रविवार, 6 अक्टूबर 2013

ईरान में पुरुष अपनी गोद ली हुई बेटी से शादी कर सकेगा !

muslim-talaq​ईरान की संसद ने एक बिल पास किया है, जिसके मुताबिक कोई भी पुरुष अपनी गोद ली हुई बेटी से शादी कर सकता है. इसके लिए बस एक ही कानूनी पेच है कि इस गोद ली हुई बेटी की उम्र 13 साल से कम नहीं होनी चाहिए. ईरान की संसद का दावा है कि इस क्रांतिकारी फैसले के बाद बच्चों के अधिकारों की रक्षा हो सकेगी.

13 साल की उम्र की लड़की यह भी तय करने की स्थिति में नहीं होती कि वह जिंदगी में कौन सी राह पकड़ना चाहती है. बड़े होकर क्या बनना चाहती है. इस वक्त तक उसके शरीर का विकास भी ठीक से शुरू नहीं हो पाता है. मगर ईरान में यह वह उम्र है, जब उसकी कानूनी ढंग से शादी की जा सकती है. लड़कों के मामले में यह उम्र 15 साल है. इतना ही नहीं ईरान में 13 साल से कम उम्र की बच्ची की भी शादी की जा सकती है. इसके लिए उसके माता-पिता को बस एक जज के सामने याचिका दाखिल कर कारण बताते हुए अनुमति लेनी होती है.
बच्चों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर पास किए गए इस बिल को अभी ईरान की गार्डियन काउंसिल से पारित होना है. इसके बाद यह कानून बन जाएगा. इस काउंसिल में मुस्लिम धर्मगुरु कानून के धार्मिक पहलू पर विचार करते हैं.
इस बिल का विरोध करते हुए लंदन स्थित ग्रुप जस्टिस फॉर ईरान की कार्यकर्ता सादी सद्र ने कहा कि यह सीधे तौर पर बच्चों के यौन शोषण और रेप का मामला है. इंग्लैंड के अखबार द गार्जियन से बात करते हुए सादी ने कहा कि अभी तक का कोई भी कानून किसी पुरुष को अपनी गोद ली हुई बेटी से शादी की इजाजत नहीं देता था. नए बिल में इसकी गुंजाइश दी गई है.उन्होंने कहा कि ईरान की संस्कृति अपने ही बच्चों से शादी की इजाजत नहीं देती है.
उधर ईरान के अधिकारी यौन शोषण के पहलू की तरफ ध्यान भी नहीं दे रहे हैं. उनका मानना है कि इस बिल का मकसद गोद ली हुई बच्चियों को घर में हिजाब पहनने की बाध्यता से मुक्ति दिलाना है. दरअसल ईरान में यह कानून है कि गोद ली हुई बेटी को अपने पिता के सामने हिजाब पहनना होता है, जबकि गोद लिए हुए बेटे के सामने उसकी मां को हिजाब पहनना होता है, अगर बेटे की उम्र वयस्कों की श्रेणी वाली है.
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मौजूदा स्थिति देश के लिए दुखद है


भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नरेंद्र मोदी का समर्थन करने और विरोध करने वाली कुछ ताकतें हैं, जिन पर पार्टी का कोई नियंत्रण नहीं है. एक दौर था, जब भारतीय जनता पार्टी और उसका पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ अपने अनुशासन के लिए जाना जाता था. समूचे काडर को इस बात के लिए जाना जाता था कि ये बिना किसी अनबन के पार्टी लाइन पर ही चलते रहे हैं. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी एक सम्मानित संगठन है, जहां कभी एक ही आवाज से सारी समस्याएं सुलझ जाती थीं, लेकिन इन दोनों के ही भीतर यह अनुशासन खो-सा गया है. अब भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी अंतर्कलह मची हुई है और यह उसकी छवि को और खराब करेगी. आरएसएस ने भी जो भूमिका निभाई, उसकी भी उम्मीद नहीं थी. मौजूदा समय में भारतीय जनता पार्टी के भीतर नि:संदेह लालकृष्ण आडवाणी सबसे कद्दावर नेता हैं और पूरा देश उन्हें सम्मान भी देता है, लेकिन एक बात, जिस पर देश की जनता गौर नहीं कर रही है, वह यह कि धनबल ने बाकी सब चीजों पर कब्जा कर लिया है.
राजनीति अब विशुद्ध राजनीति न होकर आर्थिक राजनीति में तब्दील हो गई है. यह स्थिति देश के लिए दुखद है. अब भारतीय जनता पार्टी के भीतर अंतर्कलह मची हुई है और यह उसकी छवि को और ख़राब करेगी. आरएसएस ने भी जो भूमिका निभाई, उसकी भी उम्मीद नहीं थी.
नरेंद्र मोदी के पास धनबल है. करिश्माई व्यक्तित्व का होना अपनी जगह है, लेकिन बिना धनबल के ताकतवर बने रहना संभव नहीं है. नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि को उभारने के लिए खुद का एक सिस्टम बनाया. उन्होंने ऐसे युवाओं को अपने पक्ष में किया, जो हमेशा इंटरनेट पर सक्रिय रहते हैं. उनके पास बिहार के सुशील मोदी जैसे नेता हैं, जिनका पहले नीतीश कुमार ने इस्तेमाल किया और अब उन्हें धनबल राजनीति के ब्रांड बन चुके नरेंद्र मोदी द्वारा सहारा दिया जा रहा है. नरेंद्र मोदी ने राजनाथ सिंह को यह सुनिश्‍चित किया है कि चुनाव में जितना भी पैसा लगेगा, वह वहन करेंगे. और यह सब अब इतना बढ़ चुका है कि निश्‍चित रूप से यह भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्कृति के विपरीत है. वास्तव में यह दिखाता है कि 1991 के बाद जब देश ने नव-उदारवादी मॉडल को स्वीकारा, तब देश को बड़ी मात्रा में धन लाभ का प्रलोभन मिला था.
मौजूदा समय में देश में 50 से ज्यादा औद्योगिक घराने हैं. इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे के पहले देश की समस्त पूंजी 10 या बीस घरानों के हाथों में केंद्रित थी, यही वहज थी कि बैंक उन घरानों के नियंत्रण में थे. इस अवस्था को देखते हुए उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का साहसिक निर्णय लिया. कॉर्पोरेट सेक्टर ने उनके इस फैसले का स्वागत भले ही न किया हो, लेकिन हकीकत तो यह है कि इस कदम के बाद से ही देश में स्वउद्यमिता को बढ़ावा मिला. देश के भीतर कई छोटे और बड़े उद्योगपति स्थापित होने लगे और 1991 तक उद्योग जगत में यह सिलसिला चलता रहा. 1991 के बाद देश ने अमेरिकी नक्शेकदम पर चलते हुए एक नये, नवउदारवादी मॉडल को अपनाना करना शुरू कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि एक बार फिर वही स्थितियां लौटकर आने लगीं. थापर, मोदी और साहूजी जैसे घराने की जगह नये घराने भी आने लगे. टाटा और बिड़ला तो निश्‍चित रूप से थे ही. आर्थिक शक्तियां फिर से उन्हीं दस घरानों के बीच सीमित होने लगीं. अगर सरकार विनिवेश करना चाहती है तो फिर से वही औद्योगिक घराने होंगे, जिनका उद्धरण दिया जाएगा. अगर कोई नई परियोजना शुरू होती है तो वही चुनिंदा औद्योगिक घराने ही उसे चलाते हैं और ये बड़ी आर्थिक ताकतें राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अपने ढंग से नियंत्रित करने लगीं, क्योंकि मुख्यमंत्रियों के लिए यह उद्यमी बड़े आर्थिक साधन बन रहे थे. इस तरह से समूची स्थितियां बदलने लगीं. ऐसे में किसी भी दल, मसलन भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष खुद को असहाय महसूस करने लगा, क्योंकि आर्थिक संसाधनों के लिए वह पूरी तरह से किसी एक मुख्यमंत्री पर निर्भर हो गया. यही वजह है कि राजनीति अब विशुद्ध राजनीति न होकर आर्थिक राजनीति में तब्दील हो गई. यह स्थिति देश के लिए दुखद है. मुझे नहीं लगता कि बीजेपी सत्ता में आना चाहती है और मुझे यह भी नहीं लगता कि वे इस तरह आर्थिक प्रलोभन के रास्ते पर चलकर इसे हासिल कर सकते हैं.
