बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

सावधानी और जागरूकता की ज़रूरत

सावधानी और जागरूकता की ज़रूरत


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अस्वाद अर्थात स्वाद न लेना. स्वाद अर्थात रुचि. जिस तरह से दवा लेते वक्त, दवा स्वादिष्ट है या नहीं, इसका विचार न करते हुए, बल्कि शरीर को उसकी ज़रूरत है, ऐसा सोचकर निश्‍चित परिमाण में खाते हैं, ठीक वैसा ही अन्न के विषय में सोचना चाहिए. शरीर के पोषण के लिए आवश्यक न होते हुए भी मन को ठगने के लिए, यह आवश्यकता है, ऐसा कहकर कोई चीज (स्वाद के लिए) भोजन में डालना मिथ्याचरण ही तो हुआ.

इस तरह विचार करने में हमें दिखाई देगा कि हमारे खाने-पीने में ऐसी अनेक वस्तुए हैं, जो अनावश्यक होने की वजह से त्याज्य हैं और इस तरह अनेक वस्तुओं का त्याग जो अत्यंत स्वाभाविक रूप से करेगा, उसके विकार शांत होंगे. इस विषय की ओर इतना कम ध्यान दिया गया है कि व्रत की दृष्टि से अन्न का चुनाव करना क़रीब-क़रीब असंभव हो गया है. इसके अलावा बचपन से ही माता-पिता झूठे प्रेम के वशीभूत होकर अनेक प्रकार के जिह्वा-विलास कराकर शरीर को बिगाड़ देते हैं और जुबान को अनियंत्रित कर देते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि बढ़ती हुई पीढ़ी शरीर से रोगी एवं रुचि के मामले में अतिशय बिगड़ी हुई दिखाई देती है. इसके कटु परिणाम क़दम-क़दम पर दिखाई देते हैं. अनेक खर्चों को हम आमंत्रित करते हैं, वैद्य-डॉक्टरों के पीछे पड़ते हैं और शरीर एवं इंद्रियों को अपने नियंत्रण में रखने के बजाय उलटे उनके ही गुलाम बनकर किसी पंगु के समान जीवन व्यतीत करते हैं.

अस्वाद व्रत का महत्व यदि आपको जंचा हो, तो उसका पालन करने के लिए आपको नए उत्साह से लग जाना चाहिए. उसके लिए चौबीसों घंटे खाने का विचार करते रहने की आवश्यकता नहीं. केवल सावधानी एवं जागरूकता की आवश्यकता होती है. ऐसा करते रहने से थोड़े ही समय में कब हम स्वाद के लिए और कब शरीर के पोषण के लिए खाते हैं, यह समझ में आने लगेगा. एक बार यह समझ में आने पर हमें दृढ़तापूर्वक स्वाद कम करते जाना चाहिए. सच पूछो, तो आदर्श स्थिति में, भोजन पकाने के लिए आग की आवश्यकता कम से कम अथवा शायद बिल्कुल ही नहीं है. सूर्य रूपी महान अग्नि जिन वस्तुओं को पकाता है, उसी में से हमें अपने भोजन का चुनाव करना चाहिए और इस दृष्टि से विचार करने पर, मनुष्य केवल फलाहारी है, ऐसा ही सिद्ध होता है, लेकिन इतनी गहराई में जाने की हमें आवश्यकता नहीं. यहां तो अस्वाद व्रत से क्या तात्पर्य है, उसमें कौन-कौन सी अड़चनें हैं अथवा नहीं भी हैं और ब्रह्मचर्य पालन से उसका कितना निकट का संबंध है, इसी का विचार करना था. मन में यह जंच जाए, तब सभी को यथाशक्ति इस व्रत में पूर्णता प्राप्त करने का शुभ प्रयत्न करना चाहिए.

-महात्मा गांधी, मंगल प्रभात.
फाइबर

मैं वर्ष 1975 में चंडीगढ़ में पोस्ट-ग्रेजुएट मेडिकल इंस्टीट्यूट में पढ़ रहा था, तब विश्‍व प्रसिद्ध सर्जन डॉ. डेनिस बर्किट वहां आए. अफ्रीका में किए गए उनके रिसर्च कार्य एवं बर्किट लिम्फोमा नामक कैंसर की खोज के कारण उनकी कीर्ति फैली हुई थी. इंस्टीट्यूट में दिए गए भाषण के प्रारंभ उन्होंने पर्दे पर एक स्लाइड दिखाई, जिसे देखकर सारे डॉक्टर नाक सिकोड़ कर हंसने लगे. अफ्रीका के एक आदिवासी की विष्ठा और यूरोप-अमेरिका के गोरे आदमी की विष्ठा उस स्लाइड में दिखाई गई थी. अफ्रीकन आदमी की विष्ठा आकार में खूब बड़ी थी. नरम होने की वजह से गोबर की तरह वह ज़मीन पर फैली हुई थी, जबकि गोरे आदमी की विष्ठा निच़ुडी हुई, पत्थर की तरह थी.

