यह सांप्रदायिकता बनाम धर्म-निरपेक्षता का, सामाजिक न्याय का चुनाव है
फिर एक बार संप्रग- 1 के प्रयोग को थोड़े से फेर-बदल के साथ दोहराने का समय आने वाला है।
इस बार के चुनाव परिणाम पर थोड़ा स्थिर होकर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत होगी। यह सच है कि चुनाव के पहले देश भर में एक कांग्रेस-विरोधी हवा चल रही थी। उसका प्रचार के प्रारंभिक दौर में विपक्ष की प्रमुख पार्टी भाजपा को लाभ मिलना तय था। लेकिन भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर 2002 के गुजरात के खलनायक नरेंद्र मोदी को सामने लाकर इस पूरे दृष्यपट में एक गुणात्मक परिवर्तन का बीजारोपण किया। देखते-देखते एनडीए और भाजपा का कायांतर हो गया और वह सब एक व्यक्ति की, मोदी की पार्टी के रूप में बदल गया।
और तो और, जिस राजग ने अपने प्रचार की शुरूआत भ्रष्टाचार-विरोधी, विकास-केंद्रित विपक्ष के गठबंधन के रूप में की थी, वह मतदान के वक़्त तक आते-आते सांप्रदायिक और जातिवादी विद्वेष की मोदी पार्टी में बदल गया।
इस लम्बे प्रचार अभियान में मोदी और उनकी पार्टी का पूरा रवैया ऐसा रहा, जिससे वह विपक्ष की पार्टी प्रतीत ही नहीं होती थी। मोदी पार्टी ने धन की ताक़त का सबसे अधिक अश्लील प्रदर्शन किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस क़दर ख़ामोश हो गये जैसे देश का कोई प्रधानमंत्री ही न हो, और उनके इस रिक्त स्थान को नरेन्द्र मोदी और उनके जयगान में जुटे दरबारियों ने सिर्फ़ अपने शोर के बल पर चुनाव के पहले ही जैसे हथिया लिया।
इस प्रकार, कांग्रेस-विरोधी माहौल से शुरू हुआ चुनाव कब और कैसे साम्प्रदायिकता बनाम धर्म-निरपेक्षता के चुनाव में, कब सामाजिक न्याय की एक और लड़ाई में बदल गया, किसी को पता भी नहीं चला।
हमारे अनुसार, कल आने वाले चुनाव परिणामों को राजनीतिक परिस्थिति की इसी पृष्ठभूमि में देखने-समझने की कोशिश करनी होगी। मोदी पार्टी इस चुनाव में यदि स्पष्ट बहुमत लाने में विफल रहती है तो उसे मोदी पार्टी के ख़िलाफ़ जनता की राय मानना होगा और सभी राजनीतिक दलों को जनता की इस राय का सम्मान करते हुए अपना मत स्थिर करना होगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें