गत शुक्रवार को भारतीय विदेश मंत्रालय ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए कड़ा बयान जारी किया कि पाकिस्तान प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के मौलाना अजहर को सार्वजनिक रैली में भारत के खिलाफ जहर उगलने की अनुमति दे रहा है। इस्लामाबाद को याद दिलाया गया कि जैश-ए-मोहम्मद को संयुक्त राष्ट्र और भारत, अमेरिका समेत कई देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि खुद पाकिस्तान ने भी उस पर प्रतिबंध लगा रखा है। यह चेतावनी ऐसे समय में दी गई है जब हर तरफ से घिरी नवाज शरीफ सरकार पाकिस्तान के भीतर मौजूद आतंकी समूहों को सेना और वायु शक्ति की मदद से खत्म करने का अंतिम निर्णय ले चुकी है। पिछले एक माह में पाकिस्तान तालिबान द्वारा हमले की घटनाओं में तीव्र बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसके निशाने पर पाकिस्तान सेना के अधिकारी और अन्य वर्दीधारी लोग हैं।
खतरनाक इस्लामिक दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रति प्रमुख राजनीतिक दलों के नरम रुख व नीतियों से पाकिस्तान का आम जनमानस निराश है। 11 सितंबर की घटना के बाद इस विचारधारा का कुप्रभाव पाकिस्तान के आंतरिक हिस्सों और उसके समाज पर अब भलीभांति दिखने लगा है। एक आकलन के मुताबिक पिछले 12 वषरें में पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों और अन्य आतंकी संगठनों के हाथों तकरीबन 50,000 वर्दीधारी और आम लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। बढ़ती निराशा के बीच पाकिस्तान के तमाम नागरिकों ने सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं कि क्या सरकार ने पाकिस्तान तालिबान और उसकी अन्य सहयोगी ताकतों से लड़ने की इच्छाशक्ति और प्रतिरोध की क्षमता खो दी है। इस सबको देखते हुए पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ ने एक सार्वजनिक बयान जारी करके देशवासियों को भरोसा दिलाया है कि घरेलू आतंकवादी समूहों से लड़ने के लिए सेना के पास पर्याप्त क्षमता और संसाधन हैं और पिछले सप्ताह सेना की कार्रवाई इस बात का प्रमाण है। शनिवार यानी 22 फरवरी को पाक सेना ने पश्चिमोत्तार इलाके में आतंकवादी ट्रेनिंग कैंपों पर हेलीकॉप्टर से गोलीबारी की, जिनमें तकरीबन नौ संदिग्धों के मारे जाने की जानकारी है। इस तरह के आपरेशन एक लंबे अभियान की शुरुआत हैं, जिसके साथ-साथ तालिबान के साथ शांति प्रस्तावों पर बातचीत की राजनीतिक प्रक्रिया के भी संकेत दिए जा रहे हैं। पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान जिस तरह आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में दोहरी रणनीति पर चलता नजर आ रहा है उस पर ध्यान देने की जरूरत है। एक तरफ जहां पाकिस्तान सेना दुश्मन आतंकी समूहों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की तैयारी कर रही है, जिसमें वायुसेना का इस्तेमाल भी शामिल है वहीं दूसरी ओर भारत और अफगानिस्तान को निशाना बनाने वाले ऐसे ही संगठनों को लगातार रणनीतिक समर्थन दिया जा रहा है।
मुजफ्फराबाद में अजहर की सार्वजनिक रैली ऐसा ही एक मामला है। पाकिस्तान द्वारा अपनाई जाने वाली इस तरह की विरोधाभासी नीति में दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी ही देखने को मिल रही है। जैश-ए-मोहम्मद की रैली के परिप्रेक्ष्य को समझने की जरूरत है। भारत जब 26 जनवरी को अपना गणतंत्र दिवस पारंपरिक तरीके से मना रहा था उसी समय पाक अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद इलाके में आयोजित भारत विरोधी रैली में मौलाना मसूद अजहर को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया। भारत के प्रमुख राष्ट्रीय आयोजनों के दिन पाकिस्तान में भारत विरोधी बातों के कहे जाने का एक सिलसिला कायम है। लेकिन प्रतिबंधित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के नेता मसूद अजहर को महत्व देना एक नई घटना है, जिससे दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में अधिक कड़वाहट आएगी।
