शुक्रवार, 23 मई 2014

गंगा की सफाई का खोखला दावा मोदी का


लखनऊ। सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) जो पश्चिमी देशों की “ग्रीन पार्टी” के तर्ज़ पर पर्यावरण को विकास से मूलत: जुड़ा हुआ मानती है और भारत की ग्रीन पार्टी के रूप में पहचान दर्ज कर रही है, उसका मानना है कि भाजपा के प्रधान मंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी कोई पहले व्यक्ति नहीं जो गंगा की सफाई की बात कर रहे हैं। यह बात अरविंद केजरीवाल भी कर चुके हैं औरराजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान की 1986 में शुरुआत करके की थी।
सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ संदीप पाण्डेय और यूपी राज्य अध्यक्ष गिरीश कुमार पांडे ने कहा यदि मोदी या केजरीवाल गंगा के मुद्दे पर सच में संवेदनशील हैं तो बनारस के सबसे महत्वपूर्ण पानी के मुद्दे पर उभरे जन संघर्ष पर दोनों ने भूमिका क्यों नहीं ली है? मेहंदीगंज स्थित कोका कोला संयंत्र जो बरसों से अनियंत्रित जल दोहन कर रहा है और पानी को स्थानीय किसानों और बुनकरों की पहुँच से बाहर कर दिया है, उसपर क्यों दोनों मोदी और केजरीवाल चुप हैं?
सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि मोदी का दावा खोखला है कि जैसे उन्होंने गुजरात में साबरमती नदी (371 किमी) की सफाई की उसी तरह गंगा (3000 किमी) की सफाई भी कर देंगे। गंगा पर जो जनसंख्या या गंदगी का दबाव है क्या हम उसकी साबरमती से तुलना भी कर सकते हैं?
साबरमती की सफाई की हकीकत:
सोशलिस्ट पार्टी का कहना है कि असल में मोदी का उद्देश्य साबरमती नदी को साफ करना नहीं था बल्कि शहरी मध्यम वर्ग के मनोरंजन के लिए एक रिवर फ्रंट बनाना था। पर साबरमती में पानी कम और गंदा था। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पिछले सालों के आंकड़ों के अनुसार, साबरमती का बीओडी स्तर 103 एमजी/लिटर अधिकतम, और क्लोरीफ़ोर्म स्तर 500 एमपीएन था।
इस समस्या का समाधान मोदी ने यह निकाला कि गांधीनगर, गुजरात की राजधानी जो अहमदाबाद से सटी हुई साबरमती के ऊपरी छोर पर स्थित है, के पास से गुजर रही नहर, जिसमें नर्मदा नदी का पानी बहता है, का पानी साबरमती नदी में डाल दिया। तो असल में साबरमती में नर्मदा नदी का पानी है। नर्मदा एक बड़ी और साफ नदी है। इसके किनारे जबलपुर के अलावा कोई बड़ा शहर नहीं और न ही कोई प्रदूषण करने वाले बड़े उद्योग हैं। गुजरात में तो साबरमती में डालने के लिए नरेन्द्र मोदी को नर्मदा का साफ पानी मिल गया, जो असल में गुजरात के किसानों के लिए था, किंतु गंगा को साफ करने के लिए वे कहां से पानी लाएंगे?
डॉ. संदीप पांडेय ने कहा कि साबरमती नदी के निचले छोर वासणा में एक बराज बनाकर नदी का पानी रोक लिया गया है ताकि अहमदाबाद शहर के निवासियों को नदी में ज्यादा पानी दिखाई पड़े। देखा जाए तो अहमदाबाद शहर में साबरमतीनदी नहीं, 10.6 किमी की एक झील बन गई है। अहमदबाद शहर का गंदा पानी और उद्योगों का प्रदूषित पानी नदी के निचले छोर पर वासणा बराज के बाद छोड़ा जाता है जिससे नदी अहमदबाद शहर में साफ दिखाई पड़े। लेकिन अहमदबाद शहर के नीचे जो क्षेत्र है उसके लिए साबरमती शायद गंगा से भी ज्यादा प्रदूषित है क्योंकि गुजरात में उद्योग धंधे ज्यादा हैं। साबरमती रिवर फ्रंट बनाते समय नदी के किनारे झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले तमाम लोगों को उजाड़ा गया, वे कहां गए मालूम नहीं? इतना तो तय है कि एक बड़ी संख्या में लोग बेघर होंगे और अपनी आजीविका से हाथ धो बैठेंगे।
नेता द्वय ने कहा कि मायावती के निकट सहयोगी सतीश चंद्र मिश्र को भी यह भूत सवार हुआ कि साबरमती रिवर फ्रंट की तर्ज पर लखनऊ में गोमती के किनारे रिवर फ्रंट बने। रिवर फ्रंट बनाने के दिशा में पहली कार्यवाही यह हुई किसैकड़ों परिवारों के ऊपर 2009 में बुलडोजर जरूर चल गया। तो जिसको मोदी विकास के एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं वह बहुत सारे लोगों के लिए विनाश साबित होगा। यह मोदी के गुजरात मॉडल की सच्चाई है। मोदी ने साबरमती की तर्ज पर गंगा को साफ करने की बात ऐसे कही है मानों प्रकृति पर उनका बस चलता है। यह उनके अहंकार के साथ-साथ समझ की कमी को भी उजागर करता है।

प्रतिरोध की सबसे मुखर आवाजों में से एक हैं साईबाबा


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शाहनवाज मलिक
अपने करियर में जीएन साईबाबा को थ्रूआउट स्कॉलरशिप मिली। सेंट्रल यूनिवर्सिटी में नौकरी मिल गई थी। ठाठ से पूरी फैमिली की जिंदगी कटती लेकिन साईबाबा ने ऐसा नहीं किया। साईबाबा प्रतिरोध की सबसे मुखर आवाजों में से एक हैं। दोनों पैर नहीं होने के बावजूद कश्मीर-नॉर्थ ईस्ट, दलित-आदिवासी अधिकारों पर उनका कमिटमेंट देखते बनता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि साईबाबा इन्हीं सताए गए लोगों के बीच से आते हैं।
घर में बिजली नहीं थी। पिता तीन एकड़ की जमीन पर चावल उगाते थे। साईबाबा जब 10 साल के हुए तो तीन एकड़ जमीन भी साहूकार हड़प कर बैठ गया। गरीबी का आलम यह था कि ट्रेन पहली बार ग्रेजुएशन के बाद देखी। जब अपने कस्बे अमलपुरम से हैदराबाद आगे की पढ़ाई करने जा रहे थे। ट्रेन पर चढ़ने का किराया किसी और ने दिया था। व्हील चेयर उस वक्त नसीब हुई जब 2003 में दिल्ली आए। उसके पहले ज़मीन पर रेंगते हुए या सहारे से चलते थे। कदम-कदम पर एडमिशन के ऑफर थे लेकिन मास्टर्स में एंट्रेंस फीस किसी और ने भरी।
नब्बे के दशक में जब मंडल की आग फैल रही थी, तब साईबाबा देशभर का दौराकर रिजर्वेशन की जरूरत और उसकी अहमियत बता रहे थे। लिबरेशन के लिए कश्मीर से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक और दलितों-आदिवासियों के लिए सुदूर जंगलों में कई हजार किलोमीटर की यात्रा की। साईबाबा ने अपनी आंखों ने इस देश में जड़ कर गई गैरबराबरी को देखा और महसूस किया। तभी खुलकर कहने का यह साहस रखते हैं कि हां, मैं माओवादी विचारधारा से प्रेरित हूं। सरकार से लेकर पुलिस तक सभी को बताया। इसके पक्ष में खुलकर लिखा। लेकिन साथ में यह भी कहा कि मैं विचारधारा से माओवादी हूं। माओवाद के नाम पर जंगलों में सशस्त्र क्रांति कर रहे लड़ाकों के तौर-तरीकों से उनका कोई लेना-देना नहीं और ना ही कोई संपर्क है।
साईबाबा को यह सब कहने का साहस देश के लोकतांत्रिक ढांचे से मिला था। अगर इस तरह गिरफ्तारियां होती रहीं तो फिर इस ढांचें में किसका यकीन रह जाएगाजिस टाइमिंग पर साईबाबा की गिरफ्तारी हुई हैवह सुनियोजित है। सबका ध्यान काशी पर लगा हुआ है। फिर साईबाबा के बारे में कौन बात करेगा। लेकिन याद रहे अभी तक साईबाबा पूरी ताकत से चीखते हुए अपना पक्ष रखते थे, भविष्य में औरों को मिमियाने की भी इजाजत नहीं होगीपक्ष रखना तो दूर की कौड़ी होगी।

About The Author

शाहनवाज मलिक, लेखक युवा पत्रकार हैं।
 उन की फेसबुक टाइमलाइन से साभार

मोदी-केजरीवाल के न्याय युद्द में तब्दील हो चुका है बनारस

इस बार खूब बंटी गंजी,टोपी,जूते। खूब बांटे गये विज्ञापन। स्टीकर पोस्टर से पट गये शहर दर शहर। नारों ने जगाये सपने। लगता है अच्छी होगी वोट की फसल। बीएचयू के लॉ फैक्लटी की दीवार पर चस्पां यह पोस्टर बनारस के चुनावी हुडदंग की अनकही कहानी बया करता है। जो नेता भी बनारस के जमीन पर पैर रखने से कतराये और उड़नखटोले से बनारस के बाबतरपर से सीधे बीएचयू के हैलीपैड पर उतरे। बीएचयू उनके लिये बदल गया। और राजनेताओं को संभाले राजनीतिक दल भी छात्रों के लिये बदल गये। जो बांटा गया। जो बंटा । और बांटने के नाम पर जो खा गये। सभी का कच्छा चिट्टा इतना पारदर्शी हो गया कि रिबॉक के जूते से लेकर नारे लिखे गंजी और टोपिया बीएचयू के हॉस्टल में खेलने और पोंछने के सामान बन गये। मोटरसाइकिल पर निकलते काफिले के नारे उतनी ही दूर तक गये जितना पेट्रोल गाड़ी में भरवाया गया। आवाज भी लंका चौक पर नेताओं के हार से छुपी पड़ी मदनमोहन मालवीय की प्रतिमा से आगे नहीं गूंजी। लेकिन शहर के भीतर घाट के सवाल। या फिर पप्पू चाय की दुकान पर चर्चा का उबाल। संकेत हर तरफ यही निकला कि गंगा को जिसने बुलाया वह गंगा के तट पर क्यों नहीं गया। जो मोदी के नाम पर बनारस आ गया, वह गंगा के तट पर बार बार गया। सवाल यह भी उठे कि बनारस के सरोकार से दूर बनारस के इतिहास के आइने में हर कोई चुनावी कहकहरा पढ़ाकर इतिहास बदलने की सोच से क्यों हंगामा कर रहा है। बनारस के सिगर में सिर्फ पांच सौ मीटर के दायरे में कमोवेश हर राजनीतिक दल के हेडक्वार्टर के भीतर बनारसी से ज्यादा बाहरी की तादाद क्यों है। बनारस की सड़कों पर हाथ में झाडू लिये प्रचारकों को संघ के प्रचारक से पॉलिटिसिशन बन चुके मोदी के भक्त पीटने से नहीं कतराते है और पिटने के बाद भी हाथ ना उठाने की कसम खा कर निकले झाडू थामे प्रचारक खामोशी से घायल होकर आगे बढ़ जाते हैं। शहर में कोई स्पंदन नहीं होता, वह देखता है। शायद दिल में कुछ ठानता है। क्योंकि वक्त खामोश रहने का है।

घर घर दरवाजा खटखटाते प्रचारक या तो कमल लिये हैं या फिर झाडू। कोई गुजरात से आया है तो कोई दिल्ली से। बनारसी हर कतार को सिर्फ गली दिखाता है। खुद गली के मुहाने पर खडा होकर सिर्फ निर्देश देता है। उनसे यह कह देना। बाकि कोई परेशानी हो तो बताना। हम यही खड़े हैं। और चाय या पान के जायके में बनारसी प्रचारक इसके आगे सोचता नहीं। जबकि अपने अपने शहर छोड बनारस की गलियों को नापते लोग सिर्फ यही गुहार  लगाते हैं। बनारस इतिहास बदलने के मुहाने पर खड़ा है। फैसला लेना होगा । घर से इसबार वोट देने जरुर निकलना होगा। हाथ में स्टीकर या नारों की तर्ज पर पोस्टर बताने लगते है कि दिल्ली से आया केजरावाल बनारस के रंग में रंग रहा है। और बनारस का होकर भी बीजेपी गुजरात के रंग को छोड नहीं पा रहा है। कमल के निशान के साथ सिर्फ एक लकीर, मोदी आनेवाले हैं। या फिर इंतजार खत्म। मोदी आनेवाले है। वहीं झाडू की तस्वीर तले, मारा मुहरिया तान के झाडू के निशान पे। या फिर १२ मई के दिन हौवे, झाडू के निशान हौवे। बदले मिजाज समाजवादियों के भी हैं। पर्ची में अब नेता नहीं आपका सेवक लिखा गया है। लेकिन लड़ाई तो सीधी है। २८४९३ लैपटॉप बांटॉने का नंबर बताकर अखिलेश की तस्वीर वोट मांगती है। या पिर नेताजी की तस्वीर तले ४८२९१३६ बेरोजगारों का जिक्र कर उन्हें भत्ता देने की बात कहकर उपलब्धियों से आगे बात जाती नहीं। लेकिन इन्ही तरीकों ने पहली बार बनारस को एक ऐसे संघर्ष के मुहाने पर ला खडा किया है जहा बनारस का रस युद्द का शंख फूंकता कुरुक्षेत्र बन चुका है। चुनावी लीला है तो मोदी केजरीवाल आमने सामने खड़े हुये हैं। यूपी के क्षत्रप हार मान चुके है । जातीय समीकरम टूट रहे है। तो मुलायम हो या मायावती, दोनो ही केजरीवाल का साथ देने से नही कतरा रहे हैं। तो दोनो के उम्मीदवार अपनो को समझा रहे है इसबार लड़ाई हमारी नहीं हमारे नेताजी और बहनजी के अस्तित्व की है । कभी कभी अपनी ही बिसात
पर वजीर छोड प्यादा बनना पड़ता है। पटेल समाज की अनुप्रिया पटेल भी मिर्जापुर में ब्राह्मणों के वोट अपने पक्ष में करने से हारती दिख रही हैं। तो बीजेपी को साधने से नहीं चुक रही हैं। और चेताने से भी कि ११ बजे के बाद पटेल झाडू को वोट दे देंगे अगर बीजेपी ने ब्राह्मणों के वोट मिर्जापुर में उन्हें ना दिलाये तो। लेकिन इस तो में बनारस की लीला भी बनारस को कुरुक्षेत्र मान कर यह कहने से नहीं चुक रही है कि युद्ध में एक सज्जन के खिलाफ कई दुर्जन जुटे हैं। और न्याय के युद्द में ऐसा ही होता है। लेकिन यह आवाज उन ना तो घाट की है ना ही चाय के उबाल की। यह परिवार के भीतर से आवाज गूंज रही हैं। जो समूचे बनारस में छितराये हुये है। लेकिन परिवार की दस्तक जैसे ही मोदी को चुनावी युद्द का नायक करार देती है वैसे ही राम मंदिर और दारा ३७० का सवाल बनारस की उन्हीं गलियो में गूंजने लगता है जिसे मोदी कहने से कतरा रहे हैं। बनारस बीस बरस बाद दुबारा परिवार की सक्रियता भापं रहा है। वादे बीस बरस पहले भी हुये थे और सत्ता दस बरस पहले भी मिली थी। नगरी एतिहासिक संदर्भो को गर्भ में छुपाये हुये है तो जिक्र इतिहास का चुनावी मौके पर हो सकता है, यह परिवार के लिये बारी है ।

क्योंकि बीजेपी के यूथ तो बूथ में बंटेंगे और परिवार की दस्तक से जो परिवार घर से बूथ तक पहुंचेंगे, वह अपनी किस्सागोई में जब अयोध्या आंदोलन के नाम पर ठहाका लगाने से नहीं चूक रहे, वैसे में परिवार पर भी मोदी का नाम ही भारी है। लेकिन मुश्किल यह है कि बीजेपी का संगठन फेल है। और अगर फेल नहीं है तो मुरली मनमोहर जोशी और राजनाथ के गुस्से या रणनीति ने फेल कर दिया है। और वहीं पर परिवार की दस्तक विहिप से लेकर किसान संघ और गुजरात यूनिट से लेकर दिल्ली समेत १८ शहरों के बीजेपी कार्यकर्ता मोहल्ले दर मोहल्ले भटक रहे हैं। सैकडों को इसका एहसास हो चुका है कि आखिर वक्त तक बनारस में रहना जरुरी है तो कार्यकर्त्ताओं और स्वयंसेवकों के घर को ही ठिकाना बना लिया गया है। कोई प्रेस कार्ड के साथ है तो कोई साधु-संत या पंडित की भूमिका में है। चुनावी संघर्ष की अजीबोगरीब मुनादी समूचे शहर में है। गांव खेड़े में है। करीब तीन सौ गांव में या तो संघ परिवार घर घर पहुंचा या फिर झाडू थामे कार्यकर्ता। जो नहीं पहुंचे उनका संकट दिल्ली या लखनउ में सिमट गया। लखनऊ ने तो घुटने टेक समर्थन देने का रास्ता निकाल लिया है। लेकिन दिल्ली में सिमटी कांग्रेस का संकट राहुल गांधी से ही शुरु हुआ और वही पर खत्म हो रहा है। राहुल के रोड शो का असर कैसे बेअसर रहे इसे चुनाव परिणाम ही बता सकते है। तो दिल्ली में कांग्रेस की सियासत को थामने के लिये बैचेन काग्रेसी नायकों की कमी नहीं है। वैसे में राहुल कांग्रेस को ही बदलना चाहते है। तो कांग्रेसियो के खेल बनारस को लेकर निराले है । काग्रेस का राहुल विरोधी गुट लग गया है कि अजय राय पिछडते चले जाये या हर कोई मोदी और केजरीवाल की लडाई में शामिल हो जाये । यानी पिंडारा के विदायक जिनका अपना वोटबैंक ही परिसीमन के खेल में बनारस से मछलीशहर चला गया और दुश्मन नंबर एक ने समर्थन देकर सामाजिक काया भी तोड दी वह दिल्ली के काग्रेसियो के खेल में सिर्फ लोटा बनकर रह गया है । जिसके आसरे अस्सी घाट पर पानी भी नहाया भी नहंी जा सकता है । तो बनारस के इस रंग में किसके लिये अच्छी होगी वोट की फसल और बनारस कैसे इतिहास रचेगा यह एहसास महादेव की नगरी में चुनावी तांडव से कम नही है ।

इतनी आसानी से अच्छे दिन तो नहीं आने वाले

12 मई को 2014 की संसद के लिए चुनाव का आखिरी दिन और शेयर बाजार का तीसरे हफ्ते का पहला कारोबारी दिन। बाजार में उम्मीदें जैसे किसी अंतरिक्षयान की गति से उछाल मार रही हैं। सोमवार को शेयर बाजार ने फिर से नई ऊंचाई पा ली है। सारी उम्मीद नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार पर टिकी है। सेंसेक्स साढ़े तेईस तो निफ्टी सात हजार पर पहुंच गया है। छे साल से भी ज्यादा समय के बाद शेयर बाजार में इस तरह की तेजी देखने को मिली है। पिछले चार-पांच सालों से इक्कीस हजार पर अंटका सेंसेक्स शुक्रवार को तेईस हजार के पार चला गया। हालांकि, तेईस हजार के ऊपर बंद होने में सेंसेक्स कामयाब नहीं हुआ लेकिन, सेंसेक्स करीब तेईस हजार पर बंद हुआ ये कहा जा सकता है। एक दिन में साढ़े छे सौ प्वाइंट से ज्यादा सेंसेक्स चढ़ गया। लेकिन, क्या ये तेजी निवेशकों के लिए पुराने अच्छे दिन लौटाने वाली है। अगर शेयर बाजार के अनुमान की मानें तो भारतीय जनता पार्टी के चुनावी नारे अच्छे दिन आने वाले हैं की तर्ज पर बाजार के भी अच्छे दिन आने वाले हैं। अब इस बाजार के अनुमान को मानें तो नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार बनने वाली है। और जो बाजार अभी तक अकेले भारतीय जनता पार्टी के 200 के अंदर रहने और मुश्किल से एनडीए बनाकर सरकार का उम्मीद में था। वो बाजार अचानक अकेले भारतीय जनता पार्टी के ही 210-240 सीटों के जीतने का अनुमान लगा रहा है और इसी आधार पर आसानी से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार बनने की उम्मीद कर रहा है। मई महीने के दूसरे हफ्ते के आखिरी कारोबारी दिन जब दुनिया से किसी तरह का कोई संकेत नहीं था। सिर्फ इसी एक संकेत कि नरेंद्र मोदी मजे से  सरकार बना लेंगे। भारतीय शेयर बाजार ने वो छलांग लगा दी जिसके ट्रेडर, ब्रोकर लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। बाजार को अनुमान  ये है कि नरेंद्र मोदी की सरकार बनेगी और ढेर सारे वो रुके हुए फैसले ले लिए जाएंगे जिसके न लागू होने की वजह से दुनिया की रेटिंग एजेंसियां भारत में निवेश को जोखिम बताने लगी थीं। बाजार को उम्मीद है कि मोदी ऐसे फैसले लेंगे जिससे भारत के कारोबारी देश में तेजी से औद्योगिक गतिविधि बढ़ा सकेंगे। बुनियादी परियोजनाओं के पूरा होने में कोई रुकावट नहीं आएगी। यूपीए दो के दौरान सरकार पर जो लगातार पॉलिसी पैरलिसिस का आरोप लगता था वो, खत्म हो जाएगा। बाजार इसी आधार पर दौड़ लगा चुका है। बाजार में ये सब कुछ हुआ है मई महीने के दूसरे हफ्ते में। और मई महीने के तीसरे हफ्ते यानी 16 मई को ये तय हो जाएगा कि बाजार की उम्मीदें कितनी पूरी होंगी। मतलब नरेंद्र मोदी आसानी से सरकार बना पाएंगे या नहीं।

चलिए एक बार मान लेते हैं कि 16 मई को जब ईवीएम खोले जाएंगे तो ढेर सारे कमल निशानों के साथ नरेंद्र मोदी सरकार बनाने के लिए रायसीना हिल्स की ओर बढ़ जाएंगे। ये भी मान लेते हैं कि नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी को अकेले 230-240 और बची सीटें आसानी से एनडीए के साथ पूरी हो जाएंगी। नरेंद्र मोदी की वो सरकार बन जाएगी। जो ये कह रही है कि अच्छे दिन आने वाले हैं। अब जरा ये बात कर लें कि अच्छे दिन आने का मतलब क्या। मोटा-मोटा पांच बातें अगर हो जाएं तो मुझे लगता है कि देश के लोग ये
मानने लगेंगे कि अच्छे दिन आ गए हैं। सबसे पहले महंगाई कम हो जाए। महंगाई मतलब- सब्जी, अनाज और दूसरी रोज की खाने-पीने चीजें उन्हें सस्ती मिलें। फिर क्या उद्योगों को भरोसा लौटे और वो देश में आसानी से अपने उद्योग लगा चला सकें। फिर क्या कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर अच्छा करने लगे। मतलब कारें, एसी, फ्रिज खूब बिकें। और क्या हो वो ये कि लोगों को सस्ता कर्ज मिले।  सस्ती ब्याज दरों पर घर, गाड़ी खरीद सकें। बुनियादी सुविधाएं यानी सड़क, बिजली, पानी की सहूलियत आसानी से मिल सके। और इस सबके लिए सबसे जरूरी कि ढेर सारे रोजगार के मौके बनें। जिससे लोगों की कमाई बढ़े और वो इस तरह से खर्च कर सके, बचा सके कि देश की तरक्की की रफ्तार यानी जीडीपी के आंकड़े दुरुस्त हो सकें।

अच्छी बात ये है कि यूपीए दो की सरकार सारी आलोचनाओं के बाद अपने पीछे अच्छा विदेशी मुद्रा भंडार खजाने में छोड़कर जा रही है। लेकिन, दूसरी देश की ऐसी समस्याएं और गंभीर हुई दिख रही हैं जिसको आधार बनाकर नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि उनकी सरकार बनाइए तो अच्छे दिए आएंगे। सबसे ज्यादा चोट पड़ी है तो भारतीयों पर महंगाई की। महंगाई का आलम ये रहा है कि पिछले तीन सालों से हर बार जब महीने का सामान खरीदने के लिए भारतीय निकलता है तो उसे पहले से ज्यादा रकम चुकानी पड़ी है। रोज की जरूरत के सामान तेजी से महंगे हुए हैं। आटा, दाल, चावल, सब्जी, दूध और दूसरी सारी जरूरी चीजें तेजी से महंगी हुई हैं। हर तीसरे महीने अखबारों में विज्ञापन देकर दूध कंपनियां दूध के दाम एक-दो रुपया बढ़ाने के तर्क पेश करती हैं। और सबसे बड़ी बात ये रही है कि यूपीए एक हो या दो- दोनों ही कार्यकाल में देश में मॉनसून बेहतर रहा है और खाद्यान्न के मामले में भारत की स्थिति बहुत अच्छी रही है। इसके बावजूद सरकार अनाज, फल, सब्जी, दूध की कीमत काबू में नहीं कर सकी। और प्याज की कीमतों पर तो कोहराम मचा। अब सवाल ये है कि नरेंद्र मोदी इस मोर्चे पर क्या आसानी से काबू पा लेंगे। तो इसका जवाब नहीं में हैं। क्योंकि, अभी तक जो मौसम का हाल रहा है वो, साफ दिखा रहा है कि इस साल मॉनसून सामान्य से कम हो सकता है जिसका सीधा सा मतलब होगा कि खेती पर बुरा असर पड़ेगा। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की हालत का अंदाजा लगाइए कि ताजा कारों की बिक्री का आंकड़ा बढ़ने के बजाए करीब दस प्रतिशत कम बता रहा है। मतलब लोगों की जेब में कारें खरीदने के पैसे नहीं हैं। वो भी तब जब दुनिया की हर कार कंपनी भारतीयों को लुभाने के लिए ढेर सारे नए मॉडल हर महीने ला रही है। देश में महंगे कर्ज की वजह से औद्योगिक घरानों को अपनी विस्तार योजना रोकनी पड़ी है। इससे देसी निवेश बुरी तरह प्रभावित हुआ है। घर खरीदने के लिए ग्यारह प्रतिशत के आसपास और गाड़ी खरीदने के लिए लोगों को साढ़े बारह प्रतिशत से ज्यादा ब्याज देना पड़ रहा है। इसकी वजह से रियल एस्टेट सेक्टर में जबर्दस्त ठहराव आ गया है। दिल्ली, मुंबई के बाजार में साल भर पहले के भाव अभी भी थोड़ा खोजने पर मिल जा रहे हैं। डेवलपर भी फंड की वजह से अपने चल रहे प्रोजेक्ट को पूरा नहीं कर पा रहे हैं और नए प्रोजेक्ट शुरू ही नहीं कर पा रहे हैं। अब रियल एस्टेट सेक्टर को उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी आएंगे तो इस सेक्टर में तेजी आएगी लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिस तरह की नीतियां भारत सरकार की रियल एस्टेट सेक्टर के लिए उसमें डर यही है कि 16 मई के बाद की रियल एस्टेट की तेजी सिर्फ बुलबुला होगी, काला धन बढ़ाने वाली होगी। वो फायगा करेगी तो रियल एस्टेट डेवलपर्स का। उससे देश की जीडीपी में खास बेहतरी नहीं होने वाली। जीडीपी की बेहतरी की चिंता इसलिए कि जीडीपी ग्रोथ यानी तरक्की की रफ्तार इस समय दशक में सबसे कम यानी साढ़े पांच प्रतिशत की है। और इस वित्तीय वर्ष में भी इसी के आसपास ये रफ्तार रहती दिख रही है। क्योंकि, जब तक अगली सरकार, चाहे वो मोदी की हो या किसी और की, काम शुरू कर पाएगी तब तक इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही बीत चुकी होगी और दूसरी तिमाही का आधार भी बन चुका होगा। ऐसे में इस तरक्की की रफ्तार को चमत्कारिक तरीके से बढ़ाना नरेंद्र मोदी या अगली किसी भी सरकार के लिए चुनौती होगी।

बात हमने शेयर बाजार के संकतों से शुरू की थी। इसलिए शेयर बाजार की ही बात फिर से कर लेते हैं और उसके संकेतों को भी ज्यादा गंभीरता से समझने की कोशिश करते हैं। मई के दूसरे हफ्ते में शेयर बाजार में ये जो तेजी देखने को मिली है ये पूरी तरह से उन विदेशी खिलाड़ियों की वजह से है जो एक झटके में अपनी सारी रकम निकालकर किसी दूसरे अच्छे मुनाफा देने वाले ठिकाने की ओर  चल देते हैं। यानी 2008 की ही तरह तेजी से विदेशी निवेशक मुनाफा लेकर भागने लगे तो सेंटिमेंट पर चलने वाले बाजार को बचाना बड़ा मुश्किल होगा। शेयर बाजार की तेजी में जो शेयर सबसे तेजी से भागे हैं उनमें बैंक, पावर और रियल एस्टेट सबसे आगे हैं। हालांकि, अच्छी बात ये है कि मई के दूसरे हफ्ते में आई इस तेजी के नेता वो शेयर हैं जिनके फंडामेंटल्स काफी अच्छे हैं और वो लंबे समय से बाजार में आई कमजोरी की वजह से पिट रहे थे। लेकिन, इसी का दूसरा पहली ये भी है कि शेयर बाजार की इस तेजी में नब्बे प्रतिशत से ज्यादा कंपनियां शामिल नहीं हैं और न ही देसी निवेशक इस तेजी का हिस्सा है। शेयर बाजार में भारतीय देसी निवेशकों की रुचि भी कितनी तेजी से खत्म हुई है इसका अंदाजा लगाने के लिए एक आंकड़ा काफी होगा। इस साल के पहले महीने से मार्च महीने में देसी निवेशकों यानी एनएसडीएल के जरिए ट्रेडिंग अकाउंट खुलवाने वाले करीब आधा प्रतिशत घटे हैं। डर ये कि अगर इस बार 16 मई के बाद 2008 जनवरी वाले हालात हुए तो देसी निवेशक ऐसा भागेंगे कि फिर बरसों ये भरोसा वापस लाने में लग जाएगा। इसलिए शेयर बाजार से मिल रहे अच्छे दिन के संकेतों पर सावधानी बरतने की जरूरत है। नई सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां होंगी फिर चाहे वो अच्छे दिन लाने का दावा करने वाले नरेंद्र मोदी ही क्यों न हों। लालच से बचने की जरूरत है वरना सरकार कोई भी आए लालच अच्छे दिनों को बुरे दिन में बदल देगा। और भारतीय लोकतंत्र है पूरी तरह अनिश्चित। 99 प्रतिशत मोदी की अच्छे दिन वाली सरकार के साथ एक प्रतिशत दूसरी सरकार भी मानें तो देश की भावनाएं जिस तरह से कमजोर होंगी उन्हें उबारना बहुत बड़ी चुनौती होगी।

कल महंगाई, बेरोजगारी के खिलाफ आवाज उठाने वालों को भी पाकिस्तानी एजेंट कहा जाएगा


श्री तिवारी ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर लिखा है कि यह खतरनाक दलील है। कल महंगाई या बेरोजगारी के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों को कहा जाएगा कि ये लोग पाकिस्तानी एजेंट हैं। इसलिये मोदी जैसी राष्ट्रवादी सरकार का विरोध कर रहे हैं। ऐसे लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताकर उन्हें जेलों में बंद कर दिया जाएगा।नई दिल्ली। वरिष्ठ समाजवादी नेता और राज्यसभा सदस्य शिवानंद तिवारी का कहना है कि “मोदी सरकार का सबसे बड़ा खतरा यह विचार धारा है। गिरिराज सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ ही नहीं बोल रहे हैं। उनका मानना है कि मोदी का विरोध करने वाले सभी पाकिस्तान के समर्थक हैं। क्योंकि कि पाकिस्तान नहीं चाहता है कि मोदी इस देश का प्रधान मंत्री बने। देश में जो भी मोदी का विरोध कर रहा है वह पाकिस्तान का काम कर रहा है। इसलिये ऐसे लोगों की जगह हिन्दुस्तान में नहीं बल्कि पाकिस्तान में है।“
वरिष्ठ समाजवादी नेता ने लिखा है “गिरिराज का बयान आश्चर्य जनक नहीं है ।उन्होंने जो कुछ कहा है उस पर उनको यकीन है।ऐसा यकीन केवल उनका ही नहीं है।इसके पहले तगोड़िया का भाषण भी सब लोग सुन चुके हैं। आज ही आचार्य धर्मेन्द्र का भाषण भी छपा है। गांधी को तो भरपेट उन्होंने गरिया ही है। उनका यह भी कहना है कि इस देश में जो भगवान को नहीं मानता है उसको गोली मार दी जानी चाहिये।पता नहीं भगवधारी धर्मेन्द्र ने चार्वाक या अनिश्वरवादी लोकायत दर्शन का नाम सुना है या नहीं।ये विश्व हिन्दू परिषद में महत्वपूर्ण ओहदे पर हैं।
इस खतरे से सावधान हो जाने की जरूरत है। लोगों को भी समझ लेना चाहिए। अभी सरकार बनी नहीं है, लेकिन जहर की बोली निकलने लगी है। मोदी को महंगाई रोकने, रोजगार पैदा करने तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए वोट मिला है, लोगों को पाकिस्तान भेजने के लिए नहीं।“

प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूटखसोट को हरी झंडी देना कारपोरेट केसरिया राज की सर्वोच्च प्राथमिकता होगी

-पलाश विश्वास
सबसे पहले एक खुशखबरी। हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े को मैसूर में कर्नाटक ओपन यूनिवर्सिटी से मानद डीलिट की उपाधि दी गयी है। हम उम्मीद करते हैं कि इससे उनकी कलम और धारदार होगी और वे निरंतर संवाद की पहल करते रहेंगे। दीक्षांत समारोह में अपने संबोधन में आनंद ने उच्च शिक्षा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और ज्ञान बाजार के खिलाफ युद्धघोषणा की है। हमने अंग्रेजी में उनके मूल वक्तव्य और दक्षिण भारत के अखबारों में व्यापक कवरेज पहले ही साझा कर दिया है। यह सामग्री हिंदी में आने पर इसपर भी हम संवाद की कोशिश करेंगे। आनंद जी को हमारी बधाई।

हमारे गांधीवादी अग्रज, ख्यातिलब्ध हिमांशु कुमार की ये पंक्तियां शेयरबाजारी जनादेश के मुखोमुखी देश में हो रहे उथल पुथल को बहुत कायदे से अभिव्यक्त करती हैं। हम हिमांशु जी के आभारी है कि जब हमें मौजूदा परिप्रेक्ष्य में चौराहे पर खड़े मुक्तिबोध के अंधेरे को जीने का वर्तमान झेलना पड़ रहा है, तब उन्होंने बेशकीमती मोमबत्तियां सुलगा दी है। कांग्रेस को क्या एक किनारे कर दिये गये प्रधानमंत्री के दस साला अश्वमेधी कार्यकाल में हम फिर सत्ता में देखना चाहते थे, अपनी आत्मा को झकझोर कर हमें यह सवाल अवश्य करना चाहिए। क्या हम धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील राजनीतिक खेमे के पिछले सत्तर साला राजनीतिक पाखंड से ऊबे नहीं हैं अब तक और नवउदारवादी साम्राज्यवादी नस्ली जायनवादी कारपोरेट राज में सत्ता शेयर करने खातिर मेहनतकश सर्वस्वहारा बहुसंख्य भारतीयों के खिलाफ उनके संशोधनवादी दर्शन को हम तीसरा विकल्प मानकर चल रहे थे, हकीकत की निराधार जमीन पर, इसका आत्मालोचन भी बेहद जरूरी है।

फिर क्या हम उन सौदेबाज मौकापरस्त अस्मिता धारक वाहक क्षत्रपों से उम्मीद कर रहे थे कि कल्कि अवतार के राज्याभिषेक को वे रोक देंगे और हर बार की तरह चुनाव बाद या चुनाव पूर्व फिर तीसरे चोथे मोर्चे का ताजमहल तामीर कर देंगे, इस पर भी सोच लें।या फर्जी जनांदोलन के फारेन फंड, टीएडीए निष्णात एनजीओ जमावड़े से हम उम्मीद कर रहे थे कि वे फासीवाद का मुकाबला करेंगे विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, यूरोपीय समुदाय के सीधे निर्देशन और नियंत्रण में और मौजूदा भ्रष्ट धनपशुओं के करोड़पति तबके के खिलाफ भारतीय जनता के गहरे आक्रोश, सामाजिक उत्पादक शक्तियों और खास तौर पर छात्रों, युवाजनों और स्त्रियों की बेमिसाल गोलबंदी को गुड़गोबर कर देने के उनके एकमात्र करिश्मे, प्रायोजित राजनीति के एनजीओकरण से हम अपनी मुक्ति का मार्ग तलाश रहे थे।

असल में हमने धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण की आग को हवा देकर कल्कि अवातर के लिए पलक पांवड़े बिचाने का काम किया चुनाव आने तक इंतजार करते हुए वोट समीकरण के अस्मिता पक्ष की गोलबंदी पर दांव लगाकर,जमीन पर आम जनता की गोलबंदी की कोशिश में कोई हरकत किये बिना। संविधान पहले से देश के वंचित अस्पृश्य बहिष्कृत भूगोल में लागू है ही नहीं। कानून का राज है ही नहीं। नागरिक मानव और मौलिक अधिकारों का वजूद है नहीं। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साला मताधिकार है। सारा कुछ बाजार में तब्दील है। पूरा सत्यानाश तो पिछले तेइस साल में हो ही चुका है। कल्कि अवतार बाकी अधूरे बचे कत्लेआम एजेंडे को अंजाम देंगे, बिना शक। लेकिन राष्ट्र व्यवस्था का जो तंत्र मंत्र यंत्र है, उसमें वैश्विक जायनवादी मनुस्मृति व्यवस्था के इस साम्राज्य में कल्कि अवतरित न भी होते तो क्या बच्चे की जान बच जाती, इसे तौलना बेहद जरुरी है। खासकर तब जब जनादेश से तयशुदा खारिज कांग्रेस की सरकार जिस तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से लेकर पूंजी के हित में ताबड़तोड़ फैसले थोप रही है एकदम अनैतिक तरीके से जाते जाते, समझ लीजिये कि यह सरकार वापस लौटती तो अंजामे गुलिस्तान कुछ बेहतर हर्गिज नहीं होता।

हमने आगे की सोचा ही नहीं है और इस दो दलीय कारपोरेट राज को मजबूत बनाते तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़ने के सिलसिले में अब तक कोई पहल ही नहीं की है। शेयरबाजारी मीडिया सुनामी के मध्य कल्कि अवतार के राज्याभिषेक के इंतजार में पलक पांवड़े बिछाये धर्मोन्मादी पैदल सेनाओं के मुकाबले जनविरोधी कांग्रेस की शर्मनाक विदाई पर विलाप करने वाले हमारे लोग दरअसल एक समान हैं जो जाने अनजाने इस कारपोरेट कारोबार को जारी रखना चाहते हैं। तानाशाही है, तो लड़ना होगा साथी। लेकिन हम पिछले सात दशकों में मुफ्त में मिली आजादी की विरासत को लुटाने के सिवाय राष्ट्रहित में जनहित में जनता के मध्य किसी तरह की कोई पहल करने से नाकाम रहे और हर बार वोट के फर्जी हथियार से तिलिस्म तोड़ने का सीधा रास्ता अख्तियार करके अंततः अपने ही हित साधते रहे। अपनी ही खाल बचाते रहे।

तानाशाह कोई व्यक्ति हरगिज नहीं है, तानाशाह इस सैन्य राष्ट्र का चरित्र है, जिसने लोकगणराज्य को खा लिया है। फासीवादी तो असल में वह कारपोरेट राज है जिसे बारी बारी से चेहरे भेष और रंग बदलकर वर्स्ववादी सत्तावर्ग चला रहा है और हम भेड़धंसान में गदगद वधस्थल पर अपनी गरदन नपते रहने का इंतजार करते हुए अपने स्वजनों के खून से लहूलुहान होते रहे हैं। प्रतिरोध के बारे में सोचा ही नहीं है। इससे पहले हम लिख चुके हैं लेकिन हिमांशु जी की इन पंक्तियों के आलोक में फिर दोहरा रहे हैं कि अगर आप नजर अंदाज कर चुके हैं तो फिर गौर करने की कोशिश जरूर करें-

मुसलमानों का अल्लाह एक है। उपासना स्थल एक है। उपासना विधि एक है। अस्मिता उनका इस्लाम है। जनसंख्या के लिहाज से वे बड़ी राजनीतिक ताकत हैं। रणहुंकार चाहे जितना भयंकर लगे, देश को चाहे दंगों की आग में मुर्ग मसल्लम बना दिया जाये, गुजरात नरसंहार और सिखों के नरसंहार की ऐतिहासिक  घटनाओं के बाद अल्पसंख्यकों ने जबर्दस्त प्रतिरोध खड़ा करने में कामयाबी पायी है।
जिस नागरिकता संशोधन विधेयक पर बहुसंख्यकों ने भारत विभाजन के बलि करोड़ों हिंदू शरणार्थियों के देश निकाले के फतवे का आज तक विरोध नहीं किया, मोदी के मुसलमानों के खिलाफ युद्धघोषणा के बाद उस पर चर्चा केंद्रित हो गयी है।

अब हकीकत यह है कि कारपोरेट देशी विदेशी कंपनियों की पूंजी जिन आदिवासी इलाकों में हैं, वहां आदिवासियों के साथ हिंदू शरणार्थियों को बसाया गया। इन योजनाओं को चालू करने के लिए हिंदुओं को ही देश निकाला दिया जाना है, जैसा ओडीशा में टाटा, पास्को, वेदांत साम्राज्य के लिए होता रहा है। आदिवासी  इलाकों में मुसलामानों की कोई खास आबादी है नहीं। जाहिर है कि इस कानून के निशाने पर हिंदू शरणार्थी और आदिवासी दोनों हैं। कल्कि अवतार और उनके संघी समर्थक हिंदुओं को मौजूदा कानून के तहत असंभव नागरिकता दिलाने का वादा तो कर रहे हैं लेकिन नागरिकता वंचित ज्यादातर आदिवासी नागरिकों की नागरिकता और हक हकूक के बारे में कुछ भी नहीं कह रहे हैं। जबकि आदिवासी बहुल राज्यों मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान में केसरिया हुकूमत है जहां बेरोकटोक सलवा जुड़ुम संस्कृति का वर्चस्व है। खुद मोदी गर्व से कहते हैं कि देश की चालीस फीसदी आदिवासी जनसंख्या की सेवा तो केसरिया सरकारें कर रही हैं।

अब विदेशी पूंजी के अबाध प्रवाह, रक्षा,शिक्षा, स्वास्थ्य, उर्जा, परमाणु उर्जा, मीडिया, रेल मेट्रो रेल, बैंकिंग, जीवन बीमा,विमानन, खुदरा कारोबार समेत सभी सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, अंधाधुंध विनिवेश और निजीकरण के शिकार तो धर्म जाति समुदाय अस्मिता और क्षेत्र के आर पार होंगे। खेत और गांव तबाह होंगे तो न हिंदू बचेंगे, न मुसलमान, न सवर्णों की खैर है और न वंचित सर्वस्वहारा बहुसंख्य बहुजनों की। इस सफाये एजंडे को अमला जामा पहवनाने के लिए संवैधानिक रक्षा कवच तोड़ने के लिए नागरिकता और पहचान दोनों कारपोरेट औजार है। अब खनिजसमृद्ध इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूटखसोट की तमाम परियोजनाओं को हरीझंडी देना कारपोरेट केसरिया राज की सर्वोच्च प्राथमिकता है और इसके लिए सरकार को ब्रूट, रूथलैस बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार है । इसके साथ ही पुलिस प्रशासन और सैन्य राष्ट्र की पाशविक शक्ति का आवाहन है। अब मसला है कि हिंदुओं और मुसलमानों, आदिवासियों, तमाम जातिबद्ध क्षेत्रीय नस्ली अस्मिताओं कोअलग अलग बांटकर वोट बैंक समीकरण वास्ते कारपोरेट हाथों को मजबूत करके अग्रगामी पढ़े लिखे नेतृत्वकारी मलाईदार तबका आखिर किस प्रतिरोध की बात कर रहे हैं, विचारधाराओं की बारीकी से अनजान हम जैसे आम भारतवासियों के लिए यह सबसे बड़ी अनसुलझी पहेली है। यह पहेली अनसुलझी है। लेकिन समझ में आनी चाहिए कि इस देश के शरणार्थी हो या बस्ती वाले, आदिवासी हों या सिख या मुसलमान, वे अपनी अपनी पहचान और अस्मिता में बंटकर बाकी देश की जनता के साथ एकदम अलगाव के मध्य रहेंगे और सत्तावर्ग प्रायोजित पारस्पारिक अंतहीन घृणा और हिंसा में सराबोर रहेंगे, तो वध स्थल पर अलग-अलग पहचान, अलग-अलग जाति, वर्ग, समुदाय, नस्ल, भाषा, संस्कृति के लोगों की बेदखली और उनके कत्लेआम का आपरेशन दूसरे तमाम लोगों की सहमति से बेहद आसानी से संपन्न होगी।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

गैस का मूल्य दोगुना करना आम जनता के खिलाफ हिंसा- नागरिक परिषद

काले धन को वापस ले आने के नाम पर राजनीति करने वालों को अंबानी का काला धन नहीं दिख रहा गैस मूल्य वृद्धि से आम आदमी की जिदंगी मुश्किल हो जाएगी -

अंबानी के दबाव में गैस मूल्य दोगुना करने के निर्णय के खिलाफ टैंपो स्टैंड मुंशी पुलिया चौराहा इंदिरा नगर, लखनऊ पर जनहस्ताक्षर अभियान चलाया

लखनऊ, 15 मई 2014। आगामी 17 मई को गैस मूल्यों में होने वाली वृद्धि के खिलाफ नागरिक परिषद ने टैंपो स्टैंड मुंशी पुलिया चैराहा इंदिरा नगर पर जनहस्ताक्षर अभियान चलाया। नागरिक परिषद व विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने पर्चों और स्टीकर के माध्यम से जनजागरुकता की।
आंदोलन का समर्थन करते हुए जन संस्कृति मंच के महासचिव कौशल किशोर ने कहा कि गैस-तेल जनता का है इसके मालिक कैसे कोई अंबानी हो सकते हंै, जिसका मुख्य मकसद मुनाफा कमाना है। सरकार अंबानी के खातों की जांच कराए कि उसने किस तरह से मुनाफाखोरी की है। सरकारें जिस तरह से अंबानी जैसे मुनाफा का कारोबार करने वालों के दबाव में जनविरोधी निर्णय ले रही हैं उससे स्पष्ट है कि सरकार और अंबानी में सांठ-गांठ है। तो वहीं वरिष्ठ लेखक भगवान स्वरुप कटियार ने कहा कि गैस का दाम बढ़ाने की मांग ओएनजीसी या अन्य पब्लिक सेक्टर की कंपनियां नहीं कर रही हैं, यह मांग रिलायंस की है। अगर रिलायंस को गैस निकालने में महगां पड़ रहा है तो आसान सा तरीका है कि उसे गैस निकालने का काम छोड़ देना चाहिए। क्योंकि अगर पब्लिक सेक्टर की किसी कंपनी को कोई दिक्कत नहीं आ रही है तो इससे स्पष्ट है कि अंबानी गैस का दाम बढ़वाकर देश को ब्लैक मेल करना चाहते हैं। अंबानी का यह कृत्य आतंक की श्रेणी में आता है क्योंकि उनकी इस हठ धर्मिता से जनता में त्राहि-त्राहि पहले से ही है और अब वे जनता से उसका निवाला भी छीनने की तैयारी कर रहे हैं।
रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुएब ने कहा कि देश में काले धन को वापस ले आने के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों को अंबानी का काला धन नहीं दिख रहा क्या। जिसने गैस मूल्यों में पहले से वृद्धि कर देश की गरीब जनता को और गरीब बना दिया है। उन्होंने कहा कि जिस देश में जनता प्रति दिन 13 रुपए से कम पर जीवन जीने की जद्दोहद कर रही हो उस देश की सरकार अगर अंबानी के दबाव गैस का दाम दोगुना करती है तो यह सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर हिंसा है, जो कोई लोकतांत्रिक सरकार नहीं कर सकती है।
गोरखपुर टैम्पो-टैक्सी यूनियन के अध्यक्ष देवेन्द्र चन्द्र रायजादा ने गैस मूल्य वृद्धि के खिलाफ चल रहे नागरिक आदोलन का समर्थन करते हुए कहा है कि जिस तरीके से गैस मूल्यों को सरकार सीधे दोगुना करने का निर्णय लिया है उससे स्पष्ट है कि सरकार हम आटो रिक्शा वालों के प्रति नहीं बल्कि अंबानी जैसों के पक्ष में है। उन्होंने कहा कि गैस मूल्य वृद्धि को रोकने के लिए पूरे प्रदेश में आंदोलन चलाया जाएगा। हस्ताक्षर अभियान के दौरान टैम्पो चालक सुभाष शर्मा ने कहा कि पहले से ही गैस के बढ़े मूल्यों की वजह से हमारा जीना दूभर हो गया है। पहले सरकार ने हमें कोई रोजगार नहीं दिया और अब हमारे खुद के बनाए रोजगार को छीनना चाहती है। सरकार को हमारी चिंता नहीं है कि हमारे घरों में चूल्हा जलता है कि नहीं पर अंबानी की चिंता ज्यादा है। उन्होंने कहा कि सरकार और संसद हमारी है या अंबानी की उसे बताना चाहिए।
सामाजिक कार्यकता अरुणा सिंह और ज्योति राय ने कहा कि शहरों में जो प्रवासी मजदूर हैं उनका भोजन बाजार से मिलने वाली गैसों पर निर्भर है। ऐसे में अगर दाम बढ़ाया जाएगा तो इन प्रवासी मजूदरों के सामने कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। तो वहीं छोटे-छोट चाय-रेस्टोरेंट वालों का रोजगार छिन जाएगा, क्योंकि गैस मूल्यों में हो रही दोगुना वृद्धि के बाद जो चाय 5 रुपए से अधिक पहले से ही है उसका दाम 10 रुपए से अधिक हो जाएगा। कौन आम आदमी इस बढ़ी कीमतों को स्वीकार कर पाएगा। उन्होंने मांग की कि सरकार 12 सिलेण्डर की सीमा समाप्त करे।

