बुधवार, 27 अगस्त 2014

माउस से एक ही “क्लिक” करने से पूरी सभ्यता का विनाश?

साइबर युद्ध का ख़तरा-अमरीका के लिए सबसे बड़ा ख़तरा चीन से
वर्ष 2013 में दुनिया भर में साइबर हमलों की संख्या में बड़ी तेज़गति से वृद्धि होगी। कुछ ख़ास ठिकानों पर ऐसे हमले किए जाएंगे और सरकारी एजेंसियों पर विशाल पैमाने के हमले भी होंगे। यह निष्कर्ष एंटीवायरस निगम "कैसपेर्स्की लैब" के विशेषज्ञों ने निकाला है। अमरीकी खुफिया सेवाओं ने भविष्यवाणी की है कि आनेवाले 20 वर्षों में वैश्विक साइबर युद्ध शुरू हो जाएगा।

"कैसपेर्स्की लैब" के विश्लेषकों के मुताबिक, अगले साल कई सरकारी संस्थानों और व्यापार के विभिन्न क्षेत्रों की निजी कंपनियों की गोपनीय जानकारी की चोरी बड़े पैमाने पर होने लगेगी। सामाजिक सेवाओं और परिवहन जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचों पर साइबर हमले अक्सर होने की सम्भावना है।

गूगल और फेसबुक जैसी बड़ी बड़ी नेटवर्क कंपनियों के पास भारी मात्रा में ऑनलाइन जानकारी हासल करने की क्षमता होगी। इसके अलावा, संचार प्रौद्योगिकी के विकास की तेज़गति की बदौलत देशों की सरकारों का अपने नागरिकों पर असीम नियंत्रण हो जाएगा। लेकिन इन देशों के नागरिकों के पास भी अपनी सरकारों को चुनौतियाँ देने के कई अवसर मौजूद होंगे।

वर्तमान में, सूचना प्रौद्योगिकी हमारे समाज के सूचना क्षेत्र के विकास के संदर्भ में एक बड़ा ख़तरा बनती जा रही है। इस संबंध में रूस के सूचना सुरक्षा संघ के अध्यक्ष गेन्नादी येमेलियानोव ने रेडियो रूस को बताया –

ऐसा ख़तरा इसलिए बढ़ता जाएगा क्योंकि इस ख़तरे का एक टाइमबम फिट कर दिया जा चुका है। यदि हम समय पर पर्याप्त सुरक्षा उपाये नहीं करेंगे तो यह बम ज़रूर फटेगा और बड़े विनाश का कारण बनेगा। जब हम सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग के इतने ज्यादा आदी हो जाएंगे कि इसके बिना जीवन ही असंभव हो जाएगा तब पूरी दुनिया के लिए बहुत-सी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। ज़रा सोचिए, इस सूचना प्रौद्योगिकी ने अचानक ही काम करना बंद कर दिया है। अब आप क्या करेंगे? पूरा जीवन ठप्प। आप ज़रा कल्पना कीजिए कि सभी स्थानों पर बिजली गुल हो गई है। सारा काम ठप्प। वित्तीय और आर्थिक कारणों से भी ऐसा ख़तरा पैदा हो सकता है। इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी को अच्छी तरह से समझने वाले एक बहुत अच्छे दिमाग़ की ही ज़रूरत होगी।

अमरीकी खुफिया सेवाओं ने अपने देश की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को एक रिपोर्ट भेजी है जिसमें अमरीका के लिए मौजूदा साइबर हमलों के ख़तरों की समीक्षा की गई है। इसमें कहा गया है कि इस क्षेत्र में अमरीका के लिए सबसे बड़ा ख़तरा चीन से ही पैदा होगा। लॉस एंजिल्स टाइम्स में छपी इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि रूस, फ्रांस, इज़राइल और दुनिया के कुछ अन्य देश भी साइबर जासूसी करते हैं लेकिन वे उतना विश्वासघात नहीं करेंगे जितना कि चीन कर सकता है। कम से कम रूस ऐसा नहीं कर रहा है। वह अपने व्यापारियों के लाभ के लिए अमरीकी कंपनियों की जानकारियां चुराने की कोशिशें नहीं कर रहा है।

इस बीच, दिसंबर माह की शुरूआत में साइबर रक्षा पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय मंच साइबर सुरक्षा एशिया- 2012 के भागीदार इस बात पर सहमत हुए थे कि सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया की मुख्य समस्या यह है कि दुनिया की सरकारें अभी तक यह तय नहीं कर पाई हैः साइबर-आतंकवाद क्या चीज़ है? कुछ देशों की सरकारें साइबर युद्ध के लिए सबसे प्रभावकारी मालवेयर का विकास कर रही हैं। लेकिन कोई भी सरकार यह गारंटी नहीं दे सकती हैं कि ये मालवेयर और वायरस आतंकवादियों के लिए भी उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। यदि ऐसा हुआ तो आतंकवादी गिरोह इन मालवेयरों और वायरसों का खूब इस्तेमाल करेंगे। इसलिए कहा जा सकता है कि आज भी दुनिया के कई देशों के लिए अपने ही साइबर संजाल में फंसने का बड़ा भारी ख़तरा बना हुआ है। माउस से एक ही “क्लिक” करने से पूरी सभ्यता का विनाश हो सकता है। (रेडियो रूस से साभार)

Insult of Martyr Hemraj's Mother

शहीद की माँ का होता अपमान

शहीद हेमराज जी की अनसनरत माँ को मिल रही चिकित्सकीय सुविधा

Medical Facility of Martyr Hemraj's Mother

इस माँ का क़ुसूर क्या सिर्फ इतना है की इसने अपने बेटे शहीद हेमराज के शरीर पर खद्दर नहीं बल्कि बिन सर के शरीर पर तिरंगा डाला। अपने बेटे के तन पर सफ़ेद कुर्ता नहीं बल्कि भारत की शान सैनिक की वर्दी डाली। अपने बेटे को इस माँ ने मोम का या गरीबों के घर मे घुस कर उनके हिस्से की रोटी मुफ्त मे तोड़ने वाला नेता नहीं बल्कि आग मे तपा हुआ सच्चा भारत माँ का सपूत बनाया, क्या ये था इस माँ का क़ुसूर। 

इस माँ का वीर बेटा कश्मीर मे पाकिस्तानी क्षद्म शत्रुओं से घिरने के बाद भी भागा नहीं ताकि इस पावन धरती पर और जन्म देने वाली कोख पर कोई लांक्षन ना लगे। ये वीर बेटा उनसे लड़ा और इसमे अपना सर कटा दिया लेकिन सर को झुकाया नहीं।

पर इतने के बाद इस शहीद के परिवार को क्या मिल रहा है। 

सरकार से उपेक्षा.......सरकार की जबर्दस्ती अनसन तुड़वाने हेतु

ये सब तो एक बार चल भी जाता परंतु आप उपरोक्त चित्र को देख अंदाजा लगाएँ की शहीद की वीर माँ जो अपने बेटे के जाने का गम तो झेल ही रही है साथ ही प्रशासन के प्रति जो रोष है उसको अपने अनसन से जाहीर करना चाहती है, उस माँ को स्वास्थ्य सुविधा तक नहीं दी जा रही है।

जमीन जो खुद मे धूल-धूसरित है, वहाँ लेटी माँ को ग्लूकोज चढ़ाने के लिए एक स्टैंड तक नहीं मिला सरकार और प्रशासन को, तो ग्लूकोज के बोतल को लकड़ी पर टांग दिया गया। 

इसके पहले अनसनरत परिवार को केंद्र और प्रदेश सरकार ने डरा-धमका कर अनसन तुड़वा दिया था और अब ऐसी उपेक्षा। पहले अनसन तुड़वाने मे कहा की सरकार से मिल रही मदद राशि रोक दी जाएगी और तुम्हें जेल मे डाला जाएगा वो अलग। 

अब इन नेताओं का तो पेट ही पलता है सैनिकों के शहीद होने पर तो ऐसे मे वो कैसे कुछ कह सकते हैं क्यूंकी शहीद होने के बाद तो सैनिक इनके काम के रह नहीं जाते हैं।

परंतु ऐसे मे हमारे देश के थल-सेनाध्यक्ष कहाँ हैं ? उनका कोई बयान तक क्यूँ नहीं है ? क्या हमारे थल-सेनाध्यक्ष रिश्तेदारी निभा रहे हैं चुप रह कर ? या पाकिस्तान को मंद-मोहनी के अंदाज मे विरोध दर्ज कराएंगे ? 
वैसे शहीदों के साथ ये बर्ताव हमारे देश मे नया नहीं है। हमारे देश के कर्णधार नेता इतने महान हैं की इस निंदनीय घटना से भी बड़े और कई उदाहरण विद्यमान हैं। जैसे की शहीद उधम सिंह जी के पोते आज क्या काम कर रहे हैं वो आप नीचे दी हुई फोटो मे देख सकते हैं। कुछ समय पहले ही तात्या टोपे की वर्तमान पीढ़ी कानपुर मे चाय की दुकान चला कर अपनी जीविका चलाते हुए मिलीं। शाहिदे आजम भगत सिंह जी का परिवार कहाँ है और क्या कर रहा है आज ये हसायद ही किसी को पता हो। चन्द्र शेखर आजाद जी के बाद तो उनकी पीढ़ी का कोई सुना ही नहीं गया। सुभाष चन्द्र बोस के बारे मे मिले तथ्य को हमारे मौजूदा राष्ट्रपति जी ने ही अपने तशरीफ के टोकरे के नीचे दबा लिया था। अब देखते हैं इस शहीद के परिवार के साथ हमारे स्व-घोषित एक मात्र राष्ट्रभक्त नेता क्या करते हैं।

वैसे नेता से एक बाद याद आया की हमारे नवोदित नेता और अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा केजरीवाल जी कहाँ हैं। इस मुद्दे पर केजरीवाल जी का कोई वक्तव्य नहीं आया।

बहुत हो गई ये नाते-रिश्तेदारी अब सिर्फ देश के प्रति ज़िम्मेदारी ! ! !

मैं सामान्य राष्ट्रवादी जनता से ये आग्रह करना चाहूँगा की आप आगे बढ़ इस महान परिवार की यथा संभव मदद करें। कुछ नहीं कर सकते हैं तो इस परिवार के दर्द को बांटें।

तकनीक की भेंट चढ़ गए मित्र पक्षी

किसानों के मित्र समझे जाने वाले मित्र पक्षियों की कई प्रजातियां काफी समय से दिखाई नहीं दे रहीं हैं। किसान मित्र पक्षियों का धीरे-धीरे गायब होने के पीछे बहुत से कारणों में एक बड़ी वजह किसानों द्वारा कृषि में परंपरागत तकनीक छोड़ देने, मशीनीकरण व कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल को माना जा रहा है। गाँव-गाँव में मोबाइल फोन के टावरों से निकलने वाली तरंगों से भी मित्र पक्षियों तथा कीटों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।

कौन से हैं किसानों के मित्र

किसान मित्र पक्षियों में मोर, तीतर, बटेर, कौआ, शिकरा, बाज, काली चिड़ी और गिद्ध आदि हैं, जो दिन-प्रतिदिन लुप्त होते जा रहे हैं। ये पक्षी खेतों में बड़ी संख्या में कीटों को मारकर खाते हैं। आज से एक दशक पहले तक ये पक्षी काफी अधिक संख्या में थे लेकिन अब इनमें कुछ पक्षियों के दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। सबसे ज्यादा असर तो खेतऔर घरों में आमतौर पर दिखने वाली गौरया चिड़ी पर पड़ा है। खेतों में तीतर व बटेर जैसे पक्षी दीमक को खत्म करने में सहायक थे, क्योंकि उनका मनपंसद खाना दीमक ही है। इनके प्रजनन का माह अप्रैल, मई है और ये पक्षी आम तौर पर गेहूं के खेत में अंडे देते है। आज किसान गेहूँ कम्बाइन से काटते हैं और बचे हुए भाग को आग लगा देते हंै। इससे तीतर, बटेर के अंडे, बच्चें आग की भेंट चढ़ जाते है। इसी कारण इनकी संख्या में कमी आ रही है। नरमा, कपास के खेतों में दिन-प्रतिदिन कीटनाशकों का जरूरत से ज्यादा छिड़काव हो रहा है। जिससे बड़ी संख्या में तीतर-बटेरों की हर साल मौत हो जाती है। कमोबेस यही स्थिति मांसाहारी पक्षियों बाज, शिकरा, गिद्ध और कौवों की भी है।

खूबसूरत मोर भी हुए लुप्तप्राय

गाँव का सबसे खूबसूरत पक्षी और वर्षा की पूर्व सूचना देने वाले मोर भी अब लुप्त होते जा रहे है। ये पक्षी किसानों को सांप जैसे खतरनाक जंतुओं से भयमुक्त रखता है और साथ ही पक्षी शिकार कर खेतों से चूहे मारकर खाने में मशहूर है। वर्तमान में जहरीली दवाओं की वजह से मोरों की संख्या बहुत कम हो गई है।

मुर्दाखोर गिद्ध भी गायब हैं

भारत मे कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थी, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हैं। संरक्षण कार्यकर्ताओं का मानना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में अविश्वसनीय रूप से 97 प्रतिशत की कमी आई है। गिद्धों की इस कमी का एक कारण बताया जा रहा है: पशुओं को दर्दनाशक के रूप में दी जा रही दवा डायक्लोफ़ेनाक, और दूसरा, दूध निकालने लिए के लगातार दिए जा रहे ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन। उपचार के बाद पशुओं के शरीर में इन दवाओं के रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो ये रसायन उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते है और सड़े हुए माँस से होने वाली अनेक बीमारियों की रोकथाम में सहायता कर प्राकृतिक संतुलन बिठाते है। गिद्धों की जनसंख्या को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को मिली नाकामी से भी इनकी संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इनकी प्रजनन क्षमता भी संवर्धन के प्रयासों में एक बड़ी बाधा है, एक गिद्ध जोड़ा साल में औसतन एक ही बच्चे को जन्म देता है।

कीटनाशकों के प्रयोग से मरे अधिकांश पक्षी

कीटनाशकों का प्रयोग लगातार बढऩे से अन्य कीटों के साथ-साथ चूहे भी मर जाते हैं और इन मरे हुए चूहों को खाने से ये पक्षी भी मर जाते हैं। इसी प्रकार कौवे तथा गिद्ध भी जहर युक्त मरे जानवरों को खाने से मर रहे हैं। खेतों में सुंडी जैसे कीटों को मारकर खाने वाली काली चिडिया व अन्य किस्म की चिडियों पर भी कीटनाशकों का कहर बरपा है। अब ये पक्षी कभी-कभार ही दिखाई देते हैं।

वृक्षों का कटाना भी है कारण

खेतों से पक्षियों के गायब होने का एक बड़ा कारण है किसानों द्वारा वृक्षों का काटान। किसानों द्वारा किसी जमाने में खेतों में वृक्षों के नीचे पक्षियों के लिए पानी व खाने का प्रबंध किया जाता था, परंतु अब ठीक इसके विपरीत हो रहा है, जिससे अब पक्षियों का रूख खेतों की तरफ नहीं हो रहा है।

कृषि यंत्रों का ऐतिहासिक सफर

विश्व में खेती का इतिहास जितना पुराना है कमो-बेश कृषि यंत्रों का इतिहास भी उतना ही पुराना है। खेतों को तैयार करने, जोतने बोने, फसल काटने आदि के लिए मनुष्य को आरंभ से ही उपकरणों की जरूरत रही है। आरंभ में वे सब औजार लकड़ी, पत्थर या हड्डी के रहे होंगे लेकिन धातु के आविष्कार के बाद पत्थर और हड्डी की जगह धातु ने ले ली और लकड़ी के हल में भी लोहे के फल लगने लगे। इसी प्रकार कुदाल, फावड़ा, खुरपी, हँसिया आदि दूसरे प्रकार के उपकरण भी बनाए और मानवशक्ति के साथ-साथ पशुशक्ति का उपयोग किया जाने लगा। इसके लिए बैल, घोड़ा, खच्चर, ऊँट अधिक लाभदायक सिद्ध हुए। इन्हीं साधनों और पशुओं में थोड़े से बदलाव के साथ संसार के सभी देशों में 18वीं शताब्दी के आरंभ तक खेती होती रही। अठारहवीं शताब्दी में उद्योगों में यंत्रीकरण के बाद कृषि क्षेत्र में भी लोगों का ध्यान इस ओर गया तथा धीरे-धीरे कृषि उपकरण यंत्र बनते गए। उन्नत देशों में सन 1840 से ही लगभग लोहे के हलों का उपयोग होने लगा था। 20वीं शताब्दी में हलों में पर्याप्त सुधार किए गए, जिनके कारण हलों पर भार घट गया। कोल्टर्स के उपयोग के कारण हलों में खरपतवार भी कम फसते है तथा ये आसानी से चलते भी हैं। अब रबर के पहिए के कारण कृषि यंत्रों और ट्रैक्टरों द्वारा भार के खिंचाव में सुविधा हो गई है। अच्छे डिजाइन और बनावट तथा सुदृढ़ धातु के उपयोग के कारण घर्षण कम हो गया है। पिछड़े हुए देशों में आजतक भी अच्छे प्रकार के कृषि यंत्रों का मिलना एक समस्या है। सन 1900 के बाद विशेषत: प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात, रूस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अमरीका और अफ्रीका में कृषि के यंत्रीकरण का प्रचलन अधिक हुआ। श्रम की महत्त्व समझने वाले अनेक देशों के कृषक जुताई तथा फसल की बटाई आदि कार्यों के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने लगे, किंतु अफ्रीका और एशिया के बहुत से देशों में अभी यांत्रिक शक्ति का उपयोग अधिक मात्रा में नहीं हो रहा है। रूस के साइबीरिया क्षेत्र में सामूहिक खेतों पर तथा दक्षिण व मध्य अमरीका में मक्का उगाने के लिए, अर्जेंटाइना में कपास तथा ईख आदि के लिए यंत्रों का उपयोग विशेष रूप से होता है।

आधुनिक यंत्रों के प्रयोग से खाद्य एवं पहनने की वस्तुओं के उत्पादन में काफी प्रगति हुई है। क्षेत्र और विभिन्न प्रकार की फसलों का ध्यान रखते हुए अनेक प्रकार के यंत्रों का निर्माण होने लगा है। खेती के काम के लिए शक्ति के बढ़ते हुए उपयोग के कारण, मशीनों को चलाने वाली मोटरों तथा विद्युत का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ रहा है। संयुक्त राज्य अमरीका में, खेती की वृद्धि के साथ-साथ विद्युत शक्ति का उपयोग मुर्गी तथा सूअरों के पालने, घास सुखाने, आटा पीसने तथा डेअरी मशीनें आदि चलाने के कार्यों में भी होने लगा है। जिसकी वजह से घोड़ों और ऊँटों का प्रयोग बहुत ही कम हो गया। हाथ तथा पशुओं से चलाए जानेवाले यंत्रों में भी पर्याप्त सुधार हुआ और शक्तिचालित यंत्रों का आविष्कार एवं उपयोग बढ़ता गया। कृषि अनुसंधानकर्ताओं तथा अभियंताओं ने अब पौधे लगाने वाली, चुकंदर के बीज अलग करनेवाली एवं दाना तथा भूसा अलग करने आदि, कृषि कार्यों के लिए उपयोगी मशीनों को भी शक्तिचालित बनाने में सफलता प्राप्त करली है। संयुक्त राज्य अमरीका में कृषि कार्य में शक्ति और यंत्रों के उपयोगों के प्रारंभ का क्षेत्र बड़ा व्यापक था, वहाँ के खेत विभिन्न प्रकार की मिट्टी के होने के कारण छोटे-छोटे भागों में बँटे हुए थे। अत: वहाँ छोटे से छोटे खेतों में उपयोग करने के निमित्त मशीनें बनीं, जिसका ज्वलंत उदाहरण छोटे ट्रैक्टर हैं। ये पारिवारिक तथा छोटे खेतों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए है। यही बात प्लांटिंग मशीन और फर्टिलाइजर डिस्ट्रिब्यूटर के विषय में भी कही जा सकती है।

ग्रेट ब्रिटेन में जुताई के लिए भाप से चलने वाले ट्रैक्टर उपयोग में लाए जाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहाँ पेट्रोल से चलने वाले ट्रैक्टरों की संख्या अधिक हो गई। कृषि संबंधी श्रमिकों की कमी ने खेतों पर शक्ति तथा यंत्रों के उपयोग में दिनों दिन वृद्धि की है। वहाँ के किसानों ने घास से अधिक लाभ उठाने के हेतु मशीनों का उपयोग विशेष रूप से किया। वर्षा के कारण घास को अच्छी दशा में रखना कठिन था, अत: घास को साइलों में रखने की प्रथा का पर्याप्त विकास हुआ। परिणामस्वरूप इनसाइलेज कटर (चारा काटने की मशीन), साइलोफियर, साइलेज हारवेस्टर जैसी मशीनें प्रचलन में आई। वहाँ कुछ फसलों की कटाई रीपर के द्वारा होती है, जो फसल को बिना ग_र बनाए ही भूमि पर डाल देता है। यह कटी हुई फसल ट्रकों में भरकर मड़ाई के लिए जाती है। वहाँ की थ्रेशिंग मशीनें केवल भूसे को ही दाने से अलग नहीं करतीं, वरन छोट-छोटे खरपतवार, लकड़ी, पत्थर और मिट्टी को भी अनाज से अलग करती है। हवा में अधिक नमी होने के कारण ब्रिटेन के बहुत से चरागाहों में काई पैदा हो जाने से गर्मी में हैरो का उपयोग होने लगा है।

सोवियत रूस में सहकारी खेती, पंचवर्षीय योजना, भूमिसुधार और छोटे-छोटे खेतों को तोड़कर बड़े फार्म बनाने की योजनाओं के कार्यान्वित होने से ही यांत्रिक खेती की प्रगति हुई है। सुनिश्चित समय में योजनाओं के अंतर्गत यंत्रीकरण उन्नति की ओर विशेष तथा सस्ते ईधंन की प्राप्ति, रूस के कृषियंत्रीकरण में विशेष सहायक सिद्ध हुई। देश में ट्रैक्टर बनाने के बहुत से कारखाने खोले गए तथा आदमियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। लगभग सन 1940 तक रूस में खेती का एक बड़ा भाग सामूहिक खेती के रूप में होता रहा। अंत में इन छोटे भागों को मिलाकर बड़ी इकाई का रूप दे दिया गया, जिसके प्रबंध में पर्याप्त सुविधा हुई। मध्यम तथा छोटे सामूहिक खेत वाले आवश्यकता पडऩे पर राजकीय खेतों से मशीनें लाकर कार्य करते हैं। सन 1936 के बाद रूस में मशीनें गेहूँ, जौ, जई, राई और दूसरे अनाज उगाने के काम में आने लगीं और जो मशीनें अन्यत्र यांत्रिक खेती के लिये प्रयुक्त होती रहीं उनका उपयोग कपास, चुकंदर इत्यादि फसलों की खेती में भी किया जाने लगा। अब वहाँ लगभग सभी कृषि कार्य मशीनों के द्वारा होते हैं। दूसरे शब्दों में कृषि का 95 प्रतिशत यंत्रीकरण हो चुका है, वहाँ विभिन्न प्रकार के 1,000 कृषियंत्र बनने लगे हैं। 

जर्मनी में लोगों का झुकाव डीजल तथा सेमिडीजल छोटे ट्रैक्टरो के निर्माण की ओर अधिक है। यांत्रिक शक्ति के उपयोग से फसल उगाने के लिये पुरस्कार स्वरूप जर्मनी के कृषकों को 3 से 5 एकड़ ज़मीन मिल जाती थी। स्वभावत: लोगों का झुकाव ट्रैक्टरों एवं ट्रकों से कृषि उत्पाद बाजार ले जाने की ओर हुआ। वहाँ मशीनों के डिजाइन में खाद्योत्पादन की वृद्धि की और विशेष ध्यान दिया गया, जिससे वहाँ के छोटे छोटे फार्मों से अत्यधिक लाभ उठाया जा सके। कतारों में बुनाई करनेवाली इस देश की मशीनों की सूक्ष्मता दूसरे देशों के लिये एक उदाहरण है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व भी जर्मनी के खेतों पर विद्युत शक्ति का उपयोग होता था। सिफ्ट जर्मनी का एक विख्यात ट्रैक्टर है, जिसका निर्माण सन 1947-48 में प्रारंभ हुआ। ट्रैक्टरों से चलनेवाले स्पाइक टुथ हैरो तथा पल्वराइजर इत्यादि इस देश में बहुताएत निर्मित होते हैं।

फ्रांस में छोटे छोटे खेतों की अधिकता के कारण यांत्रिक खेती का उतना विकास नहीं है जितना इंगलैंड, रूस तथा जर्मनी में है। फ्रांस के कृषक अपने शक्तिशाली घोड़ों के लिये प्रसिद्ध हैं। कृषि कार्यों के लिये इनका उपयोग बड़ी मात्रा में होता है, इसके बावजूद इस देश में छोटे ट्रैक्टरों का उपयोग बढ़ा है। इस देश में स्प्रेइंग तथा डस्टिंम मशीनों का प्रयोग एवं फलों तरकारियों की खेती में अधिक तथा कुछ सीमा तक व्यापारिक उर्वरक के लिये होता है। दक्षिणी अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा अर्जेंटाइना में भी कृषि यंत्रों की ओर लोगों का झुकाव है किंतु जहाँ कही भी ईंधन मंहगा और पशु रखने की सुविधा है वहां के किसानों ने पशु शक्ति पर निर्वाह करना उचित समझा। इन देशों में यांत्रिक शक्ति का उपयोग केवल खेत तैयार करने तथा फसल की कटाई तक ही सीमित है। न्यूजीलैंड में डेअरी उद्योगों की उन्नति होने के फलस्वरूप वहाँ पर डेअरी से संबंधित यंत्रों का अत्यधिक मात्रा में उपयोग तथा विकास हुआ है। अफ्रीका में नील नदी की घाटी और दक्षिणी अफ्रीका के अतिरिक्त अन्य सभी जगह खेती अब भी पुराने ढंग से की जाती है और सामान्य यंत्र तथा पशु उपयोग में लाए जाते हैं। यही स्थिति एशिया के बहुत से देशों की है।

अधिक जनसंख्या होने के कारण चीन में ट्रेक्टरों तथा बड़ी मशीनों का उपयोग बहुत ही सीमित है। मानव एवं पशुचालित यंत्र ही वहाँ विशेष प्रचलित हैं। चीन में कृषि कार्यों की शक्ति का मुख्य साधन मनुष्य ही है। यहाँ तक कि हल तथा गाडिय़ाँ भी मनुष्यों द्वारा चलाई जाती हैं। साइलेज कटर, पनचक्की, राइस हलर, राइस थ्रैशर, दो पहिए वाले हल इत्यादि कुछ उन्नतिशील कृषि यंत्रों का निर्माण अब चीन में होने लगा है। यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका में विद्युतचलित यंत्रों का प्रयोग होने लगा है क्योंकि वहाँ बिजली अधिक सस्ते दर पर उपलब्ध है एवं इसको उपयोग में लाना भी सरल होता है। इसके अतिरिक्त विद्युत-चालित औजार और यंत्र भी पर्याप्त समय तक ठीक दशा में रखे जा सकते हैं, समय की बचत होती है, कार्य निपुणता बढ़ती है और व्यय कम होता है। भारत में कृषि यंत्रों का व्यवहार हालांकि हरित क्रान्ति के बाद से आरंभ हुआ है और आज उसका तेजी से विस्तार हो रहा है। हमारे यहां किसान की जरूरतों के आधार पर कृषि यंत्र नहीं बनाए जाते, यहां आज तक विदेशों की नकल पर तैयार यंत्रों का चलन है।

मेंढर के ताबूत से भारी है वाघा बॉर्डर की हर शाम

जिस वक्त पाकिस्तान की हरकतों को लेकर समूचा देश गुस्से में है, उस वक्त भी सरहद पर पाकिस्तान के जवानों से हाथ मिलाना पड़े। जिस वक्त जवानों को पता चला कि सीमा पर तैनात लांसनायक के सिर को पाकिस्तानी सेना ने काट दिया और देश के जवानों को उस वक्त भी अपने गुस्से,आक्रोश को दबाकर पाकिस्तान के जवान से हाथ मिलाकर पड़ोसी और दोस्त का धर्म निभाना पड़े। जिस वक्त दिल्ली में नार्थ-साउथ ब्लाक में पाकिस्तान को खुले तौर पर कठघरे में खड़ा किया जा रहा हो उस वक्त सरहद पर जवानों को यही निर्देश हो कि हर बसंती शाम की तरह ही उन्हें सिर्फ पांव पटक कर गुस्से का इजहार करना है और महज नारों से देश की जय जयकार करनी है तो उस शाम को सरहद पर खड़े होकर डूबते देख किसी भी भारतीय का दिल कैसे डूबेगा। अगर इसे देखना है तो वाघा बॉर्डर पर कोई भी शाम गुजार कर महसूस कर लें। क्योंकि 9 जनवरी की शाम जब जम्मू से लेकर दिल्ली तक और मथुरा से लेकर सीधी [म.प्र.] तक सिर्फ और सिर्फ मातम पसरा था और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर दिल्ली से लेकर इस्लामाबाद तक जेनवा क्नवेंशन से लेकर संयुक्त राष्ट्र की जांच को लेकर सवाल जवाब हो रहे थे, उस शाम भी वाघा बार्डर पर तैनात जवान अपने संबंधों की परंपराओं को ही ढो रहे थे। और वहां मौजूद हजारों हजार लोगों की तादाद को सीमा पर मारे गये दो जवानों के ताबूत से भारी वह पूरी पंरपरा लग रही थी जिसे निभाना भी हर शाम जवानो को ही होता है और उन्हें देखने पहुंचने वालों में राष्ट्रप्रेम जागे यह हुनर भी पैदा करना होता है।

शाम चार बजते बजते वाघा पर नारे गूंजने लगे, हिन्दुस्तान जिन्दाबाद, पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत माता की जय, वंदे मातरम, जियो जियो... पाकिस्तान, जियो जियो...पाकिस्तान। यह वे नारे हैं, जो सरहद की लकीर खींचते भी है और सरहद पिघलाते भी हैं। गुस्से और जोश को हर मौजूद शख्स में भरते भी है और हर गुस्से और आक्रोश में वाघा बॉर्डर पहुंचे हर शख्स को ठंडा करते भी हैं। कमाल का हुनर या पाकिस्तान के साथ रिश्तो का अभूतपूर्व एहसास है वाधा बार्डर पर सात सात फुट के लंबे-तगडे जवानो का नाल लगे जूतों को जमीन पर पटकने से लेकर लोहे के दरवाजे को लहराते हुये हाथ के साथ खोलना। हाथ तान कर संभालना और माथे पर बंधे साफे को संभालने के अंदाज में छू कर अपनी हनक का एहसास कराना। फिर कदमताल करते हुये सरहद की लकीर को पार कर चार गज की जमीन पर खड़े होकर दोस्त ना होने के अंदाज में हाथ मिलाना। और इस माहौल को हवा में नहीं बल्कि वहां मौजूद हजारों हजार लोगों की शिराओ में घोल देना । यह तो हर सामान्य या बसंती शाम का किस्सा है। जब तीन से चार हजार लोग जमा होते हैं। लेकिन जैसे ही जम्मू के करीब मेंढर सीमा पर तैनात लांसनायक के सर कलम किये जाने की खबर ने देश में गुस्सा पैदा किया वैसे ही गुस्से का इजहार करने या अंदर के उबाल को एक एहसास देने वाघा बार्डर पहुंचने वाले लोगों की तादाद में बढोतरी हो गई। जो टैपों 100 रुपये प्रति व्यक्ति लेकर अमृतसर से वाघा बार्डर तक पहुंचा देता है, उसका किराया 125 रुपये हो गया। हजार रुपये वाली टैक्सी का किराया ढाई हजार हो गया। 20 सीटो वाली जो बस साढे तीन हजार रुपये लेती है, उसका किराया पांच हजार रुपये हो गया। देश के अलग अलग हिस्सो से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पहुंचने वाले लोग दोपहर में बाहर निकलते तो वाघा बार्डर का ही सीधा रास्ता पकड़ते। 32 किलोमीटर के रास्ते पर टोल चुकाने के बाद आखिरी पांच किलोमीटर के रास्ते पर कतारों में खड़े सैकड़ों ट्रक को देखकर ही वाघा बार्डर जाने वाली हर भीड़ हिन्दुस्तान जिन्दाबाद और पाकिस्तान के विरोध के नारो से माहौल को और गरमा देती ।

ट्रकों में लदा माल पाकिस्तान जाता है और हर दिन एक हजार से ज्यादा ही ट्रक पर लदा माल अटारी स्टेशन पर मालगाडी में लादा जाता है। इन ट्रको में है क्या। चावल, गेंहू से लेकर खाने पीने की ही हर चीज होती
है। आलू प्याज भी। जी वह भी और चीनी, गुड भी। इसे तो रोक देना चाहिये । लड़ाई और खानपान साथ चल नहीं सकता। महाराष्ट्र से आये शिवकुमार ने जैसे ही ड्राइवर की जानकारी पर पाकिस्तान को लेकर अपने गुस्से का जैसे ही इजहार किया वैसे ही ड्राइवर बोल पड़ा, तुसी चाहे गुस्सा करो, लेकिन यही जोश तो साडा बिजनेस हैगा। क्या मतलब । वाउजी तुसी वाघा बार्डर पहुंचो त्वाउनू खुद समझ विच आ जावेगा। इधर,जैसे जैसे वाघा बॉर्डर नजदीक आ रहा था, वैसे वैसे ट्रकों की सिंगल लेन डबल में बदल गई और चौड़ी सड़क सिमटी सी दिखायी देने लगी। बस, टैपों, टैक्सी, कार, मोटरसाइकिल बड़ी तादाद में गाड़ियों पर नारे लगाते, जोश पैदा करता गाड़ियों का काफिला जब धीरे धीरे एक दूसरे के करीब हो कर चलने लगा तो नारे और तेज हो गये। माहौल ऐसा कि जैसे वाघा वार्डर पर ही आज दो दो हाथ हो जायेंगे। लेकिन ड्राइवर अपने धंधे में मस्त था। हर किसी को वाघा बॉर्डर पहुंचने की जल्दी थी। लेकिन ड्राइवर बायीं तरफ हाथ से दिखा कर बोला यह अटारी स्टेशन है। आखिरी स्टेशन । फिल्म वीरजारा की कुछ शूटिंग भी यहां हुई थी। आप चाहो तो यहां खड़े होकर तस्वीर निकाल लो। वैसे भी बस आगे जायेगी नहीं। बॉर्डर का तमाशा देख कर लौटोगे तो अंधेरा हो जायेगा। कोहरा हो जायेगा। फोटो ले नहीं पाओगे। कुछ जोड़े बस से उतरे अटारी के बोर्ड के आगे खडे होकर तस्वीर खींचने लगे । हर हाथ में मोबाइल कैमरा था तो हर कोई वाघा बॉर्डर को अपने कैमरे में कैद करने लगा। पंजाब पुलिस और बीएसएफ वालो के आपसी झगड़ों की वजह से आज स्थानीय गाड़ियां भी आगे नहीं जा सकती। तो कमोवेश हर कोई पैदल ही वाघा बार्डर चल पड़ा। एक किलोमीटर का रास्ता पैदल नापने में भी वीआईपी लोगों को मुश्किल पैदा हो रही थी। किसी को लंबी हिल परेशान कर रही थी तो किसी को गोद में बच्चा उठाना। कोई आम लोगों की भीड़ में साथ चलने से बचना चाहता था तो कोई अपनी देसी लाल बत्ती की गाडी को वाधा बार्डर तक कुछ भी करके लेना चाहता था। लेकिन आज किसी की नहीं चली तो आम जनता खुश भी थी। सभी पैदल तले तो रास्ते में सेना और जवानों की जो भी महक दिखायी देती उसे हर कोई कैमरे में बंद कर रहा था। लंबे-चौड़े जवानों के बीच खडे होकर गदगद महसूस करने वालों अलग अलग प्रांतों के लोग वाघा बॉर्डर से पाकिस्तान की तस्वीर लेकर ही खुद के भारतीय होने का धर्म निभा रहे थे। बच्चे नारे लगा रहे थे। बड़ों को यह अच्छा लग रहा था और साढे चार बजे जैसे ही नारे और कदमताल के बीच वाघा बॉर्डर अपनी परंपराओं को जीने लगा। एक साथ,एक जैसे होकर इस और उस पार सरहद के जोश को एक-दूसरे के खिलाफ बनाये रखने के आधे घंटे की कवायद के बाद जब दोनो देश के राष्ट्रीय ध्वज एक साथ उतारे गये और आज की कवायद खत्म किये जाने के ऐलान के साथ ही देश के जीरो माइल तक जाने की इजाजत मिली। तो फिर हर कोई जीरो माइल पत्थर के आगे-पीछे, दांये बायें खड़े होकर तस्वीर ही खींचाने लगा। और इसी एहसास में डूबा रहा कि वह पाकिस्तान और भारत की सीमा पर खड़ा है। हर किसी के लिये यह ताजी हवा के झोंके की तरह था कि वह पाकिस्तान के खेतों को अपनी नंगी आंखों से देख रहा था , कैमरे में कैद कर रहा था। गुस्सा,आक्रोश और नारों की गूंज यहां काफूर थी। खुशी थी। सरहद पर खड़े होकर खुद को कैमरे में कैद करने की कवायद ही नया जोश थी। बीस बीस रुपये में वाघा बार्डर पर होने वाली पूरी कवायद की सीडी हर कोई खरीद रहा था। पक्के अमरुद, गरम मूंगफली और छोले हर कोई खरीद रहा था। बेचने वाला यह कहने से नहीं चूक रहा था कि अमरुद लाहौर के हैं। और खाने वाला कह रहा था कैसे पता चलेगा। अपने जैसा ही तो है। और इसी उत्साह को लिये जब हर कोई वापस लौटने लगे तो रिक्शे वाले, ठेले वाले भी लौटने लगे। दुकाने बंद होने लगी। टैक्सी स्टैंड वाले को भी घर लौटने की जल्दबाजी थी। अटारी स्टेशन भी कोहरे में डूब चुका था। और बस का ड्राइवर भी गाडी स्टार्ट करते ही बोल पड़ा, बाउजी ठंड बढ़ गई है खिडकी बंद कर लो। लेकिन जोश बना रहे यह मनाओ क्योंकि जोश बना रहे तो अपना धंधा मंदा नहीं पड़ता। साड्डे नाल वाधा बार्डर द रिश्ता तो पेट द है। पाकिस्तान के साथ रिश्तों की सारा सच ड्राइवर कह चुका था।

न्यूज चैनलों की पत्रकारिता पर क्यों भारी पड़ा लड़के का इंटरव्यू

अगर ब्राडकास्ट एडिटर एसोशियसेशन [बीईए] की चलती तो बलात्कार की त्रासदी का वह सच सामने आ ही नहीं पाता जो लडकी के दोस्त ने अपने इंटरव्यू में बता दिया। दिल्ली की लडकी के बलात्कार के बाद जिस तरह का आक्रोष दिल्ली ही नहीं समूचे देश की सडको पर दिखायी दिया उसे दिखाने वाले राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने ही स्वयं नियमन की ऐसी लक्ष्मण रेखा अपने टीवी स्क्रिन से लेकर पत्रकारिता को लेकर खिंची कि झटके में पत्रकारिता हाशिये पर चली गई और चैनलो के कैमरे ही संपादक की भूमिका में आ गये। यानी कैमरा जो देखे वही पत्रकारिता और कैमरे की तस्वीरो को बडा बताना या कुछ छुपाना ही बीईए की पत्रकारिता। जरा सिलसिलेवार तरीके से न्यूज चैनलो की पत्रकारिता के सच को बलात्कार के बाद देश में उपजे आक्रोष तले स्वय नियमन को परखे। लडकी का वह दोस्त जो एक न्यूज चैनल के इंटरव्यू में प्रगट हुआ और पुलिस से लेकर दिल्ली की सडको पर संवेदनहीन भागते दौडते लोगो के सच को बताकर आक्रोष के तौर तरीको को ही कटघरे में खडा कर गया। वह पहले भी सामने आ सकता था।

पुलिस जब राजपथ से लेकर जनपथ और इंडियागेट से लेकर जंतर-मंतर पर आक्रोष में नारे लगाते युवाओ पर पानी की बौछार और आंसू गैस से लेकर डंडे बरसा रही थी अगर उस वक्त यह सच सामने आ चुका होता कि दिल्ली पुलिस तो बलात्कार की भुक्तभोगी को किस थाने और किस अस्पताल में ले जाये इसे लेकर आधे घंटे तक भिडी रही तो क्या राजपथ से लेकर जंतर मंतर पर सरकार में यह नैतिक साहस रहता कि उसी पुलिस के आसरे युवाओ के आक्रोष को थामने के लिये डंडा,आंसूगैस या पानी की बौछार चलवा पाती। या फिर जलती हुई मोमबत्तियो के आसरे अपने दुख और लंपट चकाचौंध में खोती व्यवस्था पर अंगुली उठाने वाले लोगो का यह सच पहले सामने आ जाता कि सडक पर लडकी और लडका अद्दनग्न अवस्था में पडे रहे और कोई रुका नहीं। जो रुका वह खुद को असहाय समझ कर बस खडा ही रहा। अगर यह इंटरव्यू पहले आ गया होता तो न्यूज चैनलो पर दस दिनो तक लगातार चलती बहस में हर आम आदमी को यह शर्म तो महसूस होती ही कि वह भी कहीं ना कही इस व्यवस्था में गुनहगार हो गया है या बना दिया गया है। लेकिन इंटरव्यू पुलिस की चार्जशीट दाखिल होने के बाद आया। यानी जो पुलिस डर और खौफ का पर्याय अपने आप में समाज के भीतर बन चुकी है उसे ही जांच कार्रवाई करनी है। सवाल यही से खडा होता है कि आखिर जो संविधान हमारी संसदीय व्यवस्था या सत्ता को लेकर चैक एंड बैलेस की परिस्थिया पैदा करना चाहता है , उसके ठीक उलट सत्ता और व्यवस्था ही सहमति का राग लोकतंत्र के आधार पर बनाने में क्यो लग चुकी है और मीडिया इसमें अहम भूमिका निभाने लगा है।

यह सवाल इसलिये क्योकि मीडिया की भूमिका मौजूदा दौर में सबसे व्यापक और किसी भी मुद्दे को विस्तार देने वाली हो चुकी है। इसलिये किसी भी मुद्दे पर विरोध के स्वर हो या जनआंदोलन सरकार सबसे पहले मीडिया की नब्ज को ही दबाती है। मुश्किल सिर्फ सरकार की एडवाइजरी का नहीं है सवाल इस दौर में मीडिया के रुख का भी है जो पत्रकारिता को सत्ता के पिलर पर खडा कर परिभाषित करने लगी है। बलात्कार के खिलाफ जब युवा रायसीना हिल्स के सीने पर चढे तो पत्रकारिता को सरकार की धारा 144 में कानून उल्लघन दिखायी देने लगा। लोगो का आक्रोष जब दिल्ली की हर सडक पर उमडने लगा तो मेट्रो की आवाजाही रोक दी गई लेकिन पत्रकारिता ने सरकार के रुख पर अंगुली नहीं उठायी बल्कि मेट्रो के दर्जनो स्टेशनो के बंद को सुरक्षा से जोड दिया। जब इंडिया-गेट की तरफ जाने वाली हर सडक को बैरिकेट से खाकी वर्दी ने कस दिया तो न्यूज चैनलो की पत्रकारिता ने सरकार की चाक-चौबंद व्यवस्था के कसीदे ही गढे।