नरेंद्र मोदी का तथाकथित करिश्माई व्यक्तित्व दरअसल प्रचार की देन है. हालांकि, प्रचार आपको उतनी दूर तक लेकर नहीं जा सकता. इंटरनेट पर नरेंद्र मोदी के प्रशंसक कहते हैं कि यहां पर उनके प्रशंसकों की भारी जमात है, लेकिन अगर आंकड़ों पर गौर करें तो इंटरनेट की पहुंच देश की आठ प्रतिशत आबादी तक ही है और गांवो में जहां बिजली ही नहीं रहती, वो भला इंटरनेट का प्रयोग कैसे करेंगे. यही वजह है कि प्रसिद्धि के ये सभी तर्क विश्‍वास करने योग्य नहीं हैं, बल्कि उन्माद ज्यादा है, जबकि नेशनल मीडिया जो निश्‍चित रूप से बिकाऊ हो चला है, वह दिखाता है कि नरेंद्र मोदी देश का प्रधानमंत्री बनने के रास्ते पर हैं. निश्‍चित रूप से यह संभव नहीं है.
अगर भारतीय जनता पार्टी गंभीर है तो उन्हें धनबल को कम महत्व देना होगा. अपने काडर के लिए काम करना होगा. ऐसी सरकार के बारे में सोचना होगा, जैसा अटल बिहारी वाजपेयी के समय में थी. एक उदारवादी सरकार के बारे में सोचना होगा, न कि हिंदू अंधराष्ट्रीयता को बढ़ावा देने वाली सरकार के बारे में. ऐसा सोचने पर देश बंटेगा और हिंसा के रास्ते पर बढ़ेगा, जैसा कि उन्होंने मुजफ्फरनगर में किया.
दूसरा प्रमुख मुद्दा अर्थव्यवस्था और बाजार है. रघुराम राजन आरबीआई के नये गवर्नर बने. रुपये में कुछ मजबूती दिखी. बाजार भी संभलता दिखा, लेकिन यह सब केवल तात्कालिक है. यह तब तक नहीं संभलेगी, जब तक कि हमारा चालू वित्तीय घाटा ठीक नहीं होता. जब तक हम सोने के आयात पर रोक नहीं लगाते, तब तक हम अपने आयात-निर्यात के आंकड़ों का प्रबंधन नहीं कर पाएंगे. हमें अपने आयात और निर्यात के आंकड़ों को नियंत्रित करना होगा और यह अंकगणित की तरह आसान है. हम अपने साधनों के बगैर इस उम्मीद के साथ नहीं रह सकते कि रुपये और बाजार की हालत ठीक हो. जब तक रघुराम राजन वित्त मंत्री का विश्‍वास नहीं हासिल कर लेते, तब तक दोनों को मिलकर हालात को काबू में रखने के लिए काम करना होगा, सरकार को नीति बनानी होगी और रिजर्व बैंक को उस पर काम करना होगा. अगर सरकार आयात पर रोक लगाती है, असंतुलन को ठीक करती है तो रिजर्व बैंक को चाहिए कि वह दरों को कम करे और प्राइवेट सेक्टर को मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र में प्रोत्साहित करे. जब तक यह सब होगा, तब तक काफी वक्त बीत चुका होगा और हम दूसरे देशों की तुलना में अपना प्रभुत्व खो देंगे. सरकार अपना प्रभाव खो देगी.
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समाचार पत्रों पर अंकुश कितना जरूरी


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 न्यायमूर्ति मैथ्यू ने दूसरे प्रेस आयोग की भी अध्यक्षता की थी जिसकी रपट सुक्षावों का एक समूह ही है जिसे यदि साथ लागू कर दिया जाय तो समाचार पत्र पंगु हो जाएंगे. आयोग के मतभेद प्रकट करने वाले चार सदस्यों ने इसे एक मोहक दु:स्वपन कहा है और इसे हथियारों का एक ऐसा शास्त्रागार बताया है जिसका प्रत्येक हथियार अच्छे से अच्छे समाचार-पत्र के लिए मारक है. बिहार का प्रेस विधेयक काफी बदनाम हो चुका है. इसे एक अलग-थलग तथ्य मानना भूल होगी. यह सचमुच सत्ता में स्थित पार्टी के दिमाग की उपज और एक प्रायोगिक परियोजना थी. यदि इसे बिहार में सफलता मिल गई होती तो उसे अन्य राज्यों में भी दुहराया जाता.

सार्वजनिक विरोध ने सरकार को विधेयक के सम्बंध में मुलायम बनने पर मजबूर कर दिया है. बिहार के मुख्यमंत्री ने यह घोषणा की है कि विधेयक मर गया है, लेकिन केंद्रीय सरकार का कहना है यह अब भी विचाराधीन है. जब लोग धीरे-धीरे इसके तरफ से गाफिल हो जाएंगे तो केंद्रीय सरकार किसी दिन चुपके से इसे अपनी स्वीकृति दे देगी. दशकों पहले बिहार और उड़ीसा में पारित हुए ऐसे ही विधेयकों के सम्बंध में काफी कुछ कहा गया है. यदि उस समय उन विधेयकों घातक स्वरूप नहीं समझा गया तो उससे मौजूदा विधेयक कुछ कम आक्रामक नहीं हो जाता. इसके अतिरिक्त बिहार सरकार ने पहले चालाकी से बिहार संविधान सभा द्वारा आपराधिक दंड संहिता में एक संशोधन पारित करा लिया था. जिससे किसी पत्रकार को छह महीने तक हवालात में रखा जा सकता है. पुलिस के लिए आरोप पत्र देने की समय सीमा 180 दिन तक बढ़ा दी गई है. दूसरे संशोधन भी हैं जो पुलिस को पत्रकारों को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार देते हैं और जो कुछ अपराधों को गैर-जमानती बना सकते हैं. ये दोनों अधिनियम एक साथ मिलकर एक पूरा हथियार बन जाते हैं.