आज के अभियान में डा0 नरेश कुमार, अजीजुल हसन, कल्पना पाण्डे, मंदाकिनी, किरन सिंह, शालिनी, अरुणा सिंह, मोहम्मद शुएब, इंडियन नेशनल लीग नेता फहीम सिद्दिकी, केके शुक्ला, ज्योती राय, रीतेश चन्द्रा, लता राय, रोहित कुमार, सत्येन्द्र कुमार, महेश देवा, रीता सिंह, अखिलेश सक्सेना, राम कृष्ण, वीरेन्द्र त्रिपाठी और राजीव यादव आदि शामिल रहे।

जनादेश पर टिकी है लखनऊ के खान साहेब और राजकोट के राजू भाई की मुलाकात

पुण्य प्रसून बाजपेयी


खान साहेब ने 6 मई को लखनऊ से बनारस के लिये हवाई जहाज पकडा और 5 दिनो तक बनारस की गलियो से लेकर गांव तक की घूल फांकते रहे कि मोदी चुनाव ना जीते। राजकोट से राजू भाई दिल्ली होकर 7 मई को बनारस पहुंचे और बीजेपी के हर कार्यकर्ता से लेकर बनारस की गलियो में अलक जगाते रहे कि मोजी के जीत के मायने कितने अलग है। खान साहेब के पैसंठ हजार रुपये खर्च हो गये। राजू भाई के भी पचास हजार रुपये फूंक गये। दोनो ने रुपये अपनी जेब से लुटाये। किसी पार्टी ने या किसी उम्मीदवार ने उनके दर्द या खूशी को नहीं देखा या देखने-समझने की जुर्रत नहीं की। दोनो ने भी 12 मई के शाम पांच बजे तक कभी नहीं सोचा कि आखिर वो क्य़ो और कैसे मोदी के विरोध या समर्थन में बनारस पहुंच गये। बस आ गये। और अब लौट रहे है। बनारस हवाई अड्डे पर ही दिल्ली से मुंबई जाने वाले विमान पर लौटते वक्त संयोग से दोनो से मुलाकात हुई। दोनो ने एक दूसरे को लखनउ और राजकोट आने का न्यौता भी दिया। और तय यही हुआ कि जब कोई राजकोट या लखनउ जायेगा तो तीनो वहीं मिलेगें। पहले से बता दिया जायेगा। क्योकि तैयारी पहले से होनी चाहिये तो ही मंजिल मिलती है। यह बात अचानक राजू भाई ने कही तो खान साहेब ने चौक कर कहा। राजू भाई तो इसका मतलब है बनारस से लडना पहले से तय किया गया था। सिर्फ लडना ही नहीं हुजुर जो समूची कवायद मोदी ने की है वह किसी प्रोजेक्ट की तरह थी। आप खुद ही सोचिये अगर ब्लू प्रिट ना होता तो फिर मोदी 45 दिनो में कभी भी पल भर के लिये भटकते नहीं। तो क्या पीएम पद की उम्मीदवारी से लेकर 12 मई की शाम पांच बजे तक का ब्लू प्रिट तैयार था।

खान साहेब सिर्फ प्रचार खत्म होने तक का ही नहीं। पीएम बनते ही क्या-कुछ कैसे करना है। पहले छह महिने में और फिर अगले छह महिने में कौन सी कौन सी प्राथमिकताये है। हर काम का ब्लु प्रिंट तैयार है। तो क्या बाबा रामदेव से लेकर गिरिराज तक के बयान ब्लू प्रिट का ही हिस्सा था। नहीं-नहीं हुजुर। ब्लू प्रिट मोदी ने अपने लिये तैयार किया था।  अब दाये-बांये से चूक हो रही थी तो उनकी जिम्मेदारी कौन लेता। पार्टी ने ली भी नहीं। लेकिन मोदी कही चूके हो या फिर कभी ऐसा महसूस हुआ हो कि मोदी जो चाह रहे है वह नहीं हो रहा है तो आप बताईये। लेकिन राजू भाई यह कहने की जरुरत पड जाये कि हमसे डरे नहीं। या फिर सत्ता में आये तो हर किसी के साथ बराबरी का सलुक होगा। इसका मतलब क्या है। संविधान तो हर किसी को बराबर मानता ही है। और आपने तो सीएम बनते वक्त ही संविधान की शपथ ले ली थी। खान साहेब बीते साठ बरस के इतिहास को भी तो पलट कर देख लिजिये। कौन सत्ता में रहा और किसने बराबरी का हक किसे नहीं दिया। आपको मौका लगे तो इसी गर्मी में दुजरात आईये। आपके यहा लगंडा या मालदा आम होता है। और महाराष्ट्र का नामी है अल्फांसो। इन दोनो आमो की तासिर को मिला दिजिये तो गुजरात का कैसर आम खाकर देखियेगा। तब आप समझेगें गुजरात का जायका क्या है। राजू भाई सवाल फलो के जायके का नहीं है। ना ही सवाल आम के पेडो का है। अब आप ही बताईये मोदी जी सत्ता के जिस नये शहर को दिल्ली के जरीये बसाना चाहते है उस नये शहर में कौन बचेगा। कौन कटेगा। इसकी लडाई तो आरएसएस के दरबार से लेकर 11 अशोक रोड और गांधीनगर तक होगी। यह सवाल आपके दिमाग में क्यो आया। हमारे यहा तो हर किसी को जगह दी जाती है। सवाल उम्र का होना तो चाहिये। आखिर गुरु या गाईड की भूमिका में भी स्वयसेवको को आना ही चाहिये। नहीं , राजू भाई। मेरा मतलब है कोई नया शहर बनता है तो उसमें भी बरगद या पीपल के पेड को काटा नहीं जाता है। आप तो आस्थावान है। बरगद-पीपल  को कैसे काट सकते है।

ऐसे में विकास के नारे तले कुकरमुत्ते की तरह कौन से नये शहर उपजेगें जो बिना बरगद या पीपील के होगें। खान साहेब , अगर आप लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनमोहर जोशी, शांता कुमार या पार्टी छोड चुके जसंवत सिंह की बात कह रहे है तो यह ठीक नहीं है। बरगद के पेड पर भी एक वक्त के बाद बच्चे खेलने नहीं जाते। और ठीक कह रहे आप। पीपल के तो हर पत्ते में देवता है। और आधुनिक विकास के लहजे में समझे तो लुटियन्स की दिल्ली में क्रिसेन्ट रोड पर अग्रेजो ने भी सिर्फ पीपल के पेड ही लगाये। क्योकि वहीं एक मात्र पेड है जो दिन हो या रात हमेशा अक्सीजन देता है। और इसी सडक पर अग्रेज सुबह सवेरे टहलने निकलते थे। तो क्या पार्टी में मोदी के अलावे आक्सीजन देने वाले नेता बचे है जिन्हे मोदी के कैबिनेट में जगह मिलेगी। अरे हुजुर , अभी 16 तारिख तो आने दिजिये। इतनी जल्दबाजी ना करें . ना मोदी को जल्दबाजी में ले। गुजरात के लोग मोदी को जानते समझते है। जो लायक होते है उन्हे चुन-चुन कर अपने साथ समेटते है। चाहे आप उनका विरोध ही क्यो ना करें। आप इंजतार किजिये। हो सकता है जसवंत सिंह की बीजेपी में वापसी हो जाये। तो क्या मोदी के ब्लू प्रिट में यह भी दर्ज है कि किसे किस रुप में साथ लाना है और उससे क्या काम लेना है। खान साहेब कम से कम अपने मंत्रिमंडल को लेकर तो मोदी का ब्लू प्रिंट बिककुल तैयार होगा। लेकिन आप ऐसा ना सोचियेगा कि इस बार कोई दलित नेता ही दलितो की त्रासदी को समझेगा या मुस्लिमो के घाव पर मलहम लगाने के लिये कोई मुस्लिम नेता बीजेपी भी खडा करेगी। तो क्या हर किसी के दर्द या उसकी पीडा की समझ किसी ऐसे नामसझ नेता के हाथ में दे दी जायेगी जो उस समाज या उस कौम का हो ही नहीं। राजू भाई, हम तो मानते है कि जर समाज -हर कौम को उसी समाज से निकला शख्स ज्यादा बेहतर समझ सकता है।

अगर ऐसा है तो मौलाना कलाम साहेब ने रामपुर से चुनाव क्यो लडा। यह कहते हुये जैसे ही मैने बीच बहस में अपनी बात कही। वैसे ही खान साहेब ने तुरंत तर्क दिये, आप तो पत्रकार है और आप जानते होगें 1957 में मौलाना ने दुबारा रामपुर से चुनाव लडने को लेकर नेहरु से विरोध किया था। ठीक कहते है आप। लेकिन मौलाना ने नेहरु से यह भी कहा था कि मै हिन्दुस्तान की नुमाइन्दी करने के लिये पाकिस्तान में नहीं गया। लेकिन नेहरु मुझे मुस्लिम बहुतायत वाले क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतार कर मुझे सिर्फ मुस्लिमो के नुमाइन्दे के तौर पर देखना-बताना चाहते है। मेरे यह कहते ही राजू भाई ने बिना देर किये टोका। प्रसून भाई, यह तो मै कह रहा हूं, मोदी का नजरिया नेहरु वाला या नेहरु परिवार तले बडी हुई काग्रेस वाला कतई नहीं होगा। बराबरी तो लानी होगी ही। नहीं तो अगले चुनाव में तुष्ठीकरण की सियासत फिर किसी तिकडमी को सियासत सौप देगी या क्षत्रपो का बोलबाला बरकरार रहेगा। या कहे काग्रेस की धारा बह निकलेगी। खान साहेब आप मोदी को समझने से पहले यह समझ लिजिये मोदी संघ परिवार के प्रचारक रह चुके है। मौका मिले तो देखियेगा। कुर्ते की उपरी जेब में एक छोटी डायरी और पेंसिल जरुर रखते है। जहा जो अच्छी जानकारी मिले उसे भी नोट करते है। प्रचार के दौर में किसी ने कहा रेलवे को कोई सुधार सकता है तो वह श्रीधरण है। तो मोदी जी ने श्रीधरण का नाम डायरी में लिख लिया। और खान साहेब यह भी जान लिजिये पहले से तैयार ब्लू प्रिट को आधार बनाकर आगे कोई कार्यक्रम तय करते है। यह नहीं कि जहा जब लाभ हो वहीं चल दिये। गुजरात में सीएम पद संभालने के बाद भी अक्टूबर 2001 से लेकर पहले चुनाव में जीत यानी 2003 तक के दौर को देखिये। जो 2001 में साथ दें वह 2003 के बाद मोदी के साथ नहीं थे। क्योकि 2001 में सीएम बनते ही मोदी ने 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद का ब्लू प्रिट बनाना शुरु कर दिया था। इसलिये मंत्रिमंडल से लेकर साथी-सहयोगी सभी 2003 में बदल गये। लेकिन गोधरा कांड कहीये या गुजरात दंगे। मोदी ने विधानसभा चुनाव वक्त पर ही कराये। जबकि 2003 में चुनाव नहीं होगें इसी के सबसे ज्यादा कयास लगाये जा रहे थे। लेकिन दिल्ली के लिये तो ब्लू प्रिट पहले से ही तैयार होगा। होगा नहीं , है हुजुर।