न्यूज चैनलो की स्वयं नियमन की पत्रकारिय समझ ने न्यूज चैनलो में काम करने वाले हर रिपोर्टर को यह सीख दे दी की सत्ता बरकार रहे। सरकार पर आंच ना आये। और सडक का विरोध प्रदर्शन हदो में चलता रहे यही दिखाना बतानी है और लोकतंत्र यही कहता है। इसलिये सरकार की एडवाइजरी से एक कदम आगे बीईए की गाईंडलाइन्स आ गई। सिंगापुर से ताबूत में बंद लडकी दिल्ली कैसे रात में पहुंची और सुबह सवेरे कैसे लडकी का अंतिम सस्कार कर दिया गया। यह सब न्यूज चैनलो से गायब हो गया क्योकि बीईए की स्वयंनियमन पत्रकारिता को लगा कि इससे देश की भावनाओ में उबाल आ सकता है या फिर बलात्कार की त्रासदी के साथ भावनात्मक खेल हो सकता है। किसी न्यूज चैनल की ओबी वैन और कैमरे की भीड ने उस रात दिल्ली के घुप्प अंधेरे को चीरने की कोशिश नहीं की जिस घुप्प अंघेरे में राजनीतिक उजियारा लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी और दिल्ली की सीएम से लेकर विपक्ष के दमदार नेता एकजूट होकर आंसू बहाकर ताबूत में बंद लडकी की आखरी विदाई में शरीक हुये।

अगर न्यूज चैनल पत्रकारिता कर रहे होते तो 28 दिसबंर की रात जब लडकी को इलाज के लिये सिंगापुर ले जाया जा रहा था उससे पहले सफदरजंग अस्पताल में लडकी के परिवार वाले और लडकी का साथी किस अवस्था में में रो रो कर लडकी का मातम मना रहे थे यह सब तब सामने ना आ जाता जो सिंगापुर में 48 घंटे के भीतर लडकी की मौत को लेकर दिल्ली में 31 दिसबंर को सवाल उठने लगे। आखिर क्यो कोई न्यूज चैनल उस दौर में लडकी के परिवार के किसी सदस्य या उसके साथी लडके की बात को नहीं दिखा रहा था। जबकि लडका और उसका मामा तो हर वक्त मीडिया के लिये उपलब्ध था। परिवार के सदस्य हो या लडकी का साथी। आखिर सभी को अस्पताल में दिल्ली पुलिस ने ही कह रखा था कि मीडिया के सामने ना जाये। मीडिया से बातचीत ना करें। केस बिगड सकता है।

वहीं जिस तरह बलात्कार को लेकर सडक पर सरकार-पुलिस और व्यवस्था को लेकर आक्रोष उमडा उसने ना सिर्फ न्यूज चैनलो के संपादको को बल्कि संपादको ने अपने स्ंवय नियमन के लिये मिलकर बनायी ब्राडकास्ट एडिटर एसोसियशन यानी बीईए के जरीये पत्राकरिता को ताक पर रख सरकारनुकुल नियमावली बनाकर काम करना शुरु कर दिया। मसलन नंबर वन चैनल पर लडके के मामा का इंटरव्यू चला तो उसका चेहरा भी ब्लर कर दिया गया। एक चैनल पर लडकी के पिता का इंटरव्यू चला तो चैनल का एंकर पांच मिनट तक यही बताता रहा कि उसने क्यो लडकी के पिता का नाम , चेहरे , जगह यानी सबकुछ गुप्त रखा है। जबकि इन दोनो के इंटरव्यू लडकी की मौत के बाद लिये गये थे। यानी हर स्तर पर न्यूज चैनल की पत्रकारिता सत्तानुकुल एक ऐसी लकीर खिंचती रही या सत्तानुकुल होकर ही पत्रकारिता करनी चाहिये यह बताती रही। यानी ध्यान दें तो बीईए बना इसलिये था कि सरकार चैनलो पर नकेल ना कस लें। और जिस वक्त सरकार न्यूज चैनलो पर नकेल कसने की बात कर रही थी तब न्यूज चैनलो का ध्यान खबरो पर नहीं बल्कि तमाशे पर ज्यादा था। 

इसिलिये स्वयं नियमन का सवाल उठाकर न्यूज चैनलो के खुद को एकजूट किया और बीईए बनाया। लेकिन धीरे धीरे यही बीईए कैसे जडवत होता गया संयोग से बलात्कार की कवरेज के दौरान लडकी के दोस्त के उस इंटरव्यू ने बता दिया जो ले कोई भी सकता था लेकिन दिखाने और लेने की हिम्मत उसी संपादक ने दिखायी जो खुद कटघरे में है और बीईए ने उसे खुद से बेदखल कर दिया है। इसलिये अब सवाल कही बडा है कि न्यूज चैनलो को स्वयं नियमन का ऐलान बीईए के जरीये करना है या फिर पत्रकारिता का मतलब ही स्वयं नियमन होता है जो सत्ता और सरकार से डर कर संपादको का कोई संगठन बना कर पत्रकारिता नहीं करते। बल्कि किसी रिपोर्टर की रिपोर्ट भी कभी कभी संपादक में पैनापन ला देती है। संयोग से न्यूजचैनलो की पत्रकारिता संपादको के स्वंय नियमन पर टिक गयी है इसलिये किसी चैनल का कोई रिपोर्टर यह खडा होकर भी नहीं कह पाया कि जब लडकी को इलाज के लिये सिंगापुर ले जाया जा रहा था उसी वक्त उसके परिजनो और इंटरव्यू देने वाले साथी लडके ने मौत के गम को जी लिया था।

तुम्हारा नाम क्या था दामिनी?



लंदन के डेली मिरर ने दिल्ली गैंग रेप की पीड़ित लड़की का नाम और पहचान उजागर कर दी। उसके पिता चाहते हैं कि नाम उजागर हो। कानून का जो उद्देश्य है मामला उससे आगे चला गया है। सारा देश उस लड़की को उसकी बहादुरी के लिए याद रखना चाहता है। यदि उसे याद रखना है तो उसका नाम क्यों न बताया जाए। उसका दर्जा शहीदों में है। बहरहाल रेप पर चर्चा कम होती जाएगी, पर उससे जुड़े मसले खत्म नहीं होंगे। 

दिल्ली पुलिस ने शुक्रवार की रात ज़ी न्यूज़ चैनल के खिलाफ एक मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप है कि दिल्ली गैंगरेप के बाबत कुछ ऐसी जानकारियाँ सामने लाई गईं हैं, जिनसे पीड़िता की पहचान ज़हिर होती है। इसके पहले एक अंग्रेजी दैनिक के खिलाफ पिछले हफ्ते ऐसा ही मामला दर्ज किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए के तहत समाचार पत्र के संपादक, प्रकाशक, मुद्रक, दो संवाददाताओं और संबंधित छायाकारों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। सम्भव है ऐसे ही कुछ मामले और दर्ज किए गए हों। या आने वाले समय में दर्ज हों। बलात्कार की शिकार हुई लड़की के मित्र ने ज़ी न्यूज़ को इंटरव्यू दिया है जिसमें उसने उस दिन की घटना और उसके बाद पुलिस की प्रतिक्रिया और आम जनता की उदासीनता का विवरण दिया है। उस विवरण पर जाएं तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। पर उससे पहले सवाल यह है कि जिस लड़की को लेकर देश के काफी बड़े हिस्से में रोष पैदा हुआ है, उसका नाम उजागर होगा तो क्या वह बदनाम हो जाएगी? उसकी बहादुरी की तारीफ करने के लिए उसका नाम पूरे देश को पता लगना चाहिए या कलंक की छाया से बचाने के लिए उसे गुमनामी में रहने दिया जाए? कुछ लोगों ने उसे अशोक पुरस्कार से सम्मानित करने का सुझाव दिया है। पर यह पुरस्कार किसे दिया जाए?पुरस्कार देना क्या उसकी पहचान बताना नहीं होगा? 

आईपीसी की तमाम धाराओं के तहत केस की पीडिता का नाम छापने करने पर दो साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है। कानून के तहत बलात्‍कार पीडि़ता के निवास, परिजनों, दोस्‍तों, विश्‍वविद्यालय या उससे जुड़े अन्‍य विवरण को भी उजागर नहीं किया जा सकता। उधर केंद्रीय मानव संसाधन राज्‍यमंत्री शशि थरूर ने अपने ट्वीट में लिखा, "सोचता हूँ कि आख़िर दिल्ली बलात्कार पीड़ित की पहचान छिपाए रखकर क्या हासिल होगा? क्यों न उनका नाम बताकर उनका एक वास्तविक व्यक्ति की तरह सम्मान किया जाए, जिसकी अपनी पहचान है।" उन्होंने अगले ट्वीट में लिखा, "अगर उसके माता-पिता आपत्ति नहीं करते हैं तो उस लड़की का सम्मान किया जाना चाहिए। इसके अलावा बलात्कार के क़ानून में जो बदलाव होने हैं उसके बाद नए क़ानून का नाम उसी के नाम पर रखा जाना चाहिए।" उनका एक और ट्वीट था, "मैं जिसकी पहचान के बारे में जानना चाहता हूँ, वह कोई काल्पनिक पात्र नहीं है। देश को उसकी असलियत के बारे में जानने का पूरा हक़ है। अगर वर्षों बाद इस देश में महिलाएँ सुरक्षित हुईं तो मैं चाहता हूँ कि दुनिया को पता चले कि इसकी शुरुआत किसने की।"

बलात्कार कांड ने एक साथ अनेक सवालों को जन्म दिया है। ज्यादातर बातें हमारी विसंगतियों की ओर इशारा करती हैं। जिस लड़की को बचाने के लिए हजारों लोग इंडिया गेट पर एकत्र हो गए, वह जब सड़क पर पड़ी थी, तब वे उसे बचाने के लिए क्यों नहीं रुके? जिसे बचाने के लिए भारत के प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार को सामने आना पड़ा, उसके लिए अस्पताल में एक कम्बल तक क्यों नहीं था? इस मामले के अपराधियों को पकड़ने के लिए जो पुलिस इतनी त्वरित कार्रवाई करती है, वह मौके पर अपने क्षेत्राधिकार को लेकर क्यों झगड़ती रही? चूंकि यह मामला बड़ा बन गया, इसलिए हम सब इसे बढ़ा-चढ़ाकर देख पा रहे हैं। अन्यथा इसे आम अपराधों की तरह भुला दिया जाता। पूरे मामले में केवल पुलिस या सरकार ही दोषी नज़र नहीं आती। इसमें पूरे समाज के दोष भी दिखाई पड़ते हैं। पर क्या ऐसी घटनाएं हमें अपने आप को सुधारने का मौका नहीं देतीं?क्या ऐसे झटके किसी बड़े बदलाव का कारण नहीं बन सकते? क्या ऐसे आंदोलन किसी तार्किक परिणति तक पहुंच सकते हैं?क्या यह पहल हमें बेहतरी की ओर ले जाएगी? और यह भी कि बलात्कार के अपराध को हम किस तरीके से देखते हैं और खासतौर से उसकी शिकार लड़की के प्रति हमारा बर्ताव कैसा होता है।

बीबीसी की वैबसाइट ने अतीत में बलात्कार की शिकार हुई एक लड़की का ज़िक्र किया है। इंडिया गेट पर बलात्कार के खिलाफ़ कड़े कानून की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे लोगों में एक लड़की ऐसी भी थी जिसने यह त्रासदी खुद झेली थी। इस लड़की के मुताबिक जब उसके साथ यह हादसा हुआ तब उसके बाद उसकी मेडिकल जांच करने वाली डॉक्टर का रवैया बेहद संवेदनहीन था। दो उंगलियों से किए जाने वाले परीक्षण के दौरान वह अमानवीय हो गई थी और यह मेरे लिए बेहद तकलीफ़देह था। उसने कहा,"लम्हें भर के लिए मुझे लगा कि मेरा कोई वजूद नहीं था, मैं बलात्कार का शिकार हुई महज़ एक लड़की बनकर रह गई थी। अगर आप बलात्कार की शिकार हुई हैं तो आपने अपने होने का मतलब खो दिया है। "मैं अस्पताल के रिसेप्शन पर इंतज़ार कर रही थी कि तभी किसी ने कहा कि उस औरत को बुलाओ जिसके साथ बलात्कार हुआ है। यह आवाज़ मेरे दिमाग में गूंजने लगी।" केस वापस लेने के दबाव भी पड़ा। पीड़िता ने बताया कि बचाव पक्ष का वकील मेरे एक दोस्त से मिला। पीड़िता पर बलात्कारी से शादी करने का लगातार दबाव डाला गया। "मुझसे कहा गया कि जो हुआ उसे भूल जाओ, उससे शादी कर लो।" इंडिया गेट पर अपनी मौजूदगी को लेकर वह आशान्वित थी। उसने बताया कि यह मेरे जीवन का सार्थक पहलू है।

क्या यह आंदोलन लोगों की समझ बदलेगा? कम से कम बलात्कार की पीड़ित स्त्रियों को इसने भावनात्मक समर्थन ज़रूर दिया होगा। इसके साथ ही इससे जुड़े कानूनों और अदालती प्रक्रियाओं के प्रति चेतना बढ़ाएगा। दिल्ली रेप कांड में एक अभियुक्त के वयस्क न होने के कारण उसके बच जाने का मामला भी है। इसके लिए कानून में बदलाव की ज़रूरत होगी। इसके अलावा न्यायिक प्रक्रिया में भारी बदलाव की ज़रूरत होगी। शायद किसी नए कानून को ही बनाना पड़े। क्या यह कानून इस लड़की के नाम से बनाया जा सकता है? शशि थरूर ने यह सवाल भी उठाया है। सरकार की ओर से किसी ने कहा, ऐसी व्यवस्था हमारे देश में नहीं है। नहीं है तो परम्परा शुरू कीजिए। दुनिया के तमाम देशों में व्यक्तियों के नाम से कानून बनते हैं। वे प्रतीक होते हैं। जैसा कि किरण बेदी ने कहा है,"मैं बलात्कार पर नए क़ानून का नाम उस लड़की के नाम पर रखने की माँग का समर्थन करती हूँ। अमेरिका में ब्रैडी, मेगन, कार्ली या जेसिका क़ानून आदि ऐसे कई उदाहरण हैं।" बलिया में लड़की के पैतृक गांव मेड़वार कलां के प्रधान ने गांव की प्राथमिक पाठशाला का नाम उस लड़की के नाम पर रखने की बात कही थी। हो सकता है कोई माँ अपनी बेटी का नाम उसके नाम पर रखना चाहे। इसके लिए उसके नाम की पहचान क्या ज़रूरी नहीं है?