विज्ञापन की आय कम करके तथा अख़बारी क़ागज़ की क़ीमत बढ़ाने के साथ कृत्रिम कमी दिखाकर समाचार-पत्रों को कमज़ोर करने की भी कोशिश हुई हैं. समाचार पत्र बराबर यह मांग करते हैं कि उन्हें अपना क़ागज़ मांगने की अनुमति मिले, लेकिन सरकार राज्य व्यापार संगठन द्वारा ही यह काम किए जाने पर ज़ोर देती रही है ताकि क़ागज़ के वितरण में राजनीतिक तौर पर जोड़-तोड़ की जा सके.
विज्ञापन की आय कम करके तथा अखबारी कागज की कीमत बढ़ाने के साथ कृत्रिम कमी दिखाकर समाचार-पत्रों को कमजोर करने की भी कोशिश हुई हैं. समाचार पत्र बराबर यह मांग करते हैं कि उन्हें अपना कागज मांगने की अनुमति मिले, लेकिन सरकार राज्य व्यापार संगठन द्वारा ही यह काम किए जाने पर जोर देती रही है ताकि कागज के वितरण में राजनीतिक तौर पर जोड़ तोड़ की जा सके. कई राज्य सरकारों ने ऐसी विज्ञापन नीतियां अपनाई हैं जिनसे उन्हें अपने आलोचक समाचार पत्रों के खिलाफ भेदभाव बरतने का मौका मिल सके. छोटे समाचार पत्रों को, जो ज्यादातर आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं, पक्षपात दिखाकर अपनी तरफ मिलाने की कोशिश हो रही है. सरकार के आलोचक समाचार पत्रों के दफ्तरों पर बिहार और कर्नाटक में छापा मारा गया है और उनकी लूट खसोट हुई है. बिहार, उड़ीसा तथा अन्य जगहों में पत्रकारों पर हमले हुए हैं और उनके प्रत्यायन पत्र को रद कर दिया गया है. उड़ीसा में सत्तारूढ पार्टी के समर्थकों द्वारा सरकार के आलोचक एक पत्रकार की पत्नी से बलात्कार कर उसे मार डाला गया. दूसरी ओर पत्रकारों के समूह को सस्ते दामों में बंगले आवंटित कर, विशिष्ट यात्राओं तथा कई अन्य उपायों द्वारा अपनी तरफ मिलाने की कोशिश हो रही है. समाचार पत्रों पर नियंत्रण रखने और उन्हें अपनी ओर मिलाने के लिए इस्तेमाल की जा रही अन्य युक्तियों को एक-एक कर गिनाना उबाने वाला होगा. हमने मौलिक अधिकारों में कांट-छांट के उपायों की शुरुआत की थी. इनमें से सौ साल पुरानी डाक और तार अधिनियम की एक वह बेशर्म धारा है, जिसके अनुसार देशभर में न जाने कितने हजार लोगों के पत्र प़ढे व युक्ति द्वारा उनके टेलीफोन सुने जा रहे हैं. एक मेहनती पत्रकार ने यह पता लगाया कि कर्नाटक के शिमोगा जैसे छोटे शहर में पचास पत्रकार इन उपायों के शिकार बने. विरोधी दलों के सभी प्रमुख सदस्यों तथा बीसियों सर्वोदय कार्यकर्ताओं को चुपके से सुनी जाने वाली ऐसी टेलीफोन सूची में रखा गया है. ऐसी खबरें छपी थीं कि पिछली बार राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी न्यायमूर्ति एचआर खन्ना का टेलीफोन भी चुपके से सुना गया है.
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समाचार पत्रों पर अंकुश कितना जरूरी


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 न्यायमूर्ति मैथ्यू ने दूसरे प्रेस आयोग की भी अध्यक्षता की थी जिसकी रपट सुक्षावों का एक समूह ही है जिसे यदि साथ लागू कर दिया जाय तो समाचार पत्र पंगु हो जाएंगे. आयोग के मतभेद प्रकट करने वाले चार सदस्यों ने इसे एक मोहक दु:स्वपन कहा है और इसे हथियारों का एक ऐसा शास्त्रागार बताया है जिसका प्रत्येक हथियार अच्छे से अच्छे समाचार-पत्र के लिए मारक है. बिहार का प्रेस विधेयक काफी बदनाम हो चुका है. इसे एक अलग-थलग तथ्य मानना भूल होगी. यह सचमुच सत्ता में स्थित पार्टी के दिमाग की उपज और एक प्रायोगिक परियोजना थी. यदि इसे बिहार में सफलता मिल गई होती तो उसे अन्य राज्यों में भी दुहराया जाता.

सार्वजनिक विरोध ने सरकार को विधेयक के सम्बंध में मुलायम बनने पर मजबूर कर दिया है. बिहार के मुख्यमंत्री ने यह घोषणा की है कि विधेयक मर गया है, लेकिन केंद्रीय सरकार का कहना है यह अब भी विचाराधीन है. जब लोग धीरे-धीरे इसके तरफ से गाफिल हो जाएंगे तो केंद्रीय सरकार किसी दिन चुपके से इसे अपनी स्वीकृति दे देगी. दशकों पहले बिहार और उड़ीसा में पारित हुए ऐसे ही विधेयकों के सम्बंध में काफी कुछ कहा गया है. यदि उस समय उन विधेयकों घातक स्वरूप नहीं समझा गया तो उससे मौजूदा विधेयक कुछ कम आक्रामक नहीं हो जाता. इसके अतिरिक्त बिहार सरकार ने पहले चालाकी से बिहार संविधान सभा द्वारा आपराधिक दंड संहिता में एक संशोधन पारित करा लिया था. जिससे किसी पत्रकार को छह महीने तक हवालात में रखा जा सकता है. पुलिस के लिए आरोप पत्र देने की समय सीमा 180 दिन तक बढ़ा दी गई है. दूसरे संशोधन भी हैं जो पुलिस को पत्रकारों को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार देते हैं और जो कुछ अपराधों को गैर-जमानती बना सकते हैं. ये दोनों अधिनियम एक साथ मिलकर एक पूरा हथियार बन जाते हैं.
विज्ञापन की आय कम करके तथा अख़बारी क़ागज़ की क़ीमत बढ़ाने के साथ कृत्रिम कमी दिखाकर समाचार-पत्रों को कमज़ोर करने की भी कोशिश हुई हैं. समाचार पत्र बराबर यह मांग करते हैं कि उन्हें अपना क़ागज़ मांगने की अनुमति मिले, लेकिन सरकार राज्य व्यापार संगठन द्वारा ही यह काम किए जाने पर ज़ोर देती रही है ताकि क़ागज़ के वितरण में राजनीतिक तौर पर जोड़-तोड़ की जा सके.
