सबसे पहले, भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार करने की बात एक साल पहले तब सामने आई थी, जब 11 मई 2013 को पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ़ की पार्टी पाकिस्तानी मुस्लिम लीग की जीत हुई थी।
यह आशा जल्दी ही धूमिल हो गई थी कि पाकिस्तान के नए प्रधानमन्त्री भारत के साथ रिश्तों में फिर से गर्मजोशी पैदा कर देंगे। उन दिनों भारतीय राजनीतिज्ञों के पास इतना समय ही नहीं था कि वे इस बारे में सोचते। उन्हें तो सन् 2014 में होने वाले आम-चुनाव की आहट सुनाई दे रही थी और वे उन चुनावों की रणनीति बनाने में लगे हुए थे। तब सत्तारूढ़ काँग्रेस भी देश की घरेलू समस्याओं के समाधान की तरफ़ ज़्यादा ध्यान दे रही थी और विदेश नीति से जुड़े सवाल उसे परेशान नहीं कर रहे थे। वह समय किसी तरह के ऐतिहासिक निर्णय लेने का समय नहीं था। यही कारण है कि तब, एक साल पहले नवाज़ शरीफ़ के चुनाव जीतने पर मनमोहन सिंह की जगह बराक ओबामा ही वह पहले शख़्स थे, जिन्होंने नवाज़ शरीफ़ को बधाई और शुभकामनाएँ दी थीं।
अब एक साल बाद भारत में हुए आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की विजय के साथ ही नए ताक़तवर नेता का उदय हुआ है, जिन्हे दुनिया नरेन्द्र मोदी के नाम से जानती है। दोनों देशों के नेताओं को, नवाज़ शरीफ़ को भी और नरेन्द्र मोदी को भी मतदाताओं का भारी समर्थन प्राप्त हुआ है और यह समर्थन इन दोनों ही नेताओं को बड़े साहसी और निर्भीक निर्णय लेने की सम्भावना देता है। हो सकता है कि दो देशों के बीच चले आ रहे पुराने टकराव और पुरानी समस्याएँ पूरी तरह से ख़त्म हो जाएँ। इसके संकेत भी दिखाई दे रहे हैं। यह बात भी प्रतीकात्मक है कि प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने पिछले साल नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन करने में कोई जल्दबाज़ी नहीं की थी, जबकि नवाज़ शरीफ़ उन पहले लोगों में से एक थे, जिन्होंने नरेन्द्र मोदी को जीत की बधाई दी।
लेकिन संशयवादियों का मानना है कि नरेन्द्र मोदी राष्ट्रवादी हैं और वे पाकिस्तान के प्रति कठोर नीति अपनाएँगे ताकि दक्षिणपन्थी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संचालकों को सन्तुष्ट कर सकें, जिसके वे भी एक सक्रिय सदस्य हैं। लेकिन संशयवादियों का यह नज़रिया ठीक नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर से भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने अटल बिहारी वाजपेयी को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं और उनका यह कहना है कि वे उन कामों को पूरा करेंगे जिन्हें वाजपेयी अपने सत्ताकाल में पूरा नहीं कर पाए। और सब जानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ऐसे भी क्षण आए थे, जब पाकिस्तान से रिश्तों में सुधार शुरू हो गया था।
सन् 2001 की गर्मियों में आगरा में भारत-पाक शिखर-सम्मेलन हुआ था, जिसमें भारत के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ से मुलाक़ात की थी। हालाँकि आगरा की उस मुलाक़ात में कश्मीर समस्या पर एक क़दम भी आगे बढ़ पाना सम्भव नहीं हुआ था, लेकिन बहुत से लोगों ने उस मुलाक़ात को दो देशों के बीच रिश्तों की बेहतरी की ओर एक छोटी-सी छलांग माना था। दो देशों के नेता इससे पहले एक-दूसरे को देखना तक नहीं चाहते थे, मिलना तो दूर की बात है। लेकिन आगरा में दो देशों के नेताओं की मुलाक़ात तयशुदा समय से कहीं लम्बी खिंच गई थी और दो देशों के नेताओं ने पहली बार सँयुक्त विज्ञप्ति जारी की थी।
तब दो देशों के नेताओं ने जिन विषयों पर चर्चा की थी. उनमें परमाणविक जोखिम को कम करने, पाकिस्तान की जेलों में बन्द भारतीय सैनिकों को रिहा करने, दुपक्षीय व्यापारिक-आर्थिक सहयोग तथा पाकिस्तान के रास्ते ईरान से भारत तक गैस पाइपलाइन बनाने जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण विषय थे। हालाँकि दोनों नेताओं की मुलाक़ात के साथ-साथ तब कश्मीर नियन्त्रण रेखा पर भारतीय-पाक सेना में झड़पें भी हो रही थीं, लेकिन फिर भी दोनों नेताओं ने अपने सम्पर्कों को पारदर्शी और रचनात्मक बताया था।
और इसके दो साल बाद सन् 2003 के शरदकाल में भारत के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 12 बिन्दुओं वाली एक शान्ति-योजना प्रस्तुत की थी, जिसे पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए रोड-मैप के रूप में इस्तेमाल किया जाना था। सेर्गेय तोमिन आगे कहते हैं :
आज पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़ यह सिद्ध करने की कोशिश कर सकते हैं कि वे भारत के साथ रिश्ते सुधारने के लिए उन्हें सत्ता से हटाने वाले जनरल मुशर्रफ़ के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा आगे तक जा सकते हैं। दूसरी तरफ़ नरेन्द्र मोदी के पास भी इस बात की पूरी-पूरी सम्भावना है कि वे अपने राजनीतिक गुरु अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा शुरू किए गए कामों को पूरा करें। हालाँकि मोदी को अन्तरराजकीय और अन्तरसरकारी वार्ताओं का कोई अनुभव नहीं है, लेकिन उनके पास वह रोड-मैप तो है ही, जो अटल बिहारी वाजपेयी ने तैयार किया था। तब से अब तक एक दशक से ज़्यादा समय गुज़र चुका है, लेकिन उस रोड-मैप को फिर से पढ़ा जा सकता है और उसमें कुछ घटाकर और जोड़कर उसे और व्यापक बनाकर उसे फिर से प्रस्तुत किया जा सकता है। आज के दौर में भारत-पाक रिश्तों में यह एक दुपक्षीय सकारात्मक क़दम होगा।
नरेन्द्र मोदी के लिए पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इस तरह उनके सामने भारत के हज़ारों मुसलमानों के दिल तक पहुँचने का रास्ता खुल जाएगा। गुजरात में हुए नरसंहार के बाद इन मुसलमानों के मन में जो डर समाया हुआ है, उनकी आँखों में जो बर्फ़ जमी हुई है, इससे वह बर्फ़ भी पिघल जाएगी। इस तरह दो देशों के बीच रिश्तों में सुधार की बात करना कोई कल्पना नहीं है। वैसे भी ऐसा करने का ऐतिहासिक क्षण तो अब आया है।
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