इस आंदोलन को केवल बलात्कार के खिलाफ आंदोलन नहीं मानना चाहिए। यह हर तरह के अपराध के खिलाफ आंदोलन था। किसी भी छोटे अपराध की अनदेखी होने पर उससे ज्यादा बड़े अपराध का हौसला मिलता है। हमारा हर अपराध से विरोध है। क्या यह आंदोलन किसी बड़े सामाजिक आंदोलन को जन्म दे सकता है? या फिर यह दूध के उफान जैसा है? संशयी मन कहते हैं कि कुछ नहीं हो सकता। यह सब व्यर्थ जाएगा। इस आंदोलन का माँग क्या थी? थी भी तो ज्यादा से ज्यादा यही कि बलात्कारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो। पर असल बात यह है कि यह रोष की अभिव्यक्ति थी। रोष भी सरकार के खिलाफ। पर यह सरकार हमारी है। हम उससे माँग कर सकते हैं और माँग मनवा भी सकते हैं। पर इसके लिए हमें भी बदलना चाहिए। अपने दोषों की ओर भी देखना चाहिए। हम धीरे-धीरे जिस संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं, अंततः वह हम सबका जीना हराम कर देगी। सरकार या व्यवस्था एक विशाल मशीनरी है, जिसमें तमाम तरह के पुर्जे हैं। हम भी उसके पुर्जे हैं। इन पुर्जों में खराबी है तो उसे दूर करना चाहिए। कृपया गम्भीर विमर्श से भागना बन्द कीजिए। आप जहाँ भी हैं, जिस हाल में हैं, अपनी जानकारी और चेतना के स्तर को बढ़ाइए। यह आपके हित में है।

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

"मैं हिन्दू हूँ"

हिन्दुत्व ही क्यूँ ?

पिछले साठ वर्षों से स्कूलों मे जाने वाले हर बालक-बालिका के मुख से तथा जनता के मुख से यही गवाया जाता रहा है - "मजहब नहीं सिखाता, आपस मे बैर रखना", जबकि तथ्य यह है कि पिछले पंद्रह सौ वर्षों मे विश्व मे जितना खून मझाब के नाम पर बहा है, उसकी कोई तुलना ही नहीं है। कत्लेआम, बलात्कार, अत्याचार का तो कोई हिसाब ही नहीं है।

हिन्दू ने प्रत्येक मजहब का स्वागत किया है और इसे भारत मे फलने-फूलने का अवसर दिया है।

अब एक अन्य खतरनाक मझाब 'नास्तिक' एक चुनौती बन कर उभर रहा है। दुनिया मे नास्तिक मत (कम्यूनिज़्म) ने भी हंगरी इत्यादि देशों मे कम रक्त नहीं बहाया। नास्तिक्य और कम्यूनिज़्म भी मजहब के अंतर्गत आते हैं।

अभी बीसवीं शताब्दी पर ही दृष्टि डालें तो देखेंगे कि भारत, जैसे कश्मीर से कन्याकुमारी तक, हिमांचल से पूरी तक एक सूत्र मे बंधे देश को तीन टुकड़ों मे मझाबी आधार पर विभाजित कर दिया गया। यह उस मजहबी जुनून का कमाल है जो "नहीं सिखाता आपस मे बैर रखना।"

एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा है जिसने विश्व को मानवता का प्रचार करने के लिए शांति दूत भेजे और बिना युद्ध किए विश्व भर को मानवता का पाठ पढ़ाया और प्रचार किया। 

इस पर भी हिन्दू धर्म को सांप्रदायिक कहना या तो मूर्खता ही काही जाएगी अथवा धूर्तता। हिन्दू कोई मजहब नहीं है। यह कुछ मान्यताओं का नाम है। वे मान्यताएं ऐसी हैं जो मानवता का पाठ पढ़ाती हैं।

हिंदुओं कि धर्म पुस्तकों मे मनुस्मृति का नाम सर्वोपरि है और मनुस्मृति धर्म का लक्षण करती है - धुर्ति क्षमा दमोस्तेय शौचम इंद्रिय-निग्रह, धीर्विधा सत्यमक्रोधी दशकम धर्म लक्षणम। कोई बताए इसमे कौन सा लक्षण है जो मानवता के विपरीत है। 

स्मृति मे धर्म का सार स्पष्ट शब्दों मे कहा है - श्रूयतां धर्म सर्वस्व, श्रूत्व चैवाव धार्यताम, आत्मनः, प्रतिकूलानि परेणाम न समाचरेत ।। (धर्म का सार सुनो और सुनकर धारण करो, अपने प्रतिकूल व्यवहार किसी से न करो।)

ऐसे लक्षण वाले धर्म को साम्प्रदायिक कहता तो मूर्खता की पराकाष्ठा काही जाएगी।

वास्तव मे हिन्दू धर्म को न समझने के कारण दुनिया मे अशांति मची हुई है। सम्पूर्ण भारत देशवासी हिन्दू ही हैं क्यूंकी वे हिंदुस्तान के नागरिक हैं। इस्लाम, ईसाई, पारसी, बौद्ध इत्यादि जो हिंदुस्तान का नागरिक है वह हिन्दू ही है।

हमारे राजनैतिक नेता तथा आज के कुशिक्षित लोग अंधाधुंध, बिना सोचे समझे लट्ठ लिए हुए हिन्दू के पीछे पड़ जाते हैं। 

समस्या का हल तो है परंतु राजनीति में आए स्वार्थी नेता अपना उल्लू कैसे सीधा करेंगे?

बच्चों की पाठ्य पुस्तक मे एक पाठ इस विषय मे हो, कि हिन्दू क्या है, इसके मान्यताएं क्या हैं, और भारत का प्रत्येक नागरिक जो भी भारतवासी है, वह हिन्दू ही है।

हिंदुओं कि मान्यताएं शास्त्रोक्त हैं, बुद्धियुक्त हैं, किसी भी मझाब के विरोध मे नहीं। किसी भी मजहब को मानने वाले यदि वे हिन्दू कि मान्यताओं को जो मानवता ही है, मान लें तो द्वेष का कोई कारण नहीं रहेगा।

संक्षेप मे हिन्दू कि मान्यताएं हैं - जोकि शास्त्रोक्त हैं, युक्तियुक्त हैं, इस परकर हैं -

1॰ जगत के रचयिता परमात्मा पर जो सर्वशक्तिमान है, अजर अमर है, विश्वास;
२. जीवात्मा के अस्तित्व पर विश्वास;
३. कर्म-फल पर विश्वास। इसका स्वाभाविक अभिप्राय है पुनर्जन्म पर विश्वास;
४. धर्म पर विश्वास। धर्म जैसा कि मनुस्मृति मे लिखा है, जिसका सार है - 

आत्मनः प्रतिकूलानी परेषाम न समाचरेत । । 


हिन्दू जनसंख्या विश्वपटल पर 

हिन्दू के इतिहास पर, हिन्दू राष्ट्र कि विवेचना पर तथा हिन्दू कि मान्यताओं पर श्री गुरुदत्त जी ने तीन पुस्तकें लिखीं हैं - हिन्दुत्व कि यात्रा, वर्तमान दुर्व्यवस्था का समाधान-हिन्दू राष्ट्र तथा मैं हिन्दू हूँ (हिन्दू धर्म कि मान्यताएं), जो प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को पढनी चाहिए। 

साभार : श्री गुरुदत्त जी 
पुस्तक : मैं हिन्दू हूँ (हिन्दू धर्म कि मान्यताएं)

सिक्किम की सुगंध-टेमी चाय

दुनिया भर के चाय प्रेमियों का दिल जीत लिया 

टेमी चाय पर विशेष लेख * खगेन्‍द्रमणि प्रधान


आकर्षक और भव्‍य माउंट कंचन ज़ोंगा की पृ‍ष्‍ठभूमि में तीस्‍ता नदी की सुहावनी समीर के साथ सिक्किम हर सुबह टेमी चाय का आनंद लेता है। 4500 से 6,316 फुट की ऊंचाई पर फैली ढलान वाली 180 हेक्‍टेयर भूमि में टेमी चाय के बागान हैं, जहां बहुत ही बढ़िया परम्‍परागत चाय की पैदावार होती है, जिसकी चाय के कदरदान तारीफ करते नहीं थकते।

टेमी चाय बागान की स्‍थापना सिक्किम के पूर्व नरेश चोग्‍याल के शासनकाल में 1969 में हुई थी और बड़े पैमाने पर इसका उत्‍पादन 1977 में शुरू हुआ। चाय बागान के रोजमर्रा के काम-काज को व्‍यवस्थित रखने के लिए 1974 में चाय बोर्ड की स्‍थापना की गई और बाद में यह सिक्किम सरकार के अंतर्गत उद्योग विभाग की सहायक कम्‍पनी बन गई। टेमी चाय से जहां एक ओर 4 हजार से अधिक श्रमिकों और 30 कर्मचारियों को सीधे रोजगार मिलता है, वहीं यह कम्‍पनी सरकारी क्षेत्र में रोजगार प्रदान करने वाली एक बड़ी कम्‍पनी बन गई है।

हल्‍की ढलान वाली यह भूमि तेंदोंग पर्वत श्रृंखला से शुरू होती है। 30-50 प्रतिशत ढलान वाली दुम्‍मट मिट्टी की यह भूमि चाय बागान के लिए बहुत ही उपयुक्‍त है और यहां साल में लगभग 100 टन चाय की पैदावार होती है। यदि बड़े चाय बागानों से मुकाबला किया जाए, तो यह पैदावार बहुत ज्‍यादा नहीं है, लेकिन इसकी गुणवत्‍ता और सुगंध ने भारत और दुनिया भर के चाय प्रेमियों का दिल जीत लिया है।

टेमी चाय बागान में पैदा हुई चाय को ''टेमी चाय'' जैसे कई ब्रांड नामों से पैक किया जाता है, जो सबसे बढ़िया क्‍वालिटी की चाय होती है, जिसमें सुनहरी फूलों जैसी नारंगी झलक वाली बढि़या काली चाय होती है। इसके बाद दूसरी बढ़िया चाय का लोकप्रिय ब्रांड नाम है 'सिक्किम सोलजा' और उसके बाद 'मिस्‍टीक चाय' और 'कंचनजंगा' चाय का नाम आता है। इसे 'ऑर्थोडोक्‍स डस्‍ट टी' के नाम से बेचा जाता है। चाय की लगभग 70 प्रतिशत पैदावार अधिकृत दलाल के माध्‍यम से कोलकाता में सार्वजनिक नीलामी से बेची जाती है और बा‍की की चाय के रिटेल (खुदरा बिक्री के लिए) पैकेट बनाए जाते हैं और स्‍थानीय बाजार में बेचे जाते हैं।

चाय बागान की भूमि की भौगोलिक स्थिति और चाय के पौधों को जैविक खाद से पोषित करने से इस चाय बागान में पैदा होने वाली चाय के पत्‍तों की कीमत और सुगंध और बढ़ जाती है।टेमी चाय बागान ने स्विटज़रलैंड की बाजार नियंत्रण से संबंधित संस्‍था-आईएमओ के निर्देशों का पालन किया और पर्यवेक्षण की अवधि पूरी होने के बाद आईएमओ इंडिया ने, जो आईएमओ स्विटज़रलैंड का सदस्‍य समूह है, 2008 में टेमी चाय बागान को 100 प्रतिशत ऑर्गेनिक का प्रमाण पत्र दिया। इसके अलावा खाद्य सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली के अंतर्गत भी यह आईएसओ-22,000 मानक के अनुसार एचएसीसीपी द्वारा भी परमाणीकृत चाय बागान है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि बाजार पहुंचने वाला उत्‍पाद उत्‍तम गुणवत्‍ता वाला है। यह भी उल्‍लेखनीय है कि टेमी चाय बागान को लगातार दो वर्षों से भारतीय चाय बोर्ड ने भी अखिल भारतीय गुणवत्‍ता पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया है।

चाय उत्‍पादन की पूरी प्रक्रिया को परंपरागत से ऑर्गेनिक में बदलने से न केवल इसके लिए अंतर्राष्‍ट्रीय बाजार में मांग बढ़ी है, बल्कि सिक्किम जाने वाले पर्यटक भी बड़ी संख्‍या में इसकी मांग करते हैं। चाय की ऑर्गेनिक खेती के लिए जैविक खाद और वर्मिन-कम्‍पोस्‍ट खाद, नीम और अरंण्‍डी की बट्टियों के रूप में कीटनाशक भी उपलब्‍ध होते हैं। चाय बागान के पास लगभग 100 एकड़ वन भूमि भी है, जिससे बड़ी मात्रा में चाय बागान के लिए जैविक खाद-पदार्थों की पूर्ति हो जाती है, जो इसे आवश्‍यक संसाधनों की दृष्टि से आत्‍मनिर्भर बनाता है।
खेती में रासायनिक खादों के इस्‍तेमाल को छोड़कर पैदावार के ऑर्गेनिक तरीके अपनाने से न केवल टेमी चाय बागान की उत्‍पादन लागत कम हुई है, बल्कि हानिकारक रसायनों से मुक्‍त ऑर्गेनिक पैदावार को पसंद करने वालों का एक बहुत बड़ा बाजार भी मिल गया है। टेमी चाय बोर्ड को अपनी सफलता पर गर्व है और वह सरकारी राजस्‍व में भी पर्याप्‍त योगदान दे रहा है।

जर्मनी, ब्रिटेन, अमरीका और जापान टेमी चाय के प्रमुख खरीददार हैं। ग्रीन टी की बढ़ती मांग को देखते हुए इसमें विविधता लाने के कई प्रयास किए जा रहे है और इसकी कीमत बढ़ाने के लिए अधिक आकर्षक डिज़ाइन वाले पैकेट तैयार किए जा रहे हैं। इसके अलावा सिक्किम की इस चाय के लिए विदेशी बाजार में सीधे खरीददार बनाने के भी प्रयास किए जा रहे हैं। चाय बोर्ड ने कनाडा और जापान को ऑर्गेनिक चाय के छोटे पैकेट सीधे निर्यात करना भी शुरू कर दिया है, जहां इसके लिए स्‍पर्धात्‍मक और आकर्षक दाम मिल रहे हैं।चाय बागान के विस्‍तार के लिए उपयुक्‍त भूमि न मिलने से इसके क्षेत्र का विस्‍तार नहीं हो पा रहा है। लेकिन टेमी चाय बागान छोटे किसानों और उत्पादकों को बढ़िया पौध और अन्‍य तकनीकी जानकारी की सहायता उपलब्‍ध करा रहा है। बागान की नर्सरी में बढ़िया पौध तैयार की जाती है, जिसका वितरण राज्‍य के छोटे चाय बागानों की सहकारिताओं में किया जाता है।

हालांकि टेमी चाय चाय पारखियों की उम्‍मीदों पर खरी उतरी है, फिर भी चाय बागान की जलवायु संबंधी परिस्थितियों को देखते हुए यहां अधिक कीमत वाली और बढि़या चाय पत्‍तों वाली पैदावार की अभी भी गुंजायश है। (PIB) (पत्र सूचना कार्यालय विशेष लेख)सिक्किम की सुगंध-टेमी चाय

*फ्रीलांस पत्रकार

नोट: लेखक द्वारा इस लेख में व्‍यक्‍त किए गए विचार आवश्‍यक नहीं कि पत्र सूचना कार्यालय के विचारों से मेल खाते हों।

एक बच्‍चा एक लैम्‍प:

स्‍कूल के दिनों को रोशन करने की एक परियोजना

विशेष लेख    *मनीष देसाई**भावना गोखले

ग्रामीण परिदृश्‍य में बदलाव

पिछले दो दशकों के दौरान भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कई प्रकार के बदलाव आए हैं। वहां बेहतर सड़क संपर्क के साथ ही स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं में महत्‍वपूर्ण सुधार, साक्षरता में सुधार और हर किसी के लिए मोबाइल फोन की सुविधा देखने को मिलती हैं। किंतु बिजली की आपूर्ति में उतना सुधार देखने को नहीं मिलता है। देश के अधिकांश राज्‍यों में 12 से लेकर 14 घंटे तक बिजली नहीं मिलना एक सामान्‍य बात है। जब इतने लम्‍बे समय तक बिजली न मिले तो इससे स्‍कूल जाने वाले बच्‍चे सबसे अधिक प्रभावित होने वालों में शामिल हैं।
बिजली नहीं रहने के कारण छात्र या तो पढ़ाई नहीं कर पाते या फिर वे मिट्टी के तेल वाले लैम्‍प की रोशनी में पढ़ाई करते हैं। यह स्थिति अच्‍छी नहीं है। बिजली की आपूर्ति में कमी होने के कारण देश के 12 करोड़ से अधिक बच्‍चे अपनी पढ़ाई के लिए मिट्टी के तेल वाले लैम्‍प पर निर्भर करते हैं। मिट्टी के तेल वाले लैम्‍प से उतनी रोशनी नहीं होती, जिससे बच्‍चे आराम से पढ़ाई कर सकें। उससे कार्बन मोनोक्‍साइड गैस भी उत्‍सर्जित होती है, जो बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए नुकसानदायक है। मिट्टी का तेल लीक होने की स्थिति में आग लगने का भी खतरा रहता है। अंतत: इसका परिणाम यह होता है कि छात्र अपनी पढ़ाई के साथ तालमेल रखने में असफल रहते हैं और जब वे उतीर्ण होते हैं, तो उनमें रोजगार के अवसरों तक पहुंचने के लिए आत्‍मविश्‍वास में कमी होती है और उनका कौशल स्‍तर भी कम होता है। 
इसलिए बच्‍चों की पढ़ाई के दौरान रोशनी की उपलब्‍धता काफी महत्‍वपूर्ण है। इसलिए हम इस समस्‍या का किस प्रकार समाधान करें ?

लेड अध्‍ययन लैम्‍प – सर्वोत्‍तम समाधान

 सभी संभव समाधानों के बीच सौर ऊर्जा पर आधारित सौर लैम्‍प सबसे सस्‍ता और सबसे त्‍वरित समाधान के रूप में दिखाई पड़ता है।
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उभरती हुई लेड रोशनी की प्रौद्योगिकी, जो एक सेमीकंडक्‍टर पर आधारित है, वह रोशनी की समस्‍या से जुड़ा एक बेहतरीन और सरल समाधान है। श्‍वेत लेड क्रांति के बल पर अब पढ़ाई के उद्देश्‍य के लिए एक उपयुक्‍त और सरल समाधान प्रस्‍तुत हो रहा है, जो एक चौथाई वाट से भी कम बिजली लेकर एक लैम्‍प की तुलना में 10 से लेकर 50 गुना अधिक रोशनी देता है।

हैदराबाद स्थित स्‍वैच्छिक संगठन – थ्राइव एनर्जी टेक्‍नोलॉजिज ने एक सौर अध्‍ययन लैम्‍प वि‍कसित किया है, जो अध्‍ययन के उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए पर्याप्‍त रोशनी प्रदान करता है। एक बार पूरा चार्ज करने पर इससे प्रतिदिन सात से आठ घंटे तक रोशनी मिलती है।

सौर लेड की विशेषताएं

*एक लैम्‍प द्वारा दो से तीन लक्‍स रोशनी की तुलना में यह लगभग 150 लक्‍स रोशनी प्रदान करता है।
*इसमें निकेल धातु वाली हाइड्राइड की बैट्री का इस्‍तेमाल होता है, जिसे 0.5 वाट वाले सोलर पैनल के जरिए अथवा ए.सी मोबाइल चार्जर या फिर सौर ऊर्जा आधारित चार्जिंग प्रणाली के जरिए चार्ज किया जा सकता है।
*इसमें विश्‍व के सर्वोत्‍तम लेड और एक उन्‍नत आईसी का इस्‍तेमाल होता है, जो कई वर्षों के इस्‍तेमाल के बाद भी निरंतर और बढि़या रोशनी देता है।
इस परियोजना से जुड़े आई.आई.टी बम्‍बई के रवि तेजवानी का कहना है – ‘सामान्‍यत: जो लैम्‍प तैयार किए जाते हैं, वे ग्रामीण पर्यावरण के लिए उतना उपयुक्‍त साबित नहीं होते। प्रौद्योगिकी और प्रक्रियाओं में नवीनता के माध्‍यम से ये लैम्‍प व्‍यापारिक तौर पर बाजार में उपलब्‍ध समकक्ष गुणवत्‍ता वाले लैम्‍पों की तुलना में 40 प्रतिशत तक किफायती हैं।’

खरगौन का प्रयोग : एक बच्‍चा एक लैम्‍प  

‘एक बच्‍चा एक लैम्‍प’ नामक परियोजना दक्षिण-पश्चिम मध्‍य प्रदेश के खरगौन जिले में शुरू की गई। इसका उद्देश्‍य जिले के प्रत्‍येक 100 स्‍कूलों के सौ-सौ बच्‍चों - कुल मिलाकर 10,000 बच्‍चों, को सोलर लैम्‍प प्रदान करना है। झिरन्‍या और भगवानपुरा तहसील के 100 स्‍कूलों को भी इस योजना में शामिल किए जाने का प्रस्‍ताव है, जो सबसे अधिक पिछड़े क्षेत्रों में शामिल हैं। मुख्‍य योजना जिले में 1,00,000 लैम्‍पों का वितरण करना है।

  मध्‍य प्रदेश के खरगौन जिले को एक शीर्ष जिले के रूप में चुना गया है, क्‍योंकि 84 प्रतिशत से अधिक जनसंख्‍या गांव में निवास करती है और इसमें से 40 प्रतिशत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति श्रेणी की है। रोशनी के लिए 40 प्रतिशत से अधिक लोग मिट्टी के तेल का इस्‍तेमाल करते हैं। मध्‍य प्रदेश में प्रति व्‍यक्ति बिजली का उपभोग मात्र लगभग 330 यूनिट प्रतिवर्ष है, जबकि भारत के लिए यह 750 यूनिट है और विश्‍वभर के लिए यह औसत 2000 यूनिट है। खरगौन जिले में स्थित एजुकेशन पार्क की ओर से इस परियोजना को कार्यान्वित किया जा रहा है, जिसमें थ्राइव एनर्जी टेक्‍नोलॉजिज, हैदराबाद सहयोग कर रहा है। अब तक 4500 से भी अधिक सौर लेड लैम्‍प वितरित किए गए हैं।  इसका उद्देश्‍य सिर्फ वितरण करना है।

परियोजना की कार्य प्रणाली

 छात्रों के लिए सौर लैम्‍प की रियायती लागत केवल 200 रूपये है, हालांकि बाजार में इसकी कीमत 580 रूपये है। श्री तेजवानी का कहना है कि इन सौर लैम्‍पों को स्‍कूल के एक ही स्‍थान पर चार्ज किया जाएगा, जबकि छात्रों की पढ़ाई स्‍कूल के टैरेस में स्‍थापित एक साझा सौर पीवी मॉड्यूल के जरिए कराई जाएगी। दिन में इन लैम्‍पों को चार्ज किया जाएगा और 4 से 5 घंटे के चार्ज होने के बाद ये 2-3 दिनों तक रात के दौरान 2-3 घंटे तक रोशन प्रदान करने में सक्षम होंगे। जिन छात्रों के पास ये लैम्‍प होंगे, वे इसे घर ले जाकर रात में अपनी पढ़ाई करेंगे। जरूरत होने पर वे स्‍कूल ले जाकर इसे फिर से चार्ज कर सकेंगे।
परियोजना के लाभ    एक बार सफलतापूर्वक कार्यान्वित होने पर समाज के लिए यह परियोजना प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष रूप से लाभकारी होगी।

*10,000 छात्रों को सौर लैम्‍प मिल जाने पर इसके परिणामस्‍वरूप अध्‍ययन के लिए प्रतिवर्ष लगभग 30,00,000 अतिरिक्‍त घंटे उपलब्‍ध होंगे।

*इससे माता-पिता, शिक्षकों और प्रशासकों के बीच जागरूकता आएगी और लोग अपना-अपना सौर लैम्‍प प्राप्‍त करने के लिए प्रोत्‍साहित होंगे। घर में इस्‍तेमाल के लिए एक अन्‍य घरेलू लैम्‍प का मॉडल भी उपलब्‍ध है।*इससे मिट्टी के तेल की मांग में कमी होगी, जिसकी आपूर्ति पहले से ही कम हो रही है और इसके बदले देश के लिए बहुमूल्‍य विदेशी मुद्रा की बचत होगी।

*इससे मिट्टी के तेल वाले लैम्‍पों के इस्‍तेमाल से बच्‍चों को होने वाले स्‍वास्‍थ्‍य के खतरे में भी कमी आएगी।
*इस परियोजना के क्रियान्‍वयन के परिणामस्‍वरूप प्रतिवर्ष 15,00,000 टन कार्बनडाईऑक्‍साइड के उत्‍सर्जन में भी कमी आएगी।

इस परियोजना का उद्देश्‍य मध्‍य प्रदेश के सामाजिक जीवन पर होने वाले प्रभाव को दर्शाना और सरकार को रोशनी के लिए सौर लैम्‍पों को अपनाने हेतु प्रोत्‍साहित करना है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में रोशनी के लिए सबसे अधिक किफायती समाधान है।सौर ऊर्जा पर भारत का जोर    सरकार ने सौर ऊर्जा के महत्‍व को स्‍वीकार किया है और जवाहरलाल नेहरू राष्‍ट्रीय सौर मिशन नामक कार्यक्रम शुरू किया है। इस मिशन का तात्‍कालिक लक्ष्‍य देश में केंद्रित और विकेंद्रित - दोनों स्‍तरों पर सौर प्रौद्योगिकी को पहुंचाने के लिए एक वातावरण तैयार करने पर जोर देना है। इस क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा देने के उद्देश्‍य से आई.आई.टी. बम्‍बई में राष्‍ट्रीय फोटोवोल्‍टाइक अनुसंधान और शिक्षा केंद्र (एनसीपीआरई) स्‍थापित किया गया है, ताकि आधारभूत और उन्‍नत अनुसंधान संबंधी गतिविधियां संचालित हो सके। एनसीपीआरई का उद्देश्‍य सौर पीवी को एक किफायती और प्रासंगिक प्रौद्योगिकी विकल्‍प बनाना है।  (PIB) (पसूका विशेष लेख)
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*निदेशक (मीडिया), पत्र सूचना कार्यालय, मुंबई
**मीडिया और संचार अधिकारी (मीडिया), पत्र सूचना कार्यालय, मुंबई

अफगानिस्तान में तुर्की की पहल और भारत

हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति अब्दुल्ला ग़ुल
और आसिफ अली ज़रदारी
अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटने के पहले भावी योजना में तुर्की को महत्वपूर्ण भूमिका देती नज़र आती है। इस योजना में कुछ पूर्व तालिबान नेता भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान की जेलों से रिहा किया गया है। मोटे तौर पर इस प्रक्रिया में कोई असामान्य बात नहीं लगती, पर इसके पीछे भारत के महत्व को कम करने की कोशिश ज़रूर नज़र आएगी। सन 2012 में जून के पहले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।
अमेरिकी रक्षामंत्री ने अफगानिस्तान में चल रही तालिबानी गतिविधियों को लेकर अपनी झुँझलाहट भी व्यक्त की और कहा कि उत्तरी वजीरिस्तान में हक्कानी नेटवर्क पर लगाम लगाने में पाकिस्तान लगातार विफल हो रहा है। पेनेटा ने कहा कि हमारे सब्र की सीमा खत्म हो रही है। पाकिस्तान को लेकर अमेरिका के कड़वे बयान अब नई बात नहीं रहे। जैसे-जैसे अमेरिका और नेटो सेनाओं की वापसी की समय सीमा नज़दीक आ रही है अमेरिकी व्यग्रता बढ़ती जा रही है। उधर शंघाई सहयोग संगठन की बैठक का एजेंडा कुछ और था, पर भीतर-भीतर उन परिस्थितियों को लेकर विचार-विमर्श भी था जब अफगानिस्तान से अमेरिका हटेगा तब क्या होगा। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एससीओ का गठन 2001 में हुआ था, जिस साल अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी युद्ध शुरू किया था। इस संगठन में चीन और रूस के अलावा ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान और किर्गीजिस्तान सदस्य देश हैं। मूल रूप से यह मध्य एशिया के देशों का आर्थिक सहयोग संगठन है, पर आने वाले समय में इसका सामरिक महत्व भी उजागर हो सकता है। इस संगठन में भारत, पाकिस्तान और ईरान पर्यवेक्षक हैं।

हालांकि अफगानिस्तान एससीओ का न तो सदस्य है और न पर्यवेक्षक, पर इस बार उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया और उम्मीद है कि जल्द ही उसे पर्यवेक्षक का दर्जा मिल जाएगा। पाकिस्तान इस संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बनना चाहता है। अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस लिहाज से भारत और ईरान की भूमिका भी है। तुर्की की भी इस इलाके में खासी दिलचस्पी है। खासतौर से कैस्पियन सागर से आने वाली तेल और गैस पाइप लाइनों के कारण यह इलाका आने वाले समय में महत्वपूर्ण होगा। चीन के पश्चिमी प्रांत इस इलाके से जुड़े हैं, पर वहाँ इस्लामी आतंकवाद का प्रभाव भी है। चीन का आरोप है कि पाकिस्तान में चल रहे ट्रेनिंग कैम्पों में आतंकवादियों को ट्रेनिंग दी जाती है। पाकिस्तान ने चीन के लिए गिलगित और बल्तिस्तान के दरवाजे खोल दिए हैं। वह चाहता है कि चीन की अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका हो। ऐसा वह इसलिए भी चाहता है कि भारत को इस इलाके में ज्यादा सक्रिय होने का मौका न मिले।

पिछले साल दिल्ली आए अमेरिकी रक्षामंत्री पेनेटा ने कहा था कि पिछले दस साल में भारत ने अफगानिस्तान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, पर हम चाहते है कि भारत यहाँ सक्रिय हो। यह बात पाकिस्तान में पसंद नहीं की जाएगा, पर सच यह है कि भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते सैकड़ों साल पुराने हैं। भारत वहाँ तकरीबन 2 अरब डॉलर का निवेश करके सड़कें, अस्पताल और स्कूल बनवा रहा है। इसके अलावा अफगान सेना और पुलिस की ट्रेनिंग में भी भारत अपनी सेवा दे रहा है। अमेरिका इसे और बढ़ाना चाहता है। सवाल है क्या भविष्य में भारत इस इलाके में अमेरिकी हितों की रक्षा का काम करेगा? इसकी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भारत को अंततः अपने हितों के लिए ही काम करना है। चीन और रूस भारत के सहयोगी देश हैं। पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन बदलते रहते हैं।

पिछले साल 20-21 मई को अमेरिका के शिकागो शहर में हुए नेटो के शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान में 2015 के बाद की स्थितियों की समीक्षा की गई। यूरोप में आर्थिक संकट के कारण फ्रांस और जर्मनी भी जल्द से जल्द हट जाना चाहते हैं, पर उसके पहले वे ऐसी व्यवस्था कायम कर देना चाहते हैं जो तालिबान से लड़ सके। पाकिस्तान के वजीरिस्तान इलाके में तालिबान का हक्कानी नेटवर्क सक्रिय है। पाकिस्तानी सेना इसे परास्त करने में विफल रही है। अमेरिका की मान्यता है कि पाक सेना जान-बूझकर तालिबान को परास्त करना नहीं चाहती। अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान अपने प्रभाव को उसी तरह वापस लाना चाहता है जैसा 2001 से पहले था। पाकिस्तान में एक तबका ऐसा है जिसे लगता है कि अंततः अफगान कबीलों के हाथों में ताकत आएगी। अमेरिका ने वजारिस्तान में अल कायदा नेटवर्क को तकरीबन समाप्त कर दिया है। इसी 4 जून को सीआईए के एक ड्रोन हमले में अल कायदा का नम्बर दो अबू याह्या अल लीबी मारा गया। पाकिस्तानी सेना के विरोध के बावजूद अमेरिका के ड्रोन हमले जारी हैं। उधर सन 2011 में एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में आई तल्खी कम हो रही है।

पाकिस्तानी सेना और सरकार दोनों अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना चाहते हैं, पर वहाँ की जनता आमतौर पर अमेरिका-विरोधी है। उत्तरी वजीरिस्तान में अमेरिकी कर्रवाई से जनता नाराज़ है। मुख्यधारा के राजनेता भी कट्टरपंथियों से दबते हैं। पर पाकिस्तान की मजबूरी है अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना। देश की आर्थिक स्थिति पूरी तरह अमेरिकी रहमो-करम पर है। इसी कारण सन 2001 में अमेरिकी फौजी कारवाई शुरू होने के बाद से पाकिस्तान नेटो सेनाओं की कुमुक के लिए रास्ता देता रहा है। शुरू में यह रास्ता मुफ्त में था, बाद में 250 डॉलर एक ट्रक का लेने लगा। 2011 के नवंबर में नेटो सेना के हैलिकॉप्टरों ने कबायली इलाके मोहमंद एजेंसी में पाकिस्तानी फौजी चौकियों पर हमला किया था, जिसमें 24 सैनिक मारे गए थे। उसके बाद पाकिस्तान ने सप्लाई पर रोक लगा दी थी। मई 2012 में शिकागो के नेटो सम्मेलन में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी खुद गए थे। बहरहाल नेटो की रसद सप्लाई फिर से शुरू हो गई।

अब इधऱ वॉशिंगटन और इंग्लैंड की कोशिशों से तुर्की को बीच में लाया गया है। तुर्की नेटो देश है और पाकिस्तान के लिए अपेक्षाकृत मुफीद होगा। तुर्की ने पाकिस्तान की जेलों से रिहा हुए पुराने तालिबानियों की अफगान शासकों से बातचीत कराने की पेशकश भी की है। पर इस बातचीत में भारत को शामिल करने का विचार नहीं है। दिसम्बर 2012 में अंकारा में आसिफ अली ज़रदारी, हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति अब्दुल्ला ग़ुल की त्रिपक्षीय वार्ता हुई थी। इसके दौरान एक प्रस्ताव सामने आया कि तालिबान का एक दफ्तर तुर्की में खोला जाए। हाल में तुर्की की राजनीति में इस्लामी तत्व प्रभावशाली हुए हैं। मिस्र के इस्लामिक ब्रदरहुड को मदद देने में तुर्की का हाथ भी है। इका उद्देश्य मध्यमार्गी इस्लामी समूहों को आगे लाने का है, तो यह उपयोगी भी हो सकता है। अफगानिस्तान के भीतर भी तुर्की से परहेज़ रखने वाले अनेक समूह हैं। खासतौर से उज़्बेक और हाज़रा समुदाय।

तुर्की का इस मामले में प्रवेश अनायास नहीं है। सन 2010 में तुर्की की पहल पर अंकारा में हुई एक बैठक में अफगानिस्तान के भविष्य पर विचार हुआ था। पाकिस्तान का करीबी मित्र होने का फर्ज निभाते हुए तुर्की ने भारत को अंकारा में निमंत्रित ही नहीं किया था। पर उसके बाद नवम्बर 2011 में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा "एशिया के केंद्र में सुरक्षा और सहयोग" विषय पर अफगानिस्तान के संबंध में इस्ताम्बुल सम्मेलन में शामिल हुए थे। इस प्रतिनिधिमंडल में प्रधानमंत्री के विशेष दूत एस.के. लांबा और विदेश सचिव रंजन मथाई शामिल थे।
सम्मेलन में अपने राष्ट्रपति करजई ने भारत और अफगानिस्तान के बीच अक्टूबर 2011 में हस्ताक्षरित सामरिक भागीदारी समझौते का उल्लेख करते हुए अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की सराहना की। उन्होंने भारत को एक महान मित्र और इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी बताया। सम्मेलन की घोषणा में, आतंकवादियों के सुरक्षित पनाह स्‍थलों को समाप्त करने की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए, आतंकवाद के संबंध में भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्यों की चिंताओं तथा अफगानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आग्रह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है। अफगानिस्तान में शांति और मेल-मिलाप की आवश्यकता के संबंध में यह दस्तावेज, रेड लाइन अर्थात हिंसा से बचने, आतंकवादी समूहों से संबंध विच्छेद करने, अफगानिस्तान के संविधान का सम्मान करने तथा क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग की संरचना में एशिया के मध्य, दक्षिण और अन्य भागों को जोड़ते हुए व्यापार, पारगमन, ऊर्जा, आर्थिक परियोजनाओं और निवेश का एक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता के प्रति समझ-बूझ के महत्व पर बल देता है।

पाकिस्तान की कोशिश है कि तालिबान के मध्यमार्गी समूहों को वैधानिकता मिले ताकि वे अफगानिस्तान की राजनीति में सक्रिय हो सकें। इसके लिए तालिबान का एक दफ्तर किसी देश में खोलने की कोशिश हो रही है। यह दफ्तर सऊदी अरब में खोलने का विचार था, पर सऊदी अरब कट्टरपंथ और आतंकी गतिविधियों के प्रति सख्त रुख अख्तियार कर रहा है। इसलिए तुर्की बेहतर जगह लगती है। पाकिस्तानी सेना भी तुर्की के प्रति श्रद्धा का भाव रखती है। तुर्की पूरे इस्लामी देशों में सबसे आधुनिक है। और वह स्वयं को सफल इस्लामी लोकतंत्र साबित करना चाहता है। तुर्की और भारत के रिश्ते भी अच्छे हैं। ये रिश्ते आर्थिक हैं और आने वाले समय में तुर्की मध्य एशिया से दक्षिण एशिया को थल मार्ग से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। पर सन 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में तुर्की के प्रधानमंत्री द्वारा जम्मू और कश्मीर का उल्लेख किए जाने पर भारत ने चिंता व्यक्त की थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया था कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय मामला है तथा ऐसे सभी द्विपक्षीय मसलों से निपटने के लिए इन दोनों देशों के बीच उचित तंत्र हैं। हालांकि तुर्की ने इस बात को स्वीकार किया था, और स्पष्ट किया था कि उसके प्रधानमंत्री का आशय कश्मीर मुद्दे को उठाना नहीं था अपितु वह इस समय जारी भारत पाकिस्तान वार्ता के संबंध में पुराने विवादों का उल्लेख मात्र करना चाहते थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तुर्की का सत्ताधारी दल अर्थात जस्टिस एंड डिवलपमेंट पार्टी (एके पार्टी) ने भारत के साथ सामरिक संबंधों के निर्माण और उन्हें मजबूत बनाने का सामरिक निर्णय लिया है। अफगानिस्तान में बदलते हालात का जायज़ा लेने में तुर्की हमारा मददगार हो सकता है इसलिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन फरवरी में तुर्की जाएंगे। इस बात पर लगातार नज़र रखने की ज़रूरत है कि अमेरिकी सेना हटने के बाद अफगानिस्तान में भारत-विरोधी गतिविधियाँ सिर उठाने न पाएं।

किसकी मुट्ठी में देश की तकदीर?

चालीस बच्चों के मां-बाप अपने बच्चो के साथ आगरा में पांच दिनों तक अपने खर्चे पर इसलिये रुके रहे कि साबुन बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन में उनके बच्चे नजर आ जाये। सभी बच्चे चौथी-पांचवी के छात्र थे। और ऐसा भी नहीं इन चार पांच दिनों के दौरान बच्चो के स्कूल बंद थे। या फिर बच्चों को मोटा मेहताना मिलना था। महज दो से चार हजार रुपये की कमाई होनी थी। और विज्ञापन में बच्चे का चेहरा नजर आ जाये इसके लिये मां-बाप ही इतने व्याकुल थे कि वह ठीक उसी तरह काफी कुछ लुटाने को तैयार थे जैसे एक वक्त किसी स्कूल में दाखिला कराने के लिये मां-बाप हर डोनेशन देने को तैयार रहते हैं। तो क्या बच्चों का भविष्य अब काम पाने और पहचान बना कर नौकरी करने में ही जा सिमटा है। या फिर शिक्षा हासिल करना इस दौर में बेमानी हो चुका है। या शिक्षा के तौर तरीके मौजूदा दौर के लिये फिट ही नहीं है । तो मां बाप हर उस रास्ते पर बच्चों को ले जाने के लिये तैयार है, जिस रास्ते पढ़ाई-लिखाई मायने नहीं रखती है। असल में यह सवाल इसलिये कहीं ज्यादा बड़ा है क्योंकि सिर्फ आगरा ही नहीं बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों में करीब 40 लाख से ज्यादा बच्चे टेलीविजन विज्ञापन से लेकर मनोरंजन की दुनिया में सीधी भागेदारी के लिये पढ़ाई-लिखाई छोडकर भिड़े हुये हैं। और इनके अपने वातावरण में टीवी विज्ञापन में काम करने वाले हर उस बच्चे की मान्यता उन दूसरे बच्चो से ज्यादा है, जो सिर्फ स्कूल जाते हैं। सिर्फ छोटे-छोटे बच्चे ही नहीं बल्कि दसवी और बारहवी के बच्चे जिनके लिये शिक्षा के मद्देनजर कैरियर का सबसे अहम पढ़ाव परीक्षा में अच्छे नंबर लाना होता है, वह भी विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में कदम रखने का कोई मौका छोड़ने को तैयार नहीं होते।

आलम तो यह है कि परीक्षा छोड़ी जा सकती है लेकिन मॉडलिंग नहीं। मेरठ में ही 12 वी के छह छात्र परीक्षा छोड़ कम्प्यूटर साइंस और बिजनेस मैनेजमेंट इस्ट्टयूट के विज्ञापन फिल्म में तीन हप्ते तक लगे रहे। यानी पढ़ाई के बदले पढाई के संस्थान की गुणवत्ता बताने वाली फिल्म के लिये परीक्षा छोड़ कर काम करने की ललक। जाहिर है यहां भी सवाल सिर्फ पढाई के बदले मॉडलिंग करने की ललक का नहीं है बल्कि जिस तरह शिक्षा को बाजार में बदला गया है और निजी कॉलेजो से लेकर नये नये कोर्स की पढाई हो रही है, उसमें छात्र को ना तो कोई भविष्य नजर आ रहा है और ना ही शिक्षण संस्थान भी शिक्षा की गुणवत्ता को बढाने के लिये कोई मशक्कत कर रहे है। सिवाय अपने अपने संस्थानो को खूबसूरत तस्वीर और विज्ञापनों के जरिये उन्हीं छात्रों के विज्ञापन के जरीये चमका रहे हैं जो पढाई-परीक्षा छोड़ कर माडलिंग कर रहे है। स्कूली बच्चों के सपने ही नहीं बल्कि जीने के तरीके भी कैसे बदल रहे है इसकी झलक इससे भी मिल सकती है कि एक तरफ सीबीएसई 10वीं और 12वीं की परीक्षा के लिये छात्रों को परिक्षित करने के लिये मानव संसाधन मंत्रालय से तीन करोड़ का बजट पास कराने के लिये जद्दोजहद कर रहा है। तो दूसरी तरफ स्कूली बच्चों के विज्ञापन फिल्म का हर बरस का बजट दो सौ करोड रुपये से ज्यादा का हो चला है। एक तरफ 14 बरस के बच्चो को मुफ्त शिक्षा देने का मिशन सरकार मौलिक अधिकार क जरिये लागू कराने में लगी है।

तो दूसरी तरफ 14 बरस के बच्चो के जरिये टीवी मनोरंजन और सिल्वर स्क्रीन की दुनिया हर बरस एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का मुनाफा बना रही है। जबकि मुफ्त शिक्षा देने का सरकारी बजट इस मुनाफे का दस फीसदी भी नहीं है। यहां सवाल सिर्फ प्राथमिकताएं बदलने का नहीं है। सवाल है कि देश के सामने देश के भविष्य के लिये कोई मिशन,कोई एजेंडा नहीं है। इसलिये जिन्दगी जीने की जरुरतें, समाज में मान्यता पाने का जुनून और आगे बढ़ने की सोच उस बाजार पर आ टिका है, जहां मुनाफा और घाटे का मतलब सिर्फ भविष्य की कमाई है। और कमाई के तरीके भी सूचना तकनीक के गुलाम हो चुके हैं। यानी वैसी पढ़ाई का मतलब वैसे भी बेमतलब सा है, जो इंटरनेट या गूगल से मिलने वाली जानकारी से आगे जा नहीं पा रही है। और जब गूगल हर सूचना को देने का सबसे बेहतरीन मॉडल बन चुका है और शिक्षा का मतलब भी सिर्फ सूचना के तौर पर जानकारी हासिल करना भर ही बच रहा है तो फिर देश में पढाई का मतलब अक्षर ज्ञान से आगे जाता कहा है। इसका असर सिर्फ मॉडलिंग या बच्चों के विज्ञापन तक का नहीं है।

समझना यह भी होगा कि यह रास्ता कैसे धीरे धीरे देश को खोखला भी बना रहा है। क्योंकि मौजूदा वक्त में ना सिर्फ उच्च शिक्षा बल्कि शोध करने वाले छात्रों में भी कमी आई है, और जिन विषयों पर शोध हो रहा है, वह विषय भी संयोग से उसी सूचना तकनीक से आगे बढ़ नहीं पा रहे हैं, जिससे आगे शिक्षा व्यवस्था नहीं बढ पा रही है। यह सोच समूचे देश पर कैसे असर डाल सकती है यानी ज्यादा कमाई,ज्यादा मान्यता, ज्यादा चकाचौंध और कोई भी वस्तु जो ज्यादा से जुड़ रही है, जब उसमें शिक्षा कहीं फिट बैठ नहीं रही। ज्यादा कमाई और ज्यादा मान्यता की इस सोच के असर की व्यापकता देश की सेना के मौजूदा हालात से भी समझी जा सकती है। सिर्फ 2012 में दस हजार से ज्यादा सेना के अधिकारियों ने रिटायरमेंट लेकर निजी क्षेत्रो में काम शुरु कर दिया। क्योंकि वहां ज्यादा कमाई। ज्यादा मान्यता थी। मसलन बीते पांच बरस में वायुसेना के जहाज उड़ाने वाले 571 पायलेट नौकरी छोड निजी विमानों को उड़ाने लगे, क्योंकि वहां ज्यादा कमाई थी और अपने वातावरण में ज्यादा मान्यता थी। किसी भी निजी हवाई जहाज को उडाने के जरिये जो मान्यता समाज में मिलती उतनी पूछ वायु सेना से जुड़ कर नही रहती। चाहे सेना का फाइटर विमान ही क्यों ना उड़ाने का मौका मिल रहा हो। सोच कैसे क्यों बदली है। इसकी नींव को जानने से पहले इसकी पूंछ को सेना के जरिये ही पकड लें। क्योंकि भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां देश की सेना में 65 हजार से ज्यादा पद खाली हैं। और सेना में नौकरी ही सही उसके लिये भी कोई शामिल होने की जद्दोजहद नहीं कर रहा है। करीब 13 हजार ऑफिसर रैंक के अधिकारियो के पद खाली है। लेकिन जिस दौर में यह पद खाली हो रहे थे, उसी दौर में सेना छोड़ कर अधिकारी देश की निजी कंपनियों के साथ जुड़ रहे थे। कहीं डायरेक्टर का पद तो कही चैयरमैन का पद।

कहीं बोर्ड मेबर तो कही सुरक्षा सर्विस खोलकर नया बिजनेस शुर करने की कवायद। यह सब उसी दौर में हुआ, जिस दौर में सेना को सेना के अधिकारी ही टाटा-बाय बाय बोल रहे थे। देश के लिये यह सवाल कितना आसान और हल्का बना दिया गया है,यह इससे भी समझा जा सकता है कि संसद में सेना के खाली पदों की जानकारी देते हुये रक्षा मंत्री साफ कहते हैं कि थल सेना में 42 हजार से ज्यादा, नौ सेना में 16 हजार से ज्यादा और वायुसेना में करीब 8 हजार पद खाली है। और देश भर में जितनी भी एकडमी है जो सेना के लिये युवाओं को तैयार करती है अगर सभी को मिला भी दिया जाये तो भी हर बरस दस बजार कैडेट भी नहीं निकल पाते। जबकि इसी दौर में हर बरस औसतन बीस हजार से ज्यादा युवाओं को मनोरंजन उद्योग अपने में खपा लेता है। उन्हें काम मिल जाता है। और जिन स्कूलों की शिक्षा दीक्षा पर सरकार नाज करती है और प्राइमरी के एडमिशन से लेकर उच्च शिक्षा देने वाले संस्थानों में डोनेशन के जरिये एडमिशन की मारामारी में युवा फंसा रहता, अब वही बच्चे बड़े होने के साथ ही तेजी से उसी शिक्षा व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर चकाचौंध की दुनिया में कूद रहे है। महानगर और छोटे शहरों के उन बच्चो के मां-बाप जो कल तक अत्याधुनिक स्कूलों में एडमिशन के लिये हाय-तौबा करते हुये कुछ भी डोनेशन देने को तैयार है, अब वही मां-बाप अपने बच्चे का भविष्य स्कूलों की जगह विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में सिल्वर स्क्रीन पर चमक दिखाने से लेकर सड़क किनारे लगने वाले विज्ञापन बोर्ड पर अपने बच्चों को टांगने के लिये तैयार है। आंकडे बताते हैं कि हर नये उत्पाद के साथ औसतन देश भर में 100 बच्चे उसके विज्ञापन में लगते है। इस वक्त करीब दो सौ ज्यादा कंपनियां विज्ञापनों के लिये देश भर में बच्चों को छांटने का काम इंटरनेट पर अपनी अलग अलग साइट के जरिये कर रही है। इन दो सौ कंपनियों ने तीस लाख बच्चों का रजिस्ट्रेशन कर रखा है। और इनका बजट ढाई हजार करोड़ से ज्यादा का है। जबकि देश की सेना में देश का नागरिक शामिल हो, इस जज्बे को जगाने के लिये सरकार 10 करोड़ का विज्ञापन करने की सोच रही है। यानी सेना में शामिल हो , यह बात भी पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर मॉडलिंग करने वाले युवा ही देश को बतायेंगे। तो देश का रास्ता जा किधर रहा है यह सोचने के लिये इंटरनेट , गूगल या विज्ञापन की जरुरत नहीं है। बस बच्चों के दिमाग को पढ लीजिये या मां-बाप के नजरिये को समझ लीजिये जान जाइयेगा।

कितना जरूरी है कृषि यंत्रीकरण

केंद्रीय बजट से पूर्व कृषि क्षेत्र में यंत्रीकरण पर फिक्की-यस बैंक की रिपोर्ट को हालांकि अब बहुत समय हो चुका है, पर इसकी प्रासंगिता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। इस अध्ययन में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए, पहला यह कि प्राकृतिक संसाधनों में कमी और जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से उपजी चुनौतियों के कारण कृषि में मशीनों का इस्तेमाल बेहद जरूरी हो गया है। अत: मुख्य कृषि कार्यकार्यों के दौरान नए उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ाया जाना इस क्षेत्र के मौजूदा 2 प्रतिशत के स्तर को दोगुना करने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरा यह कि यंत्रीकरण से ग्रामीण रोज़गार सृजन पर जितना विपरीत असर पड़ेगा, उससे अधिक रोज़गार के नए मौके इन उपकरणों के रखरखाव के जरिए तैयार हो जाएंगे। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना कानून (मनरेगा) के कारण कृषि मजदूरों की कमी हो गई है। खासतौर से कृषि प्रधान राज्यों में बुआई और कटाई सत्र के दौरान यह समस्या और भी गम्भीर हो जाती है, और जमीन और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कमी के कारण भी यह जरूरी हो गया है कि संसाधनों का संरक्षण करने वाली प्रौद्योगिकी में निवेश किया जाए, जैसे जुताई रहित खेती, वैज्ञानिक कृषि और ड्रिप सिंचाई। इसके लिए विशेष किस्म की मशीनों और उपकरणों की जरूरत है। यह सारे उपकरण देश में मौजूद नहीं होने के कारण इनमें से कुछ का आयात भी करना पड़ेगा। लागत कम करने के लिए बाद में इन उपकरणों को स्थानीय स्तर पर भी तैयार करना होगा। इसका एक उदाहरण लेजर लैंड लेवलर से कृषि भूमि को समतल करने का है। इससे सिंचाई के लिए करीब 30 प्रतिशत पानी की बचत हो जाती है और पैदावार भी एक समान होती है। कुछ समय पहले तक इनका आयात किया जाता था और इसलिए यह काफी महंगे भी थे, लेकिन अब यह देश में बेहद कम कीमत पर तैयार हो रहे हैं। स्थानीय विनिर्माताओं द्वारा तैयार किए ये उपकरण इतने सस्ते नहीं हुए कि कोई भी किसान इन्हें खरीद ले। सारे उपकरण खरीदना एक बडे किसान के बूते से आज भी बाहर हैं। इसका एक बेहतर विकल्प यह निकाला गया कि कुछ कम्पनियों और राज्य सरकार द्वारा पंचायत स्तर पर उपकरणों को जरूरतमंद किसानों को किराए पर उपलब्ध करवाया जाए। इन उपकरणों से समय और मजदूरी दोनों की काफी बचत होती है, उत्पादन लागत घटती है तथा फसल तैयार होने के बाद नुकसान में कमी आती है। पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तरी राज्यों में अक्सर गर्मी जल्दी आ जाती है। ऐसे में गेहूं की बुआई में एक सप्ताह की देरी होने पर गेहूं का उत्पादन प्रति हेक्टेअर 1.5 क्विंटल तक घट जाता है। इस नुकसान की भरपाई गेहूं की जल्द बुआई करके पूरी की जा सकती है लेकिन ऐसा तभी संभव है जब धान की पिछली फसल की कटाई मशीन से की जाए और विशेष उपकरणों की मदद से गेहूं की बुआई की जाए, इसके जरिए जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की बुआई के समय में होने वाले बदलावों को नियंत्रित किया जा सकता है। जल्दी बुआई तभी संभव हो सकेगी जब उपकरणों की मदद ली जाए। इन बातों पर विचार करने के बाद लगता है कि फिक्की-यस बैंक की गई रिपोर्ट पर विचार करना चाहिए।


इंसान ने कब, कहाँ और कैसे खेती करना आरंभ किया, इसका उत्तर देना आसान नहीं है। सभी देशों के इतिहास में खेती के विषय में कुछ न कुछ दावे जरूर किए गए हैं। माना जा सकता है कि आदिम समय में जब मनुष्य जंगली जानवरों का शिकार पर ही निर्भर था तथा बाद में जब उसने कंद-मूल, फल और अपने-आप उगे अन्न का उपयोग आरंभ कर दिया होगा। ऐसे ही शायद कभी किसी समय खेती द्वारा अन्न उत्पादन करने का आविष्कार किया गया होगा। वर्तमान में सारी पृथ्वी पर जहां भी संभव है खेती की जा रही है, यहां एक यह जानकारी भी रोचक हो सकती है कि दुनिया में आज भी ऐसे देश हैं जहां कुछ भूमि ऐसी है जहाँ पर खेती नहीं हो सकती जैसे अफ्रीका और अरब के रेगिस्तान, तिब्बत एवं मंगोलिया के ऊँचे पठार तथा मध्य आस्ट्रेलिया आदि और इंसानों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो खेती नहीं करते जैसे कांगो के बौने और अंडमान के बनवासी। 

फ्रांस में मिली आदिमकालीन गुफाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वपाषाण युग में ही मनुष्य खेती से परिचित हो गया था। बैलों से हल जोतने का प्रमाण मिश्र की पुरातन सभ्यता से मिलता है। अमरीका में केवल खुरपी और मिट्टी खोदने वाली लकड़ी का पता चलता है। भारत में पाषाण युग में कृषि का विकास कितना और किस प्रकार हुआ था इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है, किंतु सिंधु नदी के पुरावशेषों के उत्खनन से इस बात के बहुत से प्रमाण मिले है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में कृषि उन्नत अवस्था में थी और लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे। ऐसा अनुमान पुरातत्वविद मुअन-जो-दड़ो में मिले बडे-बडे कोठरों के आधार पर करते हैं। हमारे देश में आधुनिक कृषि यंत्रों की अवधारणा बाकी सभी यंत्रों की तरह विदेश से ही आई है। आज देश में अस्सी प्रतिशत कार्य मशीनों की मदद से होने के बावजूद भी बहुत काम होना बाकी है। हमारे कृषि यंत्र निर्माता विदेशी यंत्रों की आंख बंद कर नकल कर रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि देश की जमीनें, फसलें और उन्हें इस्तेमाल करने वाले लोग कैसे हैं?

नकल के सहारे हमारा काम अब तक जितना चल चुका वह बहुत है, आगे हमें अपनी जरूरतों के हिसाब से न केवल यंत्र बनाने होंगे, बल्कि उन यंत्रों के लिहाज से बीज भी तैयार करने होंगे। उदाहरण लिए देश की एक प्रमुख फसल कपास को ही लें। अब तक कपास चुनने के लिए मजदूर बहुत ही सस्ती दरों पर उपलब्ध थे लेकिन मनरेगा के कारण आज कपास चुगाई के लिए किसी भी भाव पर मजदूर नहीं हैं। हालांकि कपास चुगाई कि एक देशी और एक विदेशी मशीन तैयार खड़ी है मगर उनके लिहाज से बीज तैयार नहीं हैं। मौजूदा कपास की किस्मों को इस मशीन से नहीं चुना जा सकता। अब इसके लिए या नई मशीन चाहिए या मशीन के अनुरूप बीज। ऐसे ही गेहूँ के लिए एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि यूरिया खाद उसके बीज के ठीक एक इंच नीचे होनी चाहिए लेकिन हम आज तक एक भी ऐसी मशीन तैयार नहीं कर सके। गेहूँ काटने के लिए हमने कम्बाइन की नकल तो करली पर यह बात भूल गए कि गेहूँ के दाने निकालने के बचा हुआ भाग पशु चारे के काम आता है। कम्बाइन से गेहूँ निकालने इस चारे की मात्रा आधी भी नहीं मिल पाती। क्या हम एक भी मशीन ऐसी तैयार नहीं कर सकते जो गेहूँ के बाद चारे को बचाले?