बुधवार, 8 जनवरी 2014

राजनीति के गड़े मुर्दे

हमारे देश को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दर्जा यूं ही नहीं मिला हुआ है। उसके लिए हमारे देश के जागरूक और दूरदर्शी राजनीतिज्ञों ने अथक प्रयास किए हैं। उनके इन भगीरथी प्रयासों के परिणामस्वरूप ही हमारे देश की राजनीति का स्वरूप इतना बहुआयामी बन पाया है। इसके अनेक रंग हैं। जैसे, समाज में भले ही गड़े मुदरें को अच्छा नहीं समझा जाता हैं, उनसे बराबर परहेज रखने की बात की जाती है पर हमारी राजनीति में उन्हें अवसर के अनुकूल गले लगाया जाता है। उन्हें ऊंचा स्थान प्रदान किया जाता है। उन्हें बहुत आदर के साथ देखा जाता है। उन्हें हिफाजत से सुरक्षित जगह पर रखा जाता है, सहेजा जाता है। वे राजनीतिज्ञों की आंख का तारा होते हैं। ज्ञानीजन बताते हैं कि गड़े मुदरे में अपार शक्ति होती है। बस किसी को भी उसका सही इस्तेमाल करना आना चाहिए। जिस प्रकार कापालिक, तांत्रिक, अघोरी श्मशान जगाते हैं, ठीक वैसे ही राजनीति में राजनीतिज्ञों को गडे मुदरें को जाग्रत करने के लिए बयान, आरोप आदि की साधना करना पड़ती है। राजनीति के गड़े मुर्दे नाना प्रकार के पाए जाते हैं। इनमें कुछ व्यक्तिगत जीवन के गड़े मुर्दे होते हैं तो कुछ सार्वजनिक जीवन के। कुछ पार्टी पर आधारित गड़े मुर्दे हो सकते हैं तो कुछ पार्टी की मातृ संस्था या सहयोगी संगठन के भी गड़े मुर्दे हो सकते हैं। गड़े मुर्दे अनेक विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं। इनसे जमीन मजबूत की जाती है। कारण, ये जमीनी पकड़ बढ़ाने में भी बहुत सहायक सिद्ध होते हैं। गडे मुदरे की बुनियाद पर सत्ता की भव्य इमारत का मजबूती से निर्माण किया जा सकता है। इनकी उंगली पकड़कर बड़ी सरलता से कुर्सी तक पहुंचने की पतली गली खोजी जा सकती है। गड़े मुर्दे का चेहरा दिखाकर मतदाताओं को रिझाया जा सकता है। इनकी याद दिलाकर मतदाताओं से वोट झटके जा सकते हैं। इनके कंधे पर हाथ डालकर, इनका सहारा लेकर लालबत्ती में प्रवेश किया जा सकता है। गड़े मुदरें के स्मरण मात्र से ही सत्ता सुंदरी के सपने देखे जा सकते हैं। गड़े मुर्दे खेवनहार होते हैं। वह चुनावी भंवर में फंसी पार्टी की नैया को किनारे लगाने तक की क्षमता रखते हैं। गड़े मुर्दे के पारखी नेताओं की पार्टी में खूब पूछ परख होती है। उन्हें स्टार का दर्जा प्राप्त हो जाता है। कौन सा मुर्दा कहां गड़ा है और उसे कब कहां से निकालना है और किस प्रकार किस कोण से उसे जनता के सामने प्रस्तुत करना है, इस प्रकार की गूढ़ जानकारी रखने वाले नेतागण पार्टी के थिंक टैंक का दर्जा पा जाते हैं। ऐसे नेता पार्टी की नीतियां तय करते हैं। जिस प्रकार महाभारत में भीष्म पितामह को पराजित करने के लिए शिखंडी को गुप्त रूप से रथ पर ले जाया गया था, उसी प्रकार चुनावी महाभारत में गड़े मुर्दे को सभाओं, रैलियो में ले जाया जाता है। जिसे देखकर प्रतिद्वंद्वी के होश फाख्ता हो जाते हैं। उनके पैरों के तले जमीन खिसक जाती है। उनसे जवाबी हमला करते नहीं बनता। इस प्रकार के संग्राम में यह भी देखा गया है कि कई बार विरोधी पक्ष भी अपने रथ पर किसी गड़े मुर्दे को धर लाते हैं। ऐसी स्थिति में दोनों ओर के गड़े मुदरे का रोचक युद्ध देखने को मिलता है। कई बार प्रतिद्वंद्वी का गड़ा मुर्दा आप पर भारी हो सकता है। कई बार गड़े मुर्दे बेकाबू भी हो जाते हैं और उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता है। इसलिए विशेषज्ञों का मत है कि गड़े मुदरे का प्रयोग किसी कुशल गुरु की देखरेख में ही संपादित करना चाहिए । गड़े मुदरे के पक्के खिलाड़ी उनका भली भांति उपयोग कर वापस ले आते हैं और उसे ऐसी जगह पर फिर से दफन कर देते हैं जहां से वक्त जरूरत पड़ने पर इन्हें आसानी से निकाल सकें। दूरदर्शी नेताओं की यही तो पहचान होती है।
-मृदुल कश्यप

बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती चुनौतियां



जनसंख्या वृद्धि विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो आज विश्व की जनसंख्या सात अरब का आंकड़ा पार कर गई है। चिंता की बात यह है कि यह बेतहाशा बढ़ रही है। आज वैश्विक आबादी में हर साल साढ़े आठ से नौ करोड़ की बढ़ोतरी हो रही है। माना जा रहा है कि भविष्य में कुछ बड़े अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देश जनसंख्या को और तेजी से बढ़ाएंगे। इसमें खासतौर से भारत भी शामिल है। वास्तविकता यह है कि जिस तरह जनसंख्या वृद्धि एक चुनौती है, ठीक उसी तरह इसके साथ-साथ इससे उपजी चुनौतियों का सामना करना भी समूचे विश्व के लिए आसान नहीं है। ये चुनौतियां बहुत बड़ी समस्या का रूप धारण कर चुकी हैं। इस मामले में एशिया प्रशांत क्षेत्र सबसे अधिक चुनौतियों से जूझ रहा है। इनमें ग्रामीण आबादी का पलायन और शहरी आबादी में बेतहाशा बढ़ोतरी सबसे बड़ी चुनौती है। भोजन, पानी, स्वास्थ्य सम्बंधी रोजमर्रा की जरूरतों की आपूर्ति के साथ ही जलवायु परिवर्तन से बिगड़ा पर्यावरणीय माहौल, ऊर्जा की बढ़ी जरूरत, परिवहन, औद्योगिक संसाधन और इंफास्ट्रक्चर के लिए ऊर्जा, कार्बन उर्त्सजन के कारण बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु से जुड़े भीषण खतरे जैसी चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं। एक चिंतनीय पहलू यह है कि देश के कई बड़े राज्यों में नाटकीय ढंग से ग्रामीण आबादी में गिरावट दर्ज की गई है। विडम्बना यह है कि उन राज्यों के पास काफी उपजाऊ जमीन है और वहां खेती का काफी पुराना इतिहास है। वैश्विक दृष्टि से यदि इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1800 में दुनिया की तीन फीसद से भी कम आबादी शहरों में रहती थी जबकि वर्ष 2008 के आखिर तक शहरी आबादी का यह आंकड़ा 50 फीसद को भी पार कर चुका था। आज हालत यह है कि अब इस क्षेत्र में एक करोड़ या उससे अधिक आबादी वाले 26 महानगर हो गए हैं। इनमें टोकियो, सियोल, शंघाई, मुंबई, दिल्ली, जकार्ता, मनीला, कराची, कोलकाता, बीजिंग, ओसाका और ढाका शामिल हैं। इसमें दो राय नहीं कि मौजूदा हालात में महानगरों की आर्थिक कामयाबी के बावजूद समूची दुनिया की सरकारें बुनियादी सवालों से हर स्तर पर जूझ रही हैं। गौरतलब है कि इस सदी के दौरान दुनिया में जिस तरह महानगरों की तादाद बढ़ेगी, ठीक उसी तरह बहुतेरे कई और शहरों की आबादी में भी बढ़ोतरी होगी। परिणामस्वरूप वहां एक ओर जहां ऊर्जा की मांग में बढ़ोतरी होगी, वहीं खाद्य आपूर्ति, पानी, औद्योगिक संसाधन, परिवहन और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए ऊर्जा पर जोर रहेगा। हमारे सामने कॉर्बन उर्त्सजन तो ग्लोबल वार्मिंग की बड़ी वजह है ही, जलवायु से जुड़े खतरों से भी हम जूझ रहे हैं। इस दौरान शहरों का तापमान वैश्विक व राष्ट्रीय भूमि क्षेत्र के तापमान की वृद्धि दर से दुगनी-तिगुनी दर से बढ़ रहा है। इसे हीट आइलैंड कहते हैं। इसके अलावा जैसे चीन को देखिए, वहां ग्रामीण अंचल से पलायन के लिए ग्रामीणों को सब्सिडी दी जाती है, नतीजतन वहां केवल पांच सालों में ही जहां शहरों की तादाद दोगुनी हुई, वहीं आबादी में दोगुने से भी ज्यादा इजाफा हुआ। जापान को लें, वहां आए भीषण सुनामी में टोकियो को यह सोचने पर विवश कर दिया कि वह परमाणु ऊर्जा और शहरों की सुरक्षा के प्रति अपने नजरिये पर पुनर्विचार करे और नयी परिस्थितियों के मद्देनजर अपनी नीतियां और सोच का निर्धारण करे। ठीक इसी तरह 2003 में पेरिस में लू के भयंकर प्रकोप से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी। इसका प्रमुख कारण यह रहा कि वहां के समाज और स्थानीय प्रशासन ने इस तरह के मौसमी प्रकोप से लड़ने की तैयारी नहीं की थी। ऐसी दशा में उनकी स्थिति एक असहाय मूकदर्शक की सी बनी रही। इसलिए इन स्थितियों से भी निपटने के लिए तैयार रहना होगा। यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं से उतनी ही बड़ी तबाही होगी जितना बड़ा शहरी इलाका होगा। उस दशा में चेतावनी प्रणाली भी जानमाल की हिफाजत कर पाने में नाकाम रहती है। अक्सर देखा गया है कि आंधी, तूफान और बाढ़ के संयुक्त खतरों से आगाह होने के बावजूद लोगों के पास कम वक्त मिल पाता है कि वे सुरक्षित इलाकों में समय रहते पनाह ले सकें। शहरों पर बढ़ते दबाव के चलते यह बेहद जरूरी है कि आपात स्थिति के लिए शरण स्थलों का निर्माण हो। इस दिशा में बांग्लादेश का उदाहरण दिया जा सकता है। वहां बनाये गए शरण स्थलों ने वहां की एक बड़ी आबादी को बाढ़ और चक्रवात जैसी आपदाओं से बचाया है। आज दुनिया के सामने समुद्र और नदियों के किनारे बसे अपने तटीय इलाकों व महानगरों को सुरक्षित रख पाना, कैटरीना जैसे तूफानों और बाढ़ से बचाव, टारनेडो का खतरा, समुद्र के बढ़ते जलस्तर से होने वाली फसलों की बर्बादी आदि से निपटने की दिशा में चेतावनी तंत्र की बेहद जरूरत है। इस दिशा में दुनिया के वैज्ञानिक इन खतरों से निपटने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं ताकि एक ऐसी प्रणाली तैयार की जा सके, जिससे हादसों के पूर्व चेतावनी जारी की जा सके और समय रहते निगरानी रख सकें। बैंकाक की बाढ़, न्यू ओरलेंस में आए कैटरीना तूफान आदि इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय न तो उचित सुरक्षा इंतजाम थे और न ही बाढ़ संबंधी चेतावनी तंत्र। पिछले सालों में ह्यूस्टन और फिलीपींस आदि में आए तूफान ने इस तथ्य को प्रमाणित किया है। इंग्लैंड का कैनवे द्वीप इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है जहां पर चारों ओर से किलेबंदी कर दी गई है ताकि वह 1953 की तर्ज पर आई बाढ़ का मुकाबला कर सके। बीते सालों के कई उदाहरण हैं जब विश्व के अनेक महानगर और वहां की सरकारें अचानक आयी विपदाओं का मुकाबला कर पाने में नाकाम रही हैं। उसी का परिणाम है कि अब दुनिया के देशों की सरकारें हर स्तर पर उन विपदाओं का सामना करने के लिए न केवल कटिबद्ध हैं बल्कि पर्यावरणीय कारकों से भी निपटने की रणनीति बना रही हैं। वे इस दिशा में जनता को भी जागरूक करने की भरसक कोशिश कर रही हैं। जरूरत इस बात की है कि इस बाबत विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व मौसम नियंत्रणकेन्द्र, देशों की सरकारें और अन्य अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों को एकजुट होकर जनता को विपदाओं से मुक्ति दिलानी होगी जो इन विपदाओं को झेलने के आदी हो चुके हैं। यही नहीं, दुनिया के देशों को आसन्न खतरों से निपटने की खातिर अंतर-शहरी सहयोग को प्रमुखता देनी होगी। यही तमाम सरकारों का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए तभी इन चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकता है।
-ज्ञानेन्द्र रावत

सिद्धि का द्वार है योग

सर्वागपूर्ण योग पद्धति के चार प्रमुख अंग हैं- शुद्धि, मुक्ति, सिद्धि और भुक्ति। साधना की प्रथम अनिवार्य आवश्यकता है-शुद्धि। विभिन्न उपदिष्ट साधना पण्रालियों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह अंत: और बाह्य दोनों के परिशोधन का प्रयास है। शुद्धि की शुरुआत होती है, समता के दिग्दर्शन से। साधक निम्न प्रकृति की सभी क्रियाओं, विभिन्न द्वंद्वों, अविद्या के आक्रमण और अपने अज्ञान को इस दृष्टि से देखता है और उसे दूर करने हेतु प्रयत्न करता है। ऐसे शुद्ध, शांत, चंचल और नीरव आधार पर ही तो भागवत आनन्द, प्रेम, ज्ञान का अवरोहण संभव है। इसका दूसरा अंग है- मुक्ति। इसका तात्पर्य अन्य लोक-लोकान्तर में न पलायन है, न समस्त स्थूल क्रिया-कलापों अथवा प्रकृतिगत चेष्टाओं का परित्याग कर निर्वाण प्राप्त करना। इसके दो पद हैं-त्याग और ग्रहण। इसमें एक निषेधात्मक और दूसरा विधेयात्मक है। प्रथम का अर्थ है, सत्ता की निम्न प्रकृति के बंधनों, आकर्षणों से छुटकारा। द्वितीय भावनात्मक पक्ष का तात्पर्य है उच्च स्तर पर आध्यात्मिक सत्ता में समाहित होना, उसकी दिव्य अनुभूतियों में रमण करना। निष्काम निरहंकारी हो आत्मा को विश्वात्मा के साथ एक करके, उच्चतम दिव्यता धारण करना। शुद्धि व मुक्ति दोनों ‘सिद्धि’ की पहले की अवस्थाएं हैं। पूर्णयोग में सिद्धि का अर्थ है भागवत सत्ता की प्रकृति के साथ एकत्व की प्राप्ति। मायावादी सत्ता में सर्वोच्च सत्य निर्विकार निगरुण एवं आत्म सचेतन ब्रrा है। अतएव आत्मा की शुद्ध, निर्विकार शान्ति एवं चेतनता में विकसित एकाकार होना ही उसकी सिद्धि है। बौद्ध उच्चतम सत्य-सत्ता को अस्वीकृत करते हैं। उनके लिए सत्ता की क्षणिकता, कामना की विनाशकारी निस्सारता का बोध, संस्कारों-कर्म श्रृंखलाओं का विलय ही सर्वागपूर्ण मार्ग है। पर सर्वागपूर्ण योग में सिद्धि का तात्पर्य है-एक ऐसी दिव्य आत्मा और दिव्य कर्म प्राप्त करना, जो विश्व में दिव्य कर्म का खुला क्षेत्र प्रदान करे। इसका समग्र अर्थ है- सम्पूर्ण प्रकृति को दिव्य बनाना तथा उसके अस्तित्व व कर्म की समस्त असत्य गुत्थियों का परित्याग। भुक्ति का तात्पर्य है अनासक्त भाव से उपभोग। जीवन में दिव्य पूर्णता का अवतरण करना, सम्पूर्ण जीवन को आध्यात्मिक शक्ति का क्षेत्र मानकर दिव्य भोग करना ही भुक्ति का आंतरिक सार है। तभी सिद्धि संभव हो सकेगी, मानव अतिमानव बन सकेगा। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार
- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य सत्संग

देश की प्रेरणा

भविष्य की शीर्ष अर्थव्यवस्था होने का जो दमखम पिछले कुछ समय से हमारे नीति-निर्धारक और कर्णधार भरते रहे हैं, बेशक देश की मौजूदा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को देखते हुए फिलहाल वह दूर की कौड़ी नजर आता हो लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भारतीय मूल की प्रतिभाओं का बहुत ही सम्मानजनक संस्थानों में शीर्ष पदों पर काबिज होना देशवासियों का सिर गर्व से ऊंचा कर देता है। यह स्थिति कहीं न कहीं उनके मन में इस आशा का संचार करती दिखती है कि आगामी दस-बीस सालों में विविध क्षेत्रों में भारतवंशी प्रतिभाओं के आधार पर हम विकसित देशों की शीर्ष पंक्ति में विराजमान होने का सपना साकार कर सकते हैं। प्रवासी भारतीय दिवस के मौके पर शिरकत कर रही एक से बढ़कर एक प्रतिभाओं से यह उम्मीद बंधती दिख रही है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इनके अमूल्य योगदान से कहीं न कहीं भारत की स्थिति मजबूत हो रही है। इस मामले में सबसे अनुकरणीय और रोमांचक वह स्थिति होती है जब सम्मानजनक ओहदा पाने वाली शख्सियत भारत के बहुत ही सामान्य परिवेश और जीवन शैली का हिस्सा होने के बावजूद विदेश में अपना करियर लगभग शून्य से शुरू करते हुए चोटी पर पहुंच जाती है। वह स्थिति तो और भी सोने में सुहागे वाली मानी जाएगी, जब शख्सियत पिछड़े माने जाने वाले किसी हिंदी भाषी राज्य से ताल्लुक रखती हो, साथ ही वह लिंग भेद के मारे भारतीय समाज की कोई विवाहित महिला हो जो अपना करियर दांव पर लगा विवाह बंधन में बंधकर पति के साथ विदेश चली जाए। अमेरिका के जाने-माने ह्यूस्टन विश्वविद्यालय की चांसलर रेणु खटोड़ ऐसी ही शख्सियत हैं। 2008 में इस गौरवपूर्ण पद पर काबिज होने वाली 1955 में जन्मी रेणु ने उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद जिले के हिंदी माध्यम के स्कूल में शुरुआती पढ़ाई के बाद 1973 में कानपुर विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की। विवाह के बाद पति के साथ अमेरिका चले जाने के बाद रेणु ने 1975 में वहां पुर्डू विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एमए और 1985 में लोक प्रशासन में पीएचडी की उपाधि ली। तब से लेकर अब तक करियर की ऊंचाइयां छूने वाली रेणु के नाम कई रिकॉर्ड दर्ज हैं। जैसे वह ह्यूस्टन विश्वविद्यालय में चांसलर का पद सुशोभित करने वाली पहली विदेशी और दूसरी महिला हैं। हमारे लिए इससे बड़े गर्व की बात और कुछ नहीं हो सकती है कि वह विदेशी महिला भारत की बेटी है। नववर्ष पर ब्रिटेन में सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजी गई भारतीय मूल की शिक्षाविद आशा खेमका ने भी रेणु जैसे परिवेश में रहते हुए सफलता की बुलंदियां छुई हैं। रेणु और आशा जैसी शख्सियतें हमारी उन लड़कियों का संबल और प्रेरणा हैं जो परिस्थितियों के चलते करियर बीच में छोड़ घर-गृहस्थी का जिम्मा थाम लेती हैं।

आतंक का मंडराता खतरा

आतंकवाद का खूनी साया देश पर किस कदर मंडरा रहा है, लश्कर-एतै यबा के कतिपय आतंकियों की गिरफ्तारी के बाद एक बार फिर इसका खुलासा हुआ है। दिल्ली पुलिस की यह जानकारी दहलाने वाली है कि लश्कर-ए-तैयबा ने मुंबई के 26/11 आतंकी हमले की तर्ज पर दिल्ली में आतंक का खूनी खेल खेलने की साजिश गत चार और छह दिसम्बर को रची थी। यह सौभाग्य ही रहा कि साजिश की पोल खुल गई और आतंकियों की साजिश नाकाम हो गई। बहरहाल, इस षड्यंत्र का खुलासा बताता है कि पाकिस्तान में बैठे भारत के दुश्मन यहां खून-खराबा कराने और आंतरिक अस्थिरता फैलाने के लिए किस कदर बेकरार हैं। चिंता की बात यह है कि पिछले महीनों में दुर्नाम आतंकियों की गिरफ्तारी के बावजूद देश में मौजूद आतंकी नेटवर्क पर वैसी करारी चोट नहीं की जा सकी जैसी उम्मीद थी। अबु जंदल, यासीन भटकल और टुंडा जैसे आतंकियों के पकड़े जाने के बाद उम्मीद थी कि इनसे मिली जानकारी के आधार पर आतंक के स्लिपिंग माड्यूल्स की पहचान करके उन्हें नेस्तनाबूद किया जाएगा। लेकिन इस उम्मीद की असलियत यह है कि इंडियन मुजाहिदीन का मास्टरमाइंड माने जाने वाले यासीन भटकल के सुरक्षा एजेंसियों की गिरफ्त में होने के बावजूद यह आतंकी गिरोह भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की पटना रैली में सिलसिलेवार धमाकों को अंजाम देने में सफल रहा। हालांकि इसके लिए सिर्फ पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। देश में आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को वोट बैंक की राजनीति और केंद्र-राज्य के अधिकारों की बहस में इस कदर उलझा दिया गया है कि सुरक्षा एजेंसियों को आजादीपूर्वक और प्रभावी ढंग से काम करने का वातावरण नहीं मिल पा रहा है। आतंकवाद के नाम पर चल रही छिछली सियासत का ताजा उदाहरण तो यही है कि दिल्ली पुलिस के खुलासे के बाद पूरी बहस महज इस बात पर सीमित हो गई कि जिन लोगों को लश्कर ने बरगलाने की कोशिश की है, वे मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ित हैं या नहीं; यानी सारा विमर्श इस बात पर केंद्रित हो गया कि अक्टूबर में इस बाबत राहुल गांधी द्वारा दिया गया बयान सही साबित हुआ या गलत। बड़ा विषय यह नहीं है कि आईएसआई और लश्कर-ए-तैयबा जिन भारतीय लोगों को बरगलाने में सफल हो रहे हैं वे दंगा पीड़ित हैं या नहीं, बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसे हालात पैदा होने की वजहें क्या हैं कि हमारे नागरिक देश विरोधी ताकतों के हाथों का खिलौना बन रहे हैं। यदि आज पाकिस्तान बिना किसी कसाब को भेजे हमारे ही लोगों के हाथों हमारी जमीन को लहूलुहान करने में कामयाब होता दिख रहा है तो यह हमारे समूचे आतंरिक सुरक्षा परिदृश्य के लिए बेहद चिंताजनक और डरावनी स्थिति है। देश के नियंताओं को विचार करना होगा कि समाज में विभाजन की ऐसी दरारें क्यों पैदा हो रही हैं जिनमें बीज डालकर पाकिस्तान आतंकवाद को भारतीय रंग देने में कामयाब हो रहा है। हालांकि कोई भी अन्याय किसी व्यक्ति के लिए आतंकवाद के रास्ते पर चलने का बहाना नहीं बन सकता, लेकिन सचाई यह भी है कि वास्तविक सांप्रदायिक सौहार्द कायम किए बगैर आतंकवाद के राक्षस का समूल नाश मुश्किल है। बहरहाल, आगामी महीनों में आम चुनाव होने हैं। तय है कि देश के दुश्मन इस दौरान अवसर की ताक में रहेंगे। ऐसे में हमारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों को लगातार मुस्तैद रहने की जरूरत है।

पैदाइशी बीमारी का शिकार बांग्लादेश

बांग्लादेश अपने जन्म के समय कट्टरपंथ और स्वाधीनता विरोधी जिन दो प्रमुख बीमारियों से जकड़ा हुआ था, आज 43 साल बाद भी उन्हीं बीमारियों की गिरफ्त में है। वहां एक तरफ धर्मनिरपेक्ष और जातीय राष्ट्रवाद का समर्थन करने वाली ताकतें हैं, तो दूसरी तरफ मुक्ति विरोधी और इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों का गठजोड़ है। इसी के साथ अमेरिका और उसकी सहयोगी पश्चिमी ताकतें फिर एक तरफ हैं, तो बांग्लादेश के जन्म में प्रमुख भूमिका निभाने वाला भारत उनके विरुद्ध इस देश की नई प्रासंगिकता ढूंढ रहा है।

दुनिया भर के लोकतंत्र समर्थक दावा करते हैं कि चुनावी जम्हूरियत तमाम हिंसक और कट्टरपंथी समस्याओं का समाधान है, लेकिन उसके लिए कुछ बुनियादी संस्थाओं, मान्यताओं और संविधान का होना जरूरी है। उसके बिना चुनावी जम्हूरियत किसी तानाशाही से भी बड़ी समस्या बनकर खड़ी हो जाती है। उसका उदाहरण हम एक तरफ नेपाल में देख रहे हैं, तो दूसरी तरफ इसी रविवार को संपन्न हुए चुनाव के बाद बांग्लादेश में देख रहे हैं। धांधली और संकीर्णता के बाद चुनाव बहिष्कार लोकतंत्र की गंभीर बीमारी है और वह उस समय प्राणघातक हो जाती है, जब उसमें देश के प्रमुख राजनीतिक दलों की भागीदारी होती है। ऐसा ही कुछ हाल बांग्लादेश में वहां की प्रमुख पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जमायत-ए-इस्लामी समेत 18 पार्टयिों की तरफ से चुनाव बहिष्कार के बाद हुआ है। यह सही है कि 345 (45 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित) सीटों वाली जातीय संसद में इस समय शेख हसीना वाजेद की अवामी लीग ने 231 सीटें हासिल कर ली हैं और वह दोबारा सरकार बना रही है, लेकिन उसे प्रमुख विपक्षी दल बीएनपी का कड़ा विरोध झेलना पड़ रहा है। बीएनपी इन परिणामों को स्वीकार करने की बजाय उसके विरोध में खड़ी हो गई है। अवामी लीग ने 127 सीटें निर्विरोध जीत लीं और जिन 147 सीटों पर चुनाव हुए, उसमें से भी अवामी लीग ने 104 सीटें जीत लीं। उसके बाद वहां दूसरी सबसे बड़ी पार्टी जातीय पार्टी है जिसे 33 सीटें मिली हैं। छह सीटें पाकर वर्कर्स पार्टी उसके बाद आती है। 

चुनाव बहिष्कार और एक तिहाई से भी कम मतदान के आधार पर हुए इस चुनाव से निकली हसीना सरकार किस तरह देश में अपनी वैधता कायम कर पाएगी और विरोधी ताकतों से समझौता कर उन्हें शांत करेगी, यह देखा जाना है। फिलहाल स्थिति यही है कि जहां शेख हसीना का समर्थन करते हुए भारत कह रहा है कि उन्होंने चुनाव पूरी तरह संवैधानिक कायदों के आधार पर करवाया है; वहीं इस चुनाव पर ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका सवाल उठा रहे हैं। अमेरिका का तो कहना है कि यह चुनाव न तो विश्वसनीय है, न ही साफ-सुथरा- इसलिए इसे फिर से कराया जाना चाहिए ताकि तमाम राजनीतिक दलों की भागीदारी हो सके। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने चुनाव की विश्वसनीयता के बजाय हिंसा पर सवाल खड़ा किया है और उन्होंने हसीना वाजेद की तरह उन तमाम राजनीतिक ताकतों से हिंसा छोड़ने की अपील की है जो किसी न किसी बहाने इसमें शामिल हैं। पांच जनवरी को हुए जातीय संसद के चुनाव में वहां का चुनाव आयोग 39.8 प्रतिशत मतदान होने का दावा कर रहा है, जबकि इन आंकड़ों को कहीं 22 प्रतिशत तो कहीं 28 प्रतिशत बताया जा रहा है। दूसरी तरफ बीएनपी की नेता खालिदा जिया इसे महज 10 प्रतिशत बता रही हैं। यह सही है कि पाकिस्तान की तरह ही तमाम आतंकवादियों से संबंध रखने वाली पार्टी जमायत-ए-इस्लामी के महज चार प्रतिशत मत हैं लेकिन इस समय उसकी कट्टरपंथी राजनीति तेजी से परवान चढ़ी है और उससे संबंध बनाने और तोड़ने का मुद्दा बांग्लादेश का मुख्य मुद्दा बन गया है। शेख हसीना का कहना था कि खालिदा जिया पहले हिंसा और जमायत-ए-इस्लामी का साथ छोड़ें, तब उनसे बात हो सकती है। 

दूसरी तरफ खालिदा जिया की मांग रही है कि पहले शेख हसीना वाजेद इस्तीफा देकर देश में कार्यवाहक सरकार की स्थापना करें, तब उसकी देखरेख में चुनाव हो। अब चूंकि संविधान संशोधन के बाद वहां वह स्थिति नहीं है जिसमें चुनाव कार्यवाहक सरकार के तहत होता है, इसलिए हसीना और उनका समर्थन करने वाली भारत सरकार चुनाव को सही और जिया को गलत ठहरा रही हैं। बांग्लादेश के लोकतंत्र के गतिरोध के मुद्दे तो वही हैं जो 44 साल पहले थे और जिसके कारण उसका नए देश के तौर पर जन्म हुआ था। उन्हीं मुद्दों के कारण वहां की दो प्रमुख पार्टयिों ने कभी एक-दूसरे से विधिवत संवाद नहीं किया और न ही अपने को लोकतांत्रिक संस्था के दो पहियों के रूप में स्वीकार किया। उनमें से जो भी पार्टी सत्ता में आई, उसकी विपक्षी पार्टी से नहीं बन पाई। देश के संस्थापक शेख मुजीब की हत्या के बाद बांग्लादेश में लोकतंत्र कायम होने में तकरीबन 15 साल लग गए और फिर पांच साल बाद उसमें तीखा टकराव शुरू हो गया। 1996 में जब चुनाव हुआ तो बीएनपी सत्ता में थी और इसी अवामी लीग ने चुनाव का बायकाट किया था। बाद में खालिदा जिया को फिर से चुनाव करवाना पड़ा। 2006 से 2008 का समय भी राजनीतिक गतिरोध और पार्टयिों के निलंबन का रहा है। फिर पांच साल बाद बांग्लादेश का लोकतंत्र आज जबर्दस्त गतिरोध और हिंसा के चौराहे पर खड़ा है, तो उसके पीछे 1971 के युद्ध अपराधियों पर चलाया गया मुकदमा और उन्हें दिया गया दंड है। सबसे ज्यादा उग्र विरोध की स्थिति पिछले दिसम्बर में उस समय हुई जब जमायत-ए-इस्लामी के नेता और मीरपुर के हत्यारे कहे जाने वाले अब्दुल कादिर मुल्ला को फांसी दी गई। मुल्ला ने 1971 में एक कवि की हत्या की थी, 11 साल की लड़की से बलात्कार किया था और 344 लोगों की गोली मार कर जान ली थी। लेकिन कादिर मुल्ला की फांसी आसानी से संभव नहीं हुई। उसके लिए कानून में बदलाव करना पड़ा और उसके चलते काफी विवाद उठा। फिर आखिरी क्षण में उसकी फांसी पर स्टे भी आया और बीच में अमेरिकी विदेश मंत्री जान केरी ने हसीना को फोन कर फांसी रोकने की भी मांग की थी। कादिर की फांसी की प्रतिक्रिया में अवामी लीग के एक नेता को कट्टरपंथियों ने पीट-पीट कर मार डाला। 

बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता बनाम कट्टरपंथ की यह लड़ाई आज बदले की राजनीति में बदल गई है, जिसमें देश का खयाल पीछे छूट गया है। शेख हसीना सैद्धांतिक तौर पर सही हैं लेकिन अगर वे उदार और नरम होकर राजनीतिक संवाद नहीं शुरू करतीं तो उनके लिए शासन करना आसान नहीं होगा। प्रमुख विपक्षी पार्टी की नेता खालिदा जिया ने जमायत-ए-इस्लामी से एक तात्कालिक गठजोड़ बनाया था, अब उसे वे स्थायी रूप देती जा रही हैं। यही वजह है कि भारत के तमाम नेताओं से मुलाकात और प्रधानमंत्री तक के प्रयासों के बावजूद वे न तो वार्ता के लिए तैयार हुई, न ही भारत के प्रति उनका रु ख सकारात्मक हुआ। राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार बांग्लादेश के दौरे पर गए प्रणब मुखर्जी से उन्होंने अचानक मिलने से मना कर दिया। वे दिल्ली में भारत की विदेश सचिव सुजाता सिंह से मिलने और आश्वासन देने के बाद ढाका लौटकर यह कहने से नहीं चूकीं कि शेख हसीना की भूमिका सिक्किम को भारत में विलय करने वाले पहले मुख्यमंत्री काजी लेंदुप दोरजी जैसी हो रही है।

आज बांग्लादेश का विपक्ष न सिर्फ भारत विरोधी हो गया है, बल्कि वह वहां के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय पर हमले भी कर रहा है। वहां हिंदुओं के घर जलाए जा रहे हैं, उन्हें लूटा जा रहा है और पलायन पर मजबूर किया जा रहा है। वजह बताई जा रही है कि उन्होंने अवामी लीग को वोट दिया है। यहां फिर एक बार अमेरिका कट्टरपंथी ताकतों के साथ खड़ा होता दिख रहा है और भारत धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों का समर्थन करते हुए भी निष्प्रभावी हो रहा है। अगर बांग्लादेश की इस गंभीर बीमारी का समय रहते इलाज नहीं किया गया तो न सिर्फ तरक्की के रास्ते पर बढ़ता एक देश संकट में पड़ेगा, बल्कि उसके भारत जैसे पड़ोसी को आतंकी गतिविधियों का सामना करना होगा।बहिष्कार और एक तिहाई से भी कम मतदान के आधार पर हुए चुनाव से निकली हसीना सरकार किस तरह देश में अपनी वैधता कायम कर पाएगी और विरोधी ताकतों से समझौता कर उन्हें शांत करेगी, यह देखा जाना है बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता बनाम कट्टरपंथ की लड़ाई आज बदले की राजनीति में बदल गई है, जिसमें देश का खयाल पीछे छूट गया है। शेख हसीना सैद्धांतिक तौर पर सही हैं लेकिन अगर वे उदार और नरम होकर राजनीतिक संवाद नहीं शुरू करतीं तो उनके लिए शासन करना आसान नहीं होगा
- विश्लेषण अरुण कुमार त्रिपाठी

इन किरदारों पर दारोमदार

पिछले साल ने 2014 के भारतीय राजनीति के केंद्रीय परिदृश्य को बहुत कु छ स्पष्ट कर दिया है। इसमें अहम भूमिकाएं अदा करने वाले किरदारों की शिनाख्त कर दी है। उनके साथ ही, चुनावी मसलों, समीकरणों और उसके बाद की सम्भव सत्ता की तस्वीर को स्पष्ट कर दिया है। सूबों में पहले से संगठन और इस बूते सूबों में कायम सरकारों के चलते दे श के बड़े हिस्से में लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच रहेगी। नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी (हालिया विधानसभा चुनावों में नकारे जाने के बावजूद) के बीच ही मुख्य मुकाबला होगा। हालांकि दिल्ली में काबिज ’आप‘ की सरकार और उसके प्रति लोगों का आकर्षण भी एक प्रवृत्ति के रूप में रहेगा। इसके समानांतर क्षेत्रीय दलों और उनके क्षत्रपों की नीतियां और उनके क्रियान्वयन ने भी एक जनाधार विकसित किया है, जो अपने-अपने तरीकों से बटन पर दाब को प्रेरित करेंगे। हालांकि यह देखने वाली बात होगी कि यहां-वहां उभरे मुद्दों को ये नेता किन तरीकों से प्रभावित करते हैं। यशवंत देशमुख बता रहे हैं इस मर्म को-

नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी लोक सभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच सीधा मुकाबला होने जा रहा है। आखिरकार, संघ परिवार ने मोदी को राष्ट्रीय मंच पर लाने के मद्देनजर अपनी चुप्पी तोड़ी और अब वह भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हैं। उनके आने से जहां राजग के सहयोगी दलों के लिए परीक्षा की घड़ी होगी वहीं, राजग के भावी सहयोगी दल भी कहीं ज्यादा सतर्क होंगे। आज वह ऐसी हस्ती हैं, जो भारतीय राजनीति को लेकर होने वाली हर र्चचा के केंद्र में हैं। उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भाजपा को 2014 में 200 से ज्यादा सीटें दिलाकर केंद्र में कांग्रेस को सत्ता की पटरी से उतारना है। राहुल को मोदी को रोकना है। हर सूरत प्रयास करने हैं कि सत्ता-विरोधी रुझान उनकी पार्टी को नुकसान न पहुंचाने पाएं। वह मौजूदा यूपीए सरकार के कार्यकलाप से इतर स्वच्छ-साफ छवि के साथ उभरने के प्रयास में जुटे हैं। मतलब कि कांग्रेस पार्टी के युवा हिस्से पर ध्यान केंद्रित करने पर उनका ज्यादा ध्यान है। इस काम में उन्हें बड़ी कुशलता की दरकार होगी। निहित स्वार्थो में पगी और जड़ताग्रस्त पार्टी को नया रूप देने में खासी कुशलता का परिचय देना होगा।

