डॉ. पवन विजय
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था “विदक्षता” (Deskilling) के दुष्चक्र में फंस गयी है। शैक्षिक प्रसार के नाम पर पूरी व्यवस्था को निजी संस्थाओं के हवाले किया जा रहा है। ऐसे में शैक्षिक गुणवत्ता का स्थान मुनाफे ने ले लिया है। येन केन प्रकरेण मुनाफा प्राप्त करना ही संस्थाओं का अंतिम उद्देश्य बन चुका है। कोई भी शराब बनाने वाला, मिठाई बनाने वाला, कबाड़ व्यापारी, माफिया, नेता, अपराधी देश हित या समाज हित को आड़ बनाकर पैसे के जोर से शिक्षाविद बन जाता है और महज पैसा बनाने के लिए स्कूल कॉलेज या यूनिवर्सिटी खोल लेते हैं।
लग्जरियस इंफ्रास्ट्रक्चर, फर्जी आंकड़े, फर्जी सूचनाओं एवं दलालों के सहारे कालाबाजारी कर “इन्टेक” पूरा करते हैं। इस प्रक्रिया में दूर दराज के छात्रों को बहला फुसलाकर सुनहरे सपने दिखा कर उन्हें संस्थाओं में एजेंट को मोटी रकम देकर एडमिट किया जाता है। फिर उनकी पढ़ाई लिखाई के लिए अकुशल शिक्षक ( हालांकि कागजी आंकड़ों में ये संस्थान उच्चशिक्षित शिक्षक दिखाते हैं जो अधिकतर उस संस्थान के निरीक्षण के समय भौमिक सत्यापन हेतु मौजूद रहते हैं और निश्चित रकम लेते हैं) रखे जाते हैं। ये अकुशल शिक्षक या तो ” फ्रेशर” होते हैं, अल्प जानकारी रखने वाले या कम वेतन पर काम करने को “विवश” लोग। मजे की बात तो यह है कि निजी संस्थाओं में हाई डिग्री होल्डर के ऊपर हमेशा निकले जाने की तलवार लटकती रहती है क्योंकि संस्थान के मालिक को मनोवैज्ञानिक भय होता है की हाई प्रोफाइल टीचर उसके कंट्रोल में नहीं आएगा और अधिक वेतन की मांग करेगा। इसलिए ये लोग साक्षात्कार के दौरान ही हाई क्वालिफाइड कैंडिडेट को पहले से बाहर कर देते हैं। इस प्रकार एक अकुशलता का चक्र बनता है। अकुशल शिक्षक के अध्यापन से जो छात्र तैयार होंगे वो भी गुणवत्ता विहीन होंगे और जब ये क्षेत्र में काम करने जाएंगे चाहे वह उत्पादन हो या सेवा क्षेत्र वहां भी गुणवत्ता मानकों से नीचे ही रहेगी। परिणाम यह होगा कि इनके द्वारा निर्मित उत्पाद या दी गई सेवा राष्ट्रीय/ अंतराष्ट्रीय मानकों पर खरी नहीं उतरेगी और प्रतिद्वंदिता में कहीं पीछे छूट जाएगी। इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा और अर्थव्यवस्था दबाव में आ जाएगी। पुनश्च बड़े पैमाने पर छंटनी की प्रक्रिया में ये अकुशल लोग भारी मात्र में निकाले जाते हैं जो अनुभव के आधार पर किसी न किसी निजी शैक्षणिक संस्था में फिर पढ़ाने का कार्य करने लगते हैं वो भी कम वेतन पर। फिर वही विदक्षता का दुष्चक्र। इस प्रक्रिया में अच्छे शिक्षकों को नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। यह ठीक उसी तरह से है कि ब्लैक मनी, व्हाइट मनी को चलन से बाहर कर देता है।
यहाँ एक बात और गौर करने लायक है कि इन संस्थाओं में कार्यरत शिक्षक एवं संस्था प्रमुख के बीच सामंत और दास जैसा रिश्ता होता है शिक्षक चाहे कितना भी प्रशिक्षित और योग्य हो संस्था प्रमुख हमेशा उसे हिकारत से देखता है। कई बार उसे उसकी हैसियत याद करवाता है। सारा का सारा खेल मुनाफे का है। कुल मिलाकर चाटुकारिता भ्रष्टाचार के सहारे पूंजीपतियों ने शिक्षा व्यवस्था को अत्यंत दूषित एवं भ्रष्ट कर दिया है जो पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और बिगड़ी अर्थव्यवस्था का मूल कारण है।
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डॉ. पवन विजय,
ग्रेटर नोएडा में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं एवं एक्टिविस्ट हैं।
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