रविवार, 6 अक्टूबर 2013

समाचार पत्रों पर अंकुश कितना जरूरी


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 न्यायमूर्ति मैथ्यू ने दूसरे प्रेस आयोग की भी अध्यक्षता की थी जिसकी रपट सुक्षावों का एक समूह ही है जिसे यदि साथ लागू कर दिया जाय तो समाचार पत्र पंगु हो जाएंगे. आयोग के मतभेद प्रकट करने वाले चार सदस्यों ने इसे एक मोहक दु:स्वपन कहा है और इसे हथियारों का एक ऐसा शास्त्रागार बताया है जिसका प्रत्येक हथियार अच्छे से अच्छे समाचार-पत्र के लिए मारक है. बिहार का प्रेस विधेयक काफी बदनाम हो चुका है. इसे एक अलग-थलग तथ्य मानना भूल होगी. यह सचमुच सत्ता में स्थित पार्टी के दिमाग की उपज और एक प्रायोगिक परियोजना थी. यदि इसे बिहार में सफलता मिल गई होती तो उसे अन्य राज्यों में भी दुहराया जाता.

सार्वजनिक विरोध ने सरकार को विधेयक के सम्बंध में मुलायम बनने पर मजबूर कर दिया है. बिहार के मुख्यमंत्री ने यह घोषणा की है कि विधेयक मर गया है, लेकिन केंद्रीय सरकार का कहना है यह अब भी विचाराधीन है. जब लोग धीरे-धीरे इसके तरफ से गाफिल हो जाएंगे तो केंद्रीय सरकार किसी दिन चुपके से इसे अपनी स्वीकृति दे देगी. दशकों पहले बिहार और उड़ीसा में पारित हुए ऐसे ही विधेयकों के सम्बंध में काफी कुछ कहा गया है. यदि उस समय उन विधेयकों घातक स्वरूप नहीं समझा गया तो उससे मौजूदा विधेयक कुछ कम आक्रामक नहीं हो जाता. इसके अतिरिक्त बिहार सरकार ने पहले चालाकी से बिहार संविधान सभा द्वारा आपराधिक दंड संहिता में एक संशोधन पारित करा लिया था. जिससे किसी पत्रकार को छह महीने तक हवालात में रखा जा सकता है. पुलिस के लिए आरोप पत्र देने की समय सीमा 180 दिन तक बढ़ा दी गई है. दूसरे संशोधन भी हैं जो पुलिस को पत्रकारों को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार देते हैं और जो कुछ अपराधों को गैर-जमानती बना सकते हैं. ये दोनों अधिनियम एक साथ मिलकर एक पूरा हथियार बन जाते हैं.
विज्ञापन की आय कम करके तथा अख़बारी क़ागज़ की क़ीमत बढ़ाने के साथ कृत्रिम कमी दिखाकर समाचार-पत्रों को कमज़ोर करने की भी कोशिश हुई हैं. समाचार पत्र बराबर यह मांग करते हैं कि उन्हें अपना क़ागज़ मांगने की अनुमति मिले, लेकिन सरकार राज्य व्यापार संगठन द्वारा ही यह काम किए जाने पर ज़ोर देती रही है ताकि क़ागज़ के वितरण में राजनीतिक तौर पर जोड़-तोड़ की जा सके.
विज्ञापन की आय कम करके तथा अखबारी कागज की कीमत बढ़ाने के साथ कृत्रिम कमी दिखाकर समाचार-पत्रों को कमजोर करने की भी कोशिश हुई हैं. समाचार पत्र बराबर यह मांग करते हैं कि उन्हें अपना कागज मांगने की अनुमति मिले, लेकिन सरकार राज्य व्यापार संगठन द्वारा ही यह काम किए जाने पर जोर देती रही है ताकि कागज के वितरण में राजनीतिक तौर पर जोड़ तोड़ की जा सके. कई राज्य सरकारों ने ऐसी विज्ञापन नीतियां अपनाई हैं जिनसे उन्हें अपने आलोचक समाचार पत्रों के खिलाफ भेदभाव बरतने का मौका मिल सके. छोटे समाचार पत्रों को, जो ज्यादातर आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं, पक्षपात दिखाकर अपनी तरफ मिलाने की कोशिश हो रही है. सरकार के आलोचक समाचार पत्रों के दफ्तरों पर बिहार और कर्नाटक में छापा मारा गया है और उनकी लूट खसोट हुई है. बिहार, उड़ीसा तथा अन्य जगहों में पत्रकारों पर हमले हुए हैं और उनके प्रत्यायन पत्र को रद कर दिया गया है. उड़ीसा में सत्तारूढ पार्टी के समर्थकों द्वारा सरकार के आलोचक एक पत्रकार की पत्नी से बलात्कार कर उसे मार डाला गया. दूसरी ओर पत्रकारों के समूह को सस्ते दामों में बंगले आवंटित कर, विशिष्ट यात्राओं तथा कई अन्य उपायों द्वारा अपनी तरफ मिलाने की कोशिश हो रही है. समाचार पत्रों पर नियंत्रण रखने और उन्हें अपनी ओर मिलाने के लिए इस्तेमाल की जा रही अन्य युक्तियों को एक-एक कर गिनाना उबाने वाला होगा. हमने मौलिक अधिकारों में कांट-छांट के उपायों की शुरुआत की थी. इनमें से सौ साल पुरानी डाक और तार अधिनियम की एक वह बेशर्म धारा है, जिसके अनुसार देशभर में न जाने कितने हजार लोगों के पत्र प़ढे व युक्ति द्वारा उनके टेलीफोन सुने जा रहे हैं. एक मेहनती पत्रकार ने यह पता लगाया कि कर्नाटक के शिमोगा जैसे छोटे शहर में पचास पत्रकार इन उपायों के शिकार बने. विरोधी दलों के सभी प्रमुख सदस्यों तथा बीसियों सर्वोदय कार्यकर्ताओं को चुपके से सुनी जाने वाली ऐसी टेलीफोन सूची में रखा गया है. ऐसी खबरें छपी थीं कि पिछली बार राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी न्यायमूर्ति एचआर खन्ना का टेलीफोन भी चुपके से सुना गया है.
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