आम आदमी पार्टी (‘आप’) बीते साल शानदार उभार के बाद इस नवजात पार्टी ने 2014 के लोक सभा चुनाव में 300 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का फैसला किया है। अमेठी को केंद्र बनाकर जिस रूप में यह पार्टी बात कर रही है, उससे मुकाबले को मोदी बनाम राहुल से हटाकर मोदी बनाम केजरीवाल बनाती दिख रही है। हालांकि उसके संगठन को देखते हुए लोक सभा चुनाव में उसकी सफलता के बारे में टिप्पणी नहीं की जा सकती। लेकिन अगर उम्मीदवार अच्छे हुए, बाकी के बनिस्बत, तो ‘आप’ उनकी सम्भावना को कठिन जरूर बना सकती है।‘आप’ का दावा है कि वह धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन इसके 70 प्रतिशत समर्थक नरेन्द्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं। कह सकते हैं कि ‘आप’ नोटा का ही एक अप्रचारित-सा संस्करण है। जब हर राजनीतिक मोर्चा चूक गया तब इसका अभ्युदय हुआ। हम नहीं जानते कि इस नये मोर्चे का भविष्य क्या होगा लेकिन हर किसी के विरोध का विचार ‘आप’ के लिए काम का रहा।

अल्पसंख्यक मतदाता बीते पांच वर्षो में असेंबली स्तर पर जो चुनाव हुए हैं, उनमें यह तथ्य स्पष्ट हुआ है कि गुजरात और बिहार में क्रमश: नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को हर चौथे मुस्लिम मतदाता ने वोट किया। इसलिए उम्मीद जताई जा सकती है कि अल्पसंख्यकों का मध्यवर्गीय तबका धार्मिक व पारम्परिक र्ढे से हटकर वोट कर सकता है।

टीआरएस और वाई एसआर कांग्रेस वर्ष 2004 में आंध्र प्रदेश ही वह राज्य था, जिसने कांग्रेस को सत्तारूढ़ होने में मदद की थी। लेकिन बीते पांच सालों में खासकर राज्य विभाजन सम्बन्धी फैसले, वाईएसआर की मृत्यु तथा राज्य कांग्रेस इकाई में टूट के चलते राज्य की राजनीति में आमूल बदलाव आ चुके हैं। अब वहां दो नए खिलाड़ी- वाईएसआर और टीआरएस-भी हैं। दोनों एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते लेकिन केंद्र में उनके एक ही सरकार के साथ होने में किसी को ताज्जुब नहीं होगा।

राजनाथ सिंह प्रधानमंत्री पद के अच्छे दावेदार हैं, क्योंकि उन्होंने एक तरफ आरएसएस का विास हासिल किया है, तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी के भी करीबी बने रहने में कामयाबी पाई। अगर भाजपा 175-180 सीटों तक ही सिमट रही तो उसे अपने सहयोगियों से समर्थन की जरूरत होगी जो मोदी के नाम पर सहमत नहीं होते हैं, तो राजनाथ ही होंगे, जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य होंगे। आरएसएस उन्हें समर्थन देगी और इस स्थिति में उनकी पार्टी को उन्हें समर्थन देना ही होगा।

मायावती अपने नेतृत्त्व के चलते दलितों के लिए मायावती प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार हैं। उत्तर प्रदेश में रहने वाले लोग समझते हैं कि अगर असेंबली चुनाव होते हैं, तो मायावती फिर से सत्ता में आ जाएंगी। पिछले असेंबली चुनाव में चतुष्कोणीय मुकाबले-भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच-में मायावती सपा से मात्र दो प्रतिशत पीछे ही रही थीं। यदि उप्र में किसी कारण से सपा डगमगाती है, तो मायावती को सत्ता में आने के लिए अपने वोट बैंक में इजाफा करने तक की जरूरत नहीं पड़ेगी। अपने दलित मतों और बड़ी संख्या में लोक सभा चुनाव के लिए घोषित ब्राह्मण और मुस्लिम उम्मीदवारों के बल पर मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए मजबूत दावेदार हैं।

नवीन पटनायक इस सूची में हैं, तो मात्र इसलिए कि उन्होंने सब से निर्धन राज्यों में शुमार ओडिशा में बेहतरीन ढंग से सरकार चलाई है। पटनायक के दावे को न केवल वाम मोर्चा और जयललिता से उनकी करीबी से मजबूती मिलती है, बल्कि पूर्व में भाजपा के साथ कामकाजी सम्बन्ध भी उनके पक्ष में होंगे।

ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भले ही यूपीए छोड़ चुकी हैं और राज्य में वामपंथी उनकी आलोचना करने में पीछे नहीं हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता नित-नित चढ़ान पर है। उन्होंने लोक सभा चुनाव में बंगाल की सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का फैसला किया है। बंगाल के लोग उनसे खुश नहीं हैं, लेकिन माकपा से उन्हें बेतहर विकल्प समझते हैं। बंगाल में ममता का ठोस मुस्लिम वोट बैंक है। ममता ने त्रिपुरा में भी, लोक सभा चुनाव में पांव पसारने का फैसला किया है।

जयललिता अन्नाद्रमुक नेता और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री। राज्य की दोनों पार्टियांद्र मुक और अन्नाद्रमुक-दिल्ली में लम्बे समय से महत्त्वपूर्ण भूमिका में रही हैं। इसलिए तमिलनाडु में 39 से ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पार्टी का जलवा होगा। लगता है कि हम 1998 के समय में पहुंच गए हैं, जब जयललिता का यही जलवा था। अब तक तो यह कहा जाता था कि जयललिता किंगमेकर ही रहना पसंद करेंगी लेकिन अभी पार्टी के समारोह में उन्होंने लालकिले के प्रति अपनी लालसा जाहिर कर दी है। इससे पीएम पद की दावेदारों की कतार में वह भी शामिल हो गई हैं। इससे यह भी जाहिर है कि वह प्रधानमंत्री बनें या बनें लेकिन इसको सम्भव करने वाले समीकरणों को जरूर प्रभावित करने की स्थिति में होंगी।

वामदल बीते कई दशकों से वामपंथी तमाम राजनीतिक घटनाक्रमों के केंद्र में रहे हैं। लेकिन पिछले पांच वर्षो के दौरान कुछ चुनावी नतीजों ने उनकी स्थिति को नाजुक बना दिया है। यूपीए-एक के कार्यकाल के दौरान वामपंथी सत्ता और विपक्ष, दोनों भूमिका में नजर आए। पश्चिम बंगाल और केरल में हार के बाद उन्हें झटका लगा है। अलबत्ता, त्रिपुरा उनका अंतिम अभयारण्य के रूप में कायम है। हालांकि आगामी चुनावों में केरल में वामपंथी खासा अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के चलते वे अपने प्रदर्शन में खासा सुधार कर सकते हैं।

लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव ये दोनों फीनिक्स सरीखे हैं। हर बार मीडिया उनके पिक्चर में ही नहीं होने की बात कहता है, और वे उभर कर सामने आ जाते हैं। दोनों ही जमीनी नेता हैं। उनका जनाधार उन्हें पसंद करता है। इसके साथ ही, दोनों-लालू और मुलायम-भारत में मुसलमानों के लिए सर्वाधिक विश्वसनीय नेता हैं। जो उनकी अनदेखी कर रहा होगा तो अपने जोखिम पर ही ऐसा कर रहा होगा।

ग्यारह काम जो तत्काल किए जाने चाहिए


राजीव कुमार 
डायरेक्टर
सीपीआर एवं फिक्की
के पूर्व महासचिव
2014 के मद्देनजर सोचें तो लगता है कि अप्रैल-मई, 2014 में होने वाले आम चुनाव के बाद राजनीतिक माहौल दीर्घकालिक कारगर नीति बनाने के लिए माकूल होगा। ऐसा माहौल नए औ र बड़े फैसले लेने की दृष्टि से जरूरी होता है। राजनेता यथास्थिति बनाए हुए सत्ता पाने का मोह पाले रहते हैं। इससे उन्हें ज्यादा से ज्यादा समय तक सत्ता-सुख लेने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति करने में सहूलियत रहती है। ज्यादा से ज्यादा धन कबाड़ने की लालसा से वे ग्रस्त रहते हैं। सो, उम्मीद करते हैं कि भारतीय मतदाता, जैसा कि उन्होंने पूर्व में भी किया है, 2014 में स्पष्ट और साफ नतीजे देकर चौंका देंगे। स्थिर और निर्णायक फैसले करने वाली सरकार आने के लिए यह जरूरी है। ऐसी सरकार जिसका नेतृत्व सत्ता में बने रहने के पार देखता हो। ऐसे एजेंडा पर काम करता हो जिससे राष्ट्र का विकास हो । ऐसा नेतृत्व जो फैसले तो लेता ही हो, उनके क्रियान्वयन की क्षमता भी रखता हो। उम्मीद है तो बड़ी, लेकिन आज इसी की दरकार है। भारत के लिए सतत और उच्च समावेशी विकास की राह प्रशस्त करने के मद्देनजर ग्यारह बड़े विचार इस प्रकार से हो सकते हैं :

(1) नकद हस्तांतरण : मौजूदा सभी घरेलू और व्यक्तिगत लक्षित सब्सिडी खत्म की जानी चाहिए। इनमें खाद्य सब्सिडी भी शामिल है। इनके स्थान पर सशर्त नकद हस्तांतरण योजना शुरू की जानी चाहिए। नकद राशि लाभार्थी परिवार की महिला मुखिया के खाते में जमा कराई जाए। लाभार्थी परिवार की पात्रता यह हो कि उसके 16 वर्ष से छोटी आयु के बच्चे, खासकर लड़कियां, स्कूल में शिक्षा ले रहे हों। यह सशर्त नकदी हस्तांतरण योजना कार्यान्वित होने के पश्चात मनरेगा को खत्म कर दिया जाए।

(2) श्रम कल्याण कोष : श्रम बाजार अधिकतम लोच वाला या कहें कि गतिशील हो। इसके लिए श्रम कल्याण कोष (जिसमें नियोक्ता और सरकार बराबर का योगदान करें) बनाया जाए। यह कोष थोड़े समय की बेरोजगारी की स्थिति में और श्रमिकों के पुन: प्रशिक्षण के लिए धन जुटाएगा। गरीबी के खात्मे के लिए यह उपाय जरूरी है क्योंकि केवल अनुदान से ही समस्या हल नहीं होगी। हमें आगामी दस वर्षो में दो करोड़ नए रोजगार अवसर पैदा करने हैं। ये अवसर हल्के इंजीनियरिंग उत्पादों और परिधानों का बड़े पैमाने पर निर्माण, हस्तशिल्प, पर्यटन जैसे श्रमोन्मुख क्षेत्रों का विकास करके पैदा किए जाने चाहिए। श्रम क्षेत्र में गतिशीलता होगी तभी हम इन क्षेत्रों में उद्यमों का विकास कर सकेंगे। 

(3) रेलवे का कायाकल्प : समय आ गया है कि भारतीय रेलवे में जान फूंकी जाए। इसके एकाधिकार को तोड़ा जाए। इसे छोटी, कुशल और स्वतंत्र क्षेत्रीय इकाइयों में विभक्त करके ऐसा किया जा सकता है। अस्पताल, स्कूल और कैटरिंग जैसे इसके सहायक कायरे का कॉरपोरेटीकरण किया जाना चाहिए। और रेलवे बोर्ड को पूर्णत: नीति-निर्धारक निकाय के रूप में बदल दिया जाए। काफी समय पहले ही ऐसा कर दिया जाना चाहिए था। ऐसा किया जाता है, तो माल-वहन और यात्री-वहन में रेलवे के योगदान में गिरते रुझान को थामा जा सकता है। 

(4) इंस्पेक्टर राज का उन्मूलन : विनिर्माण क्षेत्र खासकर लघु एवं मध्यम उद्यमों पर ध्यान केंद्रित करने के मद्देनजर जरूरी है कि 200 से कम कामगार वाली यूनिटों का फैक्टरीज एक्ट के तहत निरीक्षण करने वाले निरीक्षकों के दौरों को खत्म नहीं तो कम तो किया ही जाना चाहिए। इन यूनिटों को इंस्पेक्टर राज से छुटकारा दिला कर ही बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण और रोजगार सृजन को बढ़ावा दिया जा सकता है।

(5) उत्तर प्रदेश का विभाजन : उ प्र का चार हिस्सों में विभाजन अब तक कर दिया जाना चाहिए था। राज्य की आबादी दो करोड़ से ज्यादा है। इसमें साठ बड़े जिले हैं। इनका प्रशासन कुशलता से नहीं चल पाता। प्रदेश के चार अंचलों में इस कदर अंतर है कि उनके लिए नीति-निर्माण असंभव नहीं तो बेहद कठिन जरूर है। प्रदेश को चार हिस्सों-पश्चिमी उत्तर प्रदेश, अवध, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड-में बांटा जाना चाहिए। ऐसा किया जाना प्रशासनिक कुशलता की दिशा में उठाया गया महत्त्वपूर्ण कदम होगा। अन्य छोटे राज्यों के उदाहरणों से देखें तो उम्मीद कर सकते हैं कि राज्य-विभाजन से बेहतर आर्थिक नतीजे हासिल होंगे।

(6) बड़ी परियोजनाएं : भारत को नए स्मारकों की दरकार है। ऐसे गुजरात सरकार द्वारा प्रस्तावित कल्पासागर प्रोजेक्ट सरीखे हो सकते हैं। इस प्रोजेक्ट के तहत खंबात की खाड़ी के चारों तरफ 64 किमी. का बांध बनाया जा रहा है। इसके तहत दो नदियों-घोघा और हसनोट-को जोड़ा जाएगा। इस प्रकार, 2,000 वर्ग मील क्षेत्र में फैली ताजे पानी की झील बनाई जा सकेगी। इससे 5880 मेगावॉट ज्वारीय ऊर्जा का उत्पादन हो सकेगा। साथ ही, दक्षिणी सौराष्ट्र के 1.05 मिलियन हेक्टेयर भूक्षेत्र में सिंचाई की सहूलियत मिलेगी। इस प्रकार का मेगा प्रोजेक्ट राष्ट्र की कल्पना में रवानी ला देगा। 

(7) एयर इंडिया तथा सार्वजनिक क्षेत्र के सभी होटलों की बिक्री : एयर इंडिया तथा केंद्र सरकार या राज्य सरकारों या किन्हीं एजेंसियों के स्वामित्व और प्रबंधन वाले सभी होटलों का निजीकरण किया जाए। इन्हें पेश आ रहीं वित्तीय दिक्कतों को देखते हुए हमारे लिए मुश्किल है, इन्हें संकट से निजात दिला पाना। इनके बेचे जाने से सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य उपक्रमों को कड़ा संदेश जाएगा कि उन्हें अपने पर लगाई गई पूंजी का कम से कम दस प्रतिशत तो कमाना ही है। इससे राजस्व घाटे को शून्य पर लाने में मदद मिलेगी। इस उद्देश्य को पूरा किया जाना अपने आप में देश की अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने जैसा होगा जिसकी अभी बेहद जरूरत है। 
(8) स्वास्थ्य क्षेत्र में पीपीपी मॉडल : स्वास्थ्य क्षेत्र में पीपीपी मॉडल शुरू किया जाए। इसके लिए कुछ नियमन भर करना होगा। तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में हर दिन सरकारी नियमों के अनुसार कुछ निश्चित संख्या में रोगियों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएं। तत्पश्चात इन केंद्रों के परिसरों को डॉक्टरों को कुछ तय घंटों के लिए हर दिन उन रोगियों का उपचार करने में इस्तेमाल करने की छूट मिले जो उनकी फीस देने की क्षमता रखते हों। यह मॉडल जिला अस्पतालों और सरकारी दवाखानों पर भी लागू किया जा सकता है। इससे एक तरफ निजी अस्पतालों के विशुद्ध व्यावसायीकरण से निजात मिल सकेगी तो दूसरी तरफ सरकारी अस्पतालों में गरीब रोगियों को भी समूचित इलाज मुहैया हो सकेगा।

(9) एकल खिड़की मंजूरी : निवेशकों को तमाम मंजूरियों और स्वीकृतियों के पहाड़ से छुटकारा दिलाया जाना चाहिए। अभी जो करीब 70 मंजूरियां लेनी होती हैं, उन्हें समग्र रूप दिया जा सकता है। और इस औपचारिकता को एक बार में ही पूरा किया जा सकता है। यह अकेला उपाय ही ‘सिंगल विंडो क्लीरियेंस’ को मूर्ताकार कर सकता है और यह मात्र नारा भर नहीं रहने पाएगा। ध्यान रखना होगा कि विनिर्माण क्षेत्र में 12 प्रतिशत वार्षिक की दर से विकास नहीं किया गया तो गरीबी को खत्म नहीं किया जा सकता। विनिर्माण क्षेत्र में विकास की अनिवार्य शर्त है कि निवेश के लिए माहौल उत्साहनजक हो। इसके लिए आवश्यक है कि 70 के करीब मंजूरियों को समग्र रूप में तब्दील कर दिया जाए।

(10) गंगा न रहे मैली : गंगा नदी को कोलकाता से कानपुर तक नौकायन के जरिए सफर लायक बनाया जाए जैसी कि वह कभी थी। काशी से इलाहाबाद और कानपुर तक बड़ी संख्या में स्टीमर और बड़ी नौकाएं चलेंगी तो दशकों से होती आई गंगा व अन्य नदियों और आमतौर पर होने वाले पर्यावरण की उपेक्षा और अनदेखी पीछे छूट जाएगी। क्रियान्वयन की दृष्टि से यह कठिन एजेंडा है। लेकिन पक्की बात है कि इसे हासिल किया जा सकता है। इसका कार्यान्वयन हो सका तो यह न केवल भारत को फिर से विकास के पथ पर ले आएगा बल्कि देश में एक ऐसा प्रतिस्पर्धी माहौल बना देगा जिससे भारत अपनी वास्तविक क्षमताओं का फायदा उठा सकेगा।

(11) न्यूनतम समर्थन मूल्य की समीक्षा : खाद्य जिंसों और अन्य चुनिंदा फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पण्राली की समीक्षा कीजिए और जरूरी दिखे तो इसे तिलांजलि देने को तैयार रहिए। इस पण्राली ने अरसे से उपज लेने के पैटर्न में ही विकृति ला दी है। पंजाब में खेती के लिए पानी की कमी के बावजूद किसान धान की फसल लेने पर आमादा हैं। यह पण्राली ऊंचे दाम वाली फसलों को प्रोत्साहन देने में नाकाम रही है। कृषि को इसने ऊंची लागत वाला क्षेत्र बना छोड़ा है। और तकनीक उन्नयन व उत्पादकता बढ़ाने के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी। समय आ गया है कि भारतीय किसान को उद्यमशीलता के फायदे लेने दें। कृषि क्षेत्र को खासा फायदा होगा बशत्रे उर्वरकों व कीटनाशकों पर से तमाम सब्सिडी हटा ली जाएं जिनके चलते भूमि का बड़े स्तर पर क्षरण हुआ है। और खाद्य उत्पादों में विषैले तत्वों का स्तर बढ़ गया है।

(राजीव कुमार, कंवल सिब्बल और यशवंत देशमुख के आलेख मेल टुडे के सौजन्य से )

संभावनाशील साल

इस समय अंतरराष्ट्रीय माहौल कम खतरनाक है। चक्रीय सुधार के लिए स्थितियां परिपक्व हैं। अच्छे मॉनसून और ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि दर में कमी यह दर्शाती है कि खाद्य मुद्रास्फीति उदारवादी हो सकती है। पर इसमें कुछ सुधारों की काफी हद तक जरूरत है; जैसे कृषि विपणन और आपूत्तर्ि श्रृंखला की दक्षता में सुधार। कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है। ये बाधाएं दाम में बढ़ोतरी से रोक रही हैं । कृषि के क्षेत्र में अगर आपूत्तर्ि पक्ष की प्रतिक्रिया सामने लाई जाए तो उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति भी नीचे आ सकती है, और इसके साथ ब्याज दरें भी

प्रो. अशिमा गोयल
इंदिरा गांधी विकास
शोध संस्थान, मुंबई
भारत की तरक्की में मंदी अथवा मंथर गति में मामूली उत्क्रमण या सुधार के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं। मांग पक्ष में निर्यात की वृद्धि दर नियंतण्र व्यापार के साथ एक तरह का पुनरुद्धार है। आपूत्तर्ि पक्ष में कृषि का विकास अच्छे मॉनसून के साथ बढ़ा है। एक विशेष मंत्रिमंडलीय समिति ने काफी दिनों से लटकी हुई लगभग 3 लाख करोड़ रु पए की परियोजनाओं को मंजूरी दे दी है। अल्पकालिक उपायों ने चालू खाता घाटा (सीएडी) को कम करने के साथ-साथ रु पए को स्थिर कर के कम्पनियों के लिए अनिश्चितता को कम किया है। उच्च सीएडी ने नियंतण्र जोखिम के समय के दौरान पूंजी प्रवाह को देश के प्रति अधिक असुरक्षित बना दिया था। सीएडी का वित्त-पोषण अब एक समस्या के रूप में नहीं देखा जाता है, क्योंकि भारत एक शुद्ध तेल आयातक देश है। इसलिए यह सामान्य माल या जिंसों के दामों को कम करने में सहायक है। हाल ही के चुनावी बदलाव के बाद, सक्रिय राजनीतिक प्रतिवादों की वजह से सरकार ने चुनावों के अगले दौर के लिए कुछ ही महीने शेष होने के बावजूद विचाराधीन विधानों (लम्बित कानूनों) को निपटाने में तेजी दिखाई है। बुनियादी बातों में सुधार के साथ देश अब अमेरिकी शंकु का सामना करने के लिए और अधिक बेहतर हो गया है। लेकिन घरेलू मांग अभी कमजोर बनी हुई है। इसका कारण यह है कि ज्यादातर कम्पनियां निवेश करने से पहले भावी चुनाव परिणामों के लिए इंतजार कर रही हैं। हालांकि अब की बार एक अनुकूल सरकार के सत्ता में आने की पूरी उम्मीद है। सरकार ने घाटे को नियंत्रित करने के लिए मजबूत कदम उठाने के संकेत दिए हैं, जिसकी वजह से सेवा क्षेत्र भी कमजोर रहेगा। सरकारी खर्च काफी हद तक गैर-तिजारती माल पर पड़ता है। निरंतर रूप से उच्च उपभोक्ता मुद्रास्फीति ने उपभोक्ता के खर्च करने की शक्ति को बिगाड़ कर रख दिया है। यह उत्पादन में वृद्धि के बावजूद मौद्रिक नीति को नरम होने से रोकता है, क्योंकि यह अपनी क्षमता से काफी कम है। इसके साथ ही फर्मो के पास ज्यादा मूल्य निर्धारण की शक्ति नहीं है। लिहाजा, औद्योगिक मुद्रास्फीति कम है। परिणामस्वरूप वास्तविक ऋण दर जिसका वे सामना करती हैं; वह अधिक होती है जबकि बचतकर्ताओं (सेवर्स) को कम या नकारात्मक दर प्राप्त होती है, जिसका कारण खाद्य और सेवा मूल्य दर में वृद्धि है। यहां दोनों (मौद्रिक और राजकोषीय) नीतियां विवश हैं। मौलिक चालकों को समझें 2014 में एक उचित नीतिगत जवाबदारी या प्रतिक्रिया को बनाने के लिए, कम विकास और उच्च खाद्य मुद्रास्फीति के मौलिक चालकों को समझना होगा। ये बाहरी झटकों और अनेक वगरे (सेक्टोरल) में बंटी घरेलू बाधाओं का संयोजन है। विनिर्माण वृद्धि का पतन यह दर्शाता है कि उच्च राजकोषीय और चालू खाता घाटा होने के बावजूद कोई अतिरिक्त मांग नहीं है। उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति उच्च हो सकती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अर्थव्यवस्था अपने उबाल पर है। मांग केवल कुछ चुनी हुई चीजों के लिए ज्यादा है, जहां कुछ कठिनाइयों की वजह से आपूत्तर्ि बाधित होती है, जबकि नियंतण्र जोखिम पर पूंजी बहिर्वाह रु पए का ह्रास कर कम लागत के विकल्प उपलब्ध कराने से आयात को रोकता है। स्थानीय दाम के अभाव में तेल की स्थिर मांग सीधे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों तक ले जाती है। अलबत्ता, सोने के लिए अन्य मुद्रास्फीति बाधाओं के अभाव ने सीएडी में योगदान किया- यह आमतौर पर पैदा होने वाली (जनरलाइज्ड) अतिरिक्त मांग के कारण नहीं था। कीमतों में बढ़ोतरी का कारण खाद्य मुद्रास्फीति से मजदूरी में वृद्धि हो सकती है, जो कीमतों में दोबारा बढ़ोतरी का कारण बनेगी। ग्रामीण वास्तविक मजदूरी, जो अब समान रूप से चल रही है, में 2007 की उच्च खाद्य मुद्रास्फीति के बाद भारी वृद्धि देखी गई थी। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बड़े सरकारी स्थानांतरण ने भी मजदूरी बढ़ाने में सहयोग किया। नकदी वेतन वृद्धि अब मुद्रास्फीति के भी पार हो गई है। उत्पादकता में कुछ वृद्धि हुई थी और मजदूरी में वृद्धि ने कीमतों को बढ़ने नहीं दिया-विविध आपूत्तर्ि के झटके ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसकी शुरु आत अंतरराष्ट्रीय खाद्य मूल्य में बढ़ोतरी के साथ हुई; बाह्य और रु पया मूल्य ह्रास का नियंतण्र वित्तीय संकट से सम्बन्ध और उसके बाद यूरो ऋण संकट, शुद्ध मांग के बावजूद नियंतण्र तरलता की वजह से तेल की कीमतों में बढ़त और 2009 में मॉनसून की विफलता-यही समय था, जब नियंतण्र झटके थमे थे। फिर भी अर्थव्यवस्था नीचे चली गई, और इसकी लम्बी अवधि की विकास सम्भावनाएं अपने में ही डटी रहीं। इस समय अंतरराष्ट्रीय माहौल कम खतरनाक है। चक्रीय सुधार के लिए स्थितियां परिपक्व हैं। अच्छे मॉनसून और ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि दर में कमी यह दर्शाती है कि खाद्य मुद्रास्फीति उदारवादी हो सकती है। पर इसमें कुछ सुधारों की काफी हद तक जरूरत है ;जैसे कृषि विपणन और आपूत्तर्ि श्रृंखला की दक्षता में सुधार। कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है पर ये बाधाएं इसके दाम में बढ़ोतरी करने से रोक रही हैं। कृषि के क्षेत्र में अगर आपूत्तर्ि पक्ष की प्रतिक्रिया सामने लाई जाए तो उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति भी नीचे आ सकती है, और इसके साथ ब्याज दरें भी। सुधार के दीर्घकालिक उपाय मेरे विचार से नये साल में अन्य आवश्यक दीर्घकालिक उपाय भी हैं, जो सरकारी प्रक्रियाओं और व्यापार करने की सुविधा देने में सुधार करते हैं। इन्हें सतर्कता-निगरानी के साथ किया जाना चाहिए। बेहतर शासन- कार्यपण्राली से लेन-देन की लागत कम हो जाएगी, जो विस्तृत श्रृंखला में विकास की व्यापारिक गतिविधियों को मदद करेगी, जिसमें निर्यात में वृद्धि शामिल है। अधिक साक्षरता और जागरूकता से एक बड़ा मध्यम वर्ग लोकतांत्रिक संस्थाओं के खराब प्रशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत बन कर निकलेगा। बेहतर सार्वजनिक सेवाओं की भी मांग है। हालांकि इससे अल्पावधि में निर्णय लेने की दिक्कत से विकास में देर हो सकती है, पर निरंतर रूप से लम्बी अवधि के लिए यह विकास अच्छा है। लोकतंत्र में राजनेताओं को नियंतण्र राय को सम्मान के साथ सार्वभौमिक मताधिकार में शामिल किए जाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए क्योंकि यह उपयोगी है। असमानता को काफी हद तक रोकता है। हाल में सम्पन्न चुनावों में देखने को मिला कि मतदाताओं को पुरानी शैली के हस्तांतरण आधारित उपायों की तुलना में ‘सक्रिय समावेश’ चाहिए जो नौकरियों और उत्पादकता में सुधार ला सके। शिक्षा में बेहतर रिटर्न का मतलब है कि सभी भारतीय बच्चे अब स्कूल जा रहे हैं और अच्छी नौकरी के लिए आकांक्षाएं बढ़ रही हैं।

दर्ज कराता हूं ..

जमाखोरी, मिलावटखोरी व मुनाफाखोरी पर अंक लाएं पिछले तीन दशक से सक्रिय रूप से पत्रकारिता से जुड़ा हूं। करीब एक दशक से आपका लब्ध प्रतिष्ठ ‘हस्तक्षेप’ अंक पढ़ रहा हूं। सम-सामयिक एवं ज्वलंत विषयों पर हस्तक्षेप अच्छी एवं स्तरीय सामग्री पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है। इसके लिए आपका हस्तक्षेप डेस्क प्रशंसा का पात्र है। पिछले कुछ वर्षो से देश में जिस तरह से महंगाई एवं भ्रष्टाचार बढ़ा है, वह चिंता का विषय है। पिछले दो वर्षो से मैं विभिन्न समाचार पत्रों में यह समाचार ढूंढ रहा हूं कि कहीं को ई मिलावटखोर, मुनाफाखोर तथा जमाखोर के गिरफ्तार होने, जेल भेजे जाने की घटना पढ़ने को क्यों नहीं मिलती? क्या देश में हर कहीं मिलावटखोरी, मुनाफाखोरी तथा जमाखोरी बंद है? अगर नहीं तो ऐसे तत्वों पर शासन- प्रशासन वैिक क्यों नहीं कसता? ऐसे तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? दरअसल, केंद्र तथा प्रदेश सरकारें किसी के विरुद्ध कार्रवाई करके उसे नाराज नहीं करना चाहतीं। इसीलिए ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्वों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। ऐसे तत्वों के हौसले बुलन्द हैं। जब तक इनमें कानून व्यवस्था का खौफ (भय) नहीं होगा तब तक ये अनै तिक कार्य करते रहेंगे। मेरी इच्छा है कि हस्तक्षेप में जमाखोरी, मिलावटखोरी एवं मुनाफाखोरी पर भी सामग्री प्रकाशित हो। रमेश त्रिपाठी, त्रिपाठी सदन, आचार्य नगर, फैजाबाद (उप्र)

राम बहादुर राय को साधुवाद हस्तक्षेप के ‘कांग्रेस नीतियां और नेतृत्व’ अंक (21 दिसम्बर 2013) में विभिन्न राजनीतिक विश्लेषकों, बुद्धिजीवियों व वरिष्ठ पत्रकारों के विचारों के जरिये विषय को जांचने, परखने, सोचने का प्रयास किया गया है। यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है। विषय को समझने में पाठकों को आसानी तो रही ही खुद कांग्रेस पार्टी को इससे अपनी नीतियों एवं नेतृत्त्व को संवारने की दिशा मिलेगी। राहुल गांधी को केंद्र में रखकर कांग्रेस पार्टी नीतियों तथा नेतृत्त्व पर वरिष्ठ पत्रकार-राजनीतिक विश्लेषक रामबहादुर राय का मुख्य आलेख ‘आसान शिखर का तीखा ढलान’ बेबाक एवं ठोस धरातल पर आधारित है। इसमें प्रबुद्ध विश्लेषक ने राजनीतिक शरारत को औषधि का रूप करार दिया है। भले ही वह स्थाई उपचार न हो पर कारगर होती ही है। वरिष्ठ विश्लेषक का राहुल गांधी के लिए यह कथन कि वह ‘अपने पुरखों की राजनीतिक कमाई को खुरच-खुरच कर खा रहे हैं और इस सोच में हैं कि छप्पर फटेगा और राजनीतिक दौलत बरसेगी,’ वाकई सटीक और दुरुस्त है। चुनाव पूर्व एवं चुनाव बाद राहुल के व्यक्तित्व को अलग-अलग प्रस्तुत किया गया है। ‘राष्ट्रीय सहारा’

के सम्पादक एवं प्रबुद्ध राजनीतिक विश्लेषक राम बहादुर राय को साधुवाद। निवेदन है कि प्रत्येक साप्ताहिक विषय, जो हस्तक्षेप में निर्धारित होते हैं, का पूर्व उल्लेख कर दिया जाए ताकि कुछ अन्य प्रबुद्ध लोगों को भी विचार-विमर्श में भागीदारी का सुअवसर प्राप्त हो सके। आईएम पाण्डेय, प्रवक्ता, मेवाड़ संस्थान, वसुंधरा, गाजियाबाद

हस्तक्षेप के विचारशील पाठकों की प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। वे पूर्व की तरह हस्तक्षेप में प्रकाशित होने वाली सामग्री की प्रासंगिकता पर अपनी राय देने के साथ-साथ आयोजित मुद्दों व सवालों पर बहस में भी दखल दे सकते हैं। हालांकि सीमित स्पेस और उसमें सभी पाठकों की राय का आदर करने की हमारी भावना को देखते हुए आपसे अनुरोध है कि प्रतिक्रियाएं दस पंक्तियों से ज्यादा न दें। इसके लिए आप हमारे मे ल आईडी का प्रयोग कर सकते हैं।

पारदर्शिता से जवाबदेही का..

दूसरा भाग है, जो रोजर्मरा के शासन में जन भागीदारी के अहम कारक, जैसे अति-सक्रिय खुलासा, नागरिक सुगमता और शिकायतों का निपटारा तय करने में नागरिकों की मदद कर सकता है। यह लोकसभा में यह बहस और बाद पारित कराए जाने के लिए सूचीबद्ध है। इसे तमाम दलों का समर्थन भी प्राप्त है। इसका अभी तक पारित नहीं किया जाना विडम्बना ही है। व्हिसलब्लोअर विधेयक भी राज्य सभा में पेश किए जाने के लिए सूचीबद्ध है। भारतीय सूचना के अधिकार कानून ने हर भारतीय नागरिक को भ्रष्टाचार के खिलाफ सचेत करने वाला संभावित बना दिया है। आरटीआई कार्यकर्ताओं को निहित स्वार्थो से कितना खतरा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2007 से अब तक 40 से अधिक आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। यदि लोग लोकपाल से शिकायत करेंगे तो हत्याओं की संख्या में भारी इजाफा होगा। इसलिए यह साफ है कि यदि नागरिकों को बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतें करने के लिए प्रोत्साहित व समर्थित किया गया तो उनकी रक्षा भी करनी होगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन कानूनों के जरिए चीजों को बदल कर कैसे बेहतर कर सकते हैं। आरटीआई आंदोलन की सफलता से इसके कुछ सवालों के जवाब मिलने चाहिएं। आंदोलन और उनके नेताओं को आरटीआई आंदोलन से सबक लेने की जरूरत है। एक संस्कृति को बदलने और शक्तिशाली निहित स्वार्थो को काबू करने के लिए आम नागरिक का शाश्वत दबाव व सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। यह केवल एक कानून के जरिए हो सकता है जब लोग इसे बनाएंगे और इस्तेमाल करेंगे। वर्ष 2014 में भारत को बेहद चौकस रहना होगा, विरोध का काबू करना होगा और बकाया पड़े विधेयकों को लागू करना होगा। लोगों के आंदोलनों को समझे जाने की जरूरत है। यह वादा करना मूर्खता होगी कि एक कानून सभी समस्याओं को हल कर देगा और लोगों को बिना कुछ करे धरे सुशासन मिल जाएगा। सभी राजनीतिक दलों को यह समझने की जरूरत है कि अब वे इस संकट का सामना कर रहे हैं कि क्या लोगों को अब उनकी जरूरत है। वे देख रहे हैं कि अब उन्हें आम आदमी की बुद्धिमता और सक्रियता का सामना करना होगा

न्यायिक सुधार का नया माइंड सेट

संसद-विधानसभाओं में और इनके बाहर सेमिनारों में भी पूर्व जजों के भ्रष्टाचार व उन पर यौन र्दुव्‍यवहार के आरोपों पर बहस की जाए। संसद और विधानसभाओं को इस पर बहस से परहेज नहीं करना चाहिए और न न्यायपालिका को अनुचित मानना चाहिए। अगर लोग न्यायपालिका को मान देते हैं, तो उन्हें न्यायपालिका के आचरण पर र्चचा करने की इजाजत क्यों नहीं दी जा सकती? किसी भी संस्था का मान लोगों से ही है और अगर लोगों के बीच संस्था से जुड़े लोगों का मान गिर गया तो उस संस्था का मान कैसे बचा रह सकता है

