बी.पी.गौतम
बचपन में कहानियों के माध्यम से सिखाया जाता रहा है कि संगठन में बहुत बड़ी शक्ति होती है। एक लकड़ी को सामान्य व्यक्ति भी तोड़ सकता है,पर इकट्ठी लकड़ियों को शक्तिशाली व्यक्ति भी नहीं तोड़ सकता। धागे को बच्चा भी तोड़ सकता है और कई धागों से मिल कर बनी रस्सी से हिंसक जानवर को वश में कर लिया जाता है। बच्चा स्कूल पहुँचता है, तो स्कूल में भी चित्रों के माध्यम से बच्चे को संगठन का ही महत्व समझाया जाता है। पाठ्य पुस्तकों और वेद-पुराण के साथ समस्त धर्मों की पुस्तकों में संगठन को सर्वोच्च शक्ति बताया गया है। बचपन से ही हर व्यक्ति संगठन के बारे में सुनता आ रहा है, जिससे हर व्यक्ति संगठन का महत्व तो जान गया, पर यह भूल गया कि संगठित रह कर करना क्या है?
बचपन से ही संगठन का महत्व बताने का आशय है कि संगठित रह कर ही परिवार,समाज और देश का उत्थान किया जा सकता है, पर सोच में विकृति हो, तो संगठन विनाश का कारण भी बन सकता रहा है। राजतन्त्र में विनाशकारी संगठन से निपटने के ठोस माध्यम थे, पर लोकतंत्र में ऐसे संगठन बड़ी समस्या बन सकते हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में तो ऐसे संगठनों से मुकाबला करना बेहद कठिन हो जाता है। संगठन के नाम पर मनमानी करने का सब से सटीक उदाहरण शिवसेना है। महाराष्ट्र में शिवसेना की लंबे समय से सरकार नहीं है, लेकिन संगठन की शक्ति का दुरुपयोग करने के कारण ही पूरी व्यवस्था शिवसेना के सामने नतमस्तक है। संगठन के भय के चलते ही हाल-फिलहाल पुलिस ने दो बेक़सूर लड़कियों के विरुद्ध कार्रवाई तक कर दी। शिवसेना या महाराष्ट्र ही क्यूं? कमोवेश यही हालात पूरे देश के हैं। कांग्रेस की सरकार है, तो कांग्रेसी कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। भाजपाई अपनी सरकार में बादशाह हो जाते हैं,तो सपाई-बसपाई तानाशाह। प्रत्याशी दलों के होने चाहिए और निर्वाचित होने के बाद प्रतिनिधि राज्य और जनता के प्रति समर्पित रहें,तो जनता स्वयं को कभी भी अकेला और भयभीत महसूस ही नहीं करेगी, पर यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सत्ता हड़पने की नीयत से बने राजनैतिक संगठनों की सूची में आम आदमी का नाम ही नहीं है।
संगठन की महत्ता के चलते ही संपूर्ण तंत्र और संपूर्ण समाज संगठनमय ही नज़र आने लगा है। पत्रकार, वकील, अध्यापक, डाक्टर, बाबू ही नहीं, बल्कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर आईएएस और किसान से लेकर व्यापारी तक, सरकारी-गैर-सरकारी सब के अपने-अपने संगठन हैं। नौजवान, बुजुर्ग, पुरुष, महिला, किन्नर, अशिक्षित, शिक्षित और बेरोजगारों के साथ जाति-धर्म, सवर्ण-पिछड़े और अनुसूचित जातियों के भी संगठन हैं,पर वास्तविक स्थिति आश्चर्यजनक है, क्योंकि आपस में संगठित पांच लोग भी नहीं हैं। चारों ओर संगठन ही दिखाई दे रहे हैं, फिर भी आम आदमी का शोषण और अधिक हो रहा है। असलियत में अधिकाँश संगठन ही शोषण का माध्यम बन गए हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में संगठित गिरोह बना कर डकैती डालने की कोई आवश्यकता ही नहीं है,यह बात चतुर बुद्धि के स्वामी अच्छी तरह जान गए हैं, इसीलिए संगठन के नाम पर खुलेआम मनमानी करते हुए स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करने के लिए बनने वाले संगठन आज तब सक्रीय दिखाई देते हैं, जब संगठन के पदाधिकारी से प्रति दिन स्कूल आकर पढ़ाने को कहा जाता है। व्यापार मंडल के पदाधिकारी के प्रतिष्ठान पर वाणिज्य कर का अधिकारी पहुँच जाए,तो समूचा व्यापारी संगठन पूरे विभाग के विरुद्ध आग उगलता नज़र आता है। अवैध कमाई वाली कुर्सी पाने के लिए रिश्वत देते समय कोई संगठन नहीं है, पर कोई बेईमान कह दे, तो आईएएस अधिकारियों की बैठक तत्काल बुला ली जाती है। कुल मिला कर आजादी के साढ़े छः दशक बाद भी आम आदमी का कोई संगठन नहीं है, इसीलिए भुखमरी, बेरोजगारी, बीमारी, शिक्षा, सड़क, पानी, बिजली, सुरक्षा की चिंताएं और अधिक बढ़ती जा रही हैं। कोई कांग्रेस का पदाधिकारी है, तो कोई भाजपा का। कोई सपा का पदाधिकारी है, तो कोई बसपा का। कोई व्यापारियों का नेता है, तो कोई अपनी जाति और अपने धर्म का। आम आदमी बेबसी और लाचारी की चादर ओढ़े अकेला ही खड़ा दिखाई दे रहा है, लेकिन इतिहास गवाह है कि जो आम आदमी के हित में काम नहीं करता,वह संगठित और शक्तिशाली होते हुए भी मिटटी में मिल जाता है। रावण के पास शक्ति और संगठन राम से कहीं अधिक थी, लेकिन रावण के समाज द्रोही होने के कारण राम विजयी हुए, इसी तरह कौरवों का संगठन पांडवों से विशाल था,पर स्वार्थी होने के कारण मिट गए। बचपन में संगठन की शक्ति का महत्व बताते हुए बुजुर्गों ने सच, न्याय और ईमानदारी के मार्ग पर चलने की कहानियाँ भी सुनाई थीं, पर स्वार्थ के चलते आगे की बात दरकिनार कर संगठन के नाम पर चंद लोग मनमानी किये जा रहे हैं, जिस पर अंकुश लगाना अब बेहद आवश्यक हो गया है।
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