मसूद अजहर और जैश के दूसरे आतंकी जिन रैलियों में कश्मीर, भारत और अमेरिका के विरोध में लोगों को भड़काते हैं उनमें तकरीबन दस-बीस हजार लोग इकट्ठा होते हैं। यहां इकट्ठी भीड़ को कथित काफिरों के खिलाफ जिहाद की शपथ दिलाई जाती है। हालांकि नवाज शरीफ सरकार ऐसे आयोजनों से दूरी रखती है, लेकिन पाकिस्तान के भीतर ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह इन रैलियों का आयोजन किया जाता है उसमें सरकार का हाथ अवश्य रहता है। भले ही इन्हें सक्त्रिय समर्थन नहीं दिया जाता, लेकिन सुविधाओं के रूप में समर्थन तो दिया ही जाता है। रावलपिंडी में सेना मुख्यालय और इस्लामाबाद में एक के बाद एक सरकारों के पिछले तीन दशक के अनुभव बताते हैं कि भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ रणनीतिक लाभ हासिल करने के लिए पाक सरकार द्वारा आतंकी समूहों को संरक्षण देने की स्पष्ट नीति रही है। यह अलग बात है कि सार्वजनिक तौर पर पाक सरकार इन बातों से इन्कार करती रही है। इस संदर्भ में देखें तो लश्कर और जैश का रुख भारत के खिलाफ रहा है, जबकि हक्कानी समूह की गतिविधियां पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर केंद्रित हैं। 11 सितंबर की घटना के बाद इस्लामिक आतंकी संगठनों ने इस क्षेत्र में अपनी अलग स्वायत्ता व्यवस्था कायम कर ली है। यह एक तथ्य है कि आत्मघाती हमलावरों और आतंकवादियों को प्रेरित करने वाली विचारधारा अब पाकिस्तानी फौज बिरादरी में भी घुस चुकी है। इसे पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तसीर की उनके ही बॉडीगार्ड के हाथों की गई हत्या से समझा जा सकता है।
पाकिस्तान तालिबान की कट्टर विचारधारा और दुस्साहस की एक बानगी पिछले पखवाड़े उस समय देखने को मिली जब उसने शांति वार्ता से हटने का फैसला किया। तालिबान विचारधारा के छिपे समर्थन के आधार पर सत्ता में वापसी करने वाले प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और पंजाब प्रांत में मुख्यमंत्री के पद पर आसीन उनके भाई ने आतंकी समूहों को बहावलपुर जैसी जगहों पर जाने की अनुमति दी, जहां जनवरी में सार्वजनिक तौर पर सामने आने से पहले मसूद अजहर छिपा करता था। यह भी कम परेशान करने वाली बात नहीं है कि पाकिस्तान में दोनों ही पक्षों के उद्देश्य परस्पर असंगत अथवा बेमेल हैं। तालिबान प्रवक्ता शहीदुल्लाह शाहिद के मुताबिक वह चाहते हैं कि जब तालिबान काबुल पर नियंत्रण कर ले तो मुल्ला फजलुल्लाह पाकिस्तान के खलीफा बनें और यह खलीफा अफगानिस्तान के मुल्ला उमर के अधीन काम करें। इस तरह तालिबान ने अपना रुख साफ कर दिया है। धार्मिक गुरु मौलाना अब्दुल अजीज ने लाल मस्जिद प्रकरण पर जनरल मुशर्रफ को चुनौती दी थी, जो मुशर्रफ के अंत की शुरुआत साबित हुई। उनके मुताबिक तालिबान पाकिस्तान में शरीयत कानून लागू किए जाने के पक्ष में है।
इसी तरह मसूद अजहर नवाज शरीफ सरकार द्वारा आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई की नीतियों से नाखुश है। अजहर के नेतृत्व वाले जैश-ए-मोहम्मद को विश्वास है कि वह पाकिस्तान और भारत, दोनों को एक साथ चुनौती दे सकता है। भारत में चुनाव के वर्तमान माहौल में दिल्ली में मौजूद सुरक्षा प्रतिष्ठान को इन घटनाओं पर नजर रखनी होगी।
[लेखक सी. उदयभाष्कर,
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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