नए साल में न्यायपालिका के सामने भी बहुत सारी चुनौतियां रहेंगी। न्यायपालिका से लोगों की अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। लोग हर समस्या के समाधान के लिए न्याय पालिका की तरफ देखने लगे हैं। यह सोच सही है अथवा गलत यह लम्बी र्चचा या बहस का विषय हो सकता है। अभी जरूरी यह देखना है कि न्यायपालिका से जो अपेक्षाएं की जा रही हैं, उनकी पूर्ति करने में वह कितना समर्थ है? इस संदर्भ में पहली जरूरत आबादी के अनुपात में अदालतों में जज रखने की है। यह काम इस साल प्राथमिकता के स्तर पर करना होगा। यह अदालतों में मुकदमों के अम्बार को देखते हुए उनके तय समय में त्वरित निबटान के लिए आवश्यक होगा। यह विषय सबसे महत्त्वपूर्ण है। देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित मुकदमों की संख्या 3 करोड़ या उससे भी ज्यादा बताई जाती है। आबादी के हिसाब से जज बिठाने की बात भी मैंने मुकदमों के इन्हीं अम्बार की वजह से ही कही है। हालांकि मेरा मानना है कि मुकदमे कोई समस्या नहीं हैं। संख्या में भले ही यह सुरसा की तरह नजर आते हों या फिर इनके पीढ़ी दर पीढ़ी चलने की असंख्य कहानियां सुनी जाती हों। मेरा दृढ़ मत यह है कि सभी लम्बित मुकदमे छह महीने के भीतर खत्म किए जा सकते हैं। मेरे इस वक्तव्य पर वे लोग आश्र्चय व्यक्त कर सकते हैं जो न्यायपालिका से वास्ता नहीं रखते। आपराधिकमामले छह महीने में खत्म किए जा सकते हैं और सिविल मामले एक साल के भीतर। इसलिए कि अगर न्यायपालिका से लोगों की अपेक्षा बढ़ गई है तो उसे मुकदमों को निश्चित समय सीमा में निपटाने की चुनौती तो लेनी ही होगी। यह काम बोलने से नहीं होगा। इसके लिए हमें न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाना होगा। सभी पक्षों को अपना माइंडसेट बदलना होगा। अभी हमारा माइंडसेट बहुत पुराने जमाने का है। ब्रिटिश र्ढे पर ही हम न्यायपालिका को चला रहे हैं। जब माइंडसेट बदलने की बाद की जा रही है, तब जनता और वकीलों के ही नहीं, जजों के माइंडसेट भी बदलने की बात है। यहां सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती। त्वरित न्याय के लिए सरकार को भी अपना माइंडसेट बदलना होगा। सिर्फ कहने से काम नहीं चलेगा। यह स्लोगन का विषय नहीं है। सरकार त्वरित न्याय के सिर्फ स्लोगन भर चलाती है। एक और अहम बदलाव सर्वोच्च न्यायालय की संरचना में करना होगा। वह यह कि देश में सुप्रीम कोर्ट की तीन बेंच रखनी होंगी। एक पूर्वोत्तर हिस्से में, दूसरी देश के पश्चिम में और तीसरी बेंच दक्षिण में रखी जानी चाहिए। न्यायपालिका के कामकाज की भाषा क्या हो? इस पर भी र्चचा करने में कोई हर्ज नहीं है। बहुत लोगों का विचार रहा है कि भाषा की वजह से बहुत से लोग ऐसा महसूस करते हैं कि उन्हें न्याय हासिल करने में मुश्किल जाती है। सुप्रीम कोर्ट में तो हिंदी या क्षेत्रीय भाषा लाना मुश्किल है। वहां तो अभी अंग्रेजी में ही कामकाज चल सकेगा। इस कोर्ट में जो जज आते हैं, वह अलग-अलग प्रांतों से आते हैं, जहां अलग-अलग भाषाएं प्रचलन में हैं। इसी वजह से एक भाषा के रूप में अंग्रेजी चलन में है, जिसे विभिन्न प्रांतों से आए जज समझ सकते हैं और अपना काम कर सकते हैं। हाई कोर्ट में क्षेत्रीय भाषा चल सकती है, उसमें ज्यादा मुश्किल नहीं जाएगी। अभी हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस दूसरे प्रांत के जज को बनाया जाता है। क्षेत्रीय भाषा में कामकाज के लिए इस चलन को बदलना होगा। एक बात और है। हाई कोर्ट में क्षेत्रीय भाषा में कामकाज को लेकर बाकायदा अध्ययन कराया जाना चाहिए ताकि यह समझा जा सके कि किस क्षेत्रीय भाषा का कहां और कितना प्रभाव है। यह विषय बड़ा है और लोगों की भावनाएं भी इससे जुड़ी हैं, इसलिए एक अलग आयोग बनाए बिना काम नहीं चलेगा। इस तरह के कदम उठाने में विलंब नहीं होना चाहिए। जब न्यायपालिका से अपेक्षाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, तब इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि कुछ पूर्व जजों पर यौन उत्पीड़न और भ्रष्टाचार सरीखे आरोप लग रहे हैं। यह चिंता का विषय है। इसे छोटा विषय या व्यक्ति विशेष का विषय बनाकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह न्यायपालिका की प्रतिष्ठा से जुड़ा विषय है। अगर ऐसे मामलों से न्यायपालिका की प्रतिमा को ठेस पहुंचती है, तो देश में कानून के राज की स्थापना पर भी तो असर पड़ेगा। जजों पर लग रहे निंदनीय आरोपों पर अधिक संख्या में सेमिनार और संवाद होने चाहिए। संसद और विधानसभाओं में भी इस पर बहस से परहेज नहीं करना चाहिए और न ही न्यायपालिका को ऐसी बहस को अनुचित मानना चाहिए। मेरे जैसे व्यक्ति तो यह भी कहेगा कि संसद-विधानसभाओं से बाहर लोगों के बीच न्यायपालिका को लेकर पूरी बहस होनी चाहिए। अगर लोग न्यायपालिका को मान देते हैं, तो उन्हें न्यायपालिका के आचरण पर र्चचा करने की इजाजत क्यों नहीं दी जा सकती? किसी भी संस्था का मान लोगों से ही है और अगर लोगों के बीच संस्था से जुड़े लोगों का मान गिर गया तो उस संस्था का मान कैसे बचा रह सकता है?

एजेंडा जो है देश में सुप्रीम कोर्ट की तीन बेंच बनाई जाए। एक पूर्वोत्तर हिस्से में, दूसरी पश्चिम में और तीसरी बेंच दक्षिण भारत में रखी जाए अदालतों में मुकदमों के अम्बार को देखते हुए आबादी के मुताबिक नियुक्त किये जाएं जज सभी लम्बित मुकदमे छह महीने के भीतर खत्म किए जा सकते हैं और सिविल मामले एक साल के भीतर अगर न्यायपालिका से लोगों की अपेक्षा बढ़ गई है तो उसे मुकदमों को निश्चित समय सीमा में निपटाने की चुनौती तो लेनी ही होगी न्यायपालिका के कामकाज की भाषा पर भी विमर्श में कोई हर्ज नहीं। सु प्रीम कोर्ट में तो हिंदी या क्षेत्रीय भाषा की गुंजाइश तो कम है पर हाईकोर्ट में यह संभव क्षेत्रीय भाषा में कामकाज का बाकायदा अध्ययन कराया जाए और इसके लिए जल्द से जल्द एक आयोग बनाया जाए
-पी.बी. सावंत पूर्व न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय

रक्षा की प्राथमिकताएं

हमारे देश में हर चीज के साथ ही असंगत दृष्टिकोण अपनाया जाता है। हम मुकम्मल तस्वीर देखने के आदी हैं। हम एक बड़ी तस्वीर में बहुत सारा खालीपन छोड़ देते हैं , जिसका नतीजा यह होता है कि करदाताओं का बहुत सारा धन बेकार बर्बाद कर देते हैं। हमें दुश्मनों के खतरे का किस तरह से जवाब देना है, किस तरह से अपने देश में रक्षा उद्योग को विकसित करना है; इसके लिए दीर्घकालिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हमें ठोस-मुकम्मल रणनीति बनानी होगी

भरत वर्मा रक्षा विशेषज्ञ
भारत की एक अजीबोगरीब कहानी है। एकतरफ हम आधुनिकतम तकनीकयुक्त मंगल यान भेजा तो दूसरी ओर, हम अपनी सेनाओं के लिए आधुनिक राइफल, पिस्टल, कार्बाइन जैसे छोटे हथियार तक विकसित कर पाने या बना पाने में आजादी के 66 सालों बाद भी नाकाम रहे। भारत का दूसरा पहलू यह है कि हमारी सीमा, खासतौर पर जमीन से जुड़ी सीमा पर हमेशा हलचल मची रहती है। जो दुश्मन हैं या प्रतिद्वंद्वी हैं, चाहे चीन हो या पाकिस्तान, वे सभी हमारी जमीन हथियाना चाहते हैं। दुश्मनों के इस बने रहने वाले जबरदस्त दबावों ओैर चुनौती के मुकाबले के मद्देनजर अपनी सेनाओं का जिस ढंग से आधुनिकीकरण करना था, हमने नहीं किया। यह काम हमने पिछले तीन-चार दशकों से नहीं किया है।

खतरे की दिशाएं 2014 की जो सबसे बड़ी चुनौती हमारे सामने होगी, वह चीन से आ रही है। चीन हमारा मुख्य प्रतिद्वंद्वी है और उसी से हमें सबसे ज्यादा खतरा भी है। चीन के साथ हमारा कोई बार्डर नहीं था। लेकिन जब चीन ने स्वतंत्र देश तिब्बत को हड़प लिया, उसने हमारे देश के साथ अतिरिक्त 90,000 वर्ग किलोमीटर की जमीन को विवादित बनाने में जुटा है, जिसमें लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश जैसे इलाके आते हैं। चीन पिछले कई दशकों से तैयारी कर रहा है कि उसकी सेना तिब्बत के अंदर बहुत प्रबल तरीके से हमारे ऊपर आक्रामक हो सके। दूसरी तरफ, पाकिस्तान हमसे कश्मीर मांग रहा है और चाह रहा है कि भारत के अंदर साम्प्रदायिक वैमनस्य फैले। उसकी इंटेलीजेंस एजेंसी, आर्मी और उसकी पूरी सरकार इस लक्ष्य के मद्देनजर भारत के खिलाफ गुप्त रूप से कई सारे ऑपरेशन चला रहे हैं। साथ ही खुले रूप में सीमाओं पर तनाव बढ़ा रहे हैं तो भारत के लिए 2014 की सबसे बड़ी चुनौती अपनी राष्ट्रीय अखंडता को बरकरार रखना है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि सीमाओं की अखंडता बरकरार रहे और हमारी सेनाएं देश की सुरक्षा और सीमाओं की रक्षा डटकर कर सकें। इसके लिए अपने रक्षा उद्योग को भी उन्नत और आधुनिक बनाना होगा। रक्षा क्षेत्र संबंधी सार्वजनिक क्षेत्र के निकायों में करदाताओं का पैसा देने के बावजूद वहां सिर्फ अक्षमता और भ्रष्टाचार ही बढ़ा है। वह कुछ भी ढंग का बना पाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। अगर हम वायुसेना की तरफ देखें तो हिन्दुस्तान एयरोनॉटिकल लिमिटेड (एचयूएल) लड़ाकू विमान सुखोई-30 के पुर्जे भी नहीं बना पाता है। जब वह उसमें अपने पुर्जे लगाता है तो इस विमान की असेंबली लाइन खराब हो जाती है जबकि एचयूएल बहुत सारे विमान विकसित करने की होड़ में है। इस कम्पनी की नाकामी का एकमात्र कारण यही है कि चूंकि यह सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी है और करदाताओं के पैसे से चल रही है तो इसमें अक्षमता और अपव्यय बहुत अधिक है और नतीजा कुछ नहीं निकल पा रहा है।

हिफाजत का नया खाका खींचिये इसलिए हमें 2014 में एक नया मॉडल ढूंढने की जरूरत है जिसमें निजी क्षेत्र की भूमिका होनी चाहिए। मिसाल के तौर पर दुनिया की सबसे बड़ी दो कम्पनियां जो राइफल, कार्बाइन और पिस्तौल समेत जमीनी सेनाओं के इस्तेमाल की दूसरी चीजें बनाती हैं, उनसे हमें समझौता करके अपने देश की कम से कम दो निजी कम्पनियों के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित करना जरूरी है। विदेशी कम्पनियों के लिए भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है क्योंकि हमारी तीनों सेना समेत अर्धसैनिक बलों और राज्यों की पुलिस बल का आधुनिकीकरण किया जाना है। इनमें हर जगह राइफल, पिस्टल जैसे छोटे हथियारों की जरूरत सबसे ज्यादा होती है। विदेशी कम्पनियां अपनी तकनीक का हस्तांतरण हमें तभी करेंगी जब हम उन्हें भारतीय संयुक्त उद्यम के अधीन कम से कम 49 प्रतिशत की भागीदारी दें। उसके बाद भारत सरकार को देश की चुनिंदा निजी रक्षा कम्पनियों और प्रस्तावित संयुक्त उद्यमों में अपना पैसा निवेश करना चाहिए ताकि अनुसंधान और विकास हो सके। बहुत तेजी से बदलती रक्षा तकनीक की रफ्तार से कदम मिलाने के लिए हमें भी पारम्परिक तरीकों के बजाय सतत अनुसंधान एवं विकास पर जोर देना होगा। इसी प्रकार, हमें एचएएल जैसी कम्पनियां निजी क्षेत्र के साथ मिलकर बनानी चाहिए। देश में ‘पिपाव’ जैसी निजी शिपयार्ड कम्पनी सफलतापूर्वक काम कर रही है, जो विश्वस्तरीय जहाज बनाती है। ऐसा ही मॉडल हमें सेनाओं के लिए हथियार समेत दूसरे जरूरी सामान बनाने के लिए लाना होगा। हमें सबसे अधिक जोर आधुनिक तकनीक पर देना होगा। दुनिया भर के सैनिक सामान और हथियार बनाने वाली कम्पनियों को भारत का बाजार चाहिए और हमें उनकी आधुनिक तकनीक चाहिए। इसलिए सरकार को उनके साथ सांठगांठ कर तकनीक पाने पर जोर देना चाहिए। इसमें दोनों ही पक्षों के लिए फायदेमंद फार्मूला निकलता है। इसलिए कोई अड़चन भी नहीं है। सिवाय इच्छाशक्ति और पहल करने के। अगर इसकी शुरुआत 2014 में हो जाती है तो अगले पांच से दस साल के अंदर हम रक्षा सामग्री दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक बन जाएंगे। इससे जो मुनाफा हमें होगा, उससे हम आगे के अनुसंधान एवं विकास में बहुत आसानी से निवेश कर पाएंगे।

