शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

वारदात के 8 साल बाद फूटी इंसाफ की पहली किरण

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बेटे की मौत का बोझ मन पर लिए एक 70 साल की बुजुर्ग विधवा आठ साल तक बेटे की हत्या की एफआईआर दर्ज कराने के लिए दिल्ली पुलिस के तमाम नौकरशाहों व मंत्रियों के चक्कर काटती रही, मगर किसी का भी दिल वृद्धा की करुण पुकार सुनकर नहीं पसीजा। मगर, अब इस बुजुर्ग महिला की करुण पुकार को सुनकर राजधानी की कड़कडड़ूमा कोर्ट ने उसे न्याय दिलाने की ठोस पहल की है। अदालत के दखल के बाद बुजुर्ग महिला को पूरा न्याय तो न सही मगर, न्याय की पहली किरण फूटती हुई जरूर दिखाई दी है। अदालत के सख्त रवैये के बाद आखिरकार गीता कालोनी थाना की पुलिस ने वारदात के आठ साल बाद बुजुर्ग महिला के बेटे की हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया है और मामले की जांच भी शुरू कर दी है। महानगर दंडाधिकारी सुरभि शर्मा वत्स ने गांधी नगर निवासी 70 वर्षीय बुजुर्ग सतनाम कौर की शिकायत पर गंभीर रवैया अपनाते हुए दिल्ली पुलिस को कड़ी फटकार भी लगाई और पुलिस की न्याय प्रणाली पर सवालिया निशान भी लगाए हैं। अदालत ने कहा कि हत्या जैसे गंभीर मामले में पुलिस द्वारा मुकदमा दर्ज न करना चौंकाने वाला रवैया है। इस मामले में पुलिस मुकदमा दर्ज कर तुरंत जांच करे। अदालत के आदेश पर गीता कालोनी थाना की पुलिस ने 16 जुलाई 2006 को कंवलजीत की जहर देकर की गई हत्या का मामला दर्ज कर लिया है।


यह था पूरा मामला

गांधी नगर निवासी 70 वर्षीय बुजुर्ग विधवा सतनाम कौर ने पुलिस को दी अपनी शिकायत में कहा है कि वर्ष 2006 में उसके बड़े बेटे कंवलजीत व छोटे बेटे प्रीत पाल में गांधी नगर में 200 गज की एक प्रापर्टी को लेकर विवाद चल रहा था। इसी विवाद के चलते उसके बेटे प्रीतपाल ने अपने मित्र संजीव मित्तल व एक अन्य महिला के साथ मिलकर 16 जुलाई 2006 को कंवलजीत सिंह को जहर खिला दिया। मरने से पूर्व इस वारदात की सूचना कंवलजीत ने खुद 100 नंबर पर पुलिस को फोन करके दी थी। मगर, अस्पताल में बयान देने से पूर्व ही उसकी मौत हो गई थी। गीता कालोनी थाना की पुलिस ने इस मामले में आरोपियों से मिलीभगत कर कंवलजीत की मौत का मामला दर्ज नहीं किया। सतनाम कौर ने बताया कि उसने अपने बेटे की मौत पर इंसाफ के लिए अपनी बेटी हरविंदर कौर के साथ मिलकर पुलिस थाना, पुलिस अधिकारियों, दिल्ली के मंत्रियों के खूब चक्कर काटे। मगर उसे कहीं से भी इंसाफ नहीं मिला। उसने अदालत की भी शरण ली। महानगर दंडाधिकारी सुरभि शर्मा ने 14 मार्च को पुलिस को केस दर्ज करने का आदेश दिया। उसके बावजूद पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया। आरोपियों ने इस फैसले को सेशन कोर्ट में चुनौती दी। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश पीएस तेजी ने 27 मई को उनकी याचिका खारिज कर दी। इसके बाद सतनाम कौर ने दोबारा से अदालत में अर्जी दायर की। इस बार अदालत ने पुलिस को कड़ी फटकार लगाई और 7 जून को मुकदमा दर्ज करने के आदेश दिया। पुलिस ने केस दर्ज कर उसकी प्रति अदालत में दाखिल कर दी है

पत्नी की सहमति के बगैर, पति शारीरिक संबंध बनाए तो वह बलात्कार नहीं


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दिल्ली की एक अदालत ने ने एक महिला से बलात्कार के आरोपी शख्स को बरी करते हुए यह टिप्पणी की कि पत्नी की सहमति के बगैर भी पति उससे शारीरिक संबंध बनाए तो वह बलात्कार नहीं होता.
महिला आरोपी के किरायेदार के तौर पर रही थी . बरी किए गए शख्स पर आरोप था कि उसने महिला को कोई नशीली चीज पिला कर उससे बलात्कार किया . इस शख्स पर शिकायतकर्ता महिला से शादी करने के बाद भी उससे बलात्कार करने का आरोप था .

अदालत ने कहा, ‘‘यह शिकायतकर्ता का ही कहना है कि आरोपी ने 20 जुलाई 2012 को एक मौलवी की मौजूदगी में अपनी बुआ के घर में उससे निकाह किया’’ अदालत ने कहा, ‘‘शिकायतकर्ता और आरोपी 20 जुलाई 2012 के बाद से कानूनी तौर पर शादीशुदा पति-पत्नी थे और उसके बाद दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बने . यदि शारीरिक संबंध में शिकायतकर्ता महिला की सहमति नहीं थी तो भी इसे बलात्कार नहीं कहा जा सकता’’

अदालत ने दिल्ली के रहने वाले आफताब आलम को यह कहते हुए बरी कर दिया कि महिला की गवाही ‘‘संदिग्ध’’ थी और उसे ‘‘विश्वसनीय’’ नहीं माना जा सकता .

शिकायतकर्ता महिला का आरोप था कि उसे नशीला पदार्थ खिलाकर बेहोशी की हालत में गाजियाबाद स्थित मैरिज रजिस्ट्रार के कार्यालय ले गया था. जहां विवाह पंजीकृत कराने संबंधी दस्तावेजों पर धोखे से उसके हस्ताक्षर करवा लिए. उसके बाद उससे जबरन शारीरिक संबंध स्थापित किए और कुछ समय बाद ही बेसहारा छोड़ दिया.अदालत ने फैसले में कहा है कि शिकायतकर्ता महिला अपने बयान में खुद स्वीकार कर चुकी है कि आरोपी ने उससे शादी की थी.

जहां तक नशीले पदार्थ के प्रभाव में विवाह संबंधी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने की बात है तो इसके समर्थन में कोई सबूत पेश नहीं किया गया. पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंध बनना, चाहे वह जबरन बनाने का आरोप ही हो, बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता.

वहीं, मामले में आरोपी ने सफाई दी थी कि उसने शिकायतकर्ता महिला से पहले रीति-रिवाज से शादी रचाई, फिर महिला के ही कहने पर कोर्ट में शादी पंजीकृत करवाई थी. बाद में संपत्ति विवाद के चलते उसकी पत्नी ने शादी में अपनी सहमति से इंकार करते हुए उसके ऊपर बलात्कार व अन्य दूसरे आरोप लगा दिए

पत्रकारों को निशाना बनाना खतरनाक है



बेहद खतरनाक है पत्रकारों को सजा देना, पढें वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी का विश्लेषण...
पश्चिम एशिया में लोकप्रिय अंग्रेजी चैनल अल-जजीरा के पत्रकारों को मिस्र में सजा सुनाए जाने के बाद दुनिया भर के पत्रकारों की पहली प्रतिक्रिया सदमे और सन्नाटे की है। इतने बड़े स्तर पर पत्रकारों को सजा देने का यह पहला मामला है। बावजूद इसके हमारे देश में इस खबर पर ज्यादा चर्चा नहीं है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि हाल में भारतीय मीडिया के राजनीतिक झुकाव को लेकर उस पर हमले होने लगे हैं। उसकी साख को कायम रखने का सवाल है। दूसरी ओर पिछले तीन-चार साल में पत्रकारों की राजनीतिक और व्यावसायिक भूमिका को लेकर हमारे यहां ही नहीं दुनिया भर में जबर्दस्त टिप्पणियाँ हुईं हैं।

सूखे की आहट में मोदी सरकार के हड़बडी भरे कदम

पुण्य प्रसून बाजपेयी


लहलहाती फसल हो या फिर परती जमीन। जबरदस्त बरसात के साथ शानदार उत्पादन हो या फिर मानसून धोखा दे जाये और किसान आसमान ही ताकता रह जाये। तो सरकार क्या करेगी या क्या कर सकती है। अगर बीते 10 बरस का सच देख लें तो हर उस सवाल का जबाव मिल सकता है कि आखिर क्यों हर सरकार मानसून कमजोर होने पर कमजोर हो जाती है और जब फसलें लहलहाती है तब भी देश के  विकास दर में कृषि की कोई उपयोगिता नहीं होती। तीन वजह साफ हैं। पहला 89 फिसदी खेती के लिये देश में कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। दूसरा,देश में अनाज संरक्षण का कोई इन्फ्रास्ट्क्चर नहीं है। तीसरा कृषि से कई गुना ज्यादा सब्सिडी उद्योग और कॉरपोरेट को मिलता है। यानी मोदी सरकार ने जो आज अनाज संरक्षण से लेकर गोदामों में सीसीटीवी लगाने की योजना बनायी वह है कितनी थोथी इसका अंदाजा इसे से हो सकता है। कि औसतन देश में 259 मिलियन टन अनाज हर बरस होता है। लेकिन सरकार के पास 36.84 मिलियन टन अनाज से ज्यादा रखने की व्यवस्था है ही नहीं। यानी हर बरस दो सौ मिलियन टन अनाज रखा कहां जाये, यह हमेशा से सवाल ही रहा है। और असर इसी का है कि 44 हजार करोड़ रुपये का अनाज हर बरस बर्बाद हो जाता है। यानी सरकार जो भी सब्सिडीखेती के नाम पर किसानों को देती है उसका आधा सरकार के पास कोई प्लानिंग ना होने की वजह से पानी में मिल जाता है।

मॉनसून कमजोर है इसे लेकर सरकार के हाथ-पांव जिस तरह फूले हुये हैं और जिस तरह गोदामों में सीसीटीवी लगाने की बात हो रही है और राशन दुकानों में कम्प्यूटर की बात हो रही है उसका सबसे बडा सच यही है कि देश में सरकार गोदाम महज 13 मिलियन टन रखने भर का है और किराये के गोदामों में 21 मिलियन टन अनाज रखा जाता है। और-करीब 3 मिलियन अनाज टन चबूतरे पर खुले आसमान तले तिरपाल से ढक कर रखा जाता है। यानी हजारों मिट्रिक टन अनाज हर बरस सिर्फ इसलिये बर्बाद हो जाता है क्योंकि गोदाम नहीं है और देश में गोदाम बनाने का बजट। और गोदाम के लिये जमीन तक सरकार के पास नहीं है। क्योकि भूमि सुधार के दायरे में गोदामों के लिये जमीन लेने की दिशा में किसी सरकार ने कभी ध्यान दिया ही नहीं है । तो फिर कमजोर मानसून से जितना असर फसलों पर पड़ने वाला है करीब उतना ही अनाज कम गोदामों के वजह से बर बरस बर्बाद होता रहा है। और एफसीआई ने खुद माना है कि 2005 से 2013 के दौरान 194502 मिट्रिक टन अनाज बर्बाद हो गया । और देश में 2009 से 2013 के दौर में बर्बाद हुये फल,सब्जी, अनाज की कीमत 206000 करोड़ रुपये रही।

लेकिन सरकार की नजर पारंपिरक है क्योंकि मानसून की सूखी दस्तक ने सरकार को मजबूर किया है कि वह खेती पर दी जा रही सब्सिडी को जारी रखे। इसलिये मोदी सरकार ने फैसला लिया है कि वह बीज और खाद पर सब्सिडी को बरकरार रखेगी। लेकिन जिस खेती पर देश की साठ फीसदी आबादी टिकी है उसे दी जाने वाली सब्सिडी से कई गुना ज्यादा सब्सिडी उन उघोगों और कॉरपोरेट को दी जाती है, जिस पर 12 फीसदी से भी कम की आबादी टिकी है। यानी सरकार की प्राथमिकता खेती को लेकर कितनी है और सरकार की नीतियां उघोग-धंधों को लेकर किस कदर है इसका अंदाजा मनमोहन सरकार के दौरान के इस सच से समझा जा सकता है कि पी चिदंबरम ने फरवरी में रखे अंतरिम बजट में अनाज, डीजल और खाद पर करीब ढाई लाख करोड की सब्सिडी देने का अनुमान बताया। वहीं कॉरपोरेट टैक्स से लेकर एक्साइज और कस्टम ड्यूटी में जो छूट उघोग और कारपोरेट को दी वह करीब छह लाख करोड़ की है। सवाल यही है कि क्या मोदी सरकार इन नीतियों को पलटेगी या फिर खेती को लेकर शोर शराबा ज्यादा होगा और चुपके चुपके हर बार की तरह इस बरस भी कॉरपोरेट टैक्स, पर्सनल टैक्स, एक्साइज टैक्स और कस्टम टैक्स में औगोगिक घरानों को रियायत देने का सिलसिला जारी रहेगा। मुश्किल यह है कि बीते पांच बरस में करीब तीस लाख करोड़ की रियायत औघोगिक घरानों को दी गयी। और अनाज संरक्षण से लेकर खेती के इन्फ्रास्ट्रक्चर को बनाने में सरकार को सिर्फ इसका आधा यानी दस से बारह लाख करोड़ ही चाहिये। मनमोहन सरकार की प्राथमिकता खेती रही नही। इसलिये जीडीपी में कृषि का योगदान भी 18 फीसदी से भी नीचे आ गया। अब मोदी सरकार की प्राथमिकता खेती है या फिर वह भी औङोगिक घरानों के मुनाफे तले चलेगी इसका इंतजार करना पड़ेगा। जो अभी तक साफ नहीं है और सरकार ने पहले महीने सिर्फ सरकार चलाने में आने वाली मुश्किलों को ही दुरुस्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। यानी असर कोई नजर आये यह बेअसर हैं। वैसे सब्सिडी का खेल भी निराला है। एक तरफ खेती के लिये 246397 करोड़ रुपये सब्सिडी दी गयी तो चालू वर्ष में उघोग/ कारपोरेट को 5,73,630 करोड़ रुपये की रियायत दी गयी है। सवाल है इसे मोदी सरकार बदलेगी या मनमोहन के रास्ते पर ही चलेगी। वैसे मोदी को अब फूड सिक्यूरटी बिल भी अच्छा लगने लगा है। 1 लाख 31 हजार करोड के जरीये हर किसी को भोजन देने की बात सोनिया के राष्ट्रीय सलाहकार समिति के ड्रीम प्रोजेक्ट से निकली, मनमोहन सिंह ने फूड सिक्यूरटी बिल के तौर पर लाये और अब नरेन्द्र मोदी सरकार इसे लागू कराने पर भिड़ गये हैं।

लेकिन 1 लाख 31 हजार करोड की यह योजना पूरे देश में लागू  कब और कैसे होगी यह अपने आप में सवाल है। क्योंकि यह योजना राशन की दुकानों के जरीये ही लागू होना है । और मौजूदा वक्त में सरकार के ही आंकड़ें बताते है कि देश भर में 478000 राशन दुकाने हैं। जिनके जरीये 18 करोड़ परिवार या कहे 40 करोड़ लोगों तक अनाज पहुंचाया जाता है। वहीं योजना आयोग की रिपोर्ट बताती है कि राशन दुकानों से निकले अनाज का सिर्फ 25 फीसदी ही बीपीएल तक पहुंच पाता है। यानी 1 लाख 31 हजार करोड़ की योजना में से आने वाले वक्त में करीब एक लाख करोड रुपये कहा जायेंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। और इससे जुड़ा सच यह है कि देश में फिलहाल दो करोड 45 लाख फर्जी राशन कार्ड है। 5 लाख राशन दूकानो से अनाज की लूट पकड़ी गयी है। और बीते पांच बरस में दस लाख मिट्रिक टन अनाज बीपीएल परिवार तक पहुंचा ही नहीं। तो फिर फूड सिक्योरटी हो या अंत्योदय इसे लागू कराना ही सबसे बडी चुनौती मोदी सरकार के सामने है । और अब इसके तमाम छेद जस के तस रखते हुये मोदी सरकार भी हर पेट को भोजन देने की दिशा में बढ़ रही है।

वे कौन लोग हैं जो एसपी को याद करते हैं

पुण्य प्रसून बाजपेयी


वे कौन लोग है जो एसपी को याद करते हैं। वे कौन लोग है जो खुद को ब्रांड बनाने पर उतारु हैं, लेकिन एसपी को याद करते हैं।  वे कौन लोग है जो पत्रकारिता को मुनाफे के खेल का प्यादा बनाते हैं लेकिन एसपी को याद करते हैं। वे कौन है जो एसपी की पत्रकारीय साख में डुबकी लगाकर अतीत और मौजूदा वक्त की पत्रकारिता को बांट देते हैं। वे कौन है जो समाज को कुंद करती राजनीति के पटल पर बैठकर पत्राकरिता करते हुये एसपी की धारदार पत्रकारिता का गुणगान करने से नहीं कतराते। वे कौन है जो एसपी को याद कर नयी पीढी को ग्लैमर और धंधे का पत्रकारिता का पाठ पढ़ाने से नहीं चूकते। वे कौन है जो पदों पर बैठकर खुद को इतना ताकतवर मान लेते हैं कि एसपी की पत्रकारिता का माखौल बनाया जा सके और मौका आने पर नमन किया जा सके। इतने चेहरों को एक साथ जीने वाले पत्रकारीय वक्त में एसपी यानी सुरेन्द्र प्रताप सिंह को याद करना किसी त्रासदी से कम नहीं है। मौजूदा पत्रकारों की टोली में जिन युवाओ की उम्र एसपी की मौत के वक्त दस से पन्द्रह बरस रही होगी आज की तारिख में वैसे युवा पत्रकार की टोली कमोवेश हर मीडिया संस्थान में है। खासकर न्यूज चैनलों में भागते-दौड़ते युवा कामगार पत्रकारों की उम्र पच्चीस से पैंतीस के बीच ही है। जिन्हें २७ मई १९९७ में यह एहसास भी ना होगा कि उनके बीच अब एक ऐसा पत्रकार नहीं रहा जो २०१४ में जब वह किसी मीडिया कंपनी में काम कर रहे होंगे तो पत्रकरीय ककहरा पढने में वह शख्स मदद कर सकता है। वाकई सबकुछ तो बदल गया फिर एसपी की याद में डुबकी लगाकर किसे क्या मिलने वाला है। कही यह पत्रकरीय पापों को ढोते हुये पुण्य पाने की आकांक्षा तो नहीं है। हो सकता है। क्योंकि पाप से मुक्त होने के लिये कोई दरवाजा तो नहीं बना लेकिन भागवान को याद कर सबकुछ तिरोहित तो किया ही जाता रहा है और यही परंपरा पत्रकारिय जीवन में भी आ गयी है तो फिर गलत क्या है। हर क्षण पत्रकारिय पाप कीजिये और अपने अपने भगवन के सामने नतमस्तक हो जाइये। लेकिन पत्रकारीय रीत है ही उल्टी। यहा भगवन याद तो आते है लेकिन खुद को घोखा दे कर खुद को मौजूदा वक्त में खुद को सही ठहरा कर याद किये जाते हैं। सिर्फ एसपी ही नहीं राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा को भी तो हर बरस इसी तरह याद किया जाता है। यानी जो हो रहा है उसके लिये मै जिम्मेदार नहीं। जो नहीं होना चाहिये वह रोकना मेरे हाथ में नहीं। कमोवेश हर संपादक के हाथ हर दायरे में बंधे है इसका एहसास वह अपने मातहत काम करने वाले वालो को कुछ इस तरह कराता है जैसे उसकी जगह कोई दूसरा आ जाये या फिर परेशान और प्रताड़ित महसूस करती युवा पीढी को ही पद संभालना पड जाये तो वह ज्यादा अमानवीय, ज्यादा असंवेदनशील और कही ज्यादा बडा धंधेबाज हो जायेगा । क्योंकि मौजूदा वक्त की फितरत ही यही है। तो क्या एसपी को याद करना आज की तारीख में मौत पर जश्न मनाना है । हिम्मत चाहिये कहने के लिये । लेकिन आइये जरा हिम्मत से मौजूदा हालात से दो दो हाथ कर लें। मौजूदा वक्त में देश को नागरिको की नहीं उपभोक्ताओं की जरुरत है । साख पर ब्रांड भारी है। या कहे जो ब्रांड है साख उसी की है । नेहरु से लेकर इंदिरा तक साख वाले नेता थे। मोदी ब्रांड वाले नेता हैं। यानी देश को एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जो जिस भी उत्पाद को हाथ में लें ले या जुबान पर ले आये उसकी कमाई बढ़ सकती है। एसपी की पत्रकारिता ने इंदिरा की साख का उजाला भी देखा और अंधेरा भी भोगा। एसपी की पत्रकारिता ने जेपी के संघर्ष में तप कर निकले नेताओ का सत्ता मिलने पर पिघलना भी देखा । और जोड़तोड़ या मौका परस्त के दायरे में पीवी नरसिंह राव से लेकर गुजराल और देवेगौडा को भी देखा । बाबरी मस्जिद और मंडल कमीशन तले देश को करवट लेते हुये भी एसपी की पत्रकारिता ने देखा। और संयोग ऐसा है कि देश की सियासत एसपी की मौत के बाद कुछ ऐसी बदली कि जीने के तरीके से लेकर देश को समझने के तौर तरीके ही बदल गये । बीते पन्द्रह बरस स्वयंसेवक के नाम रहे । या तो संघ का स्वयंसेवक या फिर विश्व बैंक का स्वयंसेवक । देश की परिभाषा बदलनी ही थी । पत्रकारिता की जगह मीडिया को लेनी ही थी।

संपादक की जगह मैनेजर को लेनी ही थी। साख की जगह ब्रांड को छाना ही था । तो ब्रांड होकर साख की मौत पर जश्न मनाना ही था। असर इसी का है कि तीन बरस पहले एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने यमुना की सफाई अभियान को टीवी के पर्दे पर छेड़ा । बहुतेरे ब्रांडों के बहुतेरे विज्ञापन मिले। अच्छी कमाई हुई । तो टीवी से निकल कर यमुना किनारे ही जश्न की तैयारी हुई। गोधुली वेला से देर शाम तक यमुना की सफाई की गई। कुछ प्लास्टिक, कुछ कूडा जमा किया गया । उसे कैमरे में उतारा गया। जिसे न्यूज चैनल पर साफ मन से दिखाया गया । लेकिन देर शाम के बाद उसी यमुना किनारे जमकर हुल्लबाजी भी की। पोलेथिन पैक भोजन और मदिरापान तले खाली बोतलों को उसी यमुना में प्रवाहित कर दिया गया जिसकी सफाई के कार्यक्रम से न्यूज चैनल ने करोड़ों कमाये। तो ब्रांडिग और साख का पहला अंतर सरोकार का होता है। ब्रांड कमाई पर टिका होता है।
साख सरोकार पर टिका होता है । मौजूदा वक्त में देश के सबसे बडे ब्रांडप्रधानमंत्री ने मैली गंगा का जिक्र किया और हर संपादक इसमें डुबकी लगाने को तैयार हो गया। ऐसी ही डुबकी अयोद्या कांड के वक्त भी कई पत्रकारों- संपादकों ने लगायी थी। लेकिन एसपी ने उस वक्त सोमनाथ से अयोध्या तक के तार से देश के टूटते तार को बचाने की लिखनी की। एसपी होते तो आज पहला सवाल न्यूज रुम में यह दागते कि गंगा तो साफ है मैले तो यह राजनेता है । और फिर रिपोर्टरों को दौड़ाते की गोमुख से लेकर गंगा सागर तक जिन राजनेताओं के एशगाह है सभी का कच्चा चिट्टा देश को बताओ। किसी नेता की हवेली तो किसी नेता का फार्म हाउस। किसी नेता का होटल तो किसी नेता का गेस्ट हाउस गंगा किनारे क्यों अटखेलिया खेल रहा है। इतना ही नहीं अगर साप्ताहिक मैग्जिन रविवार की पत्रकारिता एसपी के साथ होती तो फिर गंगा में इंडस्ट्री का गिरता कचरा ही नही बल्कि शहर दर शहर कैसे शहरी विकास मंत्रालय ने निकासी  के नाम पर किससे कितना पैसा खाया और मंत्री से लेकर पार्षद तक इसमें कैसे जेब ठनकाते हुये निकल गये चोट वहा होती । और अगर ब्रांड पीएम के राजनीतिक मर्म से गंगा को जुडा देकर जनता के साथ सियासी वक्त धोखा घड़ी का जरा भी एहसास एसपी को होता तो स्वतंत्र लेखनी से वह गंगा मइया के असल भक्तों की कहानी कह देते । मुश्कल होता है सियासत को सूंड से पकडना । मौजूदा संपादक तो हाथी की पूंछ पकड कर ही खुश हो जाते है इसलिये उन्हें यह नजर नहीं आता कि क्यो देश भर में सीमेंट की सडक बनाने की बात शहरी विकास मंत्री करने लगे है । और गडकरी के इस एलान के साथ ही क्यों सीमेट के भाव चालीस रुपये से सौ रुपये तक प्रति बोरी बढ़ चुकी है । इन्फ्रास्ट्क्चर के नाम पर कस्ट्रक्सन का केल शुरु होने से पहले ही सरिया की कीमत में पन्द्रह फिसदी की बढोतरी क्यों हो गयी है । और आयरन ओर को लेकर देश-दुनिया भर में क्यो मारा मारी मची है । एसपी की रविवार की पत्रकारिता तो १० जुलाई के बजट से पहले ही बजट के उस खेल को खोल देती जो क्रोनी कैपटलिज्म का असल आईना होती । नाम के साथ कारपोरेट और औघोगिक घरानों की सूची भी छप जाती कि किसे कैसे बजटीय लाभ मिलने वाला है। वैसे एपसी का स्वतंत्र लेखन अक्सर उन सपनो की उडान को पकड़ने की कोसिश करता रहा जो राजनेता सत्ता में आने के लिये जनता को दिखाते है।

इसका खामियाजा भी उन्हे मानहानी सरीखे मुकदमो से भुगतना पड़ा लेकिन लडने की क्षमता तो एसपी में गजब की थी । बेहद सरलता से चोट करना और सत्ता के वार को अपनी लेखनी तले निढाल कर देना। आप कह सकते है वक्त बदल गया है । अब तो सत्ता भी कारपोरेट की और मीडिया भी कारपोरेट का । तो फिर रास्ता बचा कहा । तो सोशल मीडिया ने तो एक रास्ता खोला है जो नब्बे के दशक में नही था । एसपी के दौर में सोशल मीडिया नहीं बव्कि सामानांतर पत्रकारिता या कहे लघु पत्रकारिता थी । जब कही लिखने कै मौका न मिला तो अति वाम संगठन इंडियन पीपुल्स प्रंट की पत्रिका जनमत में ही लिख दिया । बहस तो उसपर शुरु हुई है क्योकि साख एसपी के साथ जुडी थी । हो सकता है एसपी की साख भी मौजूदा वक्त में ब्रांड हो जाती। हो क्या जाती होती ही। क्योकि एसपी के नाम पर जो सभा हर बरस देश के किसी ना किसी हिस्से में होती है उसका प्रयोजक कोई ना कोई पैसेवाला तो होता ही है। महानगरों में तो बिल्डर और कारपोरेट भी अब पत्रकारिता पर चर्चा कराने से कतराते नहीं है क्योंकि उनके ब्रांड को भी साख चाहिये। असल में मौजूदा दौर मुश्किल दौर इसलिये हो चला है क्योंकि मीडिया में बैठे अधिकतर संपादक पत्रकारों की ताकत राजनेताओ के अंटी में जा बंधी है। ऐसा समूह अपनी ताकत पत्रकारिय लेखनी या पत्रकारिय रिपोर्ट से मिलनी वाली साख से नहीं नापता बल्कि ताकत को ब्रांड राजनेताओ के सहलाने तले देखता है । असर इसी का है कि प्रधानमंत्री मोदी सोशल मीडिया की पत्रकारिता को भी अपने तरीके से चला लेते है और वहा भी ब्रांड मोदी की घूम होती है और मीडिया हाउसो में कुछ भी उलेट-फेर होता है तो उसके पीछे पत्रकारिय वजहो तले असल खेल को पत्रकारिय पदों पर बैठे गैर-पत्रकार ही छुपा लेते है । और जैसे ही एसपी, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा या राजेन्द्र माथुर की पुण्य तिथि आती है वैसे ही पाप का घड़ा छुपाकर पुण्य बटोरने निकल पडते है ।

पहला महीना और उम्मीदों के पहाड़

मोदी सरकार का पहला महीना उस गर्द-गुबार से मुक्त रहा, जिसका अंदेशा सरकार बनने के पहले देश-विदेश के मीडिया में व्यक्त किया गया था। कहा जा रहा था कि मोदी आए तो अल्पसंख्यकों का जीना हराम हो जाएगा वगैरह। मोदी के आलोचक आज भी असंतुष्ट हैं। वे मानते हैं कि मोदी ने व्यावहारिक कारणों से अपने चोले को बदला है, खुद बदले नहीं हैं। बहरहाल सरकार के सामने पाँच साल हैं और एक महीने के काम को देखकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

मोदी सरकार के पहले महीने के बारे में विचार करने के पहले हीहनीमून पीरियडकड़वी गोली और अच्छे दिन’ के जुम्ले हवा में थे और अभी हैं। मोदी के समर्थकों से ज्यादा विरोधियों को उनसे अपेक्षाएं ज्यादा हैं। पर वे आलोचना के किसी भी मौके पर चूकेंगे नहीं। खाद्य सामग्री की मुद्रास्फीति के आंकड़े जैसे ही जारी हुए, आलोचना की झड़ी लग गई। इसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि ये आँकड़े मई के महीने के हैं, जब यूपीए सरकार थी। महंगाई अभी बढ़ेगी। सरकारी प्रयासों से सुधार भी हुआ तो उसमें समय लगेगा। हो सकता है कि सरकार विफल हो, पर उसे विफल होने के लिए भी समय चाहिए। पिछली सरकार के मुकाबले एक अंतर साफ दिखाई पड़ रहा है। वह है फैसले करना। 

मोदी सरकार के कामकाज का तरीका निर्णयात्मक है। रेल किराया बढ़ाने का फैसला सरकार ने किया, भले ही उससे अलोकप्रियता मिली। सरकार नौकरशाही की मदद ले रही है। विदेश नीति के संदर्भ में मोदी के मुख से राष्ट्रवादी शब्दाडंबरों की जिन्हें आशा थी उन्हें निराशा हाथ लगी होगी। चुनाव-प्रत्याशी और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के हम दो रूप पाते हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण और धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के जवाब में प्रधानमंत्री की वक्तृता का लब्बोलुबाव था कि हम पिछली सरकारों के अच्छे काम-काम को आगे बढ़ाएंगे। उन्होंने विपक्ष की ओर देखते हुए कहा कि हमें आपका समर्थन भी चाहिए। हमसे पहले की सरकारों ने भी अच्छा काम किया है। हम उसमें कुछ नया जोड़ने की कोशिश करेंगे। यानी यूपीए की कल्याणकारी योजनाएं जारी रहेंगी। मोदी की आकर्षक घोषणाओं पर कांग्रेसी प्रतिक्रिया थी कि मोदी सरकार ने हमारे एजेंडा को चुरा लिया है। कुछ बातें दोनों की एक जैसी हैं।

मोदी सरकार के सामने भी महंगाई, बेरोज़गारी, पेट्रोल की कीमतें, सब्सिडी कम करने और अपने वफादार कार्यकर्ताओं को रेबड़ी बाँटने के सवाल हैं। सरकार के काम-काज को देखने के कई नजरिए हैं। पहला यह कि उनकी सरकार में कोई नाटकीय परिवर्तन है या नहीं। दूसरा नीतिगत बदलावों को लेकर है, तीसरा संस्थागत बदलावों से जुड़ा है और चौथा राजनीतिक दृष्टिकोण से। एक महीने में क्या कहा जाए। पहले बजट से कुछ समझ में आएगा। अलबत्ता रेलवे के किराए-भाड़े में हुई वृद्धि से जनता नाराज हैं। पूरी अर्थ-व्यवस्था पर असर अगले हफ्ते दिखाई पड़ेगा। देखना यह है कि सरकार तत्काल कौन से कदम उठाती है।

अरुण जेटली के बजट से लोगों को तीन-चार उम्मीदें हैं। पहली है आयकर सीमा बढ़ने की। जेटली जी खुद कह चुके हैं कि आयकर की सीमा दो लाख से बढ़ाकर पाँच लाख रुपए सालाना होनी चाहिए। क्या वे ऐसा कर पाएंगे? यह बेहद मुश्किल काम है। ऐसा होने का मतलब है तकरीबन तीन करोड़ लोग टैक्स के दायरे से बाहर हो जाएंगे। सरकार के सामने राजकोषीय घाटे को पाँच फीसदी से नीचे लाने की चुनौती है। एक लाख करोड़ से ऊपर की सब्सिडी को घटाने पर अलोकप्रिय होने का खतरा है। अर्थ-व्यवस्था की गति धीमी है। राजस्व बढ़ेगा नहीं तो कल्याणकारी कार्यों के लिए साधन कहाँ से आएंगे? इस दौरान राजस्व व्यवस्था में बदलाव लाने की चुनौती है। डायरेक्ट टैक्स कोड बिल सन 2009 से अटका पड़ा है। हालांकि वह यूपीए सरकार का बिल है, पर मोदी सरकार भी उसे किसी न किसी रूप में पास करना चाहेगी। जेटली जी के बजट में शायद इस बारे में कोई घोषणा होगी। इसी तरह एनडीए को चुनाव घोषणापत्र में गुड्स एंड सर्विस टैक्स को लागू करने का वादा है। सरकार इसके बाबत भी कोई घोषणा करेगी।

नरेंद्र मोदी गरीब जनता का दिल जीतने का काम उसकी सेहत के रास्ते से करना चाहेंगे। मोदी ने कई बार कहा है कि बीमारी गरीब आदमी की कमर तोड़ देती है। इस बात की सम्भावना है कि सरकार गरीबों के स्वास्थ्य की गारंटी की कोई योजना लेकर आएगी। गुजरात में मोदी सरकार की दो स्वास्थ्य योजनाएं खासतौर से लोकप्रिय हुईं। एक चिरंजीवी योजना, जिसके तहत बाल मृत्युदर को कम करने की कोशिश की गई। दूसरी है मुख्यमंत्री अमृतम योजना, जिसके तहत गरीबों के इलाज के लिए दो लाख रुपए तक का स्वास्थ्य बीमा किया जाता है। गुजरात में तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में 108 ऐम्बुलेंस योजना सफल हुई है। सम्भवतः उसे पूरे देश में लागू करने की कोई घोषणा हो। सरकार मच्छर मुक्त भारत बनाने, हरेक राज्य में एम्स स्थापित करने, ब्रॉडबैंड हाइवे, 100 नए शहर, चौबीस घंटे बिजली-पानी जैसे वादे करती रही है। उम्मीद है इनकी पूर्ति की दिशा में घोषणाएं होंगी।

घोषणाएं तब तक निरर्थक हैं, जबतक उन्हें लागू करने के लिए साधन पास में न हों। इसके लिए अर्थ-व्यवस्था की गति बढ़ानी होगी। इसके लिए पूँजी निवेश बढ़ाना होगा। मोदी सरकार प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है। क्या हम विदेशी पूँजी निवेशकों का दिल जीत पाएंगे, खासतौर से ऐसे राजनीतिक और प्रशासनिक माहौल में जब पूँजी निवेश को हतोत्साहित किया जाता हो? मोदी सरकार रक्षा और रेलवे में सौ फीसदी एफडीआई का समर्थन कर रही है। इस प्रस्ताव का राजनीतिक लिहाज से विरोध होगा। साधन जुटाने के लिए सार्वजनिक उद्योगों के विनिवेश का प्रस्ताव भी है। इसका भी राजनीतिक स्तर पर विरोध होगा। राजनीतिक दृष्टि से दो बड़े पैसले और होंगे। सरकार पिछली तारीखों से टैक्स बढ़ाने की विरोधी है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में वोडाफोन र नोकिया के मामलों को लेकर विवाद बढ़ा था। इसके कारण विदेशी पूँजी निवेशकों ने भारत से हाथ खींचना शुरू कर दिया था। नई सरकार के आने के बाद से रुपए की कीमत, विदेशी मुद्रा कोष की स्थिति और देश के शेयर बाजार की स्थिति सुधरी है। इस मौके पर सार्वजनिक उद्योगों के विनिवेश से सरकार को उम्मीद से ज्यादा बड़ी पूँजी मिल सकती है। पर सब कुछ राजनीतिक हालात पर निर्भर करेगा। 

राजनीति की अनिवार्यता है कि वह लोक-लुभावन बातों से बाहर नहीं आती। मसलन रेल किराया-भाड़ा बढ़ाने का प्रस्ताव कांग्रेस सरकार का था, पर वह इसे स्वीकार नहीं करती। वह झंडा लेकर आंदोलन चलाना चाहती है। भाजपा भी यही करती रही है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि हमें कड़वे फैसले करने होंगे। ज़रूर कीजिए, पर जनता को उनका औचित्य भी बताइए। जनता का मसला है महंगाई और रोज़गार। उसका दिल जीतने के लिए व्यवस्था को परदर्शी और कारगर बनाने की जरूरत है। 

हरिभूमि में प्रकाशित

मोदी सरकार की बाधाओं को खत्म कर संघ को विस्तार देने के लिये जुटेंगे प्रचारक


जश्न के मूड में संघ के प्रचारको का नायाब अभियान

पहली बार संघ के प्रचारक जश्न के मूड में हैं। चूंकि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सफर संघ के प्रचारक से ही शुरु हुआ तो पहली बार प्रचारकों में इस सच को लेकर उत्साह है कि प्रचारक अपने बूते ना सिर्फ संघ को विस्तार दे सकता है बल्कि प्रचारक देश में राजनीतिक चेतना भी जगा सकता है । यानी खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक संघठन कहने वाले आरएसएस के प्रचारक अब यह मान रहे हैं कि राजनीतिक रुप से उनकी सक्रियता सामाजिक शुद्दीकरण से आगे की सीढी है । वजह भी यही है कि पहली बार प्रचारकों का जमावडा राजनीतिक तौर पर सामाजिक मुद्दो का मंथन करेगा। यानी संघ के विस्तार के लिये पहले जहा जमीन सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर अलख जगाने की सच लिये हर बरस प्रचारक सालाना बैठक के बाद निकलते थे। वहीं इस बार जुलाई के पहले हफ्ते में इंदौर में अपनी सालाना बैठक में सभी प्रचारक जुडेंगे तो हर बरस की ही तरह लेकिन पहली बार राजनीतिक सफलता से आरएसएस की विचारधारा को कैसे बल मिल सकता है इस पर मंथन होगा । किसी मुद्दे पर कोई फैसला इस बार प्रचारकों की बैठक में नही होना है। बल्कि हर उस मुद्दे पर मंथन ही प्रचारकों को करना है जो राजनीतिक तौर पर देश में लागू किये जा सकते है । या फिर जिन्हे लागू कराने की दिशा में मोदी सरकार कदम उठाना चाहती है। उत्तर-पूर्व में संघ को लगातार ईसाई समाज से संघर्ष करना पड़ा है। जम्मू में कश्मीरी पंडितों का दर्द बार बार राहत कैंपों से निकल कर संघ को परेशान करता रहा है। देश भर में शिक्षा का आधुनिकीकरण सरस्वती शिशु मंदिर से लेकर संघ के शिक्षा संस्थानो को चेताते रहा है तो उसका कायाकल्प कैसे हो इस पर प्रचारकों को मंथन करना जरुरी लगने लगा है। यानी धीरे धीरे जो मुद्दे विवाद के दायरे में काग्रेस के दौर में फंसते रहे उसे सुलझाने के लिये सरकार काम करे और जमीन पर उसके अनुकुल माहौल बनाने में संघ के स्वयसेवक काम करे तो रास्ता निकल सकता है। कुछ इसी इरादे से प्रचारकों की सालाना बैठक इस बार  २-३ जुलाई से शुरु होगी। और चूंकि पहली बार राजनीतिक तौर पर प्रचारक सक्रिय भूमिका निभाने की स्थिति में है तो राजनीतिक तौर पर भाजपा को कैसे लाभ मिले या चुनावो में भाजपा की पैठ कैसे बढे इसके लिये संघ चार राज्यो में नयी शक्ति लगाने की तैयारी भी कर रही है । 

संघ का विस्तार हो और भाजपा को राजनीतिक सफलता मिले इसके लिये प्रचारकों की बैटक में तमिलनाडु, उडिसा , केरल और पश्चिम बंगाल को लेकर खास मंथन होना तय है । और पहली बार उस लकीर को भी मिटाया जा रहा है जो एनडीए के शासनकाल में नजर आती थी । हालाकि उस वक्त भी संघ के प्रचारक रहे वाजपेयी ही पीएम थे । लेकिन वाजपेयी के दौर से मौदी का दौर कितना अलग है और आरएसएस किस उत्साह से मोदी के दौर को महसूस कर रहा है उसका नजारा धारा ३७० से लेकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के कोर्स और सीमावर्ती इलाको में सेना की मजबूती के लिये निर्माण कार्य को हरी झंडी देने से लेकर सैन्य उत्पादन के
लिये एफडीआई तक को लेकर है । धारा ३७० को खत्म करने के लिये  देश सहमति कैसे बनाये यह प्रचारको के एजेंडे में है । दिल्ली यूनिवर्सिसटी के कोर्स बदलने के बाद अब संघ की निगाहें यूनिवर्सिटी में नियुक्ती को लेकर है । बीते दस बरस से नियुक्तियां रुकी हुई है और अब नियुक्ती ना हो पाने की सारी बाधाओं को खत्म किया जा रहा है जिससे करीब पांच सौ पदो पर नियुक्ती हो सके । हालांकि संघ के लिये यह अजीबोगरीब संयोग है कि मध्यप्रदेश में व्यापम भर्ती घोटाले ने संघ को भी दागदार कर दिया है और संघ के सबसे प्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दरवाजे तक घोटाले की दस्तक हो रही है और फिर प्रचारकों की बैठक भी मध्यप्रदेश में ही हो रही है। जहां संघ के तमाम वरिष्ठो के साथ सुरेश सोनी को भी प्रचारकों की बैठको में पहुंचना है। और चूंकि सुरेश सोनी का नाम भी व्यापम भर्ती घोटाले में आया है तो संघ ने अपने स्तर पर पहली बार अपने शिवराज सिंह चौहान को भी आदर्शवाद घेरे की लक्ष्मण रेखा लाघंने का आरोप लगाना शुरु किया है। दिल्ली से झंडेवालान से लेकर नागपुर के महाल तक में इस बात को लेकर आक्रोश है कि शिवराज सिंह चौहाण की नाक तले व्यापम भर्ती घोटाले होते रहे और चंद नामों की सिफारिशे संघ की तरफ से क्या कर दी गयी समूचा घोटाला ही संघ से जोडने की शुरुआत हो गयी । 

तो आरएसएस के भीतर पहली बार शिवराज सिंह चौहाण को लेकर भी दो सवाल हैं। पहला क्या जानबूझकर संघ के वरिष्ठों का नाम उठाया गया। जिससे संघ घोटालों में ढाल बन जाये । और दूसरा क्या शिवराज सिंह चौहाण ने अपनी खाल बचाने के लिये संघ के चंद सिफारिशी नामों को उजागर करवा दिया। जिससे लगे यही कि संघ का भी दबाब था तो चौहाण की शासन व्यवस्था क्या करें । हो जो भी असर यह हुआ है कि पहली बार आरएसएस के घेरे में मध्यप्रदेश के सीएम शिवराजसिंह चौहाण का आदर्श चेहरा भी दागदार हुआ है। और दूसरा सवाल संघ के भीतर पुराने किस्सो को लेकर सच की किस्सागोई में सुनायी देने लगा है। देवरस के दौर के नागपुर के स्वयंसेवक की मानें तो संघ के भीतर सत्ता मिलने पर नियुक्तिया कैसे हो और किसकी हो यह सवाल खासा पुराना है । और पहली बार इसकी खुली गूंज १९९१ के शुरु में भाउराव देवरस की थी । उस वक्त नागपुर में स्वयसेवको की बैठक को संबोधित करते हुये आउराव ने अचानक मौजूद स्वयसेवको से पूछा कि आज अगर हमें नागपुर में वाइस चासंलर नियुक्त करना हो तो किसे करेंगे । इस पर तुरंत कुछ नाम जरुर आये लेकिन ,ही नाम कौन हो सकता है इसपर सहमति नहीं बनी । इसपर भाउराव देवरस ने कहा कि मान लो अगर हमारे बीच से कोई पंतप्रधान यानी प्रधानमंत्री  बन जाये तो फिर उसे कम से कम पांच हजार नियुक्ती तो करनी ही होगी । तो वह कैसे करेगा । जब आप सभी को एक वीसी का नाम सही नहीं मिल पा रहा है। उस वक्त भाउराव देवरस ने यही कहकर बात खत्म की थी कि हर क्षेत्र में सही लोगो का पता लगाना और उन्हे साथ जोडना या उनके साथ खुद जुड़ना जरुरी है। यानी धारा 370 को लेकर कौन कौन से चिंतक सरकार के सात खडे हो सकते है इसकी खोज संघ को करनी है। चीन को चुनौती देने के लिये कौन कौन से प्रशासक या नौकरशाह अतीत के पन्नों को पलट कर देश की नीति को बना सकते है कि कभी चीन में तिब्बत को लेकर भारत ने भी आवाज उठायी थी । तब सरदार पटेल थे अब तो वैसा कोई है नहीं। फिर धर्मातंरण के उलट धर्मातंरण यानी आदिवासी हिन्दुओ की घर वापसी वाले हालात को लेकर उत्तर-पूर्व के बार में कौन नीति बना सकता है या उससे पहले प्रचारकों को ही माहौल तैयार करना होगा अब मंथन इस पर होगा । यानी मोदी सरकार के रास्ते की बाधाओ को दूर कर संघ के विस्तार का रास्ता बनाने के लिये प्रचारको का मंथन होगा। निकलेगा क्या इसका इंतजार करना होगा।

मुँह में ‘कड़वी गोली’, मन में सुंदर सपने

गेहूँ या चावल के एक या दो दाने देखकर पहचान हो सकती है, पर क्या सरकार के काम की पहचान एक महीने में हो सकती है? सन 2004 के मई में जब यूपीए-1 की सरकार बनी तो पहला महीना विचार-विमर्श में निकल गया. तब भी सरकार के सामने पहली चुनौती थी महंगाई को रोकना और रोजगार को बढ़ावा देना. इस सरकार के सामने भी वही चुनौती है. मनमोहन सिंह सरकार के सामने भी पेट्रोलियम की कीमतों को बढ़ाने की चुनौती थी. उसके पहले वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम की कीमतों से बाजार के उतार-चढ़ाव से सीधा जोड़ दिया था, पर चुनाव के ठीक पहले कीमतों को बढ़ने से रोक लिया. वैसे ही जैसे इस बार यूपीए सरकार ने रेल किराया बढ़ाने से रोका. इसे राजनीति कहते हैं.


मोदी सरकार को क्या कोई हनीमून पीरियड मिलना चाहिए? उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह की बातें कीं उनसे लगता था कि वे आते ही सब कुछ ठीक कर देंगे? पर यह तो चुनाव प्रचार की बात थी. दावे कांग्रेस के भी इसी प्रकार के थे. पर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के वक्तव्यों में व्यावहारिकता है. राष्ट्रपति के अभिभाषण और धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के जवाब में मोदी ने कहा कि हम पिछली सरकारों के अच्छे काम-काम को आगे बढ़ाने और इस सदी को भारत की सदी साबित करेंगे. उन्होंने विपक्ष की ओर देखते हुए कहा कि हमें आपका समर्थन भी चाहिए. हमसे पहले की सरकारों ने भी अच्छा काम किया है. हम उसमें कुछ नया जोड़ने की कोशिश करेंगे.

नीति और दिशा के स्तर पर यूपीए और एनडीए की सरकार में कोई बड़ा फर्क नहीं है. अंतर केवल राजनीतिक स्तर पर है. मोदी सरकार के ऊपर कोई 10 जनपथ नहीं है और न कोई राष्ट्रीय सलाहकार परिषद है. नयापन है तो विपक्ष में. पहले सरकार कमजोर थी और विपक्ष मुखर था. अब सरकार ताकतवर है और विपक्ष खामोश. कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष के स्वर हैं. इधर एके एंटनी ने कांग्रेस के अति अल्पसंख्यक-मुखी होने को लेकर जो टिप्पणी की है वह एक नई बहस को जन्म देने वाली है. दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी के गैर-सत्ताधारी मिजाज को लेकर जो कुछ कहा है उसके गूढ़ अर्थ निकाले जा रहे हैं.