इसीलिये ध्यान दिजिये बीजेपी में पहले दिन से मोदी के ब्लू प्रिट देखकर ही हर कोई बेफ्रिक है। नारा भी इसिलिये लगा, अबकि बार मोदी सरकार। तो क्या गुजरात में हर कोई जानता था। कि बीजेपी नहीं मोदी की ही चलेगी। खान साहेब सच तो यही है कि बीते 12 बरस में हर गुजराती मोदी के कामकाज के तौर तरीके को जान  चुका है। मोदी हर काम में समूची शक्ति चाहते है और फिर उसे अंजाम तक पहुंचाते है। 2001 में समूची ताकत मोदी के पास नहीं थी। 2003 के विदानसभा चुनाव में जीत के बाद मोदी ने गुजरात को अपने हाथ में लिया और गुजरात को बदल दिया। और सच यही है कि देश बदल जाये यह सोच कर पचास हजार रुपये खर्च कर मै गुजरात आ गया खान साहेब। लेकन राजू भाई अगर 16 मई को जनादेश ने पूरी ताकत मोदी को नहीं दी तब। इस तब का जबाब राजू भाई ने हंसते हुये यही कहकर दिया। खान साहेब आपकी फ्लाइट का वक्त हो रहा है। आप गुजरात आईये। खान साहेब भी निकलते निकलते कह गये। अगर जनादेश ने मोदी को पूरी ताकत दे ही दी तो फिर गुजरात आने की जरुरत क्या होगी राजू भाई। हम दोनो प्रसून के यहा दिल्ली में ही मिल लेगें। तो तय रहा जनादेश के मुताबिक या तो गुजरात या फिर दिल्ली।

एक लोकतान्त्रिक परिघटना का समापन और दूसरी की शुरुआत

यदि मोदी अच्छे दिन नहीं ला पाये तो अगले चुनाव की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी।
सुन्दर लोहिया
16 मई को अब इसलिए याद किया जायेगा  कि इस दिन एक का अंत हुआ और दूसरा भ्रूण में आ गया। कांग्रेस पार्टी को अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बडी हार का सामना करना पड़ा और इस अवसादपूर्ण अवसर पर सोनिया और राहुल के साथ वे चेहरे खड़े हुए नहीं दिखे जो कल तक चुनाव परिणाम के इंतज़ार की बात करके उन्हें ढाढस बन्धा रहे थे। जो परिणाम सामने आये हैं उनसे लगता है कि अब कांग्रेस का नेहरु गान्धी युग समाप्त हो चुका है। पार्टी का जो स्वरूप संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के दूसरे और में उभर कर सामने आया उसमें कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को त्याग कर मार्केट इकानाॅमी अपनाई। नई आर्थिक नीतियों के कारण उद्योगजगत की राजनीतिक गतिविधियां बढ़ गई और उन्होंने लाॅबिंग का सहारा लेकर सरकार पर अपना दबाव बनाना शुरु कर दिया। उद्योग स्थापित करके रोजगार के अवसर पैदा करने के नाम पर सस्ते दामों में ज़मीन हासिल करने के अलावा और कई प्रकार की रियायतें लेकर सरकार के खजा़ाने और किसानों की निजी सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया। रिलायंस कम्पनी को लाभ पंहुचाने और पूर्वनिर्धारित शर्तों को ताक पर रखकर उन्हें तेल और गैस की कीमतें बढ़ाने की खुली छूट दी गई। इस काम को करने के लिए कांग्रेस सरकार ने अपने बेदाग मन्त्री जयपाल रैड्डी को बदल कर मोइली को कार्यभार सौम्प दिया। मोइली ने न सिर्फ तेल औार गैस की कीमतें बढ़ाई बल्कि जो फाईल उनके पूर्व मन्त्री ने कम्पनी को समझौते की शर्तों की अवहेलना करते हुए कम उत्पादन करके सरकार के खज़ाने को प्राप्त होने वाले हिस्से में कमी लाने के लिए करोड़ों रुपये के जुर्माने की सिफारिश की थी उस फाइल को ही बन्द कर दिया। जब उन्चास दिनों की दिल्ली सरकार के नेता अरविन्द केजरीवाल ने मामला उठाया और सरकार पर चुनाव के दरम्यान तेल की कीमतें बढ़ाने से रोकने की कानूनी पहल की तो मामला थम गया था। इस बीच अम्बानी बन्धुओं को लगा कि उनकी चालाकी जगजाहिर हो गई है तो उन्होंने चुनाव में कांग्रेस से दूरी बना कर भाजपा को अपनाया। परिणाम जो मीडिया लोकतन्त्र का चौथा खम्भा बनकर जनता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का दावा करता है वह कारपोरेट पूंजीवाद का पांचवा दस्ता बन गया। यह तो गान्धी युग के खातमे की कहानी है और नेहरु युग को इस परिवार के दामाद ने समाप्त कर दिया। वैसे इस परिवार के दामाद देश की राजनीति में अखल देते आये हैं। फिरोज़ गान्धी ऐसे ही दामाद थे लेकिन वे ज़मीन की खरीद फरोक्त के बजाये अपने ससुर की ग़लत नीतियों की आलोचना किया करते थे। यह उस युग की समाप्ति का संकेत है। इसलिए अच्छा हो कि यह परिवार खुद अपने आपको पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका से अलग कर ले लेकिन इसके सक्रिय सदस्य बने रहें और पार्टी में छंटाई करते हुए उस नेतृत्व को आगे लाये जो नेहरु गान्धी की लोक हितकारी विरासत को विकसित कर सके। 
दूसरे खेमे में फिलहाल जीत का खुमार है इसलिए वे आसन्न संकट को देखना पसंद नहीं करेंगे लेकिन जो प्रधानमन्त्री देश की दशा सुधारने के लिए साठ महीने मांग रहा है उसने अपने चुनाव अभियान में ऐसा कुछ नहीं बताया जिससे उसके सुशासन की दिशा का अनुमान लगाया जा सके। उनके बयानों का अधिकांश समय मां बेटे के राज की बुराइयां करने में लगाया। दामाद के बहाने गांधी परिवार पर भष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप लगाते रहे। विदेशों में जमा कालाधन वापिस आना चाहिये लेकिन देश के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से लिये हुए ऋण को हड़प जाने वाली भारतीय कम्पनियों के विरुद्ध वे क्या करेंगे यह नहीं बताते। वे मंहगाई और बेराज़गारी दूर करने की बातें करते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि नई आर्थिक नीतियों के तहत इनसे कैसे छुटकारा पाया जा सकता है? न जाने कितने अर्द्धसत्य बोले गये लेकिन वह कहते रहे कि देश की सभी पार्टियां अकेले मोदी को हराने के लिए जुट गई हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि देश की धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली पार्टियां भी वाराणसी में उसके विरुद्ध अलग-अलग मोर्चा बनाये हुए थी। अफवाह फैलाने का काम तो वे बखूबी कर लेते हैं लेकिन इस बार उन्होंने अफवाहों के मुताबिक मीडिया माहौल बना कर यह करिश्मा कर दिखाया है। उन्होंने वायदा तो कोई किया नहीं है। घोषणापत्र को वे दूरगामी नीतियों का दस्तावेज़ बता चुके हैं। इस तरह तत्काल किसी तरह की कोई कारवाई करनी है यह ज़रुरी नहीं रह गया है। फिर भी वे अपना प्रभाव कायम करने के लिए गंगानदी की सफाई जैसा कोई कार्यक्रम शुरु कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा। लेकिन साठ दिनों के भीतर उन्हें अपनी सरकार का बजट पेश करना है उसी में आने वाले समय की आहट सुनी जा सकती है। उसके बाद जनता तय करेगी कि इन्हें बाकी के अठावन महीने देने हैं या नहीं। अब इनके पास पूर्ण बहुमत है जिसमें किसी घटक दल के दखल का सवाल ही पैदा नहीं होता।
यह बहाना नहीं बनाया जा सकता कि समुचित संख्या न होने के कारण वे काम अधूरे रह गये जिन्हें जनहित में तत्काल करने का आश्वासन चुनाव अभियान के दौरान दिये गये हैं। इनमें विदेशी बैंकों में छिपाये गये काले धन को वापस लाकर देश के विकास में निवेशित करने की घोषणा एक है। इस परिस्थिति में यदि मोदी अच्छे दिन नहीं ला पाये तो अगले चुनाव की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी।

About The Author

सुन्दर लोहिया, लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। आपने वर्ष 2013 में अपने जीवन के 80 वर्ष पूर्ण किए हैं। इनका न केवल साहित्य और संस्कृति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है बल्कि वे सामाजिक जीवन में भी इस उम्र में सक्रिय रहते हुए समाज सेवा के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं। अपने जीवन के 80 वर्ष पार करने के उपरान्त भी साहित्य और संस्कृति के साथ सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिकाएं निभा रहे हैं। हस्तक्षेप.कॉम के सम्मानित स्तंभकार हैं।

