-पलाश विश्वास
सबसे पहले एक खुशखबरी। हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े को मैसूर में कर्नाटक ओपन यूनिवर्सिटी से मानद डीलिट की उपाधि दी गयी है। हम उम्मीद करते हैं कि इससे उनकी कलम और धारदार होगी और वे निरंतर संवाद की पहल करते रहेंगे। दीक्षांत समारोह में अपने संबोधन में आनंद ने उच्च शिक्षा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और ज्ञान बाजार के खिलाफ युद्धघोषणा की है। हमने अंग्रेजी में उनके मूल वक्तव्य और दक्षिण भारत के अखबारों में व्यापक कवरेज पहले ही साझा कर दिया है। यह सामग्री हिंदी में आने पर इसपर भी हम संवाद की कोशिश करेंगे। आनंद जी को हमारी बधाई।
हमारे गांधीवादी अग्रज, ख्यातिलब्ध हिमांशु कुमार की ये पंक्तियां शेयरबाजारी जनादेश के मुखोमुखी देश में हो रहे उथल पुथल को बहुत कायदे से अभिव्यक्त करती हैं। हम हिमांशु जी के आभारी है कि जब हमें मौजूदा परिप्रेक्ष्य में चौराहे पर खड़े मुक्तिबोध के अंधेरे को जीने का वर्तमान झेलना पड़ रहा है, तब उन्होंने बेशकीमती मोमबत्तियां सुलगा दी है। कांग्रेस को क्या एक किनारे कर दिये गये प्रधानमंत्री के दस साला अश्वमेधी कार्यकाल में हम फिर सत्ता में देखना चाहते थे, अपनी आत्मा को झकझोर कर हमें यह सवाल अवश्य करना चाहिए। क्या हम धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील राजनीतिक खेमे के पिछले सत्तर साला राजनीतिक पाखंड से ऊबे नहीं हैं अब तक और नवउदारवादी साम्राज्यवादी नस्ली जायनवादी कारपोरेट राज में सत्ता शेयर करने खातिर मेहनतकश सर्वस्वहारा बहुसंख्य भारतीयों के खिलाफ उनके संशोधनवादी दर्शन को हम तीसरा विकल्प मानकर चल रहे थे, हकीकत की निराधार जमीन पर, इसका आत्मालोचन भी बेहद जरूरी है।
फिर क्या हम उन सौदेबाज मौकापरस्त अस्मिता धारक वाहक क्षत्रपों से उम्मीद कर रहे थे कि कल्कि अवतार के राज्याभिषेक को वे रोक देंगे और हर बार की तरह चुनाव बाद या चुनाव पूर्व फिर तीसरे चोथे मोर्चे का ताजमहल तामीर कर देंगे, इस पर भी सोच लें।या फर्जी जनांदोलन के फारेन फंड, टीएडीए निष्णात एनजीओ जमावड़े से हम उम्मीद कर रहे थे कि वे फासीवाद का मुकाबला करेंगे विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, यूरोपीय समुदाय के सीधे निर्देशन और नियंत्रण में और मौजूदा भ्रष्ट धनपशुओं के करोड़पति तबके के खिलाफ भारतीय जनता के गहरे आक्रोश, सामाजिक उत्पादक शक्तियों और खास तौर पर छात्रों, युवाजनों और स्त्रियों की बेमिसाल गोलबंदी को गुड़गोबर कर देने के उनके एकमात्र करिश्मे, प्रायोजित राजनीति के एनजीओकरण से हम अपनी मुक्ति का मार्ग तलाश रहे थे।
असल में हमने धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण की आग को हवा देकर कल्कि अवातर के लिए पलक पांवड़े बिचाने का काम किया चुनाव आने तक इंतजार करते हुए वोट समीकरण के अस्मिता पक्ष की गोलबंदी पर दांव लगाकर,जमीन पर आम जनता की गोलबंदी की कोशिश में कोई हरकत किये बिना। संविधान पहले से देश के वंचित अस्पृश्य बहिष्कृत भूगोल में लागू है ही नहीं। कानून का राज है ही नहीं। नागरिक मानव और मौलिक अधिकारों का वजूद है नहीं। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साला मताधिकार है। सारा कुछ बाजार में तब्दील है। पूरा सत्यानाश तो पिछले तेइस साल में हो ही चुका है। कल्कि अवतार बाकी अधूरे बचे कत्लेआम एजेंडे को अंजाम देंगे, बिना शक। लेकिन राष्ट्र व्यवस्था का जो तंत्र मंत्र यंत्र है, उसमें वैश्विक जायनवादी मनुस्मृति व्यवस्था के इस साम्राज्य में कल्कि अवतरित न भी होते तो क्या बच्चे की जान बच जाती, इसे तौलना बेहद जरुरी है। खासकर तब जब जनादेश से तयशुदा खारिज कांग्रेस की सरकार जिस तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से लेकर पूंजी के हित में ताबड़तोड़ फैसले थोप रही है एकदम अनैतिक तरीके से जाते जाते, समझ लीजिये कि यह सरकार वापस लौटती तो अंजामे गुलिस्तान कुछ बेहतर हर्गिज नहीं होता।
हमने आगे की सोचा ही नहीं है और इस दो दलीय कारपोरेट राज को मजबूत बनाते तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़ने के सिलसिले में अब तक कोई पहल ही नहीं की है। शेयरबाजारी मीडिया सुनामी के मध्य कल्कि अवतार के राज्याभिषेक के इंतजार में पलक पांवड़े बिछाये धर्मोन्मादी पैदल सेनाओं के मुकाबले जनविरोधी कांग्रेस की शर्मनाक विदाई पर विलाप करने वाले हमारे लोग दरअसल एक समान हैं जो जाने अनजाने इस कारपोरेट कारोबार को जारी रखना चाहते हैं। तानाशाही है, तो लड़ना होगा साथी। लेकिन हम पिछले सात दशकों में मुफ्त में मिली आजादी की विरासत को लुटाने के सिवाय राष्ट्रहित में जनहित में जनता के मध्य किसी तरह की कोई पहल करने से नाकाम रहे और हर बार वोट के फर्जी हथियार से तिलिस्म तोड़ने का सीधा रास्ता अख्तियार करके अंततः अपने ही हित साधते रहे। अपनी ही खाल बचाते रहे।
तानाशाह कोई व्यक्ति हरगिज नहीं है, तानाशाह इस सैन्य राष्ट्र का चरित्र है, जिसने लोकगणराज्य को खा लिया है। फासीवादी तो असल में वह कारपोरेट राज है जिसे बारी बारी से चेहरे भेष और रंग बदलकर वर्स्ववादी सत्तावर्ग चला रहा है और हम भेड़धंसान में गदगद वधस्थल पर अपनी गरदन नपते रहने का इंतजार करते हुए अपने स्वजनों के खून से लहूलुहान होते रहे हैं। प्रतिरोध के बारे में सोचा ही नहीं है। इससे पहले हम लिख चुके हैं लेकिन हिमांशु जी की इन पंक्तियों के आलोक में फिर दोहरा रहे हैं कि अगर आप नजर अंदाज कर चुके हैं तो फिर गौर करने की कोशिश जरूर करें-
मुसलमानों का अल्लाह एक है। उपासना स्थल एक है। उपासना विधि एक है। अस्मिता उनका इस्लाम है। जनसंख्या के लिहाज से वे बड़ी राजनीतिक ताकत हैं। रणहुंकार चाहे जितना भयंकर लगे, देश को चाहे दंगों की आग में मुर्ग मसल्लम बना दिया जाये, गुजरात नरसंहार और सिखों के नरसंहार की ऐतिहासिक घटनाओं के बाद अल्पसंख्यकों ने जबर्दस्त प्रतिरोध खड़ा करने में कामयाबी पायी है।
जिस नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहुसंख्यकों ने भारत विभाजन के बलि करोड़ों हिंदू शरणार्थियों के देश निकाले के फतवे का आज तक विरोध नहीं किया, मोदी के मुसलमानों के खिलाफ युद्धघोषणा के बाद उस पर चर्चा केंद्रित हो गयी है।
अब हकीकत यह है कि कारपोरेट देशी विदेशी कंपनियों की पूंजी जिन आदिवासी इलाकों में हैं, वहां आदिवासियों के साथ हिंदू शरणार्थियों को बसाया गया। इन योजनाओं को चालू करने के लिए हिंदुओं को ही देश निकाला दिया जाना है, जैसा ओडीशा में टाटा, पास्को, वेदांत साम्राज्य के लिए होता रहा है। आदिवासी इलाकों में मुसलामानों की कोई खास आबादी है नहीं। जाहिर है कि इस कानून के निशाने पर हिंदू शरणार्थी और आदिवासी दोनों हैं। कल्कि अवतार और उनके संघी समर्थक हिंदुओं को मौजूदा कानून के तहत असंभव नागरिकता दिलाने का वादा तो कर रहे हैं लेकिन नागरिकता वंचित ज्यादातर आदिवासी नागरिकों की नागरिकता और हक हकूक के बारे में कुछ भी नहीं कह रहे हैं। जबकि आदिवासी बहुल राज्यों मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान में केसरिया हुकूमत है जहां बेरोकटोक सलवा जुड़ुम संस्कृति का वर्चस्व है। खुद मोदी गर्व से कहते हैं कि देश की चालीस फीसदी आदिवासी जनसंख्या की सेवा तो केसरिया सरकारें कर रही हैं।
अब विदेशी पूंजी के अबाध प्रवाह, रक्षा,शिक्षा, स्वास्थ्य, उर्जा, परमाणु उर्जा, मीडिया, रेल मेट्रो रेल, बैंकिंग, जीवन बीमा,विमानन, खुदरा कारोबार समेत सभी सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, अंधाधुंध विनिवेश और निजीकरण के शिकार तो धर्म जाति समुदाय अस्मिता और क्षेत्र के आर पार होंगे। खेत और गांव तबाह होंगे तो न हिंदू बचेंगे, न मुसलमान, न सवर्णों की खैर है और न वंचित सर्वस्वहारा बहुसंख्य बहुजनों की। इस सफाये एजंडे को अमला जामा पहवनाने के लिए संवैधानिक रक्षा कवच तोड़ने के लिए नागरिकता और पहचान दोनों कारपोरेट औजार है। अब खनिजसमृद्ध इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूटखसोट की तमाम परियोजनाओं को हरीझंडी देना कारपोरेट केसरिया राज की सर्वोच्च प्राथमिकता है और इसके लिए सरकार को ब्रूट, रूथलैस बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार है । इसके साथ ही पुलिस प्रशासन और सैन्य राष्ट्र की पाशविक शक्ति का आवाहन है। अब मसला है कि हिंदुओं और मुसलमानों, आदिवासियों, तमाम जातिबद्ध क्षेत्रीय नस्ली अस्मिताओं कोअलग अलग बांटकर वोट बैंक समीकरण वास्ते कारपोरेट हाथों को मजबूत करके अग्रगामी पढ़े लिखे नेतृत्वकारी मलाईदार तबका आखिर किस प्रतिरोध की बात कर रहे हैं, विचारधाराओं की बारीकी से अनजान हम जैसे आम भारतवासियों के लिए यह सबसे बड़ी अनसुलझी पहेली है। यह पहेली अनसुलझी है। लेकिन समझ में आनी चाहिए कि इस देश के शरणार्थी हो या बस्ती वाले, आदिवासी हों या सिख या मुसलमान, वे अपनी अपनी पहचान और अस्मिता में बंटकर बाकी देश की जनता के साथ एकदम अलगाव के मध्य रहेंगे और सत्तावर्ग प्रायोजित पारस्पारिक अंतहीन घृणा और हिंसा में सराबोर रहेंगे, तो वध स्थल पर अलग-अलग पहचान, अलग-अलग जाति, वर्ग, समुदाय, नस्ल, भाषा, संस्कृति के लोगों की बेदखली और उनके कत्लेआम का आपरेशन दूसरे तमाम लोगों की सहमति से बेहद आसानी से संपन्न होगी।
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