समुद्री क्षेत्र में सुरक्षा की चुनौती और क्षमताएं हमारी तीनों सेना में तालमेल की कमी है। इसे लेकर करगिल समीक्षा आयोग ने बहुत ही स्पष्ट रोडमैप बनाया था। तीनों सेनाओं का पहले आपस में, फिर इनका सेना मुख्यालयों के साथ समन्वय का होना बेहद जरूरी है। उसमें एक चीफ ऑफ डिफेंस की नियुक्ति जरूरी है लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने अपने बाबुओं के दबाव में नहीं होने दिया। इस देश के बाबू जो ज्यादातर अनपढ़ हैं और उन्हें मिलिट्री के बारे में ज्यादा पता नहीं है। वे इस 21वीं सदी में हमारे देश की मिलिट्री के स्ट्रकचर के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ कर रहे हैं, जिससे देश की सुरक्षा को आने वाले समय में बहुत बड़ी सेंध लग सकती है। इसलिए करगिल समीक्षा आयोग ने जो भी अनुमोदन किया है, उसे जमीनी स्तर पर लागू होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो 21वीं सदी में अगर हमारी हर सेना अलग-अलग युद्ध लड़ेगी और वह जरूरी हथियारों के बिना लड़ेगी, साथ ही अगर देश के कर्ता-धर्ता मिलिट्री एडवाइस को राष्ट्रीय सुरक्षा में इनपुट के तौर पर नहीं लेंगे,तो देश को बहुत बड़ा धक्का लगेगा। जल क्षेत्र में भी हमें लगातार चीन से चुनौती मिल रही है। चीन तेजी से अपने नौसैनिक बेड़े को उन्नत करने में जुटा है। इसीलिए हमने रूस से ‘गोर्शकोव’ जैसा विमानवाहक पोत खरीदा है। यह विमानवाहक पोत नवीनीकरण के बाद ‘विक्रमादित्य’ बनकर आ रहा है। लेकिन इसमें एक बहुत बड़ी समस्या हैन वीनीकरण की। चार-पांच साल की इस प्रक्रिया के बावजूद आज तक यह तय नहीं हो पाया है कि उस पोत को किन-किन हथियारों से सुसज्जित करना है। उसमें अभी तक हवाई सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। यह सरकार की नाकामी और काहिली को दर्शाता है। अब हमें अगले चार-पांच साल उसके डिफेंस सिस्टम को सुज्जित करने में लगाने होंगे, जिसकी सरकारी खरीद की रफ्तार बेहद सुस्त है। हमारे देश में जहां भ्रष्टाचार और अन्य कारणों से निविदाएं बार-बार रद्द होती रहती हैं, उन्हें देखते हुए लगता है कि इस पोत को काम लायक बनाने में अभी पांच साल और लगेंगे। तब तक तो यह पोत तकनीकी तौर पर और भी पुराना पड़ जाएगा। हमने नेवी के लिए विमानवाहक पोत ‘विक्रमादित्य’ की खरीद कर ली लेकिन उसे हथियारों से सुसज्जित नहीं किया। साथ ही विमानवाहक पोत के लिए पनडुब्बी के बेड़े की मदद की भी जरूरत पड़ती है लेकिन हमने नेवी के लिए पनडुब्बियों का मुकम्मल बेड़ा तैयार नहीं किया है। हमने स्कार्पियन पनडुब्बियां बड़ी मुश्किल से खरीदी हैं। उस समय हमने पूरी दुनिया से पनडुब्बी बनाने वालों से निविदाएं मंगाई थीं लेकिन बहुत पहले ही नौसेना ने सरकार से कहा था कि 2012 तक उनकी सभी पनडुब्बियां पुरानी पड़ जाएंगी और उन्हें हटा दिया जाएगा। फिर भी हमने केवल 6 स्कार्पियन पनडुब्बी की खरीद की जबकि कम से कम 12 की खरीद करनी चाहिए थी। उस वक्त हमें इस हिसाब से पनडुब्बी की खरीद करनी थी कि 2014 से हमें पनडुब्बियां मिलनी शुरू हो जातीं और हमारे बेड़े में कम से कम 24 से 30 पनडुब्बियां होतीं। यह इसलिए जरूरी है कि आज पाकिस्तान के पास हमसे कहीं ज्यादा आधुनिक और ज्यादा संख्या में पनडुब्बियां हैं। चीन जिससे हमारा मुख्य खतरा है, उसके पास 60 से

70 पारम्परिक तथा 3 से 4 न्यूक्लियर पनडुब्बियां हैं। अगर हम भविष्य की सुरक्षा की योजना पहले से नहीं करेंगे तो हमें उसका खमियाजा आगे चलकर भुगतना होगा।

पुराने पंखों से उड़ान में खतरे ही खतरे वायु सेना की तरफ देखें तो हमारी शक्ति में इजाफा हुआ है, लॉकहिड मार्टनि और हरक्युलस के आने से। साथ ही, सी-70 ग्लोबमास्टर के आने से हमारी एयर लिफ्ट की क्षमता बढ़ी है लेकिन हमने जो डील एमएमआरसीए से की है, वह आज तक पूरी नहीं हुई है। नतीजतन, 2016 से हमारे वायु सेना की हमलावर क्षमता जबरदस्त गिरावट आएगी क्योंकि पुराने एयरक्रॉफ्ट रिटायर हो रहे हैं। जैसे अभी हाल में मिग-21 को किया गया। जो हमारे 42 लड़ाकू विमानों की क्षमता है कि वह गिर कर 24-25 तक पहुंच जाएगी जबकि हमें चीन के सीमाओं के साथ-साथ पाकिस्तान की सीमाओं पर वायुसेना की सुरक्षा की जबरदस्त जरूरत होगी। इसलिए 2014 में बहुत जरूरी है कि 126 फायटर एयरक्रॉफ्ट की खरीद जल्द से जल्द की जाए।

सबसे कड़ी मार तो जमीन पर इसी तरह, थल सेना की तरफ देखें तो सबसे ज्यादा दबाव हमारी भारतीय थल सेना के ऊपर है क्योंकि एक तरफ चीन हमारी जमीन को हड़पता जा रहा है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान ने बहुत सारे आतंकवादी समूहों को कश्मीर में घुसपैठ करा रखी है। फिर भी भारतीय सेना ने सीमाओं को संभाला है। देश के अंदर विद्रोह को भी संभाला हुआ है। वह दो लड़ाइयां लड़ रही हैं। हालांकि वायुसेना और नौसेना का तो कुछ हद आधुनिकीकरण हुआ है लेकिन भारतीय थलसेना का आधुनिकीकरण बिल्कुल ठप पड़ा है। आज न भारतीय सेना के पास आधुनिक राइफलें हैं और न ही कार्बाइन। हमारी सेना अभी तक द्वितीय विश्व युद्ध के समय के कार्बाइन ही इस्तेमाल कर रही है। न ही उनके पास 155 मिलीमीटर की तोपें हैं। हमारा तोपखाना खाली पड़ा है और 60 और 70 के दशक की आउटडेटेट तोपें लेकर भारतीय सेना देश की सुरक्षा में जुटी है। हमारी पैदल सेना की 355 बटालियन हैं, जो दुनिया भर में लोहा ले चुकी हैं। इनमें कई सारी बटालियन 200 साल से ज्यादा पुरानी हैं। उन्होंने बिना आधुनिक हथियार के हमारी सीमाओं को संभाला हुआ है लेकिन आज उनकी क्षमता बहुत ज्यादा गिर गई है। उनको हमें अमेरिकन बटालियन के हमलावर तकनीक के स्तर तक लाना बहुत जरूरी है। इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी आर्मी का आधुनिकीकरण करना है, क्योंकि उसे सामान्य लड़ाई में भले न उतरना पड़ रहा हो, वह स्थानीय स्तर पर छिटपुट लड़ाई का रोज सामना करती है। सीमा के पार से होने वाली गोलीबारी और चीनी सेनाओं की घुसपैठ का उन्हें रोज सामना करना पड़ता है। इसलिए पैदल सेना का आधुनिकीकरण हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमें इस कमजोरी को भी 2014 में निकाल बाहर करना होगा। इलस्ट्रेशन जे.पी. त्रिपाठी

विदेश नीति में मिलिट्री का इनपुट लिया जाए हमारी जो विदेश नीति है, वह बिल्कुल नाकाम साबित हो चुकी है। छोटा-सा देश श्रीलंका और मालदीव से लेकर बड़ा-सा देश अमेरिका को संभाल नहीं पा रही है। उसका कारण यह है कि हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन की पिछली दस साल से जारी सरकार ने चीन और पाकिस्तान की हरकतों पर बहुत ही कमजोर सिग्नल दिया है। इससे दुश्मनों के हौसले बुलंद हो चुके हैं और वे हमारे सैनिकों के सिर काट रहे हैं, तो कोई सरजमीन पर अपना तंबू गाड़ रहा है। सबसे बड़ी सामरिक चुनौती यह है कि चीन और पाकिस्तान भारत के खिलाफ एक हो गए हैं। इनके साथ लगी सीमाओं पर बहुत ज्यादा तनाव है। अंतरराष्ट्रीय फोरम में ये दोनों ही देश मिलकर भारत के खिलाफ अभियान चलाते हैं। हमारी डिप्लोमैटिक कोर उससे पूरी तरह निपटने में नाकाम है क्योंकि जो प्रोफेशनल मिलिट्री है, उससे राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में इनपुट नहीं लिया जाता। विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री सोचते हैं कि सिर्फ बातचीत से बड़ी कामयाबी हासिल हो जाएगी। लेकिन किसी भी देश की विदेश नीति की सफलता के लिए उसके दो पैर होने चाहिए। एक, आर्थिक शक्ति, जिसे भारत धीरे-धीरे हासिल करता जा रहा है। दूसरा है-सैन्य क्षमता और शक्ति जो दिन ब दिन गिरती जा रही है। अगर सैन्य क्षमता को विदेश नीति के साथ जोड़ दिया जाए तथा सैन्य क्षमता में इजाफा किया जाए तो दूसरे देशों बहुत सोच समझ कर हमारे साथ बातचीत करेंगे। इस देश में कहा गया था कि अगर कोई एक गाल पर मारता है तो दूसरा गाल आगे बढ़ा देना चाहिए। लेकिन ऐसी बातें केवल सिविल समाज में बहुत अच्छी और बहुत रोमांटिक लगती हैं। हमारी विदेश नीति का सबसे बड़ा बिन्दु यह होना चाहिए कि पहला तमाचा तो मारने वाले की गलती है जबकि उसका दूसरा तमाचा अगर हम पर पड़ा तो हमारी गलती है।

सुरक्षा के सार तत्व सीमा पर हलचलें और उस दबाव से निबटने लायक सेना का आधुनिकीकरण नहीं। यह काम तीन-चार दशकों से अटका पड़ा 2014 की पहली सबसे बड़ी चुनौती हमारे सामने चीन से आ रही है। चीन हमारा मु ख्य प्रतिद्वंद्वी है और वह निरंतर अपने को ताकतवर कर रहा है पाकिस्तान की इंटेलीजेंस एजेंसी, आर्मी और उसकी पूरी सरकार इस लक्ष्य के मद्देनजर भारत के खिलाफ गुप्त रूप से कई सारे ऑपरेशन चला रहीं सीमाओं की अखंडता बरकरार रहे और हमारी सेनाएं देश की सुरक्षा और सीमाओं की रक्षा डटकर कर सकें; इसके लिए अपने रक्षा उद्योग को भी उन्नत और आधुनिक बनाना होगा रक्षा क्षेत्र संबंधी सार्वजनिक क्षेत्र के निकाय कुछ भी ढंग का बना पाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। इसलिए हमें 2014 में एक नया मॉडल ढूंढने की जरूरत है जिसमें निजी क्षेत्र की भूमिका हो सैनिक सामान और हथियार बनाने वाली कम्पनियों के साथ सांठगांठ कर उनसे तकनीक पाने पर जोर देना चाहिए। इसमें दोनों ही पक्षों के लिए फायदेमंद फार्मूला निकलता है अगर सैन्य क्षमता को विदेश नीति के साथ जोड़ दिया जाए तथा सैन्य क्षमता में इजाफा किया जाए तो दूसरे देश बहुत संभल कर हमारे साथ बातचीत करेंगे