विज्ञापन की आय कम करके तथा अखबारी कागज की कीमत बढ़ाने के साथ कृत्रिम कमी दिखाकर समाचार-पत्रों को कमजोर करने की भी कोशिश हुई हैं. समाचार पत्र बराबर यह मांग करते हैं कि उन्हें अपना कागज मांगने की अनुमति मिले, लेकिन सरकार राज्य व्यापार संगठन द्वारा ही यह काम किए जाने पर जोर देती रही है ताकि कागज के वितरण में राजनीतिक तौर पर जोड़ तोड़ की जा सके. कई राज्य सरकारों ने ऐसी विज्ञापन नीतियां अपनाई हैं जिनसे उन्हें अपने आलोचक समाचार पत्रों के खिलाफ भेदभाव बरतने का मौका मिल सके. छोटे समाचार पत्रों को, जो ज्यादातर आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं, पक्षपात दिखाकर अपनी तरफ मिलाने की कोशिश हो रही है. सरकार के आलोचक समाचार पत्रों के दफ्तरों पर बिहार और कर्नाटक में छापा मारा गया है और उनकी लूट खसोट हुई है. बिहार, उड़ीसा तथा अन्य जगहों में पत्रकारों पर हमले हुए हैं और उनके प्रत्यायन पत्र को रद कर दिया गया है. उड़ीसा में सत्तारूढ पार्टी के समर्थकों द्वारा सरकार के आलोचक एक पत्रकार की पत्नी से बलात्कार कर उसे मार डाला गया. दूसरी ओर पत्रकारों के समूह को सस्ते दामों में बंगले आवंटित कर, विशिष्ट यात्राओं तथा कई अन्य उपायों द्वारा अपनी तरफ मिलाने की कोशिश हो रही है. समाचार पत्रों पर नियंत्रण रखने और उन्हें अपनी ओर मिलाने के लिए इस्तेमाल की जा रही अन्य युक्तियों को एक-एक कर गिनाना उबाने वाला होगा. हमने मौलिक अधिकारों में कांट-छांट के उपायों की शुरुआत की थी. इनमें से सौ साल पुरानी डाक और तार अधिनियम की एक वह बेशर्म धारा है, जिसके अनुसार देशभर में न जाने कितने हजार लोगों के पत्र प़ढे व युक्ति द्वारा उनके टेलीफोन सुने जा रहे हैं. एक मेहनती पत्रकार ने यह पता लगाया कि कर्नाटक के शिमोगा जैसे छोटे शहर में पचास पत्रकार इन उपायों के शिकार बने. विरोधी दलों के सभी प्रमुख सदस्यों तथा बीसियों सर्वोदय कार्यकर्ताओं को चुपके से सुनी जाने वाली ऐसी टेलीफोन सूची में रखा गया है. ऐसी खबरें छपी थीं कि पिछली बार राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी न्यायमूर्ति एचआर खन्ना का टेलीफोन भी चुपके से सुना गया है.
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जब तोप मुकाबिल हो : यह राजनीतिक फैसलों की घड़ी है


बीजेपी और कांग्रेस की आर्थिक नीतियां और उनके विकास का मॉडल एक जैसा है. इसलिए देश को लगता है कि एक बार फिर देश में गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की सरकार बननी चाहिए. हालांकि ऐसा होना असंभव है, क्योंकि प्रधानमंत्रियों की जितनी संख्या भाजपा और कांग्रेस में है, उससे ज्यादा प्रधानमंत्री भाजपा और कांग्रेस से बाहर चहलकदमी कर रहे हैं.
भारतीय जनता पार्टी में नेतृत्व का झगड़ा इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि 75 साल से ऊपर के लोगों के लिए राजनीतिक फांसी का हुकुमनामा संघ द्वारा लिखा जा चुका है. इसका पालन नरेंद्र मोदी को करना है. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हम नरेंद्र मोदी को जल्लाद कह रहे हैं. हम सिर्फ राजनीति की उस व्यथा या विडंबना को उजागर करना चाहते हैं, जो कुर्सी की क्रूर लड़ाई से उपजती है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग राजनीति से बाहर वो लोग कर रहे हैं, जो देश को पश्‍चिम का गुलाम बनाना चाहते हैं और भारतीय जनता पार्टी के भीतर वो लोग कर रहे हैं, जो लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों की समझदारी का अतीत में शिकार हो चुके हैं. स्वयं नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के लिए आतुर नहीं दिखाई देते. हालांकि वे अपने भाषणों में सीधे प्रधानमंत्री को निशाना बना रहे हैं. नरेंद्र मोदी न मुलायम सिंह यादव पर टिप्पणी कर रहे हैं और न ममता बनर्जी पर. नीतीश कुमार को तो वे किसी लायक ही नहीं समझते हैं. भाजपा के लोग नरेंद्र मोदी को उस हाथी के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, जो चींटियों को रौंदता हुआ चलता है.
लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का दर्द यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा समझते हैं. इसलिए ये तीनों लालकृष्ण आडवाणी के साथ ख़डे हैं, पर इन तीनों के सामने भी यह स्पष्ट है कि इन्हें अगले चुनाव में टिकट नहीं मिलने वाला. हालांकि इस पर इन तीनों को ही विश्‍वास नहीं है. वैसे तो भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी घटनाओं पर चिंतित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसी घटनाएं दलों में घटती रहती हैं, लेकिन जब दलों की घटनाएं देश में घटने वाली घटनाओं के पूर्व संकेत के रूप में प्रचारित की जाने लगें, तब कुछ तथ्यों के बारे में बात अवश्य  करनी चाहिए.
भारत के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार में विनम्रता का होना अति-आवश्यक है. वह स्वभाव से विनम्र भले ही न हो, लेकिन उसके शरीर की भाषा विनम्र होनी चाहिए. उसमें इतनी व्यवहार कुशलता होनी चाहिए कि वह पंद्रह दिन में एक बार देश के प्रमुख राजनीतिज्ञों से फोन पर बात कर ले. कभी-कभी उन्हें चाय या खाने पर बुला ले. जिसमें देश की समस्याओं पर अन्य दलों से बात करने की समझदारी हो. मनमोहन सिंह से पहले तक जितने प्रधानमंत्री हुए उन सबमें यह गुण मौजूद था. मनमोहन सिंह के शासन के दस साल इतिहास किस रूप में याद करेगा, यह सोच कर भी डर लगता है, लेकिन नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए बिताया गया समय यह नहीं बताता कि नरेंद्र मोदी का दूसरे दलों के नेताओं को छोड़ दें, स्वयं अपने नेताओं से भी कोई अंतरंग संवाद हुआ हो. अंतरंग संवाद की सिर्फ एक घटना याद आती है, जिसमें अमर सिंह, अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी तीनों शामिल थे. नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी के नेताओं को ही फोन नहीं करते और काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि विपक्षी दलों का कोई नंबर ही संपर्क की सूची में नहीं आता.
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी के साथ यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ऐसे चेहरे हैं, जिनके देश के लगभग सभी राजनीतिक नेताओं के साथ संबंध हैं. इन्हें आडवाणी जी और जोशी जी द्वारा हमेशा सम्मान भी मिलता रहा है. इस कला में नरेंद्र मोदी अगर विश्‍वास नहीं करते तो फिर हमें मान लेना चाहिए कि एक सामान्य व्यक्ति प्रधानमंत्री पद की ओर बढ़ रहा है. हो सकता है कि नरेंद्र मोदी यह मानते हों कि विपक्षी नेताओं से और अपनी पार्टी के नेताओं से ज्यादा बात करने में संशय बढ़ता है और वक्त भी बर्बाद होता है, लेकिन जो भी प्रधानमंत्री पद की ख्वाहिश रखे, उसे अपने समकक्ष या अपने वरिष्ठ लोगों को सम्मान देना तो आना ही चाहिए. अगर नरेंद्र मोदी इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है तो हम अपनी इस समझ के लिए उनसे क्षमा-याचना कर लेते हैं.