ये दो प्रकार की विष्ठाएं कैसे दो प्रकार की सभ्यताओं की सूचक हैं, यह बात डॉ. बर्किट ने हमें समझाई. अफ्रीकन एवं भारतीय ग्रामीण लोग भोजन में मुख्यत: अनाज, दालें, कंदमूल एवं सब्जी इत्यादि खाते हैं (थे!), जिससे उनकी विष्ठा मात्रा में अधिक, नर्म एवं गीली होती है. उन्हें साधारणत: दिन में दो बार शौच जाना पड़ता है. इसके विपरीत गोरे (अथवा आधुनिक शहरी) मनुष्य के आहार में बदलाव के कारण विष्ठा कड़ी, थोड़ी एवं शुष्क हो जाती है. दो-तीन में एक बार शौच जाने से भी काम चल जाता है. विष्ठा सूखी होने की वजह से शौच के बाद मात्र कागज से पोंछने से भी काम चल जाता है. आधुनिक जीवनशैली की वजह से आहार में निम्न बदलाव हुए, जिनसे विष्ठा में उक्त परिवर्तन आए-मैदे की वस्तुएं, शक्कर, फैट्स, प्राणीज प्रोटीन्स एवं दूध.

इनका अनुपात बढ़ने से आधुनिक मनुष्य के आहार में से नैसर्गिक फाइबर (तंतु अथवा रेशे वाले पदार्थ) कम हो गए. ये फाइबर आहार के साथ जब आंत में जाते हैं, तो इनका अंतड़ियों द्वारा रक्त में शोषण नहीं होता. साथ ही वे अपने साथ पानी को पकड़े रहते हैं. अंत में पकड़े हुए पानी के साथ ये फाइबर्स शौच के रूप में बाहर निकल आते हैं. इसलिए विष्ठा गीली और नरम होती है. इसके अलावा ये फाइबर कॉलस्ट्रॉल को पकड़ कर रखते हैं, अतएव शौच के साथ वह भी बाहर निकल जाता है. आधुनिक मानव के आहार में फाइबर कम हो गए, विष्ठा कड़ी हो गई और इसी कारण शौचगृह में टॉयलेट पेपर आ गए. शौच का यह फर्क मात्र शौचालय में शरीर को पानी से धोना या कागज से पोंछना तक ही सीमित हो, तो चर्चा की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन बर्किट ने आहार में फाइबर के अभाव से शुरू होने वाले रोगों के एक समुच्चय (सिंड्रोम) का विवरण हमारे सामने प्रस्तुत किया. यह सिंड्रोम काफी हद तक सिंड्रोम एक्स जैसा था. आहार में फाइबर की कमी से और कड़ी विष्ठा विष्ठा वाली सभ्यताओं के लोगों को होने वाले रोगों की सूची इस प्रकार है, हृदय रोग, मोटापा, मधुमेह, पित्ताशय में पथरी, हॉर्निया, अपेंडिसाइटिस, पाइल्स, व्हेरीकोज व्हेंस एवं आंतों का कैंसर. अगर आधुनिक सभ्यता के इन रोगों से मुक्ति पानी हो, तो आहार में फाइबर बढ़ाइए, यह सलाह देकर डॉ. बर्किट चले गए.

भारत के पारंपरिक लोगों को कब्ज की बहुत चिंता रहती है. वे जब अपनी शौच का सूक्ष्म एवं विस्तृत वर्णन करते हैं, तब हम डॉक्टरों को लगता है कि उन्हें न्यूरासिस है, वे शौच के संबंध में अतिशय चिंताग्रस्त हैं. वस्तुत: उनकी चिंता का बर्किट ने वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया था. विनोबा जी ने एक जगह लिखा है, प्रभाते मल दर्शनम. सबेरे उठकर शौच जाओ और अपने मल का भलीभांति निरीक्षण करो. वह हमारे स्वास्थ्य की स्थिति का आईना है.

चौथी दुनिया

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