अभी तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सीधा हस्तक्षेप भी सरकारी काम-काज में दिखाई नहीं पड़ा है. चुनाव के ठीक पहले तक मुखर भाजपा की भीतरी गुटबाज़ी फिलहाल छिप गई है. अभी मंत्रिमंडल का एक महत्वपूर्ण विस्तार बाकी है, इसलिए उम्मीद लगाए बैठे नेता कामोश हैं. सत्ता की राजनीति में कार्यकर्ताओं को इनाम-इकराम की जरूरत होती है. मोदी सरकार ने जनता से कड़वी गोली की बात कहने के बाद कुछ कड़वे फैसले भी करके दिखा दिए. राजनीतिक सतह पर सरकार जोखिम उठाने को तैयार है. सरकार फैसले करती नजर आती है.

रेलवे के किराए-भाड़े में हुई वृद्धि से जनता नाराज जरूर है, पर उसने सरकार को खारिज नहीं किया है. उसे बजट से उम्मीदें हैं. सच यह है कि तीन चौथाई साल गुजर चुका है. तमाम व्यवस्थाएं पहले से हो चुकी हैं. बजट से लोगों को तीन-चार उम्मीदें हैं. पहली है आयकर सीमा बढ़ने की. अरुण जेटली खुद कह चुके हैं कि आयकर की सीमा दो लाख से बढ़ाकर पाँच लाख रुपए सालाना होनी चाहिए. क्या वे ऐसा कर पाएंगे? यह बेहद मुश्किल काम है. ऐसा होने का मतलब है तकरीबन तीन करोड़ लोग टैक्स के दायरे से बाहर हो जाएंगे. सरकार के सामने राजकोषीय घाटे को पाँच फीसदी से नीचे लाने की चुनौती है. एक लाख करोड़ से ऊपर की सब्सिडी को घटाने पर अलोकप्रिय होने का खतरा है.

अर्थ-व्यवस्था धीमी गति से बढ़ रही है. सम्भावना है कि सरकार गरीबों के स्वास्थ्य की गारंटी की कोई योजना लेकर आएगी. गुजरात में मोदी सरकार की दो स्वास्थ्य योजनाएं खासतौर से लोकप्रिय हुईं. एक चिरंजीवी योजना, जिसके तहत बाल मृत्युदर को कम करने की कोशिश की गई. दूसरी है मुख्यमंत्री अमृतम योजना, जिसके तहत गरीबों के इलाज के लिए दो लाख रुपए तक का स्वास्थ्य बीमा किया जाता है. गुजरात में तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में 108 ऐम्बुलेंस योजना सफल हुई है. सम्भवतः उसे पूरे देश में लागू करने की कोई घोषणा हो. हरेक राज्य में एम्स बनाने, मच्छर मुक्त भारतबनाने, ब्रॉडबैंड हाइवे, 100 नए शहर, चौबीस घंटे बिजली-पानी जैसे वादे करती रही है. ऐसे वादे अगले कुछ महीनों में पूरे होने से रहे. पर उस दिशा में कुछ बढ़ सके तो मोदी सरकार की उपलब्धि होगी.  

इस हफ्ते की खबर है कि महंगाई की दो कड़वी खुराक देने के बाद सरकार और झटके देने के मूड में नहीं है. सरकार रसोई गैस और मिट्टी के तेल पर अंडर रिकवरी को कम करने के लिए डीजल फॉर्मूले को अपनाने पर विचार कर रही है. यानी रसोई गैस और मिट्टी तेल पर दी जा रही भारी भरकम सब्सिडी का बोझ धीरे-धीरे कम किया जाएगा. यह रास्ता पिछली सरकार ने ही निकाला था. पिछले साल जनवरी में तेल विपणन कंपनियों को डीजल की अंडर रिकवरी कम करने के लिए हर माह 50 पैसे प्रति लीटर तक बढ़ोतरी करने की छूट दी थी. सितम्बर में डीज़ल पर 14.50रूपए की सब्सिडी थी, जो अब घटती हुई1.62रूपए प्रति लीटर ही रह गई है. पेट्रोल पहले ही नियंत्रण से मुक्त है. पर रसोई गैस के सिलेंडर पर अंडर रिकवरी 433 रूपए है. इसे कम करने या खत्म करने के लिए बाजीगरी जैसे कौशल की जरूरत है. ईधन की कुल एक लाख 15 हजार 548 करोड़ रूपए की सब्सिडी में से आधी रसोई गैस पर है. एक बाज़ीगरी सरकारी उपक्रमों के विनिवेश में देखने को मिलेगी. स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) से इसकी शुरुआत होने जा रही है. यूपीए सरकार ने पिछले वित्त वर्ष में सेल में 10.82 फीसदी हिस्सेदारी बेचने का फैसला किया था. शेयर बाजार की खराब हालत के कारण वह मार्च 2013 में 5.82 फीसदी शेयर ही बेच पाई. इससे सरकार को 1,516करोड़ रुपए मिले थे. बाकी बचे 5 फीसदी अब बेचे जाएंगे. संयोग से शेयर बजार खुश है.


जनता की खुशी और नाराजगी बड़ी बातों को लेकर नहीं होती. उसका मसला है महंगाई और रोज़गार. सबसे बड़ी चुनौती खाद्य सामग्री की कीमतों को लेकर है. इसमें सब्जियों, फलों और दूध की कीमतें शामिल हैं, जो मॉनसून के अच्छे या बुरे होने पर बढ़ती-घटती हैं. अच्छे या बुरे दिनों का मुहावरा अनाज की कीमतों से जुड़ा है. इनसे पार पा लिया तो विनिवेश, पूँजी निवेश, रक्षा खरीद, नाभिकीय ऊर्जा और इनफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े दूसरे काम संभव हैं. ये काम बड़े हैं और उनके सहारे ही अर्थ-व्यवस्था की प्रगति सम्भव है. पर पहली जरूरत है जनता की दिल जीतने की. इंतज़ार करें अगले सोमवार का, जब सरकार की पहली परीक्षा होगी.   

प्रभात खबर में प्रकाशित

एटीएम की पर्ची में खतरनाक केमिकल

एटीएम की पर्ची में खतरनाक केमिकल

   एटीएम से पैसे निकालने के बाद मिलने वाली रसीद को सभी संभाल कर रखते हैं। बड़े-बड़े मॉल्स और शोरूम में खरीददारी के बाद पेमेंट की रसीद को लोग पर्स में भी रख लेते हैं। कुछ लोग तो पेट्रोल पंप, बस के टिकट की पर्चियां या रसीद तक घर में ले जाकर बच्चों को दे देते हैं। लेकिन प्रिंट के लिए इस्तेमाल होने वाली इन रसीदों पर चढ़ाई जाने वाली कोटिंग में बेहद खतरनाक केमिकल होता है। इसमें बायस्फीनॉल-ए (बीपीए) नामक केमिकल्स मिक्स होता है, जो टॉक्सिक होता है।
क्या है बीपीए?
डॉक्टर डी.के. दास ने बताया कि बायस्फीनॉल-ए एक केमिकल है जिसका यूज कई प्रोडक्ट में सालों से हो रहा है। खासकर एयर टाइट डिब्बे, स्पोटर्स के समान, सीडी और डीवीडी, वाटर पाइप की लीकेज को ठीक करने और खाने के प्रॉडक्ट वाले पैकेट पर कोटिंग चढ़ाने के काम में आता है। इस वजह से यूरोप में बच्चों की फीडिंग बॉटल बनाने में इसके यूज को सालों पहले बैन कर दिया गया है।

क्यों है खतरनाक?

हाल ही में महाराष्ट्र की डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी में हुई एक रिसर्च के मुताबिक इस कागज पर की गई केमिकल कोटिंग मानव शरीर के लिए काफी खतनाक हो सकती है। इन पर्चियों पर कुछ भी छापने के लिए थर्मल प्रिंटर का उपयोग किया जाता है। इसलिए जहां तक संभव हो ऐसी पर्ची को अपने से दूर रखें क्योंकि इसके लगातार संपर्क में आने से साइड इफेक्ट का खतरा रहता है और इंसान गंभीर बीमारी का शिकार हो सकता है। बीएलके सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल के डॉक्टर आर. के. सिंघल का कहना है कि इन कागजों की कोटिंग में ट्रायरील मिथेन थॉलिड के ल्यूको डाय, बीपीए, बायस्फेनॉल-बी (बीपीएस) और स्टेब्लाइजर्स का उपयोग होता है। आज कल इसका सबसे ज्यादा यूज थर्मल प्रिंटर में उपयोग किए जाने वाले पेपर कोटिंग पर बायस्फेनॉल-ए का उपयोग किया जाता है।

1957 से इस्तेमाल में
बायस्फीनॉल-ए (बीपीए) एक ऐसा केमिकल है 1957 से यूज हो रहा है। जिसमें बॉटल को एयर टाइट करने, फीडिंग बॉटल की कोटिंग, फूड ड्रिंक्स के पैकेट की कोटिंग, लीकेज को बंद करने वाले पेस्ट में खूब हो रहा है। भारत में भी इसका प्रयोग सालों से हो रहा है। लेकिन आजकल प्रिंट पेपर पर इसकी कोटिंग चढ़ाई जाती है जिसका प्रयोग काफी बढ़ा है। लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि लोगों को इस बारे में जागरूक किया जाए और सरकार इसके दूसरे विकल्प को जल्द से जल्द बाजार में उतारने की कोशिश करे।

कैसे होती है बॉडी में एंट्री

  उंगलियों के रास्ते : रिसर्च के अनुसार अगर ऐसे कागज को पांच सेकंड तक हाथ में रखा जाए तो 1 माइक्रोग्राम बीपीए हमारी उंगलियों में लग जाता है। अगर हाथ में नमी हो तो यह और तेजी से काम करता है। दस घंटे तक लगातार इस पेपर को हाथ मे रखने वाले इंसान के बॉडी में 71 बीपीए इंट्री कर सकता है।

  पर्स से भी एंट्री : डॉक्टर का कहना है कि अगर आप पर्स में ऐसे पेपर रखते हैं तो इसकी इंक के कण पर्स में गिरते हैं और इससे पैसे के साथ-साथ पूरे पर्स में बीपीए मौजूद रहता है और इंसान बार-बार इसे टच करेगा, जो ज्यादा खतरनाक है।

  फूड पैकेज और ड्रिंक्स से : डॉक्टर आर.के. सिंघल का कहना है कि फूड ड्रिंक्स के पैकेट में अगर कहीं पर लीक हो या कटा फटा हुआ हो तो यह खाने के पदार्थ से मिक्स होकर बॉडी तक जा सकता है।
पानी के पाइप से : इसी प्रकार अगर पानी के पाइप लाइन में लीकेज हो तो इसे बंद करने के लिए लोग पेस्ट यूज करते हैं, इस पेस्ट के साथ मिक्स होकर पानी के साथ बीपीए पेट में पहुंच सकता है।
अंडरग्राउंस वाटर तक पहुंच : यही नहीं अगर ऐसे प्रॉडक्ट को फेंक दिया जाए तो यह मिट्टी के साथ मिक्स होकर पानी में मिल जाएगा और फिर जमीन के पानी के साथ मिक्स हो जाएगा।

क्या है इससे खतरा?
डॉक्टर दास का कहना है कि बीपीए फीमेल हार्मोन इंस्ट्रोजोन की तरह काम करता है और इसके लगातार टच से जहां प्रिग्नेंट लेडीज के ब्लड में मिक्स हो कर प्लेसेंटा में जा सकता है और गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए खतरनाक हो सकता है। इसी प्रकार छोटे बच्चे में लीवर पर असर हो सकता है, क्योंकि बच्चे में टॉक्सिक को डिटॉक्सीफाई करने वाले एंजाइम नहीं बना होता है। जब यह बॉडी में जाता है तो इंस्ट्रोजोन की तरह बीहेव करता है और लड़कियों में फ्री मैच्योर नेचुरल साइकिल पर असर पड़ता है। इसके अलावे ब्रेस्ट कैंसर, प्रोस्टेट, बच्चों में हाइपर एक्टिविटी, न्यूरो, मोटापा, डायबिटीज और इम्यून सिस्टम कमजोर होने का खतरा रहता है। दोनों डॉक्टरों का कहना है कि इसके दूसरे विकल्प तलाशने की जरूरत है। टमाटर से एक ऐसे केमिकल का ईजाद किया गया है जो बीपीए फ्री है और इसका प्रयोग सेफ हो सकता है।