देश के जल, जंगल, जमीन, खदानों को कारपोरेट घरानों को ज्‍यादा तेजी से बेचेगी मोदी सरकार

  • सोशलिस्‍ट पार्टी समाजवाद के लिए संघर्ष तेज करेगी

नई दिल्ली। सोशलिस्‍ट पार्टी इंडिया का कहना है कि नई भाजपा नीत एनडीए सरकार जाने वाली कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की नीतियों को आगे बढ़ाते हुए देश के जल, जंगल, जमीन, खदानों को मुनाफाखोर कारपोरेट घरानों को ज्‍यादा तेजी से बेचेगी। जाहिर है, इससे समाजवाद कायम करने का संघर्ष और ज्‍यादा कठिन होगा। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए सोशलिस्‍ट पार्टी समाजवाद कायम करने की दिशा में अपना संघर्ष तेज करेगी। -

पार्टी महासचिव व प्रवक्ता  डॉ. प्रेम सिंह ने कहा कि सोशलिस्‍ट पार्टी इंडिया की स्‍थापना समाजवाद, जैसा कि संविधान में उल्लिखित है, कायम करने के लक्ष्‍य के साथ हैदराबाद में मई 2011 में की गई। सोशलिस्‍ट पार्टी ने 16वीं लोकसभा के लिए नागालैंड, महाराष्‍ट्र, राजस्‍थान, दिल्‍ली और उत्‍तर प्रदेश में 16 उम्‍मीदवार चुनाव मैदान में उतारे। पार्टी ने अपने घोषणापत्र में भारत के मतदाताओं से कारपोरेट पूंजीवाद का खात्‍मा कर समाजवाद कायम करने तथा सांप्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता को मजबूत बनाने का आहवान किया। पार्टी का घोषणापत्र काफी पहले तैयार कर लिया गया और उसे जनसभाओं, लघु पत्रिकाओं, सोशल मीडिया द्वारा चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान लोगों तक पहुंचाने का काम किया गया। घोषणापत्र में साफ तौर पर निजी क्षेत्र के ऊपर सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूती देने और डॉ लोहिया के चौखंभा राज के सिद्धांत पर आधारित सत्‍ता के विकेंद्रीकरण का वादा किया गया। इस लक्ष्‍य को हासिल करने के लिए योजना आयोग की सत्‍ता और भूमिका की संवैधानिक वैधता की जांच करने का भी वादा पार्टी ने किया। घोषणापत्र के अंत में उल्लिखित ‘तुरंत कार्रवाई के एजेंडा’ में सबसे ऊपर रोजगार को मौलिक अधिकारों में शामिल करने का वादा किया गया।

डॉ. प्रेम सिंह ने कहा कि व्‍यक्ति आधारित चुनाव प्रचार, जिसे कारपोरेट घरानों ने पानी की तरह धन बहाया और मुख्‍यधारा मीडिया ने दिन-रात प्रचारित किया, में सोशलिस्‍ट पार्टी की आवाज को जगह नहीं मिली। नतीजा सामने है। उन्होंने पार्टी उसके उम्‍मीदवारों को वोट और समर्थन देने वाले सभी सहमना साथियों का धन्‍यवाद अदा किया।

अब ‘अच्छे दिनों’ को लाना भी होगा


भारतीय जनता पार्टी की यह जीत नकारात्मक कम सकारात्मक ज्यादा है. दस साल के यूपीए शासन की एंटी इनकम्बैंसी होनी ही थी. पर यह जीत है, किसी की पराजय नहीं. कंग्रेस जरूर हारी पर विकल्प में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी ने नए भारत का सपना दिखाया है. यह सपना युवा-भारत की मनोभावना से जुड़ा है. यह तख्ता पलट नहीं है. यह उम्मीदों की सुबह है. इसके अंतर में जनता की आशाओं के अंकुर हैं. वोटर ने नरेंद्र मोदी के इस नारे को पास किया है कि अच्छे दिन आने वाले हैं. अब यह मोदी की जिम्मेदारी है कि वे अच्छे दिन लेकर आएं. उनकी लहर थी या नहीं थी, इसे लेकर कई धारणाएं हैं. पर देशभर के वोटर के मन में कुछ न कुछ जरूर कुछ था. यह मनोभावना पूरे देश में थी. देश की जनता पॉलिसी पैरेलिसिस और नाकारा नेतृत्व को लेकर नाराज़ थी. उसे नरेंद्र मोदी के रूप में एक कड़क और कारगर नेता नज़र आया. ऐसा न होता तो तीस साल बाद देश के मतदाता ने किसी एक पार्टी को साफ बहुमत नहीं दिया होता. यह मोदी मूमेंट है. उन्होंने वोटर से कहा, ये दिल माँगे मोर और जनता ने कहा, आमीन। देश के संघीय ढाँचे में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पंख देने में भी नरेंद्र मोदी की भूमिका है. एक अरसे बाद एक क्षेत्रीय क्षत्रप प्रधानमंत्री बनने वाला है.


इस चुनाव के दो-तीन बुनियादी संदेश और कुछ चुनौतियाँ हैं जो नरेद्र मोदी से रूबरू हैं. पहला संदेश यह कि देश वास्तव में जाति और सम्प्रदाय की राजनीति से बाहर आना चाहता है. बेशक जाति और सम्प्रदाय के जुम्ले इस चुनाव पर भी हावी थे, पर जनादेश देखें तो उसमें पहचान की राजनीति से बाहर निकलने की वोटर की छटपटाहट साफ नज़र आती है. उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह की राजनति की हवा ही नहीं निकली, अजित सिंह के रालोद का भी सफाया हो गया. इसके पीछे मुजफ्फरनगर के दंगों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. नरेंद्र मोदी ने भी सोशल इंजीनियरी का सहारा लिया और चुनाव के अंतिम दिनों में अपनी जाति को लेकर बयान दिए. पर प्रकट रूप से संकीर्ण नारों का सहारा लेने के बजाय, उन्होंने गवर्नेंस पर ज़ोर दिया. संघ परिवार से जुड़े कुछ नेताओं के ज़हरीले बयानों पर हालांकि पार्टी ने कोई औपचारिक कार्रवाई नहीं की, पर अंदरूनी तौर पर इस किस्म के बयानों को रोका गया.

भारतीय जनता पार्टी पहली बार पैन इंडियन पार्टी के रूप में पहली बार नजर आ रही है. हालांकि उसे केरल में सीट नहीं मिली है, पर वहाँ पैर पसारे हैं. दूसरी ओर उन्होंने तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा और असम तक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. गुजरात और राजस्थान में सूपड़ा साफ किया और महाराष्ट्र में कांग्रेस की चूलें हिला दीं. उत्तर भारत में केवल पंजाब में एनडीए को धक्का लगा है, जिसका सबसे बड़ा कारण अकाली दल के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी थी, जिससे पिछले विधानसभा चुनाव में तो पार पा लिया गया, पर इसबार उसे रोका नहीं जा सका.

इस जीत के बाद नरेंद्र मोदी के सामने तमाम चुनौतियाँ हैं. इनमें राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक चुनौतियाँ शामिल हैं. चुनाव परिणाम आने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने नरेंद्र मोदी को न तो बधाई दी और न उन्हें जीत का खुले शब्दों में श्रेय दिया. इसी प्रकार की प्रतिक्रिया सुषमा स्वराज की थी. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का एक तबका उनके लिए चुनौती खड़ी करेगा.एक्ज़िट पोल के परिणाम सामने आने के बाद से पूछा जा रहा था कि आडवाणी जी को क्या पद मिलेगा?मोदी पर केवल कांग्रेस के हमले ही नहीं होंगे. भीतर के प्रहार भी होंगे. भाजपा को पार्टी विद अ डिफरेंसकहा जाता था. पिछले साल से उसे पार्टी विद डिफरेंसेज़’ या भारतीय झगड़ा पार्टी कहा जाने लगा है. दूसरी चुनौती है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. जीत हासिल करने के बाद नरेंद्र मोदी का कद बढ़ा है. क्या वे अपनी सरकार बनाने और चलाने का काम स्वतंत्रता पूर्वक कर पाएंगे?

इस साल मॉनसून कमज़ोर होने की सम्भावना है. हालांकि दो रोज़ पहले की खबर है कि मॉनसून उतना विलम्ब से नहीं आ रहा, जितना अंदेशा था. नई सरकार को सबसे पहले महंगाई के मोर्चे पर कुछ करना होगा. हमारे यहाँ मौसम का महंगाई से गहरा रिश्ता है. नई सरकार के पास इस साल के बजट में कुछ क्रांतिकारी काम करने का मौका नहीं है. शायद जून में बजट आएगा. नई सरकार मंत्रालयों की संरचना में बड़ा बदलाव करना चाहती है. क्या यह काम फौरन होगा? नरेंद्र मोदी के साथ वरिष्ठ नौकरशाहों का सलाहकार मंडल है. काम का खाका पहले से बनाकर रखा गया है. सरकार के पास लोकसभा में बहुमत है, पर राज्यसभा में वह अल्पमत है. सरकार को नए कानून बनाने के लिए कांग्रेस की मदद लेनी होगी. देश में बड़े स्तर पर रोज़गारों का सृजन करने के लिए भारी पूँजी निवेश की जरूरत होगी. मोदी सरकार की आहट आने के साथ ही रुपए की कीमत बढ़ने लगी है. इससे पेट्रोलियम की कीमत पर असर पड़ेगा भुगतान संतुलन में देश की स्थिति बेहतर होगी. अच्छी बात यह है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत हैं.


मोदी के सामने एक बड़ी चुनौती विदेश नीति के बाबत है. आमतौर पर विदेश नीति के मामले में बड़े बदलाव नहीं होते हैं. खासतौर से पाकिस्तान के साथ रिश्तों को लेकर उनसे बड़ी अपेक्षाएं की जा रहीं हैं. हाल में उन्होंने मीडिया के साथ बातचीत में कहा है कि हम पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बनाकर रखना चाहेंगे. वस्तुतः मोदी सरकार की परीक्षा नीतियों से ज्यादा उसके प्रशासन को लेकर होगी. उनकी छवि कड़क नेता की है. जनता को कड़क सरकार चाहिए, जो उसकी परेशानियाँ दूर करे.