भारतीय जनता पार्टी में देश को लेकर अपनी समझ है, अपनी कल्पनाएं हैं. अब जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उतारने का फैसला पार्टी ने ले लिया है तो पार्टी को एक और फैसला लेना चाहिए. उसे देश में यह साफ घोषणा करनी चाहिए कि अगर वह सत्ता में आएगी तो धारा 370 खत्म करेगी. कॉमन सिविल कोड लागू करेगी और राम मंदिर बनाएगी. उसे यह भी घोषणा करनी चाहिए कि वह जीतने के छह महीने के भीतर पाकिस्तान पर हमला करेगी और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को आजाद कराकर भारत में मिलाएगी. उसे यह भी साफ घोषणा करनी चाहिए कि अगर उसे दो तिहाई बहुमत मिलता है तो इस देश में मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रहेंगे. वे अपने लिए कोई मांग नहीं उठा सकेंगे, उन्हें जो सरकार देगी उसी में खुश रहना पड़ेगा. यानी मुसलनाम दूसरे दर्जे का नागरिक बनकर रहना चाहे तो इस देश में रह सकता है. इसके साथ भारतीय जनता पार्टी सरकार बनने के बाद दलितों को सत्ता में कितनी हिस्सेदारी देगी, इसकी भी घोषणा करनी चाहिए.
पिछले साठ सालों से इस देश में भारतीय जनता पार्टी इन्हीं मुद्दों को लेकर हमेशा चिंतित रही है. अब जब चुनाव में नरेंद्र मोदी के बहाने भाजपा अपने सिद्धांतों के आधार पर हिंदुओं को संगठित करना चाहती है और वोट लेना चाहती है तो उसे अपने मुद्दे भी देश के सामने साफ तौर पर रखने चाहिए. हमें विश्‍वास है कि देश इन मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी का साथ देगा और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह देश न केवल बदल जाएगा, बल्कि पूर्ण हिंदू राष्ट्र का दर्जा भी हासिल करेगा, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश भाजपा के खिलाफ वोट दे देता है तो भाजपा को और संघ को इन मुद्दों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए और देश में भाईचारे, प्रेम-सौहार्द व विकास को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए. इसका फैसला 2014 में होने वाले चुनाव में होना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि देश में बहुत सारे लोग इन मुद्दों पर देश का फैसला देखना चाहते हैं. अगर देश पहली तरह का फैसला करता है तो भारतीय जनता पार्टी के 75 साल से ऊपर के नेता अपनी आखों में खुशी लिए इस संसार से विदा होंगे और स्वर्ग या नर्क में जहां भी उनके पुराने साथी हैं, उन्हें जाकर बताएंगे कि वे उनका सपना पूरा करके आए हैं.
आजादी के बाद अब फैसले की घड़ी है. एक अजीब संयोग बन गया है कि पहले लोग कांग्रेस के खिलाफ गठजोड़ बनाते थे, अब बीजेपी के खिलाफ गठजोड़ की बात नहीं हो रही है, बल्कि बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ गठजोड़ की बात हो रही है. दरअसल, दोनों पार्टियों की आर्थिक नीतियां और उनके विकास का मॉडल एक जैसा है. इसलिए देश को लगता है कि एक बार फिर देश में गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की सरकार बननी चाहिए. हालांकि ऐसा होना असंभव है, क्योंकि जितनी प्रधानमंत्रियों की संख्या भाजपा और कांग्रेस में है, उससे ज्यादा प्रधानमंत्री भाजपा और कांग्रेस से बाहर चहलकदमी कर रहे हैं.
अभी कहानी का अंत दिखाई नहीं दे रहा, क्योंकि ऊपर बैठा भगवान 120 करोड़ लोगों के भाग्य की पटकथा पूरी तरह लिख नहीं पा रहा है. शायद ईश्‍वर भी इस पसोपेश में है कि वो पटकथा का अंत सुखद करे या दुखद.
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अगला विश्वकयुद्ध

vbnvbआजीवन भारत के मित्र रहे द न्यू स्टेट्समैन के मशहूर संपादक किंग्सले मार्टिन गांधी जी की हत्या के कुछ दिन पहले जब उनसे मिले तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के साथ भारत के युद्ध का गांधी जी पूरे मन से समर्थन कर रहे हैं. गांधी जी ने पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान लोगों से ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होने की अपील भी की थी, क्योंकि वे ऐसा विश्‍वास करते थे कि ब्रिट्रिश साम्राज्य युद्ध में अपनी तरफ से न्याय के रास्ते पर है.
हम बहुत खुशनसीब नहीं हैं. कुछ युद्ध बहुत ही साफगोई से ल़डे गए हैं. सीरिया में दो साल से बाहरी प्रतिनिधियों की भागीदारी से नागरिक युद्ध जारी है. इस युद्ध में एक लाख से अधिक लोगों की जान चली गई है और 70 लाख से अधिक लोग पलायन कर गए हैं. बशर अल-असद, जो कि केवल सीरियाई राजतंत्र का शासक होने का दावा करते हैं, लोकतांत्रिक नहीं हैं और हिजबुल्ला की मदद से सत्ता पर कब्जा किए बैठे हैं. दूसरी तरफ कुछ उदारवादी सुन्नी ताकतें और अलकायदा जैसे इस्लामिक आतंकवादी समूह हैं. पश्‍चिमी देशों ने युद्ध की निंदा की है और असद विरोधियों का समर्थन किया है, लेकिन एक दूरी बनाए रखी है. सउदी अरब और कतर ने विद्रोहियों को धन और हथियारों की आपूर्ति की.
सवाल है कि क्या सभी देश एक तरह के सामान्य-सार्वभौमिक मूल्यों में विश्‍वास करते हैं, जिसका वे खुद पालन करते हों और अपने प़डोसी से भी ऐसा करने की अपील करते हों? यह अक्सर कहा जाता है कि मानवाधिकार केवल पश्‍चिमी जगत का फैशन है, यह सार्वभौमिक नहीं है. ठीक है. फिर क्या हम सद्दाम हुसैन का अपने नागरिकों पर हमले को स्वीकृति देंगे? या ईरान-इराक युद्ध के समय ईरानियों पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को स्वीकृति देंगे?
सीरिया में जो रहा है वह नागरिक युद्ध है, लेकिन यह शिया-सुन्नी युद्ध भी है. यह लेबनान तक फैल रहा है. हिजबुल्ला को धन्यवाद कहना चाहिए कि लाखों शरणार्थी तुर्की और जॉर्डन चले गए हैं और शिया बहुल देश ईरान सीरिया का समर्थन कर रहा है. यूं तो तुलनाएं कभी भी बिल्कुल सटीक नहीं होतीं, लेकिन सीरिया का नागरिक युद्ध स्पेन के नागरिक युद्ध जैसा है, जो द्बितीय विश्‍वयुद्ध की पूर्वपीठिका साबित हुआ. हम जल्द ही एक पूरे मध्यपूर्व में एक युद्ध के गवाह बनेंगे, जिसमें हिजबुल्ला के साथ ईरान, इराक और सीरिया एक तरफ होंगे और सभी सुन्नी देश व अन्य इस्लामिक राष्ट्र दूसरी तरफ होंगे.