करें बीपीए बॉटल की पहचान
डॉक्टर डी.के. दास का कहना है कि बेबी फीडिंग बॉटल पर तो बीपीए का यूज अब नहीं हो रहा है। लेकिन अगर लोग थोड़ा सतर्क रहें तो बीपीए बॉटल की पहचान कर सकते हैं। हर बॉटल के पीछे हिस्से में एक त्रिकोण बना होता है और त्रिकोण के अंदर डिजिट में एक लिखा होता है और उसके नीचे pet लिखा होता है, इसका मतलब है कि बॉटल बीपीए फ्री है। लेकिन जिस त्रिकोण में 07 और नीचे pl लिखा होता है उसमें बीपीए होता है। डॉक्टर का कहना है कि इसी प्रकार अगर किसी के पानी के पाइप लाइन लीकेज हो तो उसे पेस्ट से बंद करने के बजाए पाइप को बदलें ताकि किसी भी प्रकार के ऐसे टॉक्सिक से बचा जा सके।

नष्ट नहीं होता यह केमिकल
डॉक्टर सिंघल ने कहा कि ऐसे प्रॉडक्ट को फेंकने का असर एक स्टडी में भी पाया गया है। अमेरिका में एक स्टडी में यूरिन टेस्ट किया गया था तो 80 पर्सेंट से ज्यादा लोगों का यूरिन पॉजिटिव आया था। इसका मतलब साफ है कि बीपीए ऐसा केमिकल है जो नष्ट नहीं होता है और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाता है और नेचुरल प्रॉडक्ट के साथ मिक्स होकर बॉडी तक पहुंच जाता है। हालांकि डॉक्टर ने कहा कि इससे डरने की जरूरत नहीं है, बस थोड़ा सतर्क रहें और ऐसे प्रॉडक्ट से जहां तक संभव हो दूरी बनाए रखें। अगर इसे जला दिया जाए तो पर्यावरण को नुकसान होगा। सच तो यह है कि हमारे देश में ऐसे प्रॉडक्ट को डिस्पोज करने का कोई सिस्टम नहीं है। साभार- नवभारतटाइम्स.कॉम - राहुल आनंद की स्पेशल रिपोर्ट-
 (http://navbharattimes.indiatimes.com/world/science-news/dangerous-chemical-in-ATM-Slip/articleshow/37503020.cms)

अगर यशवंत सिन्हा खुद मुख्यमंत्री बने तो

रांची 1 जुलाय 2014, झारखंड में विधान सभा चुनाव में अगर भाजपा जीती तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा इस सवाल के जवाब में भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा अपना आपा खो बैठे. उनका जवाब इतना अशोभनीय था की भाजपा के नेताओं के पास सफाई देने के लिए भी शब्द नहीं बचे हैं. यशवंत सिन्हा रांची स्थित झारखंड चेंबर ऑफ कॉमर्स में प्रदेश के बजट पर एक प्रोग्राम को संबोधित कर रहे थे. हाल ही में पूर्व विदेश मंत्री सुर्खियों में थे जब उन्होंने झारखंड में बिजली को लेकर आंदोलन शुरू किया था. इस सिलसिले में वह हजारीबाग में 15 दिनों तक जेल में भी रहे. जेल में जब बीजेपी से सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी उनसे मिलने गये थे तो उन्होंने ने कहा था कि यशवंत सिन्हा  झारखंड में नेतृत्व संभालने के लिए बेहद सक्षम नेता हैं. केंद्र की राजनीति से मोदी सरकार से बाहर होने के बाद सिन्हा झारखंड में फिलहाल खुद को सक्रिय रख रहे हैं. सिन्हा के आपत्तिजनक बयान के बाद झारखंड की राजनीति में एक नया बवाल खड़ा हो गया है. राजनीतिक पार्टियों ने तीखी आलोचना की है. बीजेपी के ज्यादातर नेताओं ने इस अशोभनीय कथन पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. झारखंड के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखदेव भगत ने कहा कि इतने सम्मानित और अनुभवी नेता से ऐसी आपत्तिजनक और असंसदीय भाषा की उम्मीद नहीं थी. इससे पहले भी भाजपा के नेता अपनी पार्टी पर ही खीस निकालते रहें हैं. यदि कभी सिन्हा खुद मुख्यमंत्री बनते हैं तो क्या खुद को उस अशोभनीय शब्द से ही संबोधित करेंगें? जहां भाजपा के नेता एक ओर आदर्शों का ढोंग खुले आम करते हैं वहीं इन नेताओं की इन भद्दी टिप्पणियों पर चुप्पी साधे बैठे रहते हैं. 

झूठे दहेज मामले: सुप्रीम कोर्ट ने दी पुलिस को हिदायत

दहेज मामले
‘असंतुष्ट’ पत्नियों द्वारा अपने पति और ससुराल के अन्य सदस्यों के खिलाफ दहेज विरोधी कानून के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि ऐसे मामलों में पुलिस ‘स्वत:’ ही आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती और उसे ऐसे कदम की वजह बतानी होगी, जिनकी न्यायिक समीक्षा की जाएगी।

शीर्ष अदालत ने कहा कि पहले गिरफ्तारी और फिर बाकी कार्यवाही करने का रवैया ‘निंदनीय’ है, जिस पर अंकुश लगना चाहिए। न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि दहेज प्रताड़ना मामले सहित सात साल तक की सजा के दंडनीय अपराधों में पुलिस गिरफ्तारी का सहारा नहीं ले।

न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा, हम सभी राज्य सरकारों को निर्देश देते हैं कि वह अपने पुलिस अधिकारियों को हिदायत दे कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A के तहत मामला दर्ज होने पर स्वत: ही गिरफ्तारी नहीं करे, बल्कि पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में प्रदत्त मापदंडों के तहत गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे में खुद को संतुष्ट करें।

न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार करने की जरूरत के बारे में मजिस्ट्रेट के समक्ष कारण और सामग्री पेश करनी होगी। न्यायाधीशों ने कहा, पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा स्त्री को प्रताड़ित करने की समस्या पर अंकुश पाने के इरादे से भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A शामिल की गई थी। धारा 498-A को संज्ञेय और गैर जमानती अपराध होने के कारण प्रावधानों में इसे संदिग्ध स्थान प्राप्त है, जिसे असंतुष्ट पत्नियां कवच की बजाय हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं।

न्यायाधीशों ने कहा, परेशान करने का सबसे आसान तरीका पति और उसके रिश्तेदारों को इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार कराना है। अनेक मामलों में पति के अशक्त दादा-दादी, विदेश में दशकों से रहने वाली उनकी बहनों को भी गिरफ्तार किया गया। न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तारी व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित और उसे अपमानित करती है और हमेशा के लिए धब्बा लगाती है और कोई भी गिरफ्तारी सिर्फ इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि अपराध गैर जमानती और संज्ञेय है।

न्यायाधीशों ने कहा, गिरफ्तार करने का अधिकार एक बात है और इसके इस्तेमाल को न्यायोचित ठहराना दूसरी बात है। गिरफ्तार करने के अधिकार के साथ ही पुलिस अधिकारी ऐसा करने को कारणों के साथ न्यायोचित ठहराने योग्य होना चाहिए।

न्यायाधीशों ने कहा, किसी व्यक्ति के खिलाफ अपराध करने का आरोप लगाने के आधार पर ही फौरी तौर पर कोई गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए। दूरदर्शी और बुद्धिमान पुलिस अधिकारी के लिए उचित होगा कि आरोपों की सच्चाई की थोड़ी बहुत जांच के बाद उचित तरीके से संतुष्ट हुए बगैर कोई गिरफ्तारी नहीं की जाए।

दो सदस्यीय बेंच ने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का हवाला देते हुए लिखा है कि अनुच्छेद 498 A के तहत 2012 में करीब 2 लाख लोगों की गिरफ्तारी हुई जो कि 2011 के मुकाबले 9.4 फीसदी ज्यादा है। 2012 में जितनी गिरफ्तारी हुई उनमें से लगभग एक चौथाई महिलाएं थीं। अनुच्छेद 498 A में चार्जशीट की दर 93.6 फीसदी है जबकि सजा की दर 15 फीसदी है जो काफी कम है। फिलहाल 3 लाख 72 हजार 706 केस की सुनवाई चल रही है, लगभग 3 लाख 17 हजार मुकदमों में आरोपियों की रिहाई की संभावना है। इन आंकड़ों को देखते हुए लगता है कि इस कानून का इस्तेमाल पति और उनके रिश्तेदारों को परेशान करने के लिए हथियार के तौर पर किया जा रहा है।

न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता के तहत हुए अपराधों में कुल गिरफ्तार व्यक्तियों का यह छह फीसदी है।

कैसा होगा आपका स्मार्ट शहर?

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मेरा स्मार्ट शहर
जब से भारत में स्मार्ट शहर बनने की खबरें आई हैं, मेरे मन में भयंकर स्मार्ट सी उम्मीदें जग रही हैं. स्मार्ट शहर में रहने का कितना मजा रहेगा. हमारे ये स्मार्ट शहर, स्मार्टफ़ोन की तर्ज पर हमें हर एंगल से स्मार्ट बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखेंगे. क्या इन स्मार्ट शहरों में रहने के लिए आदमी का स्वयं का स्मार्ट होना भी एक जरूरी न्यूनतम क्वालिफ़िकेशन होगा और क्या हम जैसे कम स्मार्ट – रतलामी, भोपाली टाइप के लोगों को इन शहरों में घुसने-रहने से प्रतिबंधित कर दिया जाएगा? वैसे, अभी तो कोई रतलामी होता है, कोई भोपाली, कोई मुंबइया तो कोई कानपुरी. कल को इन प्रतीकों और तखल्लुसों के वजूद पर स्मार्ट शहरों का बड़ा खतरा आने वाला है. कल को अधिकतर लोगों के तखल्लुस उनके अपने स्मार्ट शहरों के नाम पर स्मार्टी, स्मार्टी प्लस और या स्मार्टी 1, 2, 3 होने वाले हैं.
अब सवाल ये है कि अपने अतुलनीय भारत का स्मार्ट शहर क्या और कितना अतुलनीय स्मार्ट होगा? क्या वो इतना स्मार्ट होगा कि सड़क पर खुले आम गुटखा खाकर थूकने वालों का ऑटोमेटिक चालान काट देगा, या, अधिक बेहतर – थूक और गुटखा की पन्नी को ऑटोमेटिक रूप से तुरंत साफ कर देगा. शहर इतना स्मार्ट होगा कि इधर आपने कहीं पान खाकर पीक थूका नहीं और उधर वो स्वचालित तरीके से साफ हुआ नहीं. यानी, कूड़ा-कचरा, पन्नी-पॉलीथीन और धूल-गर्दी रहित स्मार्ट शहर! अगर ऐसा हो तो कितना अच्छा हो!
शहर को ट्रैफ़िक के मामले में तो स्मार्ट होना ही चाहिए, नहीं तो काहे का स्मार्ट. स्मार्ट शहर में ट्रैफ़िक जाम जैसी चीज का नामोनिशान न हो. और, अगर ट्रैफ़िक ही न हो तो क्या बात. काम करने के लिए ऑफ़िस जाने जैसी बेतुकी बात न हो. घर से ही काम करने की सुविधा हो. ऑनलाइन मॉल की सुविधा हो, जिसमें स्वचालित ड्रोन से पिज्जा आदि की डिलीवरी की सुविधा हो. कभी कहीं जाना भी पड़े तो सड़कें चमचमाती, साफ सुथरी, ट्रैफ़िक रहित हों, चौराहे बत्ती रहित हों और, खालिस भारतीय अंदाज में कोई भी वाहन कभी भी कहीं से आ जा सके. दरअसल, सड़कें इतनी स्मार्ट हो कि यदि कोई बाइक वाला सामने से कट मारकर निकलने का प्रयास करे तो सड़क स्वयं एलीवेट होकर इसकी स्मार्ट व्यवस्था करे ताकि किसी को कोई नुकसान न हो और इस तरह से सड़कें स्मार्ट तरीके से दुर्घटना रहित बन सकें. और, वैसे भी, कोई शहर तभी स्मार्ट कहलाएगा जब उसकी सड़कें स्मार्ट होंगी – सेल्फ़ हीलिंग सड़कें – आपने इधर गड्ढा खोदा नहीं, और उधर वह गड्ढा स्वचालित तरीके से भरा नहीं. अभी तो हर कोई, कोई न कोई काम से सड़कों में गड्ढा खोद कर चला जाता है और भरना भूल जाता है. इस समस्या को दूर करने के लिए वैसे भी भारत की तमाम सड़कों का स्मार्ट होना बहुत जरूरी है.
शहर, मकानों से बनता है. और स्मार्ट शहर, जाहिर है, स्मार्ट मकानों से ही बनेगा. आपके स्मार्ट शहर के स्मार्ट मकान को इतना स्मार्ट तो होना ही चाहिए कि यदि दिन में 12 घंटे भी बिजली न मिले तो इसमें मौजूद इलेक्ट्रॉनिक उपकरण चिल्ल-पों न मचाएं, बल्ब की बत्ती गुल न हो, पंखे की हवा कम न हो. पानी 24 घंटे न सही, 24 घंटे में एक बार कम से कम घंटे भर के लिए तो आए.
और, खुदा खैर करे, यदि आपको कभी एक स्मार्ट शहर से दूसरे स्मार्ट शहर को जाना हो तो महीने भर पहले ट्रेन में रिजर्वेशन करवाने पर कन्फ़र्म सीट मिले, और आप ट्रेन में चोरी-डकैती-चूहे-के-काटने आदि के भय के बिना अपनी यात्रा स्मार्ट तरीके से पूरी कर सकें.
आपको आपके स्मार्ट शहर के लिए अग्रिम स्मार्ट शुभकामनाएं!

मंगलयान से गरीब को क्या मिलेगा?

भारत का मंगलयान अपनी तीन चौथाई यात्रा पूरी कर चुका है। उसके मार्ग में तीसरा संशोधन 11 जून को किया गया। अब अगस्त में एक और संशोधन संभावित है। उसके बाद सितंबर के पहले हफ्ते में यह यान मंगल की कक्षा में प्रवेश कर जाएगा। इस आशय की पोस्ट मैने फेसबुक पर लगाई तो किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, सहज भाव से कुछ मित्रों ने लाइक बटन दबा दिया। अलबत्ता दो प्रतिक्रियाओं ने एक पुराने सवाल की ओर ध्यान खींचा। एक प्रतिक्रिया थी कि फिर क्या हो जाएगा? आम आदमी की जिंदगी बेहतर हो जाएगी? एक और प्रतिक्रिया थी कि वहाँ से सब अच्छा ही दीखेगा। दोनों प्रतिक्रियाओं के पीछे इस बात को लेकर तंज़ है कि हमारी व्यवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण बातों को भूलकर इन निरर्थक कामों में क्यों लगी रहती है। अक्सर कहा जाता है कि भारत की दो तिहाई आबादी के लिए शौचालय नहीं हैं। और यह भी कि देश के आधे बच्चे कुपोषित हैं। मंगलयान से ज्यादा जरूरी उनके पोषण के बारे में क्या हमें नहीं सोचना चाहिए? वास्तव में ये सारे सवाल वाजिब हैं, पर सोचें कि क्या ये सवाल हम हरेक मौके पर उठाते हैं? मसलन जब हमारे पड़ोस में शादी, बर्थडे, मुंडन या ऐसी ही किसी दावत पर निरर्थक पैसा खर्च होता है तब क्या यह सवाल हमारे मन में आता है?

गरीब देश को क्या यह शोभा देता है?

क्या मंगलयान भेजने जैसे काम जनता के किसी काम आते हैं? पहली नजर में लगता है कि यह सब बेकार है। सवाल है कि क्या भारत जैसे गरीब देश को अंतरिक्ष कार्यक्रमों को हाथ में लेना चाहिए? मंगलयान अभियान पर 450 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इस राशि की तुलना अपने शिक्षा पर होने वाले खर्च से करें। सन 2013 के बजट में वित्तमंत्री ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए 65,867 करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा। सर्वशिक्षा अभियान के लिए 27,258 करोड़ और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए 3,983 करोड़ रुपए।इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते हैं। पहली नज़र में बात तार्किक लगती है। सामाजिक क्षेत्र में हमारी प्रगति अच्छी नहीं है। एशियाई विकास बैंक के सोशल प्रोटेक्शन इंडेक्स में भारत का 23वाँ स्थान है। इस इंडेक्स में कुल 35 देश शामिल हैं। हमारे देश में औसतन हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। इस बात का दूसरा पहलू भी देखें। शिक्षा केन्द्र और राज्य दोनों के क्षेत्र में आते हैं। उसके लिए राज्य सरकारों के बजट भी हैं। माध्यमिक शिक्षा में काफी बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र भी शामिल हो चुका है। अंतरिक्ष अनुसंधान पर कौन खर्च करेगा?

अब कुछ दूसरी संख्याओं को देखें। करन जौहर की फिल्म शुद्धि का बजट 150 करोड़ रुपए है। एंथनी डिसूजा की फिल्म 'ब्लू' और शाहरुख की 'रा वन' का भी 100 करोड़। तीन या चार फिल्मों के बजट में एक मंगलयान! औसतन 25,000 बच्चों को शिक्षा। फिल्में बनाना बंद कर दें तो क्या साल भर में सारे लक्ष्य हासिल हो जाएंगे? भारत जिस मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट को खरीदने जा रहा है उस एक विमान की कीमत है 1400 करोड़ रुपया। भारत 126 विमान खरीदेगा और इसके बाद 63 और खरीदने की योजना है। इनकी कीमत जोड़िए। भारत ही नहीं सारी दुनिया को यह सोचना चाहिए कि युद्ध का जो साजो-सामान हम जमा कर रहे हैं क्या वह निरर्थक नहीं? पर दूसरी तरफ सोचें। क्या युद्ध रोके जा सकते हैं? आखिर युद्ध क्यों होते हैं? कोई साजिश है या इंसानियत की नासमझी या कुछ और? वास्तव में नैतिक आग्रहों से भरे सवाल करना आसान है, पर व्यावहारिक स्थितियों का सामना करना दूसरी बात है। युद्ध एक दर्शन है। नीति और अनीति दो धारणाएं हैं। इनका द्वंद अभी तक कायम है। क्यों नहीं दुनिया भर में सुनीति की विजय होती? क्यों अनीति भी कायम है?

क्या मिलेगा अंतरिक्ष में घूमती चट्टानों, धूल और धुएं में?

 मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? अमेरिका और रूस वाले यह काम कर ही रहे हैं। पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर क्या मिला? यह सवाल उन मनों में भी है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी कवरेज से बाहर निकल कर सोचने-समझने की फुरसत है। सवाल है अमेरिका और रूस को भी क्या पड़ी थी? पर उससे बड़ा सवाल है कि मनुष्य क्या खोज रहा है? क्यों खोज रहा है और उसका यह खोजना हमें कहाँ ले जा रहा है? यह सवाल मनुष्य के विकास और उससे जुड़े सभी पहलुओं की ओर हमारा ध्यान खींचता है। वैज्ञानिक, औद्योगिक, सामाजिक और सांस्कृतिक वगैरह-वगैरह।

मानवता से जुड़े सवाल अपनी जगह हैं और देश से जुड़े सवाल दूसरी तरफ हैं। भारत के लिहाज से वैज्ञानिक शोध के अलावा आर्थिक कारण भी हैं। दुनिया का स्पेस बाज़ार इस वक्त तकरीबन 300 अरब डॉलर का है। इसमें सैटेलाइट प्रक्षेपण, उपग्रह बनाना, ज़मीनी उपकरण बनाना और सैटेलाइट ट्रैकिंग वगैरह शामिल हैं। टेलीकम्युनिकेशन के साथ-साथ यह दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता कारोबार है। हमने कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सही समय से प्रवेश किया और आज हम दुनिया के लीडर हैं। स्पेस टेक्नॉलजी में भी हम सफलता हासिल कर सकते हैं। हमारा पीएसएलवी रॉकेट दुनिया के सबसे सफलतम रॉकेटों में एक है और उससे प्रक्षेपण कराना सबसे सस्ता पड़ता है। वैसे ही जैसे हमारे डॉक्टर दुनिया में सबसे बेहतरीन हैं और भारत में इलाज कराना सबसे सस्ता पड़ता है।

तकनीक की जरूरत

विज्ञान का एप्लाइड रूप है तकनीक। यह सामाजिक जरूरत पर निर्भर करता है कि हम इसका इस्तेमाल कैसे करें। यह तकनीक गर्दन काटने वाला चाकू बनाती है और डॉक्टर की मदद करने वाला नश्तर भी। एटम बम बनाती है और उससे बिजली या चिकित्सा करने वाली दवाएं भी। सवाल है कि क्या हाईएंड तकनीक हासिल करने की कोशिशें बंद कर देनी चाहिए? ऊँची इमारतें बनाने की तकनीक विकसित करना बंद करें, क्योंकि लोगों के पास रहने को झोंपड़ी भी नहीं है। शहरों में मेट्रो की क्या ज़रूरत है, जबकि पैदल चलने वालों के लिए सड़कें नहीं हैं। बसें और मोटर गाड़ियाँ बनाना बंद कर देना चाहिए? इनसे रिक्शा वालों की रोज़ी पर चोट लगती है। 

वास्तव में अपनी फटेहाली का समाधान हमें जिस स्तर पर करना चाहिए, वहाँ पूरी शिद्दत से होना चाहिए। एक समझदार और जागरूक समाज की यही पहचान है। आप मंगलयान की बात छोड़ दें। हम चाहें तो भारत के एक-एक बच्चे का सुपोषण संभव है। हरेक को रहने को घर दिया जा सकता है। कहीं से अतिरिक्त साधन नहीं चाहिए। मंगल अभियान हमें अपने इलाके को साफ-सुथरा रखने और पड़ोस के परेशान-फटेहाल व्यक्ति की मदद करने से नहीं रोकता। राजनीतिक स्तर पर यदि सरकार से कुछ कराना है तो नागरिक प्राथमिकता तय करें और सालाना बजट के मौके पर इन सवालों को उठाएं। पर यह भी देखें कि ऊँची तकनीक का गरीबी से बैर नहीं है। मोबाइल टेलीफोन शुरू में अमीरों का शौक लगता था। आज गरीबों का मददगार है। इन 450 करोड़ के बदले हजारों करोड़ रुपए हम हासिल करेंगे।

भारत के मुकाबले नाइजीरिया पिछड़ा देश है। उसकी तकनीक भी विकसित नहीं है। पर इस वक्त नाइजीरिया के तीन उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। सन 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल करने के प्रयास में है। उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम की जानकारी देने का काम कर रहे हैं। उसने ब्रिटेन, रूस और चीन की मदद ली है। उसके पास न तो रॉकेट हैं और न रॉकेट छोड़ पाने की तकनीक। उसकी ज़मीन के नीचे पेट्रोलियम है। उसकी तलाश से जुड़ी और सागर तट के प्रदूषण की जानकारी उसे उपग्रहों से मिलती है। नाइजीरिया के अलावा श्रीलंका, बोलीविया और बेलारूस जैसे छोटे देश भी अंतरिक्ष विज्ञान में आगे रहने को उत्सुक हैं। दुनिया के 70 देशों में अंतरिक्ष कार्यक्रम चल रहे हैं, हालांकि प्रक्षेपण तकनीक थोड़े से देशों के पास ही है।

व्यावहारिक दर्शन

पिछले साल उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हज़ारों की जान लेता। पर मौसम विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया। 1999 के ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा लोग मरे थे। अंतरिक्ष की तकनीक के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार यहाँ तक कि सुरक्षा में होता। विज्ञान की खोज की सीढ़ियाँ हैं। हम जितनी ऊँची सीढ़ी से शुरुआत करें उतना अच्छा। इन खोजों को बंद करने से सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को तेजी मिले तो वह भी ठीक। पर जिस देश की तीन-चार फिल्मों का बजट एक मंगलयान के बराबर हो या जहाँ लोग दीवाली पर 5,000 करोड़ रुपए की आतिशबाजी फूँक देते हों उससे ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि बच्चों की शिक्षा के लिए पैसा क्यों नहीं है? महात्मा गांधी की बात मानें तो हम जो काम करते हैं उसे करने के पहले अपने आप से पूछें कि इससे गरीब का कितना भला होगा।

व्यावहारिक सच यह है कि कोई भी विचार, सिद्धांत और दर्शन तब तक बेकार है जब तक वह लागू नहीं होता। बातें व्यावहारिक सतह पर ही होनी चाहिए। 
वास्तव में मंगलयान से गरीबी दूर नहीं होगी। हम मंगलयान न भेजें तब भी गरीबी दूर करने की गारंटी है क्या?

असली अल्पसंख्यक कौन !?

मैं इस कोशिश मे था कि इस मुद्दे को न छेड़ूँ ... पर मीडिया और आस पास लोगों मे बार बार चर्चा होते देख रहा न गया | वैसे भी मुरादाबाद मेरी ननिहाल है तो उस हक़ से ही सही मैं अपनी बात रख रहा हूँ |

कहा जा रहा है कि मुरादाबाद मे जो हुआ वो "धार्मिक भावनाओं" को "आहात" होने से बचाने के लिए किया गया | पर अगर आप पूरे मामले को देखे तो धार्मिक भावनाएं तो आहात हुई ही ... एक की न हुई तो दूसरे की सही |

अब मेरे हिसाब से इस मामले मे कुछ जरूरी बातों पर अगर ध्यान दिया जाता तो मामला इतना न बिगड़ता |

लॉजिक दिया जाता है कि "अल्पसंख्यक" समुदाय की धार्मिक भावनाएं आहात हो रही थी इस कारण मंदिर का लाउडस्पीकर उतारा गया ... पर गौर करने की बात यह है उस इलाके मे यही "अल्पसंख्यक" पूरी आबादी का लगभग ८० % हिस्सा है तो फिर असली अल्पसंख्यक कौन हुआ और पूरे मामले मे किस की भावनाएं ज्यादा आहात होती दिख रही है | स्थानीय लोगो ने पूरे मामले मे प्रशासन को दोषी ठहराया है | क्या प्रशासन ने इस मामले मे सच मे 'अल्पसंख्यक समुदाय की धार्मिक भावनाएं' आहात होने से बचाई !?

मुझे तो नहीं लगता ... और यह मैं केवल एक नागरिक के नाते कह रहा हूँ ... अखबार और मीडिया से प्राप्त जानकारी के आधार पर ... इस को मेरे हिन्दू होने या किसी राजनीतिक दल विशेष के समर्थक होने से न जोड़ें | हिन्दू या किसी दल विशेष के समर्थक होने के नाते लिखने बैठे तब तो फिर न जाने क्या क्या लिख बैठें |

रायता फ़ैला कर बाद मे इलाके के लोगों को साथ बैठा शांति स्थापना के लिए जो चर्चा शासन और प्रशासन ने माहौल बिगड़ने के बाद शुरू की क्या वो मंदिर से लाउडस्पीकर उतारने से पहले नहीं जा सकती थी ... क्या आपसी विचार विमर्श के बाद बिना किसी हिंसा के मामला सुलझ न गया होता !?

मुरादाबाद, जिसका की धार्मिक दंगों का एक अच्छा खासा इतिहास रहा है, जैसे इलाके मे प्रशासन ने केवल पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जो कदम उठाया उसी के कारण आज एक बार फिर वहाँ का माहौल खराब हुआ है |  

उत्तर प्रदेश वैसे भी पिछले कुछ अरसे से खासा संवेदनशील हो गया है ज़रा सा भी माहौल बिगड़ता है तो लोग उसका भरपूर लाभ लेने को तैयार दिखते है ... फिर चाहे वो राजनीतिक दलों के हो या असामाजिक तत्व ... ऐसे मे शासन और प्रशासन की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है कि इस तरह के मामलों मे ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील हो कर काम करें ताकि प्रदेश मे चैन और अमन रहे |

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राज्य सरकार खुद को अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध बताती है पर अल्पसंख्यक कौन है पहले इस का निर्धारण सटीकता से होना चाहिए ... यह जरूरी नहीं कि हर जगह एक ही धर्म या समुदाय के लोग ही अल्पसंख्यक हो ... हर इलाके की जनसंख्या के अनुसार इस का निर्धारण किया जाना चाहिए ताकि किसी के भी साथ अन्याय न हो | 

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जागो सोने वालों ... 

कथनी और करनी की परीक्षा

इस हफ्ते पेश होने वाले रेल बजट और फिर आम बजट पर केवल भारत के लोगों की निगाहें नहीं हैं। सारी दुनिया की निगाहें है। एक दशक बाद ऐसी सरकार आई है जो वैश्वीकरण, तकनीकी विकास, शहरीकरण और आर्थिक संवृद्धि के पक्ष में खुलकर बोल रही है। भारत के बाहर यूरोप, अमेरिका से लेकर चीन और जापान जैसे देशों तक की इन दोनों बजटों पर निगाहें हैं। इसकी वजह है भरत में बड़े स्तर पर इनफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश का समय आ रहा है। मोदी सरकार ने रक्षा और रेलवे में भारी निवेश का संकेत तो दिया है साथ ही विदेशी पूँजी निवेश पर लगी बंदिय़ों को हटाने का इरादा भी ज़ाहिर किया है। देश में आर्थिक उदारीकरण का श्रेय अभी तक सन 1991 की कांग्रेस सरकार को और खासतौर से मनमोहन सिंह को दिया जा रहा था। संयोग है कि वही मनमोहन सरकार इसबार आर्थिक और प्रशासनिक सवालों को लेकर ढेर हो गई और मोदी सरकार उन्हीं सूत्रों को लेकर आगे बढ़ रही है, जिसका दावा मनमोहन सिंह करते रहे, पर उन्हें पूरा करके नहीं दिखा पाए।

देश के सामने तीन बड़े सवाल हैं। क्या महंगाई घटेगी? मई 2014 में थोक मूल्य सूचकांक मई 2013 की तुलना में 6.5 प्रतिशत बढ़ गया। यह चिंता की बात था, पर इससे ज्यादा चिंता की बात यह थी कि इन मूल्यों के महत्वपूर्ण तत्व खाद्य सामग्री की कीमतों में यह बढ़ोत्तरी 9.5 फीसदी थी। गरीब जनता को खाद्य वस्तुओं की कीमतें सबसे ज्यादा चोट पहुँचाती हैं। मुद्रास्फीति घटेगी तो जनता को राहत तो मिलेगी ही, ब्याज की दरें घटेंगी जिससे आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी। आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ेंगी तो रोजगार तैयार होंगे। इससे जनता की क्रयशक्ति बढ़ेगी जिससे उपभोग बढ़ेगा और विकास का पहिया आगे बढ़ेगा। देश को अगले 20 साल में 30 करोड़ नौकरियां पैदा करनी हैं। यानी पूरे दो अमेरिका। महंगाई के बाद दूसरी चुनौती है अर्थव्यवस्था को उस दलदल से बाहर लाना जिसमें वह फंसकर रह गई है। राजकोषीय घाटे को न्यूनतम स्तर पर लाना। राजस्व बढ़ाना। तीसरा मसला है सुशासन का, जिसपर सवार होकर मोदी सरकार आई है। चारों ओर फैले भ्रष्टाचार का क्या होगा? और यह कैसे दूर होगा?

मॉनसून की आसन्न विफलता और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की राजनीति के कारण आलू और प्याज की बढ़ती कीमतों की खबर से सरकार घबरा गई है। उसने जल्दबाजी में फैसले करने शुरू कर दिए हैं। सरकार ने पिछले हफ्ते प्याज और आलू को आवश्यक वस्तु अधिनियम की लिस्ट में शामिल कर लिया। इस फैसले के बाद अब राज्य सरकारें तय कर सकेंगी कि कारोबारी स्टॉक में कितना आलू-प्याज रखें। सरकार ने जमाखोरी रोकने के लिए राज्य सरकारों की जिम्मेदारी बढ़ा दी है। सम्भव है यह कदम कारगर हो, पर लगता है कि सरकार जल्दी कर रही है। इन दिनों इन चीजों के दाम बढ़ते ही हैं। इनकी लम्बे अरसे तक जमाखोरी भी सम्भव नहीं। बेहतर होगा कि सप्लाई बढ़ाने की कोशिश की जाए। इसके लिए आयात का सहारा लेना चाहिए। खाद्य वस्तुओं की डिब्बाबंदी के उद्योग को बढ़ावा देने की जरूरत भी है। हालांकि उनका खरीदार आमतौर पर मध्यवर्ग है, पर डिब्बाबंद खाद्य वस्तुएं अंततः फौरी तौर पर होने वाली मूल्यवृद्धि को रोक सकती हैं। पर अभी हमारा यह उद्योग विकसित नहीं है। सब्जी और फलों का प्रभाव तात्कालिक होता है। अनाज और दालों का प्रभाव हमारे देश में दीर्घकालिक है। दिल्ली सरकार ने अलग-अलग जगहों पर सस्ता प्याज बेचना भी शुरू कर दिया है। पर यह सब मानसिक रूप से जनता को तैयार करने के लिए है। 

सच यह है कि सरकार को कुछ अलोकप्रिय कदम उठाने ही होंगे। उस अलोकप्रियता का सामना राजनीतिक स्तर पर करना होगा। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संकेत दिया है कि वे लोकप्रियता हासिल करने के चक्कर में नहीं पड़ेंगे। वस्तुतः फौरी लोकप्रियता लम्बे समय की अलोकप्रियता का कारण भी बनती है। सरकार ने गैस सिलेंडरों की कीमतों में वृद्धि टाल दी है, पर सब्सिडी का पहाड़ उसे पार करना ही है। शायद बजट में एलपीजी की कीमत 50 रुपए सिलेंडर तक बढ़े। या फिर एलपीजी सिलेंडर की कीमत हर महीने 10 रुपए बढ़ेगी। वहीं केरोसीन भी 2-3 रुपये प्रति लीटर महंगा हो सकता है। डीज़ल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ सकती है वगैरह। खाद्य वस्तुओं की कीमतों का फौरी तौर पर समाधान हो भी जाए, पर अब हमें बड़े स्तर पर उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा जैसी योजनाओं और रोजगार के अन्य प्रयासों के कारण जनता की क्रय शक्ति बढ़ेगी। तब गुणात्मक रूप से खाद्य वस्तुओं की माँग और बढ़ेगी। दूध, फल, मांस, मछली, सब्जी और अंडों की माँग बढ़ेगी। इनके उत्पादन का रोजगार सृजन से भी रिश्ता है। इस क्षेत्र में निवेश बढ़ाने की जरूरत है। इसके साथ ही भंडारण व्यवस्था भी बेहतर बनानी होगी। रिटेल बाजार में विदेशी निवेश हो या न हो पर कोल्ड स्टोरेज वगैरह पर कहीं न कहीं से निवेश लाना ही होगा। 

उद्योग जगत मान रहा है कि सरकार का पहला बजट ग्रोथ और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देने वाला होगा। प्रोजेक्ट मंजूरी के लिए सिंगल विंडो क्लियरेंस और प्रोजेक्ट के लिए आसान कर्ज की सुविधा होगी। देश में बिजनेस करना आसान बनेगा। पर्यावरणीय अड़ंगे दूर होंगे। बीमार पीएसयू के विनिवेश का ऐलान होगा। एक्सपोर्ट सेक्टर को रियायतें मिलेंगी वगैरह। आर्थिक उदारीकरण की दिशा में जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कोड का कोई ठोस रोडमैप सामने आएगा। भूमि अधिग्रहण बिल में बड़े बदलाव हो सकते हैं। कंपनी कानून में बदलाव के साथ एसईजेड पॉलिसी में बड़े बदलाव संभव हैं।

आम बजट की तरह रेल बजट भी लोकलुभावन बनाम वास्तविकता के विवाद से जुड़ा है। हाल में हुई मालभाड़ा वृद्धि टाली जाती तो रेल के भावी विकास के काम टलते। रेलवे को गाड़ियों की दशा सुधारने, सुरक्षा बढ़ाने, माल लदान बढ़ाने, नए ट्रैक तैयार करने और विद्युतीकरण बढ़ाने की जरूरत है। उधमपुर कटरा लाइन शुरू करते वक्त नरेंद्र मोदी ने कहा कि रेलवे में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के प्रयास किए जाएंगे। रेलवे और इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश का प्रतिफल देर से मिलता है। निजी पूँजी निवेश का मतलब सरकारी उद्यमों का अहित नहीं है। इसके लिए सार्वजनिक उद्यमों को भी खुली प्रतियोगिता में आने की छूट मिलनी चाहिए। संसद का बजट सत्र मोदी सरकार के वादों-दावों और सपनों की पहली झलक दिखाएगा। इसलिए यह हफ्ता बेहद महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। केवल इसलिए नहीं कि इसके साथ भारत का भविष्य जुड़ा है। भारत की आर्थिक संवृद्धि वैश्विक संवृद्धि के लिए भी जरूरी है। भारत बदलेगा तो दुनिया की हालत सुधरेगी। 

हरिभूमि में प्रकाशित