Posted: 01 Apr 2014 10:35 AM PDT
Tue, Apr 1, 2014 at 4:43 PM
हर्ष मंदर, गौतम नवलखा आदि ने प्रजा के निम्नतम वर्ग की पीड़ा पर भावनापूर्ण लेख लिखे
Kanhaiya Jha (Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University,
Bhopal, Madhya Pradesh
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भारतीय विकास प्रतिमान की आवश्यकता
आज़ादी के बाद देश को 15 वर्ष से भी कम समय में विकसित करने के लिए सिंचाई एवं बिजली उत्पादन के लिए बड़े बाँध, नहरें, निजी एवं सरकारी औद्योगिक क्षेत्र, आदि अनेक योजनाओं को प्रारंभ किया गया। इसके लिए किसानों की जमीन को सरकार ने सस्ते दामों पर ले लिया. इससे असंख्य देशवासियों को अपनी कृषि भूमि एवं जंगल छोड़ मजदूरी के लिए अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा। सन 1985 में अमिया राव द्धारा लिखी गयी भारत देश के विकास की यह कहानी कुछ सोचने पर अवश्य मजबूर करेगी।
उपरोक्त योजनाओं के कारण विस्थापन का सबसे बुरा असर घर की गृहणी पर पड़ा. प्रायः घर के अन्दर ही काम करने की अभ्यस्त औरतों को मजदूरी के लिए जब दूर-दराज़ क्षेत्रों में जाना पड़ा।इसके कारण वर्षों से चली आ रही परिवार परंपरा टूटती गयी. ऐसे में पुरुष को रोजी रोटी की व्यवस्था के लिए अपनी पत्नी-बच्चों का साथ छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है। बिना किसी धरोहर, जमीन-जायदाद के अकेले मजदूरी कर बच्चों को पालना किसी भी तपस्या से कम नहीं था। भूख से पीड़ित अनेकों औरतें बड़े शहरों के वेश्यालयों में हमेशा के लिए दफ़न हो गयीं थीं। सन 1985 में अनियोजित क्षेत्र में मजदूरी करने वाली ऐसी औरतों की संख्या 7.5 करोड़ से ज्यादा थी।
आजादी के 67 वर्ष पश्चात सन 2014 में भी देश के हरेक राज्य में कमोवेशी विकास की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है.हर्ष मंदर, गौतम नवलखा आदि लेखकों ने प्रजा के निम्नतम वर्ग की पीड़ा पर भावनापूर्ण लेख लिखे हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या आज़ादी के बाद देश के शासकों ने विकास का सही प्रतिमान चुना था ? क्या वह प्रतिमान भारतीय लोकतंत्र की परिभाषा के अनुरूप था?, जिसके अनुसार राजा अथवा शासक वर्ग ईश्वर रूपी प्रजा का सेवक है, अथवा वह अंग्रेजों का ही शासन तंत्र था, जिसे देश ने कुछ फेर-बदल कर अपना लिया था ? प्रमाण इसी ओर इंगित करते हैं कि हमारे शासकों ने पर-तंत्र अथवा दूसरों के तंत्र को चुना था तथा स्व-तंत्र अथवा भारतीय तंत्र को अपनाने का साहस नहीं किया था।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं आज़ादी के बाद भी जनता में एक नया, सुन्दर देश बनाने का जज्बा था, जिसके लिए उन्हें किसी भी त्याग के लिए तत्पर किया जा सकता था. परंतू पिछले 67 वर्षों में शासन में आये अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों का त्याग का वह जज्बा प्रोत्साहन न मिलने के कारण धीरे-धीरे समाप्त होता चला गया।
राजनितिक दल चुनाव के मैदान में अपनी पार्टियों को विजयी बनाने के लिए कार्य कर रही है. पिछले कुछ महीनों से देश में एक युद्ध की स्थिति बनी हुई है. चुन के आने वाले लगभग सभी सांसद एक विजेता की भाँती संसद में प्रवेश करेंगे और फिर जनता को भूल हमेशा की भाँती अपने वर्चस्व के लिए जोड़-तोड़ में लिप्त हो जायेंगे। भारत की राजनीती की दिशा को समझने के लिए चाणक्य के विचार बहुत उपयोगी रहे हैं. चाणक्य सीरिअल शुरू से आखिर तक शिक्षा एवं शिक्षक के मानक ही तय करता है. मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में चाणक्य बालक चन्द्रगुप्त को खेलते देख प्रभावित होता है और उसे शिक्षित करने के लिए तक्षशिला गुरुकुल ले जाने का संकल्प करता है (२/८). चन्द्रगुप्त की माँ के यह कहने पर कि उसके बेटे के बारे में निर्णय लेने का अधिकार केवल उसका है, चाणक्य प्रत्युत्तर में कहता है:
"मैं उसका आचार्य हूँ, मैं इसे गर्भ में धारण कर चुका हूँ, तूने एक संभावना को जन्म दिया है, मैं उसे संभव बनाना चाहता हूँ. तू एक माँ है, तुझे अपने पुत्र के बारे में विचार करना है, मैं एक शिक्षक हूँ, मुझे राष्ट्र एवं समाज का ध्यान करना है. मेरा स्वार्थ तेरे स्वार्थ से बड़ा है।"
यवनों के भारत में घुसने का मार्ग तक्षशिला से था. जब वहाँ के राजा ने यवनों से संधि कर उनकी सेना को भारत में प्रवेश करने दिया तो गुरुकुल ने निश्चय किया:
"यदि शासन राष्ट्र के सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता तो शिक्षक करेगा."
तक्षशिला के गुरुकुल में छात्रों को शस्त्र विधा सिखाई जाती थी। राजा के विरोध में छात्रों ने गुरुकुल से निकल जन-जन को जगाने का अभियान छेड़ा। इस पर राजा ने गुरुकुल पहुँच कटाक्ष किया:
राजा: ओह ! तो अब गुरुकुल भी राजनीति से अछूता नहीं रहा.
चाणक्य: जब प्रश्न पूरे राष्ट्र का हो तो गुरुकुल उससे कैसे अछूता रह सकता है. मेरी प्रार्थना है कि आप अलक्षेन्द्र से कोई संधि न करें.
राजा: तक्षशिला मेरी भूमि है, मेरी भूमि पर पर मुझे ही आदेश देने वाले आप कौन हैं ?
राजा को चेतावनी देते हुए चाणक्य ने कहा:
"जाओ आम्भी कुमार, एक दिन तुम्हें गुरुकुल की सत्ता का परिचय मिल ही जाएगा".
तक्षशिला के गुरुकुल में राजनीति की शिक्षा दी जाती थी। यह शास्त्र की सामर्थ्य थी जो शस्त्र को चुनौती दे रहा था।
उस समय जनपद क्षुद्र स्वार्थों के लिए आपस में लड़ रहे थे. आज देश भर की राजनीतिक पार्टियां राष्ट्र को भूल आपस में एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं। विभिन्न जनपदों को यवन आक्रमण के विरुद्ध एकजुट करने के लिए उनके मुखियाओं को प्रताड़ित करते हुए कहा:
चाणक्य: हिमालय से समुद्र पर्यंत भारत एक है. यदि कोई आपके मस्तक पर आक्रमण करे तो क्या आपके हाथ नहीं उठेंगे, क्या आपके पैर गति करना बंद कर देंगे ?
मुखियाओं ने एकजुट होना तो स्वीकार किया, परंतू किसी को भी दूसरे का नेतृत्व स्वीकार नहीं था.
प्रश्न आज भी नेतृत्व का ही है, जिसके लिए एक दूसरे के प्रति विष-वमन हो रहा है. विडम्बना यह है कि आम चुनाव में यदि जनता ने किसी एक के पक्ष में निर्णय ले भी लिया तो भी यह संघर्ष थमने वाला नहीं है, बल्कि अगले पांच वर्ष यह संसद में जारी रहेगा.
जनपदों के आपसी वैमनस्य से हताश चाणक्य के उदगार:
"समस्त भारत युद्ध की विभीषिका से ग्रस्त है. वह कैसे अलक्षेन्द्र के आक्रमण का उत्तर देगा। कहीं विवाद सीमा का है, तो कहीं विवाद व्यक्तिगत स्वार्थों के संरक्षण का, कहीं जन्म की श्रेष्ठता का तो कहीं धर्म की श्रेष्ठता का। राष्ट्र पतन के कगार पर आ खड़ा है और लोगों को राष्ट्रीयता का कोई बोध नहीं, कोई गर्व नहीं कोई सम्मान नहीं।"
स्थिति आज भी कोई ख़ास भिन्न नहीं है. आज भोगवादी विदेशी संस्कृति का आक्रमण है, जिसके कारण सदियों से संजोये भारतीय मूल्य नष्ट हो रहे हैं. यह राष्ट्र युवा जरूर है, परन्तु नवयुवकों में नशीले पदार्थों का सेवन बढ़ता जा रहा है. शासन अपने खर्चे को नियंत्रित करने का इच्छुक नहीं है. अप्रत्यक्ष करों के बोझ से पिसी जा रही जनता के कुशलक्षेम की परवाह नहीं. कोई गर्व नहीं, कोई सम्मान नहीं, क्योंकि भोगवादी आयात के लिए विदेशों से उनकी शर्तों पर क़र्ज़ लेना एक मजबूरी.
यह कैसा लोकतंत्र हमारे शासकों ने स्वीकार किया हुआ है जिसमें शासक वर्ग हमेशा बिना प्रयोजन के संघर्ष में रत है. शिक्षक की अवहेलना की गयी और शिक्षा को धर्म से च्युत कर निरंकुश हो सत्ता का भोग किया जा रहा है।
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बुधवार, 2 अप्रैल 2014
जब औरतें वेश्यालयों में हमेशा के लिए दफ़न हो गयीं
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