यदि ऐसा कोई युद्ध होता है तो उससे बचने का कोई पूर्वानुमान नहीं हो सकता. 1940 के दशक में संयुक्त राष्ट्र के साथ जो विश्‍व-व्यवस्था बनाई गई थी, उसकी अपनी समस्याएं हैं. सुरक्षा परिषद में कभी-कभार ही कॉमन योजना पर सहमति बन पाई है. शीतयुद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र शायद ही अपनी भूमिका निभा सका. 1991 के बाद पश्‍चिमी देशों ने पूरी दुनिया में मानवाधिकारों को लागू कराने के लिए उदार हस्तक्षेप की नीति के तहत दखल देना शुरू किया. यूगोस्लाविया में जब भयावह मानवाधिकारों का हनन हुआ, इस नीति ने काम किया, लेकिन इराक में यह असफल हो गई.
अब जब सीरिया में सत्ता द्बारा रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है, (जो कि ज्यादा विश्‍वसनीय लगने वाला कारण प्रतीत हो रहा है) विश्‍व-व्यवस्था के झंडाबरदारों को सामने बहुत ही मुश्किल विकल्पों का सामना करना है. रासायनिक हथियारों के विरुद्ध सहमति बननी चाहिए. हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इसपर सहमति नहीं बनेगी, वीटो सिस्टम को धन्यवाद कहना चाहिए. ब्रिटेन की संसद ने पहले ही दखलंदाजी के विकल्प को नकार दिया है. बराक ओबामा संसद में कांग्रेस की अनुमति के लिए जोर लगा रहे हैं, जिसकी तकनीकी तौर पर उन्हें जरूरत नहीं है. यह पहले से साफ है कि कांग्रेस सैनिक हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देगी.
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस निर्णय पर बहुत से लोग खुश होंगे. यह स्पष्ट है कि पुरानी शक्तियां-अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के पास न तो इच्छाशक्ति है, न ही ताकत है कि जो व्यवस्था उन्होंने बनाई है, उसे अमल में ला सकें. बहुत से लोग भारत में और वास्तव में गैर-पश्‍चिमी देश दॄढता से विश्‍वास करते हैं कि एक प्रभुसत्ता-संपन्न के पास अपनी ही जनता के खिलाफ बमबारी, प्रता़डना और हत्या का आत्यांतिक अधिकार है. लगता नहीं कि किसी भी तरह का अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप पसंद किया जाएगा. लेकिन फिर, जब हमारे कोई भी सार्वभौमिक नियमों को लागू कराने वाला नहीं होगा, विश्‍व-व्यवस्था कैसी दिखेगी?
एक सवाल है कि क्या सभी देश एक तरह के सामान्य-सार्वभौमिक मूल्यों में विश्‍वास करते हैं, जिसका वे खुद पालन करते हों और अपने प़डोसी से भी ऐसा करने की अपील करते हों? यह अक्सर कहा जाता है कि मानवाधिकार केवल पश्‍चिमी जगत का फैशन है, यह सार्वभौमिक नहीं है. ठीक है. फिर क्या हम सद्दाम हुसैन का अपने नागरिकों पर हमले को स्वीकृति देंगे? या ईरान-इराक युद्ध के समय ईरानियों पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को स्वीकृति देंगे? क्या हमारे पास एक अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय नहीं होना चाहिए जो कि रैदवन कैरेडजिक जैसे निरंकुश लोगों पर नकेल कसे? शायद ऐसा नहीं हो सकता. पुरानी विश्‍व-व्यवस्था मृतप्राय हो चुकी है. यह द्बितीय विश्‍वयुद्ध के बाद बनी थी और शायद मध्यपूर्व में आगामी युद्ध नई व्यवस्था को जन्म देगा. लेकिन तब तक कितनी मौतें हो चुकी होंगी?
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सूचना शुल्क : कैसे-कैसे लोक सूचना अधिकारी


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सूचना के अधिकार क़ानून की धारा-7 में सूचना मांगने के  लिए शुल्क की बात की गई है. धारा-7 की उप धारा-1 में लिखा गया है कि यह फीस सरकार द्वारा निर्धारित की जाएगी. इसमें स्पष्ट किया गया है कि आवेदन करने से लेकर फोटोकॉपी आदि के लिए कितनी फीस ली जाएगी. देश के सभी राज्यों में अथवा केंद्र में सरकारों ने फीस नियामवाली बनाई हैं और इसमें आवेदन के लिए कहीं 10 रुपये शुल्क रखा गया है, तो कहीं 50 रुपये. इसी तरह दस्तावेज़ों की फोटोकॉपी लेने के लिए भी 2 रुपये से 5 रुपये तक की फीस अलग-अलग राज्यों में मिलती है.

इसके लिए किसी लोक सूचना अधिकारी को यह अधिकार क़तई नहीं दिया गया है कि वह मनमाने तरी़के से फीस की गणना करे और आवेदक पर मोटी रक़म जमा कराने के लिए दबाव डाले. लेकिन इस क़ानून के बनने से लेकर अभी तक ऐसे कई मामले सामने आए, जिसमें लोक सूचना अधिकारियों की मनमानी देखने को मिली. ऐसे ही कुछ उदाहरणों पर एक नज़र.
दिल्ली पुलिस ने 13949 रुपये मांगे
चोरी हुए मोबाइलों के बारे में सूचना मांगने पर सामाजिक कार्यकर्ता सुबोध जैन से पुलिस उपायुक्त (पश्‍चिम) ने पत्र के माध्यम से 13949 रुपये जमा कराने को कहा. सुबोध ने दिल्ली पुलिस से 10 ज़िलों से चोरी हुए मोबाइल, प्राप्त हुए मोबाइल आदि के बारे में जानकारी चाही थी. इसके लिए उन्होंने पुलिस मुख्यालय में आवेदन दाख़िल किया, जिसे सभी ज़िलों के डीसीपी के यहां प्रेषित कर दिया गया. पुलिस का कहना था कि सूचनाओं को एकत्रित करने के लिए एक सब इंस्पेक्टर को दो दिन तक लगाया जाएगा जिसकी लागत 1546 आंकी गई है. साथ ही यह भी बताया कि दो हेड कांस्टेबलों को तीन दिन इसमें लगाया जाएगा और 13 कांस्टेबल इस काम में दो दिन के लिए लगाए जाएंगे. हेड कांस्टेबलों के लिए 1353 और कांस्टेबल के लिए 11050 रुपये जमा कराने को कहा गया.
78 लाख रुपये की सूचना
भोजपुर ज़िले के गुप्तेशवर सिंह से भोजपुर आपूर्ति अधिकारी ने आवेदन में मांगी गई सूचनाओं को उपलब्ध कराने के लिए 78 लाख 21 हज़ार 252 रुपये जमा करने को कहा. वह भी सूचना उपलब्ध कराने की 30 दिन की समय सीमा निकल जाने के बाद. गुप्तेश्‍वर सिंह ने 2000 से 2008 के बीच ज़िले के कुछ क्षेत्रों में जन वितरण प्रणाली के तहत वितरित किए गए अनाज और मिट्टी के तेल की जानकारी मांगी थी. आवेदन में डीलर के भुगतान रसीद की छायाप्रति भी मांगी गई थी.
आवेदन के जवाब में सूचना अधिकारी ने कहा-आपके द्वारा मांगी गई सूचनाएं विवरण के साथ तैयार हैं, लेकिन इसके लिए आपको पहले छायाप्रति शुल्क के रूप में 7821252 रुपये जमा करने होंगे. हालांकि बाद में सूचना आयोग में अपील करने के बाद मुफ्त में सूचना उपलब्ध कराने के  आदेश दिए गए.
गुजरात वक़्फ़ बोर्ड ने 4.7 लाख रुपये मांगे
अहमदाबाद के हुसैन अरब द्वारा दायर आरटीआई आवेदन का जवाब देने के लिए राज्य के वक़्फ़ बोर्ड ने 474690 रुपये की मांग की. हुसैन अरब ने 6 फरवरी, 2007 को आवेदन दाख़िल कर बोर्ड पर लगे प्रशासनिक अनियमितताओं के आरोपों का ब्यौरा और गुजरात चैरिटी कमिश्‍नर द्वारा 2001 में पारित योजना को लागू न करने का कारण जानना चाहा था.
आवेदन में उन्होंने मुस्लिम ट्रस्ट के अधीन अहमदाबाद, सूरत और भरूच में संपत्तियों की जानकारी भी मांगी थी. सूचना के स्थान पर उन्हें वक़्फ़ बोर्ड के लोक सूचना अधिकारी ने सूचना हासिल करने के लिए उक्त राशि जमा करने को कहा.
झज्जर अस्पताल में फोटोकॉपी शुल्क 4 लाख 92 हज़ार रुपये
हरियाणा के झज्जर अस्पताल के लोक सूचना अधिकारी ने आवेदक नरेश जून द्वारा दायर आरटीआई आवेदन का 5 महीने बाद जवाब दिया, जिसमें कहा गया कि आवेदक सूचनाएं हासिल करने के  लिए 4 लाख, 92 हज़ार 100 रुपये अतिरिक्त शुल्क के रूप में जमा करा दे. नरेश जून ने आवेदन में मेडिकल लीगल सर्टिफिकेट (एमएलसी) की सूचनाएं मांगी थीं, जिसमें भारी मात्रा में घोटाले का अंदेशा था. आयोग के हस्तक्षेप के बाद जानकारी मिली जिससे स्पष्ट हो गया कि एमएलसी शुल्क के रूप में जो राशि वसूली जाती है, उसमें करोड़ों का घोटाला हुआ है. शुल्क के रूप में वसूली गई राशि की कैश बुक में प्रविष्टि नहीं होती थी. नरेश जून को इन सूचनाओं को हासिल करने के लिए जेल तक जाना पड़ा और उनके ख़िलाफ़ झूठा मामला तक दर्ज किया गया.
सुल्तानपुर ज़िला कार्यक्रम कार्यालय ने 70 लाख रुपये मांगे
सूचना के अधिकार के तहत सुल्तानपुर के आइमा गांव में रहने वाले रमाकांत पांडे को सूचना तो नहीं मिली, उल्टे 70 लाख रुपये जमा करने का पत्र ज़रूर मिल गया था. रमाकांत ने ज़िला कार्यक्रम अधिकारी के पूरे कार्यकाल के आवागमन (भ्रमण पंजिका), जनपद में संचालित आंगनवाड़ी केंद्रों की सूची, केंद्र से छात्रों को शासन द्वारा निर्धारित मानक, छात्रों की भौतिक सत्यापन की रिपोर्ट के साथ-साथ कई और जानकारियां मांगी थीं. निर्धारित 30 दिन बीत जाने के बाद प्रथम अपील दाख़िल की गई. जवाब में सूचना के लिए निर्धारित शुल्क जमा कराने की बात कही गई. इसके बाद 70 लाख रुपये जमा करने की जानकारी देने वाले पत्र को देखकर रमाकांत हक्के-बक्के रह गए. ज़िला कार्यक्रम अधिकारी के कार्यालय के पत्र के अनुसार, मांगी गई सूचनाओं को ब्यौरा देते हुए लिखा गया कि लाभार्थियों की संख्या 519034 और अन्य नाम पते विवरण आदि देने में अनुमानित व्यय 77 लाख 85 हज़ार 510 रुपये लगाते हुए उनसे 78 लाख 14 हज़ार 245 रुपये जमा कराने को कहा गया था. पत्र में यह भी कहा गया कि धनराशि का अग्रिम 90 प्रतिशत (70 लाख 32 हज़ार 820 रुपये) पत्र प्राप्ति के एक सप्ताह के भीतर जमा करने पर सूचनाओं के तैयार करने संबंधी कारवाई शुरू की जाएगी.
औरंगाबाद में सूचना देने के  लिए 50 हज़ार रुपये मांगे
औरंगाबाद के सदर अनुमंडल, राजस्व के लोक सूचना अधिकारी से राशन और तेल आपूर्ति के संबंध में जानकारी मांगने पर नवल किशोर प्रसाद से 49974 रुपये की मांग की गई थी. वह भी आरटीआई आवेदन दाख़िल करने के 30 दिन बाद. अप्रैल 2008 में जनहित में दायर इस आवेदन में नवल ने माहवार वितरित किए गए तेल और राशन आदि का ब्यौरा मांगा था. सूचना हेतु मांगी गई राशि की वजह 24984 पेजों की सूचना बताई गई.
बरगढ़ में सिंचाई परियोजना की जानकारी 30 हज़ार की
ओडिसा के बरगढ़ ज़िले के तुकुरला गांव के सहदेव मेहर ने एक लघु सिंचाई परियोजना के बारे में ज़िला मुख्यालय से जानकारी मांगी तो क़रीब सात महीने बाद मिले पत्र में कहा गया- सूचना चाहिए तो 30 हज़ार रुपये जमा करा दें. सहदेव ने आवेदन में परियोजना में ख़र्च की गई राशि, इसके अंतर्गत डूबी ज़मीन आदि के बारे में जानना चाहा था.
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बीमारियों से बचना है तो खुश रहें


मेरे हार्टअटैक के कुछ दिन बाद डॉ. अवचट ने मेरी बीमारी में पढ़ने के लिए बर्नी सीगल नामक अमेरिकन सर्जन द्वारा लिखी हुई प्रसिद्ध पुस्तक लव मेडिसिन ऐंड मिराकल मुझे भिजवाई. शुद्ध इच्छाशक्ति व मानसिक प्रयोगों से कैंसर के उपचार और विलक्षण अनुभवों का इसमें वर्णन है. सीगल कहते हैं कि हमारे मन का शरीर पर प्रचंड प्रभाव पड़ता है. कैंसर के अनेक रोगियों को रोग होने से पहले डिप्रेशन होता है.
