के लिए सर्वजनहितकरी नीतियों पर अडिग रहा है, उसके संसदीय प्रजातंत्र के हस्तक्षेप की डगर में कुछ खुशनुमा दौर आये हैं तो मैदानी जन संघर्षों में भी मेहनत कशों ने खून पसीना एक किया है। वामपंथ कोइ छुई -मुई नहीं कि कोई मोदी छू ले, कोई भाजपा छू ले,या ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ पर आधारित एनडीए छू ले तो वो कुम्हला जायेगा। बेशक जब एक बार यूपीए-प्रथम को समर्थन देकर वामपंथ ने डॉ मनमोहन सिंह के उदार पूंजीवाद से ‘मनरेगा,आर टी आई और कमजोरों -दलितों आदिवासियों के हितार्थ अनेक सार्थक फैसले लागु करवाये हैं तो एनडीए के उग्र पूँजीवाद से नाउम्मीद क्यों ?जहां तक संघ पोषित बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता का सवाल है वो तो देश की जनता के जनादेश से ही परिभाषित हो जाएगा। यदि यूपीए के कुकर्मो से एनडीए की साम्प्रदायिकता बड़ी है तो उस पर देश को समवेत फैसला लेना चाहिए। कुर्बानी का, देशभक्ति का और धर्मनिरपेक्षता का ठेका क्या अकेले वामपंथ ने ले रखा है ? क्या वामपंथ ने ओमान चांडी या ममता से कुछ कम धर्मनिरपेक्षता का आचरण किया था ? जो केरल और बंगाल में हार का मुँह देखना पड़ा ? क्या संसदीय प्रजातंत्र में आदर्शों की बलिबेदी केवल भारत के उस संगठित पक्ष के लिए ही बनी है? मेहनतकश जनता के हरावल दस्तों का यूं ही चूक पर चूक करते हुए अप्रसांगिक होते जाना क्या साबित करता है? कौन सा वर्ग संघर्ष होने जा रहा है?
किसी भी पक्ष की ओर से मोदी का व्यक्तिगत अंध विरोध उन पर अनैतिक आचरण के आरोप किसी भी तरह से जायज नहीं है। उनकी नीतियों पर असहमति हो सकती है, उनसे बेहतर नेता भी भारत में ढेरों हो सकते हैं, यह भी जाहिर है कि मोदी की नीतियां- कार्यक्रम व सोच भी उतनी वैज्ञानिक और प्रेक्टिकल नहीं है जितनी की वे बताते हुये नहीं थक रहे हैं। बेशक जिस तरह मुंबई, कोलकाता नहीं हो सकता,जिस तरह जयपुर, झुमरी तलैया नहीं हो सकता और जिस तरह जापान फिलिस्तीन नहीं हो सकता उसी तरह समग्र भारत गुजरात नहीं हो सकता। लेकिन सकारात्मक सोच और तरक्की के सपने देखने वाले मोदी कम से कम उस धूर्त-स्वार्थी, लालची मजदूर विरोधी ममता से तो बेहतर ही हैं जो सत्ता लिप्सा के लिए नक्सलवादियों, माओवादियों से लेकर बांग्लादेशी घुसपैठियों ओर घोर वाम विरोधी कठमुल्लाओं की गोद में जा बैठी है।
जो लोग कांग्रेस और भाजपा को भारत के विकास, सुरक्षा और समृद्धि के लिए रोड़ा मानते हैं, मैं उनसे सहमत हूँ जो लोग भाजपा और संघ परिवार में ‘फासिज्म’ के बीज देखते हैं। मैं उनसे भी सहमत हूँ जो लोग कांग्रेस को राजनीति की भ्रष्ट ‘गन्दलाई’ हुई असहनीय गटर गंगा समझते हैं। मैं उनसे भी कुछ-कुछ सहमत हूँ। लेकिन जो लोग पूरी की पूरी कांग्रेस और पूरी की पूरी भाजपा को ‘अधम-अपावन’ समझते हैं मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। मेरा मन्तव्य यह है कि जब कांग्रेस में, भाजपा में वामपंथ या अन्य राजनैतिक दलों में कोई व्यक्ति गलत बात कहता है तो उसका विरोध स्वाभाविक और जायज है किन्तु जब वह व्यक्ति राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सही और देश हित की बात करता है तो उसका स्वागत भी किया जाना चाहिए।
गुजरात के मुख्य मंत्री और भाजपा के ‘पी एम् इन वेटिंग’ नरेंद्र मोदी बंगाल में जाकर ममता की वास्तविकता जनता के सामने रखते हैं, उसकी पोल’ खोलते हैं, सत्ता में आने पर बँगलादेश के घुसपैठियों को भारत से निकाल बाहर करने की बात करते हैं और ममता को कठघरे में खड़ा करते हैं तो वे केवल भाजपा का ही हित देखते हुए नहीं लगते। बल्कि वे भारत की सुरक्षा और ममता की राष्ट्र विरोधी असल तस्वीर भी पेश कर रहे होते हैं। ममता ओर मोदी दोनों मेरे पसंदीदा नेता नहीं हैं। किन्तु इस प्रसंग में मोदी को मैं ममता से बेहतर मानने को बाध्य हूँ क्योंकि ममता ने केवल वोट की गन्दी राजनीति के लिए और वामपंथ की वापिसी रोकने के लिए बंगाल में तो मोदी का विरोध कर रखा है जबकि राजनीतिक क्षितिज पर उसकी नजरें एनडीए और भाजपा से मिली हुई हैं। उसके प्रवक्ता ‘डेरेक ओ ब्राइन का बयान उसी गुप्त कड़ी का एक हिस्सा है। श्री रामपुर [बंगाल] की आम सभा में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ममता को सराहते हैं, उन्हें वामपंथ और कांग्रेस से लड़ने और भाजपा से प्यार की पींगे बढ़ाने को फुसलाते हैं तो मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि राजनाथसिंह झूठे और कपटी हैं। जबकि नरेंद्र मोदी उनसे कहीं ज्यादा साफ़गोई के प्रतीक हैं। उन्हें वाम की ओर से समर्थन न सही लेकिन जनता का बहुमत यदि मिलता है तो कम से कम यूपीए और कांग्रेस से तो देश को मुक्त होने ही दिया जाये !
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