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दिल्ली और मद्रास में किए गए 40 वर्ष से अधिक उम्र के मध्यवर्गीय पुरुषों पर सर्वेक्षण से पता चला है कि उनमें से प्रत्येक पांच व्यक्ति में से एक को मधुमेह और दस में से एक को हृदयरोग था. संसार के किसी भी देश की जनसंख्या में ये रोग इतने बड़े पैमाने पर नहीं हैं. 1970 के बाद भारतीय शहरों में अनेक सर्वेक्षण हुए, उनसे पता चला कि इन बीमारियों का अनुपात प्रत्येक दशक में बढ़ता ही जा रहा है और लोग कम आयु में हृदयरोग के शिकार हो रहे हैं. अब तो भारतीय पुरुष 30 से 40 वर्ष की आयु में मृत्यु के दरवाजे पर आ खड़ा होता है. लगभग 50 वर्ष पहले अमेरिका में भी हृदयरोग का ऐसा ही दौर आया था, जिसकी कई वजहे थीं. मसलन, दूसरे महायुद्ध के बाद की समृद्धि, जीवन स्तर में अचानक सुधार, खाने-पीने की बहुतायत और यंत्रों के कारण शारीरिक श्रम की आवश्यकता का अभाव. कार के कारण पैदल चलने की आवश्यकता नहीं रही. टीवी के सामने बैठकर मनोरंजन व विज्ञापन देखना कार से सुपर मार्केट जाकर टीवी पर विज्ञापनों में देखी हुई सारी वस्तुएं खरीद लाना और घर आकर फिर से टीवी के सामने बैठकर उन्हें खाते-पीते रहना. इस प्रकार की जीवनशैली के कारण 1950 से 1960 के दशक में अमेरिका में हृदयरोग का और उसके कारण होने वाली मृत्यु का परिणाम प्रचंड रूप से बढ़ गया था, पर बाद के 10-15 वर्षों में अमेरिकन नागरिकों ने इसके कारण खोज निकाले. धूम्रपान, आहार में प्राणिजन्य फैट की बहुतायत (दूध, मक्खन, चीज, अन्डे, मांस), खून में बढ़ा हुआ कोलेस्ट्रॉल, ऊंचा रक्तचाप व बैठक वाली निष्क्रिय जीवनशैली,  प्रमुख कारणों के रूप में उन्हें समझ में आए. बैठकवाली जीवनशैली खतरनाक है. ऑफिस, कुर्सी, ड्रॉइंग रूम, सोफा और बेडरूम, ये खतरनाक स्थान हैं, क्योंकि समृद्ध संसार के ज्यादातर लोग यहीं मरते हैं. ये सब बातें उनकी समझ में आ गईं और वहीं से उन्होंने अपनी जीवनशैली में परिवर्तन लाने के प्रयत्न शुरू कर दिए. अमेरिका में 40-50 वर्ष पूर्व जो हुआ. ठीक वही आज भारत में हो रहा है. एक बड़े समृद्ध वर्ग का भारत में उदय हो गया है. उच्च और मध्यम वर्ग मिलाकर भारत में आज करीब तीस करोड़ लोग हैं. यानी की दूसरा अमेरिका ही भारत में है. यह है भारत का अमेरिका, जो  तेजी से अमेरिका की जीवनशैली, खाने-पीने की अधिकता, शारीरिक श्रम से मुक्ति, शराब और धूम्रपान वाली जीवनशैली अपना रहा है. आधुनिक जीवन में कार, टीवी, फ्रिज व होटल आदि को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. इसके कारण बैठक वाली खाऊ-पीऊ जीवनशैली चल पड़ी है. इसके साथ ही बढ़ती हुई महात्वाकांक्षा और करियर की तीव्र स्पर्धा और दौड़-भाग के कारण मानसिक तनाव भी पश्‍चिम जैसा ही बढ़ता जा रहा है. अत: भारत में हृदयरोग का प्रभाव अचानक बढ़ता दिखाई दे रहा है, लेकिन अभी कुछ कारण अविदित हैं. इस जीवनशैली को अंगीकार करने के बाद गोरों को जिस अनुपात में हृदयरोग होता है, उसकी अपेक्षा भारतीय व्यक्ति को कहीं अधिक अनुपात में होता है. भारत से जाकर लंदन, सिंगापुर, कनाडा या दक्षिण अफ्रीका में बस गए हजारों कुटुम्ब हैं. ये ज्यादातर मध्यम या उच्च वर्ग के हैं. वहां की समृद्धि का उनकी जीवनशैली पर खूब असर हुआ है. समान जीवनशैली वाले इंग्लैंड के गोरे, काले और भारतीय लोगों का तुलनात्मक अध्यन जब कुछ चिकत्सकीय वैज्ञानिकों ने किया, तब पता चला कि वहां के भारतीय वंश के लोगों में मधुमेह और हृदयरोग का अनुपात अन्य वंशियों की तुलना में सर्वाधिक है. भारत के गांवो में रहते हुए भारतीयों को ये रोग नहीं थे. परन्तु समृद्ध पश्‍चिमी जीवनशैली अपनाते ही गोरे और काले लोगों की अपेक्षा भारतवंशी लोगों को यह रोग ज्यादा परिमाण में होते हैं. ऐसा ही चित्र सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा में भी उभरा और यही चित्र भारतीय शहरों में भी देखा गया. अत: चिकित्सा-क्षेत्र में यह निष्कर्ष निकाला गया कि कुछ आनुवंशिक अथवा जीवशास्त्रीय कारणों से भारतवंशी लोग मधुमेह व हृदयरोग का सबसे अधिक खतरा पाले हुए हैं. भारत में हृदयरोग की लहर का स्पष्टीकरण भारतवंशी लोगों की हृदयरोग के प्रति नैसर्गिक कमजोरी तथा मध्यम वर्ग की नवीन जीवन शैली में है. धन-दौलत या धन्धे की खींचतान के पीछे न भागकर आदिवासी गांवों में स्वास्थ्य सेवा तथा रिसर्च करने वाले, महत्वाकांक्षा एवं तनावरहित जीवन जीने वाले मुझ जैसे समाजसेवी को हृदयरोग क्यों हुआ?
मेरे हार्टअटैक के कुछ दिन बाद डॉ. अवचट ने मेरी बीमारी में पढ़ने के लिए बर्नी सीगल नामक अमेरिकन सर्जन द्वारा लिखी हुई प्रसिद्ध पुस्तक लव मेडिसिन एंड मिराकल मुझे भिजवाई. शुद्ध इच्छाशक्ति व मानसिक प्रयोगों से कैंसर के उपचार विलक्षण अनुभवों का इसमें वर्णन है. सीगल कहते हैं कि हमारे मन का शरीर पर प्रचंड प्रभाव पड़ता है. कैंसर के अनेक रोगियों को रोग होने से पहले डिप्रेशन होता है. डिप्रेशन, चिंता, भय ये शरीर को नकारात्मक संकेत देते हैं. इस कारण शरीर की पेशियों की जीने की इच्छा व शक्ति कम हो जाती है. ऐसे समय में कैंसर तथा अन्य बड़े रोग शरीर को जकड़ लेते हैं, क्योंकि चिन्ताग्रस्त शरीर उन रोगों को बढ़ने देता है. उनसे लड़ने की शरीर में इच्छा ही नहीं बचती. बर्नी सीगल का यह प्रतिवादन मुझे संभव प्रतीत होता है. और हाल ही में एक अनुसंधान की रिपोर्ट पढ़ी. शरीर की प्रमुख रक्तवाहिनियों में निर्माण होने वाले अथरोस्किलरोसिस को नापने की तकनीक विशेषज्ञों ने विकसित की है. इस तकनीक से बर्कले कैलिफोर्निया के विशेषज्ञों ने विविध लोगों की रक्तवाहिनियों का परीक्षण किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि जो खिन्न है, जिसका मन प्रसन्न नहीं है, ऐसी मन: स्थिति वाले लोगों के शरीर की रक्तवाहिनी नलियां अन्दर से संकरी हो गई थीं. तो स्पष्ट है कि खिन्न मन:स्थिति भी हृदय रोग का